Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसपकरणम् ]
पश्चमो भागः
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(७५४९)शसवटी (२) चिश्नाशङ्खचतुर्गुणं रसबरे लिम्पाकजाते कृतम् ।
(वृ. यो. त. । त. ७१) बारम्बारमिदं सुपाकरचितं लोहं क्षिपेद्धिक शझं सात दिनानि निम्बुकरसे निर्वाप्य तप्तं पल- भृष्टं वासमं सुमर्दितमिदं गुनाप्रमाणा भवेत् ।। द्वन्द तिन्तिणिभूतिका पलमिता सार्दै च सौव- ख्याता शङ्खयटी महामिजननी शूलान्तकृत् चलात्
पाचनी सिन्धृत्याच्च पलं समुद्रलवणं काचादिडा कासश्वासविनाशिनी क्षयहरी मन्दाग्निसन्दीपनी
चैकतो गधाणास्त्रिकटोनव द्विगणिता एतद्धिया योजयेत वातव्याधिमहोदरादिशमनी तृष्णामयोच्छेदिनी। अष्टौ रामठ गन्धयोमिलितयोगद्याणकः पारदा
सर्वव्याधिविनाशिनी कृमिहरी दुष्टामयध्वंसिनी॥ च्चत्वाराऽत्र विषस्य पञ्च कथिताः कोलास्थि
जवाखार, सज्जीखार, शुद्ध पारा, शुद्र गंधक,
मात्रा कृता। सेंधा नमक, सांठ, मिर्च, पीपल और शुद्ध बछनाग एषा शङ्खवटी निहन्ति पवनं शूलान्यजीर्णामयं । (मीठा विष) एक एक भाग, इमलीका खार ४ मन्दामित्वमरोचकं प्रशमयेन्मूत्रस्य कृच्छ्राण्यपि भाग, तपा तपा कर नीबूके रसमें बार बार
१० तोले शंखको तपा तपा कर बार बार बुझा कर भस्म किया हुवा शंख ४ भाग तथा नीबूके रसमें बुझावें । जब उसकी भस्म हो जाय
उत्तम लोह भस्म, घोमें भुनी हुई हींग और बंग तो उसे नीबूके रसमें ही सात दिन तक पड़ा रहने
भस्म १-१ भाग ले कर प्रथम पारे गन्धकको दें । तदनन्तर ५ तोले इमलीका क्षार, ७॥ तोले । संचल (काला नमक); ५-५ तोले सेंधानमक,
| कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधोंका समुद्र लवण, काच लवण और बिड लवण;
चूर्ण मिला कर सबको (नीबूके रसमें) खरल करके
चूण ३॥-३॥ तोले सेांठ, मिर्च और पीपल; २॥२॥ १-१ रत्तीकी गोलियां बना लें। तोले ग और शुद्ध गंधक; २॥ तोले पारद और यह वटी अत्यन्त अग्निवर्द्धक, शुलनाशिनी ३ तोले २॥ माशा शुद्ध बछनाग ले कर प्रथम और पाचनी है । इसके सेवनसे कास, श्वास, क्षय, पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अग्निमांद्य, वातव्याधि, उदरवृद्धि, तृष्णा और कृमि अन्य समस्त औषधे गिलाकर सबको नीबूके रसमें आदि अनेक रोग नष्ट होते हैं। घोट कर बेरकी गुठलीके सभान गोलियां बना लें।
(७५५१)शङ्खवटी (१) ___इनके सेवनसे शूल, अजीर्ण, अग्निमांद्य, अरुचि
(चिश्चाशङ्खवटी) और मूत्रकृच्छका नाश होता है।
(यो. २. । गुल्मा.) __(७५५०) शजवटी (३) (भै. र. ; रसे. सा. सं. ; र. रा. सु. ;
चिश्चाक्षारं स्नुहीक्षारमर्कक्षारं पलं पलम् । र. का. धे. । अग्निमांद्या.) द्विपलं शङ्कजं भस्म रामठं च पलार्धकम् ॥ द्वौ क्षारौ रसगन्धको सलवणो व्योपच लवणानि च सर्वाणिं पलमात्राणि योजयेत ।
तुल्यं विषं क्षारद्वयं पलार्धे च सर्वमेकत्र योजयेत् ॥ १४
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