Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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चूर्णमकरणम् ]
पञ्चमाः
४४१
प्रातःकाल हल्दी ( ३ माशा ) चूर्णको विवातकफपित्तानामानुलोम्येन निर्मले । शहदके साथ सेवन करने से २० प्रकारके प्रमेह : गुदेऽशांसि प्रशाम्यन्ति पावकश्चाभिवर्द्धते ॥ अवस्य नष्ट हो जाते हैं ।
(८४५३) हरिद्राचं चूर्णम् ( वैद्यामृत । विषय ३५ )
गोमूत्रेण निशाचूर्ण सगुडं यः पिबेत्सखे । वर्षोत्थं श्लीपदं तस्य दद्रु कुष्ठं च नश्यति ॥ हल्दीके ( ३ - ४ माशा ) चूर्णको गुड़में मिला कर गोमूत्र के साथ सेवन करने से १ वर्षका पुराना श्लीपद और दाद तथा कुष्ठ रोग नष्ट हो जाता है।
(८४५४) हरिद्रावर्तनम् ( ग. नि. । कुष्टा. ३६ )
निशासुधारग्वधकाकमाचीपत्रैश्च दावप्रपु भाटबीजैः । तक्रेण पिष्टैः कटुतैलमित्रैः पामादिषूद्वर्तनमेतदिष्टम् ||
हल्दी, थूहर (स्नुही) का दूध, अगलतास के पत्ते, मकोय के पत्ते, दारूहल्दी और पंवाड़ के बीज समान भाग ले कर चूर्ण बनावें ।
इसे टाळके साथ पीसकर सरसों के तेलमें मिला कर मालिश करने से पामा आदि का नाश होता है।
(८४५५) हरीतकीयोगः (१) ( च. सं. । चि. ६ अ. ९ ) गुडां पिप्पलीयुक्तां घृतभृष्टां हरीतकीम । त्रिन्तीयुतां वापि भक्षयेदानुलोमिकीम् ।।
પદ
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हर्रको घी में भूनकर चूर्ण करें और फिर उसमें उसके बराबर पीपलका चूर्ण या निसोत और दन्तीमूलका चूर्ण मिला कर, गुड़में मिला कर सेवन करने से मल, वायु, कफ और पित्त स्वमार्गगामी होते और गुदा निर्मल हो जाती है तथा अर्शका नाश हो जाता है I
( मात्रा - ३ माशा | )
(८४५६) हरीतकीयोग: ( २ ) ( भै. र. । वृद्धय : व. से. । अन्त्रवृद्रय ) etani मूत्रसिद्धां सतैां लवणान्विताम् । प्रातः प्रातरच सेवेत कफवातामयापहाम् ॥
हर्रोको गोमूत्र में पका कर चूर्ण करें । ( ३ माशे) इस चूर्ण में ( १ माशा ) सेंधानमक और तिलका तेल मिला कर प्रातःकाल सेवन करनेसे कफवातज वृद्धिका नाश होता है ।
(८४५७) हरीतक्यादिकल्कः (१)
( ग. नि. । ऊरुस्तम्भा. २१ ) हरीतकी च चव्या च चित्रको देवदारु च । कल्कं मधुयुतं पीत्वा ऊरुस्तम्भाद्विमुच्यते ॥
हर्र, चव, चीतामूल और देवदारु समान भाग ले कर सबको पत्थर पर पानीके साथ पीसकर शहद में मिलाकर पीने से ऊरुस्तम्भ रोग नष्ट हो जाता है ।
मात्रा - ६ माशे । )
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