Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ सकारादि ततः संशोष्य सञ्चूर्ण्य क्षिपेद्वरकरण्डके। शुद्ध पारद १ भाग, शुद् गन्धक २ भाग, सञ्जीवनोयं खलु वल्लमानो निशाकुलीचूर्णयुतः अभ्रक भस्म १ भाग तथा जवाखार, सज्जीखार,
सतक्रः॥ सुहाला, जीरा, सोंठ, मिर्च, पीपल, हर, बहेड़ा, निहन्ति सर्वानपि मेहरोगान् आमला और पांचों नमक; इनका चूर्ण १-१
नृणां नितान्तं कुरुते क्षुधां च ॥ भाग ले कर प्रथम पारे--गन्धककी कज्जली बनावें ५ तोले शुद्ध सीसेको पिघला कर उसमें ५ | और फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर सबको तोले पारद मिलावें और फिर उसे ऊर्ध्वपातन १ दिन चीतामूलके काथमें खरल करके ५-५ यन्त्रमें ३० बार पातन करें । तदनन्तर उसकी | रत्तीको गोलियां बना लें। भस्म बनावें । फिर उसमें उसके बराबर राजावर्त
यह रस सन्धिक सन्निपातको नष्ट करता है। भस्म और उसका आठवां भाग सीसेकी निरुत्थ भस्म मिला कर नीमके पत्तोंके रसकी ३० भावना
(८१२९) सन्धिवातारिगुटिका दें और अन्तमें सुखा कर चूर्ण करके सुरक्षित
(र. चं. । शूला.) रक्खें ।
दुग्धेन वटिका कार्या बोलहिङ्गलगुग्गुलैः । मात्रा-२ रत्ती।
हरेद्वातव्यथां सवी सन्धिवातं च दुःसहम ॥ इसे हल्दी और चवके चूर्णके साथ मिलाकर
बोल, शुद्ध हिंगुल और शुद्ध गूगल समान तक्रके साथ सेवन करनेसे समस्त प्रमेह रोग नष्ट
भाग ले कर सबको दूधके साथ खरल करके (३-३ होते और अत्यन्त क्षुधावृद्धि होती है ।
रत्तीकी) गोलियां बना लें। सज्ञाप्रबोधनरसः
इनके सेवनसे समस्त वातव्याधियों और कष्ट. (र. सं. क. । उल्ला. ५)
साध्य सन्धिवातका नाश होता है । अञ्जनप्रकरणमें देखिये।
(८१३०) सन्निपातकुठाररसः (८१२८) सन्धिकारिरसः
( र. र. स.। उ. अ. १२ ; र. चं. । ज्वरा. ) (सन्धिगारीग्सः ) (वृ. नि. र. ; र. रा. सु. । सन्निपाता. ;
वजनागं च सूतं च नेपालं गन्धकं तथा । र. का. धे. । ज्वरा.)
शुल्वं विषं समांशेन रसेनाइँण मर्दयेत् ॥ शुद्धं सूतं द्विधा गन्धं मारितं चाभ्रकं समम् ।
पुनमर्धेत निर्गुण्डथाश्चाङ्गेर्या रसमर्दितः । त्रिक्षारं जीरकं व्योषं त्रिफला लवणैः समम्।।
| एकवल्लपयोगेण रसोऽयं सन्निपातनुत । चित्रकस्य कषायेण दिनैकं मर्दयेद् दृढम् ।। १ पाठान्तरके अनुसार गन्धक समान पञ्चगुअमिदं खादेत्सन्धिकारिरसः स्मृतः॥ | भाग है।
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