Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसमकरणम् ]
पशमो मागः
कपडमिट्टी करके मुम्बा लें। इसे नीवाग्निमें पकायें। शुद मनसिल और सिन्दूर वरावर बराकर इस प्रकार ३ पुट देनेसे स्वर्णको निरुत्थ भस्म ले कर दोनोंको एकत्र मिला कर आकके दूधकी हो जाती है।
७ भावना दें। हरेक भावनाके पश्चात् अच्छी तरह ' (८३५१) स्वर्णमारणम् (२) सुखाने रहना चाहिये। ( मा. प्र. पू. सं. १ : आ. वे. प्र.। अ. ११) तदनन्तर १ माग स्वर्णको गला कर उसमें काश्चनारप्रकारेण लाली इन्ति कानमा १ भाग उपरोक्त मिश्रण डाल दें और तीवाग्नि पर ज्वालामुखी तथा हन्याद्ययान्ति मनःशिला रख कर इतना धमाव कि वह मनसिल आदिका
। मिश्रण अदृश्य हो जाय । इसो प्रकार यह मिश्रण जिस प्रकार कचनारकी छाल से स्वर्ण भस्म ।
३ बार मिला कर मानेसे स्वर्णकी भस्म हो मनाई जाती है ( देखो प्र. सं. ८३५०) उसी : प्रकार लांगली और जाननामुम्बासे भी बनाई
__ स्वर्ण, शीतल, वृष्य, बलवर्द्धक, भारी, रसा__स्वर्मा, मनसिलके बोगसे भी मर जाता है। पिच्छिल, पवित्र, हग, नेत्रोंके लिये हित( मनसिल को नीबूके रसमें घोट कर स्वर्ण पत्रोंपरा , मेवा वर्द्धक, बुद्धि वर्दक, स्मृति वर्दक, लेप करें और शाव-सम्पुटमें क्द करके लघु .. लिये हितकारी, आयु वईक, कान्तिकारक, पुरमें फूक दें।)
| बागी शाधक, तथा स्थावर और जंगम विष ___ (८३५२) स्वर्णमारणम् (६)
नाशक एवं भय, उन्माद, त्रिदोष, चर और
शाषको नष्ट करने वाला है । उसमें मधुर, ( मा. प्र. । . बं. १ : आ. के. प्र.। अ.
' तिक्त और कपाय रस होता है । पाकमें ११ : र. ग. मु. : शा. घ.)
स्वादु है। भिलामिन्दुग्योश्चून समयोरर्कदुग्यकैः ।। समया भावनां दद्याच्छोपयेच पुनः पुनः॥
(८३५३) स्वर्णमारणम् (७) ततस्तु गलिते इम्नि कल्कोऽयं दीयते समः। (र. प्र. मु. । अ. ४) पुनर्धमेदतितरां यथा कल्को बिलीयते ॥ लोहपर्पटिका कई मृतं नृतं समांशकम् । एवं वेलावयं दद्याकलं हेममनिर्भवेत् । विदुने हेम्नि निक्षिप्त स्वर्ण भूतिप्रभं भवेत् ॥ मुवर्ण शीतलं वृष्यं बल्यं गुरु रसायनम् । तदस्म पूरतोयेन दरदन समन्वितम् । स्वादु तिनं च तुवरं पाके च सादु पिच्छिलम् । मईयेहिनमेकं तु सम्पुटे धारयेत्तनः ॥ पवित्रं इणं ने मेधाम्मृतिपनिषदम्॥ पुटिनं दशवारेण स्वर्ण सिन्दरसन्निभम् । इयमायुष्करं कानिवाग्विदिस्थिरत्वकृत। जायते नात्र सन्देहो रञ्जनं कुरुते ध्रुवम् ॥ विषद्वयक्षयोन्मादत्रिदोषचरशोपनिन् ।॥ दे लोहं च मनिमान मुचनो साधयेद्ध्वम् ।।
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