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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015
८. वही, पृ. १७२ ९. वही, पृ. १७४/अ. २ का २ १०. सर्वगत्वाप्रतिः पुसः.... कार्यमात्रत्ववेदनात्/ पृ. १७४/का ३ ११. वही १२. विभ्रपुमानमूर्तत्वे....। श्लोकवाति. पृ. १७५/का.४ १३. हेतुरीश्वर बोधेन .... शास्त्रबाधिता/ पृ. १७६/ का.५ १४. गतिमानात्मा क्रियाहेतु .... पृ. १७६ १५. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिका / पृ.१९७/का.३०/५ १६. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिका./पृ.१९८/का.६, ७/सू. ५ १७. महाभारत/वनपर्व/३९/२८
बोधकथाः
काँटे से काँटा निकालें - संत- स्वभाव, फल से लदे वृक्ष के समान होता है। जो उसे पत्थर मारता है, बदले में मीठे फल प्रदान करता है।
संत-पुरुष को जब कोई कठोर वचनों से आघात पहुँचता है, तो वह प्रतिशोध या प्रतिरोध नहीं करता अपितु मीठे वचनों द्वारा उसका परिहार कर देता है।
संत की सरलता और कोमल मन के सामने, प्रतिपक्षी की प्रतिशोध अनल शीतलता में बदल जाती है।
एक बार आचार्य श्री शान्तिसागर जी के पास एक अन्य धर्मावलम्बी आया और धृष्टता पूर्वक कहने लगा- ‘महाराज! आप बन्दर की तरह नग्न क्यों रहते हैं। आचार्यश्री ने शांत स्वर में कहा- यदि पैर में कांटा लग जाये तो उसे दूसरे कांटे से ही निकाल लिया जाता है। हमारा मन भी बन्दर के समान चंचल होता है, उसे रोकने के लिए बन्दर की तरह नग्नता स्वीकार करना आवश्यक है, इससे मन, वश में हो जाता है।
महाराज श्री के इन सयुक्तिक वचनों द्वारा मार्मिक उत्तर सुनकर वह व्यक्ति अत्यन्त प्रभावित हुआ और आचार्यश्री का परम भक्त बन गया। | - बुरा बोल कांटा है, सुबोल से उस कांटे को निकालना संत का स्वभाव है। दि. मुनि/आचार्य के हाथ में पिच्छी, यही संदेश देती रहती है कि मेरी तरह, मुनि भी अपने मन को मृदुल और सुन्दर बनाये रखें।
-साभार- “लोकोत्तर साधक' (कृति) से
प्राचार्य पं. निहालचंद जैन