Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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३१४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[सकारादि (८१४९) सप्तामृतलौहम् (१) हरं, बहेड़ा, आमला और मुलैठी; इनका
( सर्वचूर्णसमं लौहम् , सप्तामृत गुटी) चूर्ण तथा लोहभस्म और शहद एवं घी १-१ (र. चं. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ; च. द.।
| भाग ले कर सबको एकत्र मिला कर सायंकालके शूला. ; रसे. चि. म. म. ९ र. का. धे.।। समय सेवन करनेसे तिमिर, क्षत ( नेत्रका घाव ), नेत्ररोगा. ; भै. र.। शूला. , नेत्ररोगा. ; . लाल रेखाएं, नेत्रोंकी खाज, रात्र्यान्ध्य (स्तौंधा), यो. र. । नेत्ररोगा. ; वृ. नि. र.। । नेत्रार्बुद, नेत्रतोद, नेत्र-दाह, नेत्रशूल, पटल, काच
नेत्ररोगा. ; यो. चि. म. । अ. ३) और पिल्लादि नेत्ररोगांका नाश होता है। त्रिफलारज आयसचूर्ण
यह प्रयोग केवल नेत्ररोगांको ही नष्ट नहीं सह यष्टीमधुकं समांशयुक्तम् ।। करता बल्कि दन्त, कर्ण और गलेसे ऊपर उत्पन्न मधुना सर्पिषा दिनान्ते
होने वाले रोगोंमें भी श्रेष्ठ है । यह पलित रोगको पुरुषो निष्परिहारमाददीत ॥ नष्ट करता है और बहुत समयकी पुरान तिमिरक्षतरक्तराजिकण्डू
मन्दाग्निको अत्यन्त तीक्ष्ण कर देता है। क्षणदान्ध्यार्बुदतोददाहशुलान् । इसे सेवन करनेसे कामशक्ति अत्यधिक बढ़ पटलं सह काचपिल्लक
जाती है ; मुखकान्ति शोभायमान हो जाती है। शमयत्येव निषेवितः प्रयोगः॥ बाल अत्यन्त काले हो जाते हैं और दृष्टि गृध्रके न च केवलमेव लोचनानां
समान तीक्ष्ण हो जाती है। इसे सेवन करने विहितो रोगनिबर्हणाय धुंसाम् । | वालेको १०० वर्षको सुखपूर्ण आयु प्राप्त होती है। दशनश्रवणोर्ध्वकण्ठजानां
( मात्रा-१ माशा) प्रशमे हेतुरयं महागदानाम् ॥
(८१५०) सप्तामृतलौहम् (२) पलितानि विनाशयेत्तथानि
(वृ. यो. त. । त. ७६) चिरनष्टं कुरुते रविप्रचण्डम् । दयिताभुजपअरोपगृहा
| मधुताप्यविडवाश्मनतुलोहतामयाः । स्फुटचन्द्रभरणासु यामिनीषु ।
| घन्ति यक्ष्माणमत्युग्रं सेव्यमाना हिताशिना ॥ मुरतानि चिरं निषेवतेऽसौ
___शहद, स्वर्णमाक्षिक-भस्म, बायबिडंगका पुरुषो योगवरं निषेवमाणः॥ चूर्ण, शुद्ध शिलाजीत, लोह-भस्म, घी और कूठका मुखेन नीलोत्पलचारुगन्धिना
चूर्ण समान भाग ले कर सबको एकत्र मिलाकर शिरोरुहैरञ्जनमेचकमभैः ।
सेवन करने और पथ्य पूर्वक रहनेसे अत्युम यक्ष्मा भवेच्च गृध्रस्य समानलोचनः
रोग भी नष्ट हो जाता है। मुखैनरो वर्षशतश्च जीवति ॥ (मात्रा-१ माशा।)
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