Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy

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Page 512
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org पञ्चमो भागः रसप्रकरणम् ] सुखाकर अरण्य उपलों (वन कण्डों ) में फूंक दें। इसी प्रकार ८ पुट दें । ( हर बार सिलका लेप कर लेना चाहिये । ) तदनन्तर उस हीरे को तपा तपा कर १०० बार शुद्ध पारद में बुझावें । ४९७ कुलथीके क्वाथ में हींग और सेंधा नमकका . शरावांमें मन | चूर्ण मिलाकर उसमें हीरेको तपा तपाकर २१ बार बुझाने से ही रेकी भस्म हो जाती है । इस विधि से हीरेकी अवश्य ही वारितर भस्म हो जाती है 1 (८६४२) हीरकमारणम् (४) ( भा. प्र. पू. अ. १ ) मेषशृङ्गास्यि कूर्मपृष्ठाम्लवेतसम् । शशदन्तं समं पिष्ट्वा वचीक्षीरेण गोलकम् ॥ कृत्वा तन्मध्यगं वज्रं म्रियते ध्मातमेव हि । आयुः पुष्टिं बलं वीर्य वर्ण सौख्यं करोति च सेवितं सर्व रोगनं मृतं वज्रं न संशयः ॥ । भेड़का सींग, सांपकी हड्डी, कछुवेकी पीठकी हड्डी, अमलबेत और खरगोशका दांत समान भाग लेकर चूर्ण करके सेहुंड के दूधमें खरल करें और उसका गोला बनाकर उसमें ही रेको रखकर ध्मावें । इस विधि से हीरकी भस्म हो जाती हैं। हीरा - भस्म, आयुवर्द्धक, पौष्टिक, बलवीर्यवर्द्धक, वर्णदायक और सर्वरोग नाशक है । (८६४३) हीरकमारणम् (५) ( भा. प्र. पू. खं. १ ; यो. र. र. चं. ; आ. वे. प्र. अ. १३ ; शा. सं. । खं. २ अ. ११ ) हिङ्गुसैन्धवसंयुक्ते क्षिपेत्क्वाथे कुलत्थजे । तप्तं तप्तं पुनर्वजं भवेद्भस्म त्रिसप्तधा ॥ ૬૩ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८६४४) हीरकमारणम् ( ६ ) (रसे. सा. सं. ; शा. सं. । खं. २ अ. ११ ; आ. वे. प्र. । अ. १३ ; र. मं. ) मण्डूकं कांस्यजे पात्रे निगृह्य स्थापयेत्सुधीः । सभीतो मूत्रयेत्तत्र तन्मूत्रे वज्रमावपेत् ॥ तप्तं तप्तं च बहुधा वज्रस्यैवं मृतिर्भवेत् ॥ एक मेंढक को पकड़कर कांसीके पात्र में रक्ख वह भयभीत होकर मूत्र त्याग कर देगा । उस मूत्रको पृथक् पात्रमें लेकर उसमें हीरेको तपा तपा कर बहुत बार बुझानेसे ही की भस्म हो जाती है । (८६४५) हीरकशोधनम् (१) ( शा. सं. । खं. २ अ. ११ ) तप्तं तप्तं तु तद्वज्रं खरमूत्रनिषेचयेत् । पुनस्ताभ्यं पुनः सेच्यमेवं कुर्यात्त्रिसप्तधा ॥ हरेको तपा तपाकर २१ बार गधेके मूत्र में बुझानेसे वह शुद्ध हो जाता है । (८६४६) हीरकशोधनम् (२) ( भा. प्र. पू. खं. १ ; आ. वे. प्र. | अ. १३) गृहीत्वाहि शुभे वज्रं व्याघ्रीकन्दोदरे क्षिपेत् । महिषीविष्ठया लिप्त्रा करीषान्नौ विपाचयेत् ॥ त्रियामायां चतुर्यामं यामिन्यन्तेऽश्वमूत्रके । सेचयेत्पाचयेदेवं सप्तरात्रेण शुद्धयति ॥ हीरको शुभ दिन में कटेली की जड़के भीतर रखकर उसके मुखको उसीके ( कटेलीकी जड़के ) For Private And Personal Use Only

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