Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ३५७-३७० वर्ष
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
न तो अपना व्रत खण्डित हो और न संघ में कषाय बढ़े । कई ने कहा गुरुदेव ! वरदत्त भद्रिक स्वभाव वाला है उसने तपस्या तो की है पर आज किसी की बहकावट में आकर मन्दिर में स्नान करा रहा है । इसलिये हम सब लोग आपकी सेवा में आये हैं जैसा श्राप फरमावें हम शिरोधार्य करने को तैयार हैं। सूरिजी ने कहा वरदत्त का शरीर निरोग है उसके पूजा करने में कोई भी हर्ज नहीं है। सूरिजी के वहाँ बातें हो रही थीं इतने में वरदत्त सूरिजी को बन्दन करने के लिये आया तो सब लोगों ने देखा कि उसका शरीर कंचन की भाँति निर्मल था । उपस्थित लोगों ने सोचा कि यह सूरिजी महाराज की कृपा का ही फल है । बस, फिर तो था ही क्या सब लोगों ने वरदत्त को धन्यवाद देकर अपने अपने अपराध की माफी माँगी। वरदत्त ने कहा कि मेरे अशुभकर्मोदय के कारण आप लोगों को इतना कष्ट देखना पड़ा, अतः मैं आप लोगों से माफी चाहता हूँ। इतने में व्याख्यान का समय हो गया था सूरिजी ने अपना व्याख्यान प्रारम्भ किया । उस दिन के व्याख्यान में सूरिजी ने चार कपाय का वर्णन करते हुये फरमाया कि क्रोध और मान द्वेष से उत्पन्न होते हैं तथा माया एवं लोभ राग से पैदा होते हैं और राग द्वष संसार के बीज हैं । अन्तानुबन्धी क्रीध मान माया लोभ मूल सम्यवत्त्वगुण की घात करता है । जब अप्रत्याख्यानी क्रोध मान माया लोभ देशतिगुण की रुकावट करता हैं तथा प्रत्याख्यानी क्रोध मान माया लोभ सर्वव्रतिगुणस्थान को आने नहीं देता हैं और संजल का क्रोध मान माया लोभ वीतराग गुण की हानि करता हैं । अब इन चारों प्रकार के क्रोधादि की पहचान भी करवादी जाती है कि मनुष्य अपने अन्दर आये हुए क्रोधादि को जान सकें कि मैं इस समय कौनसी कषाय में बरत रहा हूँ और भवान्तर में इसका क्या फल होगा।
१-अन्तानुबधी क्रोध -- जैसे पत्थर की रेखा सदृश अर्थात् पत्थर की रेखा टूट जाने से पिच्छ। मिलती नहीं है वैसे ही अन्तानुबन्धी क्रोध आने पर जीवन पर्यन्त शान्त नहीं होता है।
२-अन्तानुबन्धीमान-जैसे बत्रका स्तंभसदृश्य अर्थात् बनकास्तम्भ तुटजाता है पर नमता नहीं है। ३-अन्तानुबन्धी माया-जैसे बांस की गंठी अर्थात् बांस के गंठ गंठ में गंठ होती है।
४-अन्तानुबन्धी लोभ--जैले करमचीरंग को जलादेने पर भी रंग नहीं जाता है । इन चारों की स्थिति यावत् जीव, गति नरक की, और हानि समकित की अर्थात् यह चोकड़ी मिथ्यात्वीक के होती है।
५-अप्रत्याख्यानी क्रोध-जैसे तालाब की तड़ जो बरसाद से तड़े पड़ जाती है पर वे एक वर्ष में मिट जाती है । वैसे ही क्रोध है कि सांवत्सरि प्रतिक्रमण समय उपशान्त हो जाता है ।
६-अप्रत्याख्यानी मान -जैसे काष्ट का स्तंभ । ७- अप्रत्याख्यानी माया-जैसे भिंड़ा का सोंग ।
८-अप्रत्याखानी लोभ - जैसे गाड़ा का खंजन । इन चारों की स्थिति एक वर्ष की, गति तिर्यच की, हानि श्रावक के व्रत नहीं आने देता है ।
९-प्रत्याख्यान क्रोध- जैसे गाड़ा की लकीर । १०-प्रत्याख्यान मान-जैसे वेंत का स्तंभा ११-प्रत्याख्यान माया - जैसे बांस की छाती।
१२-प्रत्याख्यान लोभ-जैसे आंखों का काजल । इन चारों की स्थिति चार मास की, गति मनुष्य की, हानि मुनि के पांच महाव्रत नहीं आने देता है।
[ कषाय शान्ति का उपदे
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