Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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गुग्गुलुपकरणम् ]
पञ्चमो भागः
१८१
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धनिया, शतावर, खरैटी, सोया, काला विधारा, हरं, इन्हें शहद और घीके साथ मिला कर सेवन सोंठ, गिलोय, कचूर, अमलतासके फलकी मज्जा, | करनेसे समस्त धातुगत वायु, शिर, स्नायु, सन्धि गोखरु, पुनर्नवामूल, मूर्वा, कुटकी, पीपलामूल, | और अस्थिगत वायु; आमवात, निराम वायु, कफभरंगी, विदारीकन्द, मुण्डी, हस्तिकर्णी (कासाल), युक्त वायु, क्षय, अग्निमांद्य, धातुगत ज्वर; गुल्फ, अजमोद, काकड़ासिंगी, रुद्राक्ष, मूसली, रेणुका, | जानु, उरु, कटि, उदर, हृदय, कुक्षि, कक्षा, काकोली, जीरा, काला जीरा, निसोत, दन्तीमूल, स्कन्ध, मन्या, हनु, श्रोत्र, भ्र, ललाट, नेत्र और चित्रकमूल, अतीस, तालमखाना, धमासा, वृहत्पंच- शंख प्रदेश (कनपटी), इनकी वायु; प्रमेह, मूत्रमूल (बेल, अरलु, खम्भारी, पाढल और अरनी; कृच्छ, शूल, आध्मान, अश्मरी और मेद वायुका इनकी जड़की छाल ), अर्जुनछाल, कूठ, अगर, | नाश होता है। जावत्री, जायफल, इलायची, नागकेसर, दालचीनी, दिनों दिन क्षीण होते हुवे एक शिष्यके चिरायता, केसर, लौंग, इन्द्रायणकी जड़, सेंधानमक, 3 बार बार प्रार्थना करने पर भोजराजने यह प्रयोग हल्दी, सफेदआकको जड़, बायविडंग, सत्यानासी
बतलाया था। ( स्वर्णक्षीरो की जड़, हुलहुल, गजपीपल, अपा- इसे एक वर्ष तक सेवन करनेसे नपुंसक भी मार्ग (चिरचिटा), कौंचके वीज और करन मूल
कामिनी-वल्लभ हो जाता है। १-१ भाग, रास्ना इन सबके बराबर और
इसके सेवन कालमें खान पान और मैथु कीकरकी फली दो गुनी तथा कीकरकी फली
नादिमें विशेष परहेज की आवश्यकता नहीं है। समेत सम्पूर्ण ओषधियों के बराबर शुद्ध गूगल
(षट् कटु गूगलसे २ गुना ले कर उसे एवं पारद, गन्धक, हिंगुल, सुहागेकी खील,
१६ गुने पानीमें पका कर चौथा भाग रहने पर लोह भस्म, अभ्रक भस्म, ताम्र भस्म, वंग |
छान कर उसमें गूगल मिला कर पकाना चाहिये। भस्म, पारद भस्म, सीसा भस्म और लोह भस्म;
यदि शुद्ध गूगल डाला जाय तो पुनः छाननेकी ये सब औषधे समान भाग मिलित गूगलसे चतु
आवश्यकता नहीं रहती । व्यवहारिक मात्रा-१ थांश ले कर प्रथम पारे गन्धकको कज्जली बनावें
माशा ।) और फिर गूगलको षटकटु ( पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सेठ तथा काली मिर्च ) के ४ गुने
(७७५०) षडूषणगुग्गुलु: ( आठ गुने ) काथमें पकावें । जब चथुर्थाश काथ। ( यो. र. । मेद.; वृ. यो. त.। त. १०७ ; शेष रह जाय तो उसे छान कर उसमें उपरोक्त - वृ. नि. र. । वृद्धय.) सम्पूर्ण काष्ठादि ओषधियों का चूर्ण और भस्में षडूषणं क्षौद्रसमं गुग्गुलुं गव्यसर्पिषा। मिला कर पुनः मन्दाग्नि पर पकायें। जब गाढ़ा प्रयुक्तं कुट्टय भुजीत यथामि दिवसानने ॥ हो जाय तो ११-११ तोलेकी गोलियां बना लें। | कटुतिक्तकषायाशी मेदोवृद्रिमणाशनम् ।
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