Book Title: Acharang Sutram Part 02
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-2-0-05 इस सम्यक्चारित्र की संसिद्धि के लिये मरणाभाव धर्म वाले पृथ्वी आदि पांच भूत से भिन्न मरणधर्मवाला सदेही आत्मा है, एवं ज्ञानादि गुण आत्मा के धर्म है, इत्यादि उपलब्धि के द्वारा सामान्य से जीव का अस्तित्व कहकर नास्तिक-चार्वाक मत का निरास कीया, तथा बौद्ध आदि मतांतरो के निरास के लिये जीव के विशेष स्वरूप पृथ्वीकायादि जीवों का भी निरूपण प्रथम अध्ययन में कहा गया है... अब द्वितीय लोकविजय नाम का अध्ययन कहते हैं... ____ पृथ्वीकायादि जीवों की सचित्तता संक्षेप से इस प्रकार... 1. पृथ्वीकाय - समान जातिवाले पत्थर-लतादि के उद्भेद के दर्शन से, अर्श-मांसांकुर की तरह... पृथ्वी सचित्त है... 2. अप्काय (जल) - अविकृत भूमि के खनन से मेंढक की तरह जल की प्राप्ति होती है... अतः जल सजीव है... ___3. अग्निकाय - बालक के शरीर की तरह विशिष्ट आहार से पुष्टि एवं आहार के अभाव में दुर्बल होनेवाले अग्निकाय जीवों के शरीर की स्थिति देखने में आती है... अतः अग्नि सजीव है... अग्नि को अपना काष्ठादि आहार मिलने से वृद्धि एवं तृणादि आहार नहिं मिलने से अग्नि का क्षय-विनाश देखा जाता है... . 4. वायुकाय - गाय अश्व आदि पशुओं की तरह अन्य की प्रेरणा से अनियत तिरछी गति से वायु का गमन देखा जाता है...अतः वायु सचित्त है... वनस्पतिकाय अलता लगाये हुए पैर में नूपुर (झांझर-पायजेब) आभूषण पहनी हुई कामिनी स्त्री के चरणों से ताडित होने पर बकुलअशोक आदि वृक्षो में कामी पुरुष की तरह विकार पाया जाता है... अत: वनस्पति भी सजीव है... इत्यादि प्रयोग से पृथ्वी आदि सचेतन है... उनके सूक्ष्म एवं बादर भेद है, तथा बेइंद्रिय तेइंद्रिय चरिंद्रिय और असंज्ञी पंचेंद्रिय तथा संज्ञी पंचेंद्रिय... उन सभी के पुनः अपर्याप्त एवं पर्याप्त ऐसे दो दो भेद पाये जाते हैं और उनके शस्त्र स्वकायशस्त्र परकायशस्त्र एवं उभयकायशस्त्र