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भरा हुआ है, उस घड़े में अपना स्वयं का कुछ भी नहीं है। उसमें जो कुछ भी है वह क्षीरसमुद्र का ही है। यही कारण है कि उस घड़े के जल में भी वही मधुरता होती है जो क्षीरसमुद्र के जल में होती है। इसी प्रकार जो आरातीय आचार्य किसी विशिष्ट कारण से पूर्व-साहित्य में से या अंग- साहित्य में से अंग- बाह्य श्रुत की रचना करते हैं, उसमें उन आचार्यों का अपना कुछ भी नहीं होता। वह तो अंगों से ही गृहीत होने के कारण प्रामाणिक माना जाता है।
आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य" में, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गोम्मटसार" में दशवैकालिक को अंग - बाह्य श्रुत लिखा है। वीरसेनाचार्य ने जयधवला" में दशवैकालिक को सातवां अंग बाह्य श्रुत लिखा है। यापनीय संघ में दशवैकालिकसूत्र का अध्ययन अच्छी तरह से होता था । यापनीय संघ के सुप्रसिद्ध आचार्य अपराजितसूरि ने भगवती आराधना की विजयोदया वृत्ति में दशवैकालिक की गाथाएं प्रमाण रूप में उद्धृत की
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यहां पर यह भी स्मरण रखना होगा कि दशवैकालिक सूत्र की जब अत्यधिक लोकप्रियता बढ़ी तो अनेक श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में दशवैकालिक की गाथाओं को उद्धरण के रूप में उट्टङ्कित किया। उदाहरणार्थ आवश्यक निर्युक्ति, निशीथचूर्णि, ५२ उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति और उत्तराध्ययन चूर्ण' आदि ग्रन्थों को देखा जा सकता है।
दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में दशवैकालिक का उल्लेख व वर्णन होने पर भी पं. नाथूराम प्रेमी ने लिखा है कि आरातीय आचार्य कृत-दशवैकालिक आज उपलब्ध नहीं है और जो उपलब्ध है वह प्रमाण रूप नहीं है ।" दिगम्बर परम्परा में यह सूत्र कब तक मान्य रहा, इसका स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। हमारी दृष्टि से जब दोनों परम्पराओं में वस्त्रादि को लेकर आग्रह उग्र रूप में हुआ, तब दशवैकालिक में वस्त्र का उल्लेख मुनियों के लिए होने से उसे अमान्य किया होगा ।
नामकरण
प्रस्तुत आगम के 'दसवेयालिय ५६ (दशवैकालिक) और 'दसवेकालिय " ये दो नाम उपलब्ध होते हैं । यह
४६. आरातीयैः पुनराचार्यैः कालदोषात्संक्षिप्तायुर्मतिबलशिष्यानुग्रहार्थ दशवैकालिकाद्युपनिबद्धम् । तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णव- जलं घटगृहीतमिव । - सवार्थसिद्धि १/२०
४७. तत्त्वार्थभाष्य १/२०
—गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ३६७
४८. दसवेयालं च उत्तरज्झयणं ।
४९. कषायपाहुड ( जयधवला सहित ) भाग १, पृ. १३ / २५
५०. मूलाराधना, आश्वास ४, श्लो. ३३३, वृत्ति पत्र ६११
५१. देखें आवश्यकनियुक्ति गा. १४१, वृ. पत्र १४९
५२. निशीथचूर्णि – १ / ७, १/१३, १/१०६, १/१६३, २/१२५, २/२६, २ / ३५९, २/३६३, ३/४८३, ३/५४७, ४/३१,
४/३२, ४/३३, ४/१४३, ४/१५७, ४/२७२
५३.
उत्तराध्ययन वृहद्वृत्ति— १/३१, वृत्ति ५९, २/१३/९४, ३/१३/१८६, ५/३१/२५४, १५/२/४१५ उत्तराध्ययन चूर्णि - १ / ३४ पृ. ४०, २/४१/८३, ५/१८/१३७
५४.
५५. जैन साहित्य और इतिहास पृ. ५३, सन् १९४२, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकार कार्यालय बम्बई
५६. (क) नन्दीसूत्र ४६ (ख) दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा ६
५७.. दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा १, ७, १२, १४, १५
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