Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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(१२) वद्ध-वृद्धावस्था में संन्यास ग्रहण करने में विश्वास वाले। ऋषभदेव के समय में उत्पन्न होने के कारण ये सभी लिंगियों में आदिलिंगी कहे जाते हैं। इसलिए उन्हें वृद्ध कहा है।
. (१३) श्रावक-धर्मशास्त्र श्रवण करने वाला ब्राह्मण। 'श्रावक' शब्द जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में विशेष रूप से प्रचलित रहा है। वह वर्तमान में भी जैन और बौद्ध उपासकों के अर्थ में व्यवहृत होता है। यह वैदिक परम्परा के ब्राह्मण के लिए कब प्रयुक्त हुआ, यह चिन्तनीय है। श्रमण भगवान् महावीर के समय तीन सौ तिरेसठ पाखण्ड-मत प्रचलित थे। उन अन्य तीर्थों में 'वृद्ध' और 'श्रावक' ये शब्द प्रयुक्त हुए हैं। औपपातिक में विशिष्ट साधना में लगे हुए अन्य तीर्थकों का वर्णन करते हुए लिखा है कि कितने ही साधक दो पदार्थ खाकर, कितने ३-४-५ पदार्थ खाकर जीवन निर्वाह करते थे। उनमें वृद्ध और श्रावक का भी उल्लेख है। अंगुत्तरनिकाय में भी वृद्ध, श्रावक का वर्णन है। उस वर्णन से भी यह परिज्ञात होता है कि वृद्ध श्रावक के प्रति जो उद्गार व्यक्त किये गये हैं वह चिन्तन करने के लिए उत्प्रेरित करते हैं। जो हिंसा करने वाला चोरी, अब्रह्म का सेवन करने वाला, असत्यप्रलापी, सुरा, मेरय प्रभृति मादक वस्तुएँ ग्रहण करने वाला, होता है उस निगण्ठ वृद्ध श्रावक-देवधम्मिक में ये पांच बातें होती हैं। वह इसी प्रकार होता है जैसे नरक में डाल दिया गया हो। चरक, शक्य आदि के साथ वृद्ध श्रावक का उल्लेख है, जिससे यह ज्ञात होता है कि उस समय का कोई विशिष्ट सम्प्रदाय होना चाहिए। पर प्रश्न यह है यह वृद्ध श्रावक श्रमण संस्कृति का उपजीवी है या ब्राह्मण संस्कृति का? प्राचीन ग्रन्थों में केवल नाम का उल्लेख हुआ है, पर उस सम्बन्ध में कोई स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। जैन साहित्य के पर्यवेक्षण से यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि वृद्ध श्रावक का उत्स जैन परम्परा में है। बाद में चलकर वह ब्राह्मण परम्परा में अंतर्निहित हो गया। वृद्ध श्रावक का अर्थ दो तरह से चिन्तन करता है-पहले में वृद्ध और श्रावक इस तरह पदच्छेद कर वृद्ध और श्रावक दोनों को पृथक्-पृथक् माना है। दूसरे में वृद्ध श्रावक को एक ही मानकर एक ही सम्प्रदाय का स्वीकार किया है । औपपातिक सूत्र की वृत्ति में वृद्ध अर्थात् तापस श्रावक-ब्राह्मण, तापसों को वद्ध कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान ऋषभदेव के तीर्थप्रवर्तन के पूर्व ही तापस परम्परा प्रारम्भ हो गई थी। इसलिए उन्हें वृद्ध कहते हैं। वैदिक परम्परा में आश्रम-व्यवस्था थी। उसमें पचहत्तर वर्ष के पश्चात् संन्यास ग्रहण करते थे। वृद्धावस्था में सन्यास ग्रहण करने के कारण भी वे वृद्ध कहलाते थे।
ब्राह्मणों को श्रावक इसीलिए कहते हैं कि वे पहले श्रावक ही थे। बाद में ब्राह्मण की संज्ञा से सन्निहित हुए। 'आचारांग" चूर्णि आदि में लिखा है कि भगवान् ऋषभदेव जब श्रमण बन गये और भरत का राज्याभिषेक हो गया, श्रावकधर्म की जब उत्पत्ति हुई तो श्रावक बहुत ही ऋजु स्वभाव के धर्मप्रिय थे, किसी की भी हिंसा करते तो उनका हृदय दया से द्रवित हो उठता और उनके मुख से स्वर फूट पड़ते-इन जीवों को मत मारो, मत मारो, "मा हन" इस उपदेश के आधार से 'माहण' ही बाद में 'ब्राह्मण' हो गये।
सम्भव है पहले श्रमण और श्रावक दोनों के लिए 'माहण' शब्द का प्रयोग होता रहा हो।
१. सूत्रकृतांग नियुक्ति गा. ११९ २. हिस्टारिकल क्लीनिंग्स, B.C. Laha. ३. अण्णतीर्थकाश्चरक-परिव्राजक-शाक्याजीविक-वृद्धश्रावकप्रभृतयः-निशीथभाष्य चूर्णि भाग २, पृ. ११८ ४. औपपातिक सूत्र ३ ५. अंगुत्तरनिकाय (हिन्दी अनुवाद) भाग २, पृ. ४५२ ६. वृद्धाः तापसा वृद्धकाल एव दीक्षाभ्युपगमात् आदिदेवकालोत्पन्नत्वेन च सकललिंगिनामाद्यत्वात्, श्रावकाधर्मशास्त्रश्रवणाद् ब्राह्मणाः अथवा वृद्ध-श्रावका ब्राह्मणाः ।
-औपपातिक सू. ३८ वृत्ति ७. आचारांग चूर्णि पृ. ५