Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सार प्रस्तुत किया है कि विजों को जिन-वचन के प्रति किंचित मात्र भी संदेह नहीं करना चाहिए। संदेह अनर्थ का मूल है। जिनके अन्तर्मानस में शंकाएं होती हैं वे सदा निराशा के सागर में झूलते रहते हैं। उन्हें सफलता देवी के दर्शन नहीं होते / इसी तरह सभी अध्ययनों का व्यंजनार्थ प्रस्तुत किया गया है। द्वितीय श्रुतस्कंध में धर्मकथानों से ही धर्मार्थ का प्रतिपादन किया है। वत्तिकार ने इसका विवेचन प्रस्तुत नहीं किया। सर्व सुगम और शेषं सूत्रसिद्धम् इतना ही लिखा गया है। इस वृत्ति का श्लोक प्रमाण 3800 है। यह वृत्ति सं० 1120 में विजयादशमी को अणहिलपुर पाटन में पूर्ण हई / प्राचार्य अभयदेव ने अपने गुरु का नाम जिनेश्वर बताया है और यह भी बताया है कि इस वृत्ति का संशोधन द्रोणाचार्य ने किया है। वृत्ति की प्रशस्ति से यह भी पता चलता है कि इसकी अनेक वाचनाएं वत्तिकार के समय प्रचलित थीं। लक्ष्मीकल्लोल गणि ने वि० सं० 1596 में ज्ञाताधर्मकथा बृत्ति का निर्माण किया था। प्राधुनिक युग में पूज्य श्री घासीलालजी म. ने संस्कृत में सविस्तार टीका लिखी है। ज्ञातासूत्र पर प्राचीन टब्बे भी मिलते हैं। वे टब्बे धर्मसिंह मुनि के लिखे हए हैं। ज्ञातासूत्र पर सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद प्राचार्य श्री अमोलकऋषि म. का प्राप्त होता है। पं० शोभाचन्द्रजी भारिल का हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हा है। पं० बेचरदासजी दोशी का गुजराती छायानुवाद भी प्रकाशित हुप्रा है / एक से आठ अध्ययन तक गुजराती अनुवाद भावनगर से भी प्रकाशित स्थानकवासी समाज एक जागरूक समाज है / वह प्रायमों के प्रति पूर्ण निष्ठावान् है। समय के अनुसार प्रागमों के विवेचन की ओर उसका लक्ष्य रहा है / जिस समय टब्बा युग पाया उस समय प्राचार्य श्री धर्मसिंहजी ने सत्ताईस आगमों पर बालावबोध टब्बे लिखे, जो टब्बे मूलस्पर्शी और शब्दार्थ को स्पष्ट करनेवाले हैं। जिस समय अनुवाद युग पाया उस समय प्राचार्य श्री अमोलकऋषिजी म. ने प्रागमबत्तीसी का अनुवाद किया। उसके बाद श्रमण संघ के प्रथम प्राचार्य श्री आत्मारामजी म. ने भी अनेक आगमों के हिन्दी अनुवाद और उस पर विस्तृत विवेचन लिखा। पूज्य श्री घासीलालजी म. ने अत्यन्त विस्तार के साथ संस्कृत में टीकाएं लिखीं और वे हिन्दी और गुजराती अनुवाद के साथ प्रकाशित भी हुई और यों अनेक स्थलों से प्रागम साहित्य प्रकाशित हुआ, तथापि प्राधुनिक संस्करण की मांग निरन्तर बनी रही। कितने ही प्रबुद्ध चिन्तकों ने व प्रतिभासम्पन्न मनीषियों ने प्राकाशी उड़ानें बहुत भरी। उन्होंने रूपरेखाएं भी प्रस्तुत की। पर प्रागमों के जैसे चाहिए वैसे उत्कृष्ट जनसाधारणोपयोगी संस्करण प्रकाशित नहीं कर सके / केवल उनकी उड़ान, उड़ान ही रही। परम हर्ष का विषय है कि मेरे परम श्रद्धय सद्गुरुवयं अध्यात्मयोगी राजस्थानकेसरी उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. के स्नेही साथी युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी ने इस भगीरथ कार्य को अपने हाथों में लिया। उन्होंने मुर्धन्य मनीषियों के सहयोग से इस कार्य को सम्पन्न करने का दृढ संकल्प किया, जिसके फलस्वरूप प्राचारांगसूत्र का शानदार संस्करण दो जिल्दों में प्रबुद्ध पाठकों के कर कमलों में पहुंचा। निष्पक्ष विद्वानों ने उसके संपादन और विवेचन की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। उसके पश्चात् उपासकदशांग का भी श्रेष्ठतम प्रकाशन हुआ। उसी ग्रन्थमाला की लड़ी की कड़ी में ज्ञातासूत्र का सर्वश्रेष्ठ संस्करण प्रकाशित हो रहा है। इस संस्करण की यह विशेषता है कि इसमें विभिन्न प्रतियों के आधार से विशुद्ध पाठ लेने का प्रयास किया गया है। मुल पाठ के साथ ही हिन्दी में अनुवाद दिया गया है। जहाँ कहीं आवश्यक हुग्रा वहाँ विषय को स्पष्ट लिए संक्षेप में सार पूर्ण विवेचन भी दिये गये हैं। इस पागम के सम्पादक और विवेचक हैं जैनजगत के तेजस्वी नक्षत्र, साहित्यमनीषी, संपादनकलामर्मज्ञ पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, जिन्होंने अाज तक शताधिक ग्रंथों का संपादन किया है। वे एक यशस्वी संपादक के रूप में जाने माने और पहचाने जाते हैं। संपादन के साथ ही शताधिक साधु-साध्वियों एवं भावदीक्षित व्यक्तियों और विद्यार्थियों को प्रागम, धर्म, दर्शन पढ़ाते रहे हैं। इस रूप में भी 60 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org