Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसंपकरणम् ]
पश्चमो भागः गुटिका बदराकरा भसिता रोगनाशिनी। अनेनाशीतिवर्षोऽपि शतधा रमते स्त्रियाः। इयं सिद्धवटी नाम सन्निपातं नियच्छति ॥ ऊर्ध्वलिङ्गः सदा तिष्ठेत् कामदेव इव स्वयम् ॥ पूर्वोक्तनानुपानेन सन्निपातं नियच्छति ॥ ज्वरादिरोगनिर्मुक्तः संसारसुखमश्नुते ।
__शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, बकायनकी छाल, माघमेकन्तु कर्त्तव्यं, दुग्धमत्रानुपानकम् ॥ सेंधा नमक और नवजात बालककी विष्ठा समान विदारीकन्द, मूसली, आमला और पुनर्नवाभाग ले कर प्रथम पारे गन्धकको कजली बनावें। मूल इनका चूर्ण ४-४ भाग तथा शुद्ध गन्धक २
और फिर उसमें अन्य औषधोंका चूर्ण मिलाकर भाग और शुद्ध पारद १ भाग ले कर प्रथम पारे सबको अच्छी तरह खरल करें और ब्राह्मीके रसमें | मन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें अन्य घोट कर बेरके समान गोलियां बनावें।
ओषधियोंका चूर्ण मिला कर सफेद सेभलकी जड़के इन्हें पूर्वोक्त* अनुपानके साथ सेवन करनेसे |
रसमें तथा भैसके दूधमें पृथक् पृथक् सात सात सन्निपात नष्ट होता है।
दिन खरल करके सुखा लें।
- इसे शहद तथा घीके साथ सेवन करनेसे (८२२३) सिद्धशाल्मलीकल्पः
कामशक्ति इतनी बढ़ जाती है कि ८० वर्षका ( भै. र. । वाजिकरणा.) वृद्ध भी एकही समय में १०० बार स्त्री समागम भूकूष्माण्ड तालमूली धात्री चैव पुनर्नवा । कर सकता है। इसे सेवन करने वालेका लिंग समभागं समाहृत्य भागाई गन्धकं तथा ॥ कभी शिथिल नहीं होता और वह ज्वरादि रोगोंसे तदर्दै पारदं शुद्ध कज्जलीकृत्य निक्षिपेत् ।। | मुक्त हो कर सांसारिक सुखोंका उपभोग करता श्वेतशाल्मलीतोयेन सप्तधा भावयेत्पुनः ॥ । है । इसे १ मास तक सेवन करना आवश्यक है। माहिषेण च दुग्धेन तच्चूर्ण भावयेत् पुनः ।। अनुपान -दूध । शुष्कं तच्चूर्णयेद् यत्नाल्लेहयेन्मधुसर्पिषा (मात्रा-६ रत्ती।) *मालूम नहीं कि " पूर्वोक्त" शब्दसे किस
(८२२४) सिडसावरयोगः रसकी ओर संकेत किया गया है । हमने यह
( र. का. धे. । अशॉ.) प्रयोग रसराजसुन्दरसे लिया है, उसमें इससे मृताभ्रं विंशतिपलं मृतलोहस्य पञ्चकम् ।. पूर्व विश्वमूर्ति रस है, जिसका अनुपान इस प्रकार गन्धकस्य पलपश्च त्रिभोद्वगुणमाक्षिकम् ॥ लिखा है:
पथ्या शतपलं योज्यं धात्री पल शतद्वयम् । “ अदरकके रसमें औषध खिला कर ऊपरसे सर्वमेकत्र सञ्चूर्य जम्बीरैर्भावयेदिनम् ॥ आकको जड़के क्वाथमें काली मिर्चका चूर्ण मिलाकर भृङ्गीपुनर्नवादावैः पातालगरुडांशकैः । पिलाना चाहिये।"
। भल्लातवनिकोरण्ठं हस्तिशुण्डा च लागली ॥
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