Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसपकरणम् ] पश्चमो भागः
३६९ रक्तभैषजसम्पन्मृिन्तिोऽपि हि जीवति । । शुलवं विषं तथा चाभ्रं खल्वे मयं मुहुर्मुहुः । तथैव सर्पदष्टस्तु मृतावस्थोऽपि जीवति ॥ सेवनाच विलीयन्ते सन्निपातास्त्रयोदश । यदा तापो भवेत्तस्य मधुरं तत्र दीयते ॥ मूचिकाभरणो नाम नैव देयो ह्यमूर्छिते । ___ शुद्ध बछनाग ५ तोले और शुद्ध पारद ३॥
अस्योपयोगमात्रेण सन्निपाती भयङ्करः ॥ माशे ले कर दोनेांको एकत्र मिला कर खरल करें। स्वस्थः स्यादचिरेणैव संशयावसरो न हि ॥ तदनन्तर दो ऐसे शराव लें कि जिनके भीतर किसी भी विधिसे बनाई हुई पारद-भस्म काच च या हुवा हो और उनमें उपरोक्त औषध १ भाग, ताम्र भस्म १ भाग, शुद्ध बछनाग १ बन्द करके ३-४ कपरमिट्टी कर दें और उसे भाग और अभ्रक भस्म १ भाग ले कर सबको सुखा कर चूल्हे पर चढ़ा कर उसके नीचे २ पहर | एकत्र मिला कर कई दिन तक खरल करें। तक मन्दाग्नि जलावें । तदनन्तर उसके स्वांग यह रस १३ प्रकारके सन्निपातोंको नष्ट शीतल होने पर शरावोंको आहिस्तासे खोल कर | करता है । इसे देनेसे भयंकरसे भयंकर सन्निपात ऊपरके प्याले में लगे हुवे रसको सावधानीसे छुड़ा | भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । इसे केवल मूर्छिलें। इसे ऐसी शीशीमें रखना चाहिये कि औषधको तावस्थामें ही देना चाहिये । रोगी मूर्छित न हो तो हवा न लगे।
यह रस न देना चाहिये। जब रोगी सन्निपात या सर्पविषसे मूछित
(८२५२) सूचिकाभरणरसः (३) हो तो उसके शिर पर (तालु पर) छुरेसे त्वचाको
(वृ. यो. त. । त. ५९ ; र. का. धे. ; र. ज़रा खुरच दें और सुईकी नोकसे शीशीमेंसे औषध निकाल कर उस स्थान पर मल दें। सुईकी
रा. सु. । ज्वरा.) नोक पर जितनी औषध लगजाए उतनी ही पर्याप्त खण्डं कृत्वा विषं कृष्णं सार्कदुग्धेऽल्पभाण्डके। होती है।
सकाधिके सगरले क्षिप्त्वा चुल्ल्यां निधापयेत्।। ___ रक्तके साथ औषधका सम्पर्क होते ही सप्ताहतः समुद्धृत्य श्लक्ष्णचूर्णीकृतं च तत् । मृठित रोगी भी सचेत हो जाता है। इसके प्रभावसे | मूचिकामरणो नाम रसो गुप्ततपो भुवि ।। सर्पदष्ट मृतप्रायः रोगी भी जीवित हो जाता है। सज्ञानाशे विचेष्टे च वल्लः काभिकपेषितः ।
" किमी करे तो मधर ब्रह्मरन्ध्र प्रयोक्तव्यो महामोहप्रणाशनः ।। पदार्थ खिलाना चाहिये।
काले बछनागके टुकड़े करके उसे एक छोटी (८२५१) सूचिकाभरणरसः (२) डाण्डीमें डालें और उसमें (उससे चार गुना) आकका
(र. चि. म. । स्त. ८) दूध और उतनी ही कांजी तथा बछनागके बराबर येन केनाप्युपायेन भस्मीभूतो भवेद्रसः ।। | सर्प विष मिला कर मुख बन्द कर दें और उस पर तच्चूर्ण वस्त्रगलितं तेनैव मिश्रयेसुधीः ॥ कपरमिट्टी करके चूल्हे में गढ़ा खोदकर दबा दें कि
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