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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 छूटे हुए बाण के समान मोडरहित गति को इषुगति कहते हैं। इस गति में एक समय लगता है। जैसे हाथ से तिरछे फेंके गये द्रव्य की एक मोड़े वाली गति होती है, उसी प्रकार संसारी जीवों के एक मोड़े वाली गति को पाणिमुक्ता गति कहते हैं। यह गति दो समय वाली होती है। जैसे हल में दो मोड़े होते है, उसी प्रकार दो मोड़े वाली गति को लांगलिका गति कहते हैं। यह गति तीन समय वाली होती है। जैसे गाय का चलते समय मूत्र का करना अनेक मोड़ों वाला होता है, उसी प्रकार तीन मोड़ों वाली गति को गोमूत्रिका गति कहते हैं। यह गति चार समय वाली होती है। यहाँ तक सशरीरी आत्मा के गमन पर विचार किया जो विग्रह गति कहलाती है।
यहाँ यह भी विचारणीय है कि मुक्त जीव और संसारी जीव का गमन कैसे होता है ? इस सम्बन्ध में आचार्य उमास्वामी महाराज ने क्रमशः दो सूत्र दिये हैं, जिसमें अविग्रहा जीवस्य इस सूत्र से समाधान दिया गया है कि मुक्त जीव का गमन बिना मोड़ लिये ही होता है। क्योंकि गति की वक्रता के प्रति होने वाले निमित्त कारणों का अभाव होने से और दूसरी युक्ति दी गयी कि मुक्त जीव के ऊर्ध्वागमन का स्वभाव है।
दूसरा सूत्र दिया गया है कि विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्थ्यः अर्थात् संसारी जीव के चार समय वाली यानी मोड़ वाली भी गति होती है, जो पूर्व में बता दिया गया है। एक समया विग्रहा' इस सूत्र के अनसार बिना मोड़ वाली ऋजुगति एक समय वाली होती है। प्रश्न होता है कि एक समय वाली अविग्रह गति किस की होती है। उत्तर दिया गया कि मुक्त और संसारी होनें की होती है परन्तु यह ध्यातव्य है कि ‘एकं द्वौ त्रीन्वानाहारकः' अर्थात् विग्रहगति में यह जीव एक, दो, तीन समय तक अनाहारक रहता है परन्तु इषुगति वाला संसारी जीव एक समय पूर्व ही अहारक हो जाता है। इस प्रकार छह सूत्रों के माध्यम से विग्रहगति का विस्तार से विवेचन है।
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संदर्भ: १. तत्त्वार्थसूत्र अ. २/२५ ४. स.नि. २/२५/१८२/७ ६. छ. १/१/१? ६०/२९९/९
२. तत्त्वार्थसूत्र पृ. १७१ ३. वही, पृ. संख्या १७२ ५. राजवार्तिक २/२५/१/१३६/३० छ. १/१/६०/११४ ७. तत्त्वार्थश्लोक १७२, पृ. मा. १