Book Title: Shrutsagar Ank 2007 03 012
Author(s): Manoj Jain
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रतसागर मतमा aaति SUTUSS पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो अष्ट महाप्रतिहार्यों से शोभित हैं और जो इन्द्रादिकों से पूजित होकर निरन्तर विचरणशील हैं, ऐसे अर्हन्तों को मैं वन्दन करता हूँ. टोरन्ट पावर लिमीटेड टोरन्ट हाउस आश्रम रोड, अहमदाबाद Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ II LD @ -04-0-0 -0 -0 -0 सूर्य जैसे प्रकट तेजवंत, चन्द्र जैसे सौम्य, स्वर्ण के समान स्वाभाविक तेजस्वी, जल की तरह सर्वजगत् के कर्ममल को हरनेवाले आचार्यों को कोटि-कोटि वंदन. आकृति निर्माण लि. मुंबई ORE-OKE-OKE-OLE-04-0- 0 0 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक श्रतसागर पंन्यास प्रवर श्री अमृतसागरजी आचार्य पद प्रदान महोत्सव विशेषांक अंक : १२, चैत्र वि. सं. २०६३ मार्च २००७ आशीर्वाद व प्रेरणा : श्रुतसमुद्धारक आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी संपादक : मनोज जैन २५ १११ ११५ ११७ १२४ मंगल संदेश संपादकीय प्रकाशकीय ગચ્છનાયકે આચાર્ય શ્રી કૈલાસસાગરસૂરીશ્વરજી श्रुत समुद्धारक आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी महाराज पद्मसागर की एक बूंद अमृतसागर पूज्यश्री की अमृतमय यात्रा પંન્યાસશ્રી અમૃતસાગરજીનો મિતાક્ષરી પરિચય रत्नत्रयी का त्रिवेणीसंगम सम्राट् संप्रति संग्रहालय ज्ञानतीर्थ आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर प्रगति के सोपान आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर - हमारा संकल्प भारतीय प्राचीन लेखन परंपरा में : तालपत्र लेखन वाचकों के पत्र જ્ઞાનતીર્થ આચાર્ય શ્રી કૈલાસસાગરસૂરિ જ્ઞાનમંદિર વિષે ગુરુભગવંતોના અભિપ્રાય વિદ્વાનોના અભિપ્રાય વિશિષ્ટ અતિથિ जैन साहित्य सूचि का बहुआयामी प्रकाशन कैलासश्रुतसागर ग्रंथसूची जैनागमों का परिचय अनुक्रम ३ महान ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय. ४ ज्ञानभंडारों की स्थापना एवं अभिवृद्धि जैन धर्म की रूपरेखा जैनधर्म और चार पुरुषार्थ जैन श्रेष्ठि भगवान महावीर के १० श्रावक दक्षिण भारत में जैन धर्म २७ स्त्री-पुरूषों की कलाएँ ठक्कुर फेरू कृत रत्नपरीक्षा ग्रंथ : एक परिशीलन ३७ गौरवमयी तपागच्छ परंपरा में सागर समुदाय હસ્તપ્રત : એક પરિચય ओसवालों के गोत्र व ज्ञातियाँ ભગવતી પદ્માવતી માતાનાં પ્રસિદ્ધ તીર્થધામો श्री शत्रुजय महातीर्थ धर्मशालाओं के फोन नंबर भारत के जैन तीर्थों के फोन नंबर ૬૭ શાકાહાર સર્વશ્રેષ્ઠ આહાર શ્રાવક સંઘ પ્રગતિ વિચાર जैन की दिनचर्या જિનપૂજા ८१ जीवन जीने की कला ८३ आर्षवाणी १२७ १३१ १३५ १३८ १४० १५० १५५ १५६ १६० १६३ १७१ ७० : प्रकाशक: श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ, गांधीनगर Web Site : www.kobatirth.org, E-mail : gyanmandir@kobatirth.org Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक मंगल संदेश श्री महावीर जैन आराधना केंद्र, कोबातीर्थ द्वारा आचार्यपद प्रदान तथा नूतन भवनों के उद्घाटन प्रसंग पर संस्था के मुखपत्र श्रुतसागर का पंन्यास प्रवर श्री अमृतसागरजी आचार्य पद प्रदान महोत्सव विशेषांक प्रकाशित होने जा रहा है, जिसमें अनेक विषयों का अल्पशब्दों के द्वारा सुंदर परिचय दिया गया है. मुझे विश्वास है कि पाठकों को यह विशेषांक खूब रुचिकर व उपयोगी लगेगा. इसका संकलन और संपादन अनुमोदनीय है. मुझे आशा है कि लोग इस 'विशेषांक के माध्यम से भूतकाल के जैन इतिहास के गौरव को वर्तमान में लाने का प्रयास करेंगे, इसके विमोचन के शुभ अवसर पर मेरी मंगल कामना. पद्मसागर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक संपादकीय देवों को भी दुर्लभ यह मानव जीवन पूर्व जन्मों के संचित महापुण्य से प्राप्त होता है. इस मनुष्य जीवन का मुख्य लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक ज्ञानादि को बतानेवाले आज न तो तत्वज्ञान के प्रकाशक सूर्य समान जिनेन्द्र देव मौजूद हैं, न चन्द्र समान केवली या चतुर्दशपूर्वधर श्रुतज्ञानी ही. वर्तमान में तो प्रदीप के समान यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने वाले केवल आचार्य भगवंत ही विद्यमान हैं. इसलिए, एकमात्र विकल्प है, पूर्वाचार्यों द्वारा रचित श्रुतज्ञान का अध्ययन-मनन और आगम सूत्रार्थ के धारक आचार्य भगवंतों की निश्रा. जिसके आलंबन से हम अपना मानव जीवन सफल बना सकते हैं. जिनशासन में आचार्य को 'तित्थयर समो सूरि' कहा गया है. तीर्थंकरों की गैर मौजुदगी में नवपद के तृतीयपद पर विराजमान आचार्य को लघुतीर्थंकर माना गया है. ऐसी गरिमामय भगवान महावीर की प्रभावक आचार्य पाट परंपरा में वर्तमान में राष्ट्रसंत आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी का नाम अग्रपंक्ति में है. पूज्यश्री के द्वारा जैनशासन की और लोककल्याण की जो प्रभावना हो रही है वह इस काल के जैन इतिहास में अभूत्पूर्व मानी जायेगी. आचार्यश्री की प्रेरणा से स्थापित श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिरकोबा जैन धर्म के इतिहास, कला, स्थापत्य एवं श्रुतविरासत की राजधानी कहा जा सकता है. पूज्य आचार्य श्री की सूक्ष्म दृष्टि, यत्र-तत्र उपेक्षित-बिखड़े पड़े भारतीय पुरातत्व व प्राचीन ज्ञान सम्पदा की मोतियों को ढूँढने में सक्षम हैं, भारत भर की ८०,००० से ज्यादा कि.मी. की पदयात्रा के क्रम में उन्होंने अनेक पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक ग्रंथों व विरासत का पुनरुद्धार किया है. राष्ट्रसंत की इस अमर सष्टि को आनेवाली पीढ़ियाँ अनमोलनिधि के रूप मे संजोकर रखेगी. जैनसाहित्य को संरक्षित-संवर्द्धित करने की शृंखला की एक महत्त्वपूर्ण कडी के रूप में स्थापित यह ज्ञानमंदिर लाखों की संख्या में हस्तलिखित व मुद्रित ग्रंथों से समृद्ध है. इतना ही नहीं किन्तु साधु-साध्वीजी भगवंतों, मुमुक्षुओं, विद्वानों और अध्ययनार्थियों को अपनी निःशुल्क सेवा वर्ष के ३६० दिन करते हुए एक कीर्तिमान स्थापित कर रहा है. भारतीय ग्रंथालय प्रणालि को अनुभवों के आधार पर संजोकर कंप्यूटर के माध्यम से संशोधन के क्षेत्र में किये गये अनुसंधान इस ज्ञानतीर्थ की अपनी खास पहचान है, जिसका लाभ चतुर्विध संघ और संशोधक जगत को निरंतर हो रहा है. ग्रंथों को कम्प्यूटर प्रोग्राम के अन्तर्गत सूचीकरण कराने से वांछित ग्रंथ तत्काल उपलब्ध होते देख यहाँ आने वाले साधुसाध्वीजी भगवंत, विद्वान व वाचक आह्लादित होकर मुक्तकंठ से प्रशंसा करते नहीं थकते हैं. ज्ञानतीर्थ की विविध प्रवृत्तियों से जो लाभ हो रहा है वह मुनि श्री अजयसागरजी के श्रुतज्ञान के प्रति अहोभाव का और पूज्य गुरुदेव श्री के स्वप्न को सफल करने के लिए समर्पित जीवन का परिचायक है. यहां की प्रवृत्तियों को बहुजन हिताय बहुजन सुखाय उपयोगी बनाने में पूज्यश्री के शिष्य परिवार का महत्वपूर्ण योगदान हम सभी के लिए गौरवप्रद है. ज्ञानी गुरुभगवन्तों सहित श्री संघ की ज्ञानलक्षी सेवाओं की परिपूर्ति करने के लिए हमारी सुझबुझ और क्षमताओं को जो अनन्त, अनुत्तर, निरुपम, शाधत तथा सर्वदा आनन्द रूप सिद्ध स्थान को प्राप्त हो चुके हैं, उन आचार्यों को भावभरी वंदना. सुधीरभाई नानालाल कोठारी परिवार, मुंबई Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक विकसित करने में पूज्य आचार्य प्रवर के हृदय की गहराई से प्राप्त सफल आशीर्वाद एवं सभी मुनिवरों का बहुमूल्य मार्गदर्शन एक संबल की भाँति रहा है. सोने में सुगंध की तरह इस पवित्र तीर्थ में सर्वप्रथम बार पूज्य आचार्य श्री के शिष्यरत्न नमस्कार महामंत्र के साधक पंन्यास प्रवर श्री अमृतसागरजी को महामंत्र के तृतीयपद आचार्यपद पर आसीन करने का सुनहरा अवसर आया है. पुण्योदय से मिलनेवाला यह पदोत्सव हम सभी के लिए परम सौभाग्य की निशानी है. यह आचार्यपद प्रदान महोत्सव समस्त जैन समाज को गौरवान्वित एवं आह्लादित करने वाला होगा... शान्त, सौम्य और मौनप्रिय पूज्य पंन्यास श्री अमृतसागरजी को आचार्य पद से विभूषित करने के शुभ अवसर पर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र के परिसर में नवनिर्मित भोजनशाला, पौषधशाला, अतिथि निवास, अल्पाहारगृह, आयंबिलशाला इत्यादि का शुभारम्भ भी होने जा रहा है यह हमारे लिए आनंद व गौरव का विषय है. जिनशासन की सेवा में आराधकों की भक्ति करने का हमारा सामर्थ्य इस सुविधा से बढेगा, हम ज्यादा अच्छी तरह से भक्ति कर पाएंगे. जिनशासन की धुरा को वहन करने की जिस पद में शक्ति सामर्थ्य निहित है ऐसे इस आचार्यपद प्रदान महोत्सव निमित्त ज्ञानतीर्थ के मुखपत्र श्रुतसागर को विशेषांक के रूप में प्रस्तुत करने का सद्भाग्य हमें प्राप्त हुआ है. ज्ञानतीर्थ के सभी कार्यकर्ताओं के उत्साही सहयोग से यह विशेषांक तैयार हो सका है. इस विशेषांक में हमने जैन धर्म, तत्वज्ञान, जैन साहित्य, जैनाचार्यों के अलौकिक गुणों, जैन राजाओं, मंत्रियों, श्रेष्ठियों, श्रावकों, श्राविकाओं, जैन आचार विचार, जैनतीर्थों, कोबातीर्थ व इस ज्ञानतीर्थ की विशिष्ट सेवाओं आदि अनेकविध जानकारियों स्वरूप सरस्वती का रसथाल परोसा है. हमे आशा ही नहीं किन्तु विश्वास है कि वाचकों को यह विशेषांक बहुत पसंद आयेगा. प्रस्तुत की गई सुन्दर ज्ञान सामग्री से उनके स्व-पर कल्याणकारी ज्ञान-विज्ञान में अभिवृद्धि होगी. इस कार्य में हमें जिन जिन महानुभावों का सहयोग मिला हैं वे सभी धन्यवाद के पात्र हैं, इतना ही नहीं वे हमारे प्रेरणा के स्रोत और जीवनदाता है. पूज्य आचार्यश्री एवं पूज्यश्री के सांनिध्यवर्ती मुनिवरों के सातत्यपूर्ण मार्गदर्शन का, संस्था के प्रमुख एवं प्रसिद्ध उद्योगपति श्री सुधीरभाई (टोरेन्टग्रूप), श्री प्रवीणभाई आदि समस्त ट्रस्टीवर्यों एवं कार्यवाहक समिति के सदस्यों की प्रेरक भावना और दानदाताओं के सहृदयी सौजन्य का मैं प्रमोद भावना से अनुमोदन करता हूँ. और यह कामना करता हूँ कि भविष्य में भी इसी तरह आप सभी का साथ सहयोग हमें मिलता रहेगा, जिसकी बदौलत हम जिन शासन की गरिमापूर्ण साहित्य सेवाओं को विस्तृत करने में सफल हो. परम पूज्य आचार्यश्री की पावन प्रेरणा से स्थापित इस ज्ञानतीर्थ में संगृहीत जैन धर्म का विशाल श्रुत साहित्य भावी पीढी को निरंतर लाभान्वित करता रहे, इसीलिए इस ज्ञाननिधि को संरक्षित-संवर्द्धित करने में जैन समाज को भी तन-मनधन से सहयोग करने की भावना के साथ आगे आना होगा, ताकि श्रुतज्ञान की यह पवित्र परम्परा सुदीर्घजीवी बनी रहे. यही मंगल कामना. मनोज र. जैन, ज्ञानतीर्थ, कोबा. जो देश, कुल, जाति, रूप आदि अनेक विध गुण-गणों से संयुक्त हैं और जो युगप्रधान होते हैं, उन आचार्यों को भावभरी वंदना. सीजन्य के. चंद्रकान्त एन्ड कंपनी, मुंबई Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक प्रकाशकीय जिनशासन के महान ज्योतिर्धर पूज्य गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज की दिव्य कृपा एवं राष्ट्रसंत पूज्य आचार्य प्रवर श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज की पावन प्रेरणा से स्थापित श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र जैन धर्म के विकसित तीर्थ के रूप में आज विश्व प्रसिद्ध है. पूज्य आचार्यश्री और उनके शिष्य-प्रशिष्य साधु भगवंतों की सतत् प्रेरणा एवं मार्गदर्शन के फलस्वरूप यह तीर्थ निरन्तर प्रगति के सोपान सर करते हुए सम्यग् ज्ञान, दर्शन व चारित्र की त्रिवेणी संगम के रूप में आज समस्त श्रीसंघ के समक्ष अपनी एक अलग पहचान बना चुका है. इस संस्था में संग्रहीत प्राचीन व दुर्लभ ग्रन्थों के साथ साथ जैन व आर्य संस्कृति तथा कलास्थापत्य की विरासत के संरक्षण, संवर्द्धन और प्रसार हेतु प्रसिद्ध आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर अत्याधुनिक तकनीकों के जरिये पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंतों तथा देश-विदेश के विद्वानों की वाचक सेवाओं के लिए भारत सहित जगतभर में एकमात्र श्रेष्ठ जैन ज्ञानभंडार कहलाने का अधिकारी कहा जा सकता है. ऐसे इस ज्ञानतीर्थ में देव-गुरु की असीम कृपा से आये दिन उत्सव-महोत्सवों का आयोजन होता रहता है परन्तु इस बार परम सौभाग्य से पूज्य पंन्यास प्रवर श्री अमृतसागरजी महाराज को आचार्यपद प्रदान महोत्सव का पुण्य अवसर हमें प्राप्त हुआ है. आनंद ही आनंद है कि महामहोत्सव के साथ बड़े पैमाने पर शासन प्रभावक आचार्य पदवी समारोह मनाने का जो लाभ मिला है वह हमारे लिए गौरव की बात है. आचार्य पदवी के इस समस्त आयोजन का लाभ हमें प्रदान करने में जिनका मुख्य सहयोग रहा है ऐसे पूज्य आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी तथा पूज्य मुनिराज श्री नयपद्मसागरजी के प्रति हम अपनी सद्भावना व्यक्त करते हैं. सोने में सुगंध की तरह इस शुभ अवसर के साथ ही उदारदिल दानदाताओं के सौजन्य से संस्था द्वारा नवनिर्मित भोजनशाला, पौषधशाला, अल्पाहारगृह आदि भवनों के उद्घाटन का उमंगभरा प्रसंग भी उपस्थित हुआ है, जिसकी खुशी में हमारा हृदय प्रसन्नता से फूला नहीं समा रहा है. इस पुण्य कार्य के सहयोगी सभी महानुभावों का अन्तःकरण से आभार व्यक्त करते हैं. उनके उदार सुकृत की हम बारंबार अनुमोदना करते हैं. इस मंगल प्रसंग पर पूज्य गुरुमहाराज सहित उनके शिष्य-प्रशिष्य मुनिमंडल के सतत मिले मार्गदर्शन, प्रेरणा व उचित सहयोग हेतु और आचार्य पद प्रदान समारोह मनाने की अनुमति पूर्वक लाभ देने हेतु हम पूज्यवर्यों के प्रति नतमस्तक कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए स्वयं को धन्यभाग मानते हैं. नूतन भवनों के नवनिर्माण के भगीरथ कार्यों में अपना बहुमूल्य सहयोग देनेवाले सेक्रेटरी श्री गिरीशभाई वी. शाह, कार्यवाहक समिति के श्री आसीतभाई और श्री मोहितभाई सोमचंद शाह ने विगत दो वर्षों से अनेक प्रकार की प्रतिकूलताओं के बावजूद भी तन मन धन के साथ समय का प्रचूरता से सहकार देकर संकुल को सपने में से साकार करके बताया है इस हेतु टस्ट्रमंडल धन्यवाद देते हुए उनका अभिनंदन करता है. ETEजो सर्वदा अप्रमत्त होकर राजकथादिक चारों कथाओं से विरक्त हैं और क्रोधादिक कषाओं से मुक्त हैं, उन I आचार्यों को भावभरी वंदना. सौजन्य डीनल डायमंड, मुंबई Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नूतन संकुल को अपनी सर्जनशील दृष्टि और कुशलता से साकार रूप देनेवाले आर्किटेक्ट श्री देवेन्द्रभाई शाह आदि को भी हम इस प्रसंग पर धन्यवाद पूर्वक अभिनंदन देते हैं. आचार्यपद प्रदान महोत्सव के आयोजन समिति में जिनका अन्तःकरण से सहयोग रहा है ऐसे संस्था के उपप्रमुख श्री कलपेशभाई, श्री सुनिलभाई सिंगीजी एवं श्री देवांगभाई आदि महानुभावों को हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करते हैं. अपनी कुशलता तथा लेखनशैली के द्वारा श्रुतसागर आचार्यपद विशेषांक को मूर्त रूप देनेवाले आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर के सहनिदेशक पंडित श्री मनोजभाई जैन ग्रंथालय प्रभारी श्री रामप्रकाशजी झा, डॉ. हेमन्तकुमारजी, श्री दिलावरसिंह पी. विहोल तथा विशेषांक को साज सज्जा से विभूषित करने में सहयोग देनेवाले प्रोग्रामर श्री केतनभाई डी. शाह, श्री संजयभाई गुर्जर, श्री सुदेशभाई डी. शाह तथा बीजलभाई शाह को भी धन्यवाद देते हैं, जिन्होंने अपने अथक परिश्रम तथा सूझबूझ के द्वारा श्रुतसागर के विशेषांक का कार्य मर्यादित समय में भी कुशलता पूर्वक पूर्ण किया है. आशा है कि प्रस्तुत विशेषांक वाचकों के द्वारा पसंद किया जाएगा. अन्त में इस संस्था के अनुपम सहयोगियों दानादाता श्रेष्ठिवय, संकुल के निर्माण में अपना उदार सहयोग देनेवाले दाताश्रीओं, वाचकों तथा संस्था के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहयोगियों को हम अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए खूब खूब अभिनंदन देते है. छछ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक छछ ट्रस्ट मंडल श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा जो धर्म देशना देने में सदैव प्रयत्नशील तथा समर्थ हैं, उन आचार्य को भावारी नंदना 7 छ छ * सौजन्य सतीशभाई रतिलाल शाह, मुंबई Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक समर्पणम् जिनशासन की धुरावाहक उज्ज्वल यशस्वी आचार्य परंपरा के चरण कमलों में सादर समर्पित है श्रुतसागर का यह विशेषांक. ગીણ પ્રકારની જીવોના ભેદ અને યા પ્રકારના ઉપસર્ગોના સ્વરૂપના જ્ઞાતા આવા છpીણ ગુણોથીયુd આશાબે વંદન સૌજન્ય થાદ નિવાસી ગુરુભક્ત પરિવાર, અહમદાબાદ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक ગચ્છનાયક આચાર્ય શ્રી કૈલાસસાગરસૂરીશ્વરજી દિલાવરસિંહ પી. વિહોલ તપાગચ્છના મહાન અધિનાયક, જગતગુરૂ આચાર્ય શ્રી હીરવિજયસૂરીશ્વરના શિષ્ય ઉપાધ્યાય શ્રી સહજસાગરજી, મહાશ્રમણની પટ્ટપરંપરામાં શ્રી નેમીસાગરજીના શિષ્ય શ્રમણશ્રેષ્ઠ શ્રી રવિસાગરજી થયા. તેમના શિષ્ય મુનિ પુંગવ શ્રી સુખસાગરજી અને તેઓશ્રીના શિષ્ય યૉગનિષ્ઠ આચાર્ય શ્રી બુદ્ધિસાગરસૂરીશ્વરજી થયા. તેઓશ્રી વીસમી સદીના મહાન યૉગી અને શાસ્ત્રવિશારદ હતા. તેમની પાટ પર પ્રશાન્તમૂર્તિ આચાર્ય શ્રી કીર્તિસાગરસૂરીશ્વરજી આવ્યા. તેઓશ્રીના તપસ્વી શિષ્ય મુનિ પ્રવરશ્રી જિતેન્દ્રસાગરજીની ગૌરવશાળી પરંપરાના ઉજવળ નક્ષત્ર સમાન હતા આચાર્ય શ્રી કૈલાસસાગરસૂરીશ્વરજી મહારાજ થયા. આચાર્ય શ્રી કૈલાસસાગરસૂરિજીનો જન્મ પંજાબમાં લુધિયાણાની નજીક જગરાંવ ગામમાં થયો હતો. આપ શ્રી લાહોર વિશ્વવિદ્યાલયમાંથી સ્નાતક બન્યા હતા. સત્યના અન્વેષક અને ઉત્કૃષ્ઠ વૈરાગ્યની પ્રતિમૂર્તિ સમાન પૂજ્યવર સામે કુટુંબીઓ દ્વારા વૈવાહિક બંધનમાં બાંધવા જેવા અનેક અવરોધો ઊભા કરાયા હતા. છતાં તેઓએ અમદાવાદમાં દીક્ષા અંગીકાર કરીને જીવનને અધ્યાત્મની પરમ સાધનામાં લગાવ્યું, પ્રબળ આત્મવિશ્વાસના સ્વામી અને વાત્સલ્યના નિધાન. આચાર્ય શ્રી કૈલાસસાગરસૂરિશ્વરજી મહારાજે જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્રની અદ્ભુત સાધના કરી. સમકાલી સેંકડો સાધુ-સાધ્વીજીઓ અને હજારો શ્રાવક-શ્રાવિકાઓને અપાર પ્રેરણા આપી હતી. તત્કાલીન જૈનશ્રમણ સંધ પૂજ્યશ્રીની ગ્રહણ નિષ્ઠા. ચારિત્ર અને ગીતાર્થતાની ઊંચી સૂઝ-બુઝનો અનુરાગી હતો. તે સમયના જિનશાસનના અનેક પ્રસંગો અને નિર્ણયો એઓશ્રીની પ્રતિભાથી પ્રભાવિત થયા હતા. અલ્પવાસી, મહાસંયમી આચાર્ય પ્રવર પ્રારંભથી જ ઇન્દ્રિય વિગ્રહના અજોડ સાધક હતા. સયંમીની નજરો હંમેશા નીચે હોય એવી આગમવાણી, વાણીના જીવન પ્રતિક રૂપે તેઓશ્રી લોક હૃદયમાં પ્રતિષ્ઠિત હતા. પૂજ્યશ્રીની નિસ્પૃહતા એટલી બધી વ્યાપક અને ઊંડી હતી કે જિનશાસનની બહુવિધ પ્રવૃતિઓમાં વ્યસ્ત રહેવા છતા પણ તેમનામાં નિવૃત્તિનું સંગીત નિરંતર ગુંઝાયમાન રહેતુ હતું અને મહાન કાર્યો સંપાદિત કરાવવા છતા તેઓ શ્રી ને ક્યારે કર્તાભાવ સ્પર્શી શક્યો ન હતો. પૂજ્યપાદની ગુણાનુરાગી વૃતિનો જ એ પ્રભાવ હતો કે વિભિન્ન જૈન ગચ્છો અને સમુદાયના સેંકડો સાધુ-સાધ્વીજીઓ એમની પાસેથી માર્ગદર્શન લેતા હતા. શ્રી સીમધરસ્વામી ભગવાનનાં પરમ ઉપાસક આચાર્યશ્રી ની સત્ પ્રેરણાથી મહેસાણા સ્થિત ઐતિહાસિક સીંમધરસ્વામી જીનાલય ભવ્યતા સાથે નિર્મિત થયું. દેવદ્રવ્ય આદિની સુદ્ધતા માટે તેઓ શ્રી વિશેષ જાગૃત હતા. અનેક જૈન સંઘો પૂજ્યશ્રી થી ઉપકૃત બન્યા છે અને તે સંઘોના જીનમંદિર, ઉપાશ્રય, આયંબીલશાળાઓ તથા ધાર્મિક પાઠશાળાઓ પૂજ્યશ્રીની પ્રેરણાથી નિર્માણ પામ્યા છે. આચાર્યશ્રીનું આ યોગદાન આજે અનેક સંઘોની અમુલ્ય ધરોહર છે. અનેક મુમુક્ષોના પ્રવજ્યા પ્રદાતા આચાર્ય શ્રી કૈલાસસાગરસૂરિશ્વર મહારાજને શ્રમણ-શ્રમણિકઓના સયંમ જીવનાના યોગક્ષેમ અને ઉત્કર્ષોની અત્યંત ખેવના હતી. તે માટે તેઓ પ્રતિપલ પ્રયત્નશીલ રહેતા હતા સર્વજન સન્માનનીય વ્યકિતિત્વના સ્વામી પૂજ્યશ્રી એ સંયમજીવનના વર્ષોમાં ગુજરાત, રાજસ્થાન, મહારાષ્ટ્ર, મધ્ય પ્રદેશ, ઉત્તર પ્રદેશ, બંગાળ અને બિહાર पाँच इन्द्रियों के विषयों को रोकनेवाले, नव प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्ति के धारक, चार कपाय से रहित, पंच महाव्रत युक्त, पंचाचार पालक, पाँच समिति से समित एवं तीन गुप्ति के धारक आचार्यों को भावभरी वंदना. • सौजन्य भणसाली एन्ड कंपनी, कीर्तिलाल के. भणशाली परिवार, मुंबई 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक હજારો કિલોમીટર યાત્રઓ કરી હતી. જીવનભરની સાધના ત્યારે સફળ બની કે જ્યારે તેઓશ્રી નું મૃત્યું મહોત્સવ રૂપે સામે આવ્યું. ભવ્ય મહોત્સવ સમાધિમરણ સંદેશાને ચરિતાર્થ આપશ્રી કાયોત્સર્ગ ધ્યાનમાં કાલધર્મ પામ્યા. જેઓ નું જીવન તો મંગલ હતું જ અંતિમ વિદાય પણ મંગલમય બની જ્યોતિપુંજ મહાન ગુરૂવરને કોટી કોટી વંદન. ગચ્છાધિપતિ આચાર્ય શ્રી કૈલાસસાગરસૂરીશ્વરજીનો સંક્ષિપ્ત પરિચય. સંસારિક નામ જન્મ તારીખ જન્મ સ્થળ દાદાજી નું નામ પિતાજી નું નામ માતાજી નું નામ પત્ની નું નામ ભાઈ નું નામ બહેનો ના નામ વ્યવહારીક અભ્યાસ દીક્ષા દાતા દીક્ષાગુરૂ દીક્ષા તીથિ ગણિવર્ય પદ તિથિ પંન્યાસ પદ તિથિ ઉપાધ્યાય પદ તિથિ આચાર્ય પદ તિથિ ગચ્છાધિપતિ પદ તિથિ કાલધર્મ તિથિ સમાધિ સ્થળ વિશિષ્ટ માહિતીઃ પ્રતિષ્ઠાઓ કાશીરામ વિ. સં., માઘસર વદ જગરાંવ (પંજાબ) ગંગારામજી રામકિશનદાસજી રામરખીદેવી શાન્તાદેવી બીરચન્દજી દુર્ગાદેવી, સરસ્વતીદેવી, શાન્તીદેવી, વીરાંવતીદેવી સ્નાતક, લાહોર યુનિવર્સિટી મહાતપસ્વી મુનિ શ્રી જિતેન્દ્રસાગરજી મહાતપસ્વી મુનિ શ્રી જિતેન્દ્રસાગરજી વિ. સં. પૌષ વદી અમદાવાદ વિ. સં. માધસર વદ પૂના વિ. સં. માઘસર સુદ મુંબઈ વિ. સં. માઘસર સુદ સાણંદ વિ. સં. મહા વદ સાણંદ વિ. સં. જેઠ સુદ મહુડી તીર્થ વિ. સં. જેઠ સુદ અમદાવાદ ગુરુમંદિર, શ્રી મહાવીર જૈન આરાધના કેન્દ્ર, કોબા ગાંધીનગર-૩૮૨૦૦૭ જિનમંદિરની ૨૫થી વધુ जो अष्ट महाप्रतिहार्यो से शोभित हैं और जो इन्द्रादिकों से पूजित होकर निरन्तर विचरणशील हैं, ऐसे आचार्यों को भावभरी वंदना. सौजन्य एशीयन स्टार कंपनी लिमीटेड, मुंबई 10 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक અંજનશલાકા (પૂજ્યશ્રીના હાથે અંજન થયેલ જિનમૂર્તિઓનો સરવાળો હજારોની સંખ્યામાં थाय छे.) પપથી વધુ ઉપધાનતપ શિષ્ય-પ્રશિષ્યો ચાતુર્માસ વિહારક્ષેત્ર રાજસ્થાન, મધ્યપ્રદેશ, છત્તીસગઢ, બિહાર, બંગાળ, મહારાષ્ટ્ર અને ગુજરાત कैलाससागर सूरि, कैलास इव निश्चलम्, गणाधीश गुणाधीशं, सादरं प्रणिदध्महे. जो अनन्त हैं, जिनका पुनर्जन्म नहीं है, जो शरीर रहित हैं, जो बाधा रहित हैं और जो दर्शन और ज्ञानोपयोग से युक्त हैं उन आचायों को भावभरी वंदना. सौजन्य श्रीमती निर्मलाबेन दिनेशभाई शाह, मुंबई Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक श्रुत समुद्धारक आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी महाराज रामप्रकाश झा डॉ.हेमन्त कुमार सिंह जिन शासन के समर्थ उन्नायकः * जैनश्रमण संस्कृति के गौरव राष्ट्रसंत आचार्य पद्मसागरसूरिजी महाराज • जैनश्रमण संस्कृति की गरिमापूर्ण परंपरा में एक यशस्वी नाम • व्यवहार-कुशलता, वाक्पटुता, कर्तव्य परायणता आदि गुणों से विभूषित. • जिनका देदीप्यमान जीवन मानवमात्र के लिये प्रेरणास्पद और वरदान है. * जैनशासन के उन्नयन हेतु संपूर्ण जीवन समर्पित कर देनेवाले आचार्य, * जिन्होंने अपनी मधुर वाणी से लाखों श्रोताओं को धर्माभिमुख किया है. * जिन्होंने जिनशासन के गौरव में चार चांद लगा दिये है. जो मानव मात्र के उपकार हेतु सतत प्रयासरत हैं. * जो जैन-दर्शन व प्राच्य विद्या के क्षेत्र में अवगाहन करने वालों के लिए रत्नाकर तुल्य हैं. * जिनकी सत्प्रेरणा से श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र की स्थापना हुई है. * आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा जिनकी अमरकृति है. जो भारतीय प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षक हैं. * जो जिनभक्ति व शासनप्रभावना के प्रति पूर्ण समर्पित हैं. * जो वात्सल्य, करुणा, दया और प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं. सांसारिक जीवन : जन्म : १० सितम्बर सन् १९३५, जन्म स्थान : अजीमगंज, पश्चिम बंगाल पिता का नाम : श्री रामस्वरूपसिंहजी माता का नाम : श्रीमती भवानीदेवी बचपन का नाम : प्रेमचन्द/लब्धिचन्द्र YNONO जो अनन्त ज्ञानादि गुणों से युक्त हैं और वर्णादि गुणों से रहित हैं उन आचार्यों को भावभरी वंदना, DAIL कसौजन्य श्रीमती रसीलाबेन अरविंदभाई शाह, मुंबई 12 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक प्रारंभिक शिक्षा : रायबहादुर बुधसिंह प्राथमिक विद्यालय, अजीमगंज, (प. बं.) माध्यमिक शिक्षा : श्री विशुद्धानन्द सरस्वती उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, कोलकाता. धार्मिक शिक्षा : यति श्रीमोतीचन्दजी के सान्निध्य में भाषाज्ञान : संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, बंगाली, गुजराती, राजस्थानी व अंग्रेजी. साधुजीवन का प्रारम्भः गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज से प्रभावित. पूज्य आचार्य श्री की निश्रा में श्रमण जीवन के आचार-विचारों का अभ्यास. दीक्षा ग्रहण :१३ नवम्बर १९५५, शनिवार, दीक्षा स्थल : साणंद दीक्षा प्रदाता : आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज दीक्षा गुरु : आचार्य श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी महाराज दीक्षा नाम : मुनि श्री पद्मसागरजी गणिपद से विभूषित २८ जनवरी, १९७४, सोमवार, जैननगर, अहमदाबाद. पंन्यासपद से विभूषित : ८ मार्च, १९७६, सोमवार, जामनगर. आचार्यपद से विभूषित : ९ दिसम्बर, १९७६, गुरुवार, महेसाणा. ओजस्वी प्रवचन जिनकी भाषा की सरलता, स्पष्ट वक्तृत्व, अभिप्राय की गंभीरता व प्रस्तुति की मौलिकता. जिनके ओजस्वी प्रवचनों से व्यक्ति और समाज में अभूतपूर्व परिवर्तन आए. यशस्वी कार्य : बाल-दीक्षा प्रतिबन्ध प्रस्ताव को निरस्त कराकर पुनः बाल-दीक्षा का प्रारम्भ कराया. शत्रुजय महातीर्थ के बाँध में होनेवाली मछलियों की जीव-हिंसा पर रोक लगवाई. मुम्बई महानगरपालिका के द्वारा विद्यालय के बच्चों को अल्पाहार में फूड-टॉनिक के रूप में अण्डा दिए जाने के निंदनीय प्रस्ताव को खारिज करवाया. राजस्थान सरकार द्वारा ट्रस्टों में अपना प्रतिनिधि नियुक्त करने के अध्यादेश को कुशल युक्तियों के द्वारा राज्यपाल को समझा कर वापस कराया. राणकपुर तीर्थ में फाईव स्टार होटल के निर्माण पर रोक लगवा कर तीर्थ की पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रखा. जिन्होंने आठों कर्मों का क्षय कर दिया है और अनन्त चतुष्टय से युक्त हैं उन आचार्यों को भावभरी वंदना, सौजन्य श्रीमती विमलाबेन प्रमोदभाई शाह परिवार, मुंबई 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक इमरजेंसी के समय भारत के प्रधानमंत्री को राष्ट्रहित में मार्गदर्शन. जैनएकता, संगठन व जैन कॉन्वेन्ट-स्कूलों के सफल प्रेरणादाता. इक्कसवीं सदी में महान श्रुतोद्धार का कार्य किया. दक्षिण भारत का कायाकल्पः दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान आचार्यश्री ने इस क्षेत्र को एक नई दिशा दी. बरसों बाद दक्षिण भारत में धर्म आराधना व ज्ञान की मंद धारा तेजी से बहने लगी. बेंगलोर चेन्नई ,मैसूर,दावणगेरे,हुबली,निपाणी,मड़गाँव,कोल्हापुर आदि जैन संघों के प्रति किए गए आपके उपकार चिरस्मरणीय हैं. श्रीमती इन्दिरा गाँधी व तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री बी.डी. जत्ती आपके दर्शानार्थ आये. कर्नाटक के तत्कालीन डी.जी. श्री जी. वी. राव ने पूज्यश्री के परिचय में आकर मांसाहार आदि व्यसनों का त्याग कर दिया. गोवा प्रदेश के इतिहास में सैकड़ों वर्ष बाद जिनालय की भव्य अंजनशलाका-प्रतिष्ठा आपकी पावन निश्रा में सम्पन्न. ऐतिहासिक कार्यः वालकेश्वर(मुम्बई) श्रीसंघ को जैन परंपरा और सिद्धान्त का मार्गदर्शन किया. श्रीसंघ ने यह निर्णय किया कि भगवान को अर्पित द्रव्य का उपयोग अन्य कार्यों में नहीं किया जाएगा. श्रीसंघ ने आपको सम्मेतशिखर तीर्थोद्धारक के बिरूद से सम्मानित किया. राष्ट्रपति श्री शंकरदयाल शर्माजी ने राष्ट्रपति भवन में आपके पावन पदार्पण कराके आशीर्वाद ग्रहण किया. राष्ट्रपति भवन में आपका अद्भुत स्वागत किया गया. काठमाण्डू (कमल पोखरी) में आपकी निश्रा में श्री महावीरस्वामी जिनमन्दिर की भव्यातिभव्य प्रतिष्ठा हुई. आपकी निश्रा में विश्व हिन्दू महासभा का अधिवेशन काठमाण्डू में सम्पन्न हुआ, जिसमें विश्व के १४ देशों से अग्रणी हिन्दू प्रतिनिधियों ने भाग लिया था. भारतवर्ष की पवित्र भूमि हरिद्वार में प्रथम जिनमन्दिर रूप श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ की भव्य अंजनशलाका-प्रतिष्ठा कराई. पूज्यश्री की प्रेरणा से जोधपुर नरेश श्री गजसिंहजी ने महल में पिछले ४०० सालों से चली आ रही दशहरा के दिन भैंसे की बलि की प्रथा बंद करवाई. जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक युवक महासंघ, जैन डॉक्टर्स फेडरेशन एवं जैन चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट विंग की स्थापना आपकी प्रेरणा से हुई, जो पूरे भारत के जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघों को अपनी विशिष्ट सेवाएँ प्रदान कर रही है. सात भय से रहित, सातों संसार के ज्ञाता तथा सप्तविध गुप्तोपदेशक आचार्यों को शत-शत नमन. आचार्यों को भावभरी वंदना. हर्षदराय प्रा. लि., मुंबई 14 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक प्रभु महावीर की निर्वाण भूमि पावापुरी गाँव के सभी वर्गों के लोगों द्वारा मांस-मदिरा का पूर्णतः त्याग, जलमंदिर में मछली पकडने की हमेशा के लिए पाबन्दी एवं सरोवर की पवित्रता बनाए रखने का शुभ संकल्प, गौतमस्वामी की जन्म स्थली कुण्डलपुर (नालन्दा) तीर्थ भूमि के मंदिर की महोत्सव पूर्वक प्रतिष्ठा, जो वर्षों से आपकी निश्रा की प्रतिक्षा कर रही थी. भारत की राजधानी दिल्ली में शासन प्रभावक चातुर्मास कर विभिन्न धर्म समुदाय के लोगों को सन्मार्ग पर लाया. हरिद्वार में सर्वधर्म के धर्मगुरुओं द्वारा सार्वजनिक अभिनंदन का सन्मान प्राप्त किया. बोरीज तीर्थ के ऐतिहासिक जिनमंदिर का निर्माण करवाया. श्री सिमंधर जिन मंदिर महेसाणा, श्री शान्तिनाथ जैन तीर्थ वटवा, श्री नेमिनाथ जैन बावन जिनालय प्राचीन तीर्थरांतेज, श्री संभवनाथ जैन आराधना केन्द्र, तारंगाजी आदि जैन तीर्थों के उद्धारक व सहयोगदाता. श्रुतोद्धार के कार्यः एल. डी. इन्स्टीट्यूट, अहमदाबाद को साहित्यिक समृद्धि प्रदान करने में पूज्य श्री का बहुत बड़ा योगदान रहा है. आठ हजार बहुमूल्य हस्तलिखित ग्रन्थों का विशिष्ट योगदान करके आचार्यश्री ने संस्थान को गौरवान्वित किया और भारतीय संस्कृति की मूल्यवान निधि को नष्ट होने से बचाया. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में लगभग डेढ़ लाख पुस्तकों तथा दो लाख हस्तप्रतों का विशाल संग्रह संग्रहीत करवा के जैन समाज की विरासत को और आगे की पीढी को समर्पित करने का सफल योगदान किया. अहमदाबाद (पालडी) में साधु-साध्वीजी प्रमुख वाचकों के लिए नवीन लायब्रेरी का निर्माण करवाया. अमर सृजन :श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र गच्छाधिपति आचार्यदेव की सत्प्रेरणा से कोबा में २६ दिसम्बर १९८० को श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र की विधिवत् स्थापना हुई, जो आज जिनशासन की प्रतिनिधि संस्थाओं में प्रमुख स्थान प्राप्त कर चुकी है. यहाँ भव्य जिनालय, ज्ञानभंडार, उपाश्रय, गुरुमंदिर, मुमुक्ष कुटीर आदि विविध विभागों के साथ विकसित होकर जिनशासन की प्रभावना करने में समर्थ है, गच्छाधिपति आचार्य श्री कैलाससागरसूरि की पुण्य स्मृति में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर की स्थापना कराकर जैन धर्म-दर्शन व प्राच्यविद्या के क्षेत्र में अवगाहन करने वाले मनिषियों को अनुपम उपहार से उपकृत किया है. इतने विशाल पैमाने पर जैन साहित्य की प्रभावना करने से आचार्यश्री का सम्मानित नाम सदियों तक जैन इतिहास की अग्र पंक्तियों में स्वर्णांकित रहेगा. देशी-विदेशी विद्वानों तथा संशोधकों के लिए यह ज्ञानमंदिर आशीर्वादरूप सिद्ध हुआ है.. भारतीय व जैन शिल्प कला स्थापत्य के नमूने, सैकड़ों मूर्तियाँ इत्यादि बहुमूल्य पुरातन सामग्री जैन शासन की अमूल्य निधि व धरोहर संगृहीत कर सम्राट् सम्प्रति संग्रहालय भी स्थापित किया गया, जिसका लाभ दर्शकों को निरंतर मिल रहा प्रकार की ब्रह्मचर्य-गुप्ति के पालक, दस प्रकार के श्रमण-धर्म, ग्यारह प्रकार की उपासक प्रतिमा एवं ग्यारह प्रकार की ज्ञान संस्कार की विधि के ज्ञाता आचार्यों को भावभरी वंदना. सौजन्य वी टेक्ष वीवींग एण्ड मेन्युफेक्चरींग मील प्रा. लि., शान्तिलाल कवाड, मुंबई 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक विविध उपाधियाँ : भूतपूर्व राष्ट्रपति महामहिम श्री नीलम संजीव रेड्डी के द्वारा 'राष्ट्रसन्त' की उपाधि से विभूषित. वालकेश्वर (मुम्बई) श्रीसंघ ने सम्मेतशिखर तीर्थोद्धारक के बिरूद से सम्मानित किया. राणकपुर - सादडी श्री संघ ने श्रुतोद्धारक पद से सम्मानित किया. शासन प्रभावना : तीर्थयात्राएँ : विहार : पदयात्राएँ : प्रतिष्ठाएँ : उपधान तप : यात्रासंघ : दीक्षाएँ : शिष्य-प्रशिष्य : भारत के लगभग सभी छोटे-बड़े तीर्थ. नेपाल (काठमांडू), राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, तामिलनाडु, गोवा, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, उत्तरांचल, झारखंड. एक लाख किलोमीटर से अधिक. ७१ १२ ११ ७० ३१ लगभग २८ प्रकाशन- हिन्दी, गुजराती व अंग्रेजी में. साहित्य प्रकाशन : आपकी अमृतमयी वाणी 'मैं सभी का हूँ, सभी मेरे हैं. प्राणी मात्र का कल्याण मेरी हार्दिक भावना है. मैं किसी वर्ग, वर्ण, समाज या जाति के लिए नहीं, अपितु सबके लिए हूँ. व्यक्तिराग में मेरा विश्वास नहीं है. लोग वीतराग परमात्मा के बतलाये पथ पर चलकर अपना और दूसरों का भला करे, यही मेरी हार्दिक शुभेच्छा है.' पूज्य पंन्यासश्री अमृतसागरजी महाराज के आचार्यपदवी महोत्सव के शुभ अवसर पर जैनश्रमण संस्कृति के गौरव आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी के चरणों में हमारी आपकी सबकी नतमस्तक कोटिशः वंदना. तीन दण्ड, तीन गारव, तीन शल्य से रहित हैं, तीन गुप्ति से गुप्त हैं तथा त्रिकरण विशुद्ध आचार्यों को भावभरी वंदना. सौजन्य नगीनदास डुंगरसी चेरीटेबल ट्रस्ट, मुंबई 16 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक पद्मसागर की एक बूंद अमृतसागर पं. मनोज र. जैन, डॉ. हेमन्तजी कैलास से सागर तक प्रवाहित कल्याण गंगा की निरंतर बहती धारा को अपने में समाहित किए पद्मसागर की एकएक बूंद जिनभक्ति-गुरुभक्ति की अनन्य सेवा में तल्लीन है, उस पद्मसागर की एक बूंद अमृत का पान कर जन-जन के हृदय में प्रभुभक्ति-गुरुभक्ति का रसास्वादन कराते हुए संयम एवं तपश्चर्या के उस शिखर को प्राप्त कर रही है, जिसे प्राप्त करने की भावना सभी श्रमणों के मन में होती है. वर्तमान में सागरसमुदाय के तप-जप मौन साधना के उच्चसाधक पूज्य पंन्यास श्री अमृतसागरजी आज अपनी आराधना एवं योग्यता के बल से श्रमण परम्परा के गरिमापूर्ण पद 'आचार्य पदवी' से अलंकृत हो रहे हैं. आपश्री को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होते देख कर जैन समाज गौरव का अनुभव कर रहा है. मनोविज्ञान का कहना है, कि व्यक्ति हृदय में जैसे भाव होते हैं, वे ही भाव उसके चेहरे पर भी पढे जा सकते हैं. व्यक्ति के हृदय में उत्पन्न होनेवाले भाव उसके मुख पर उभरते हैं. व्यक्ति का चेहरा पुस्तक के पृष्ठ के समान होता है, जिसे कुशल ठीक उसी तरह चेहरे के भावों को पढ़ने में समर्थ पूज्य गुरुदेव, राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. (तत्कालीन मुनि श्री पद्मसागरजी) ने अवन्तिकुमार के चेहरे का भाव पढकर ही दीक्षा के समय उनका नामकरण मुनि अमृतसागर किया था. 'यथा नाम तथा गुण' की कहावत को चरितार्थ करते हुए पूज्यश्री की हित-मितपथ्यकारी वाणी के प्रभाव से कई लोगों ने सन्मार्ग ग्रहण किया है. आपकी भावना यही रहती है कि मानव समुदाय नीतिमान और आराधक बने. आप मानव-समाज का कल्याण करने में सदैव तत्पर रहते हैं.. जैन धर्म और संस्कृति के केन्द्र समान गुजरात के साणंद नगर में वैशाख कृष्ण १३, विक्रम संवत् २००८ दिनांक २२ मई, १९५२ के दिन पुण्ययोग से सागरसमुदाय के अनन्य गुरुभक्त ऐतिहासिक 'चांदा मेहताना टेकरा' में रहने वाले शेठ श्रीमान दलसुखभाई गोविंदजी मेहता के घर संघमाता तुल्य श्रीमती शांताबेन की रत्नकुक्षी से एक तेजस्वी बालक ने दशवीं संतान के रूप में जन्म लिया. जिनशासन व सुविहित गुरु परम्परा में समर्पित पिता व माता ने जिनशासन के भावि जाज्वल्यमान नक्षत्र का नाम अवंतिकुमार रखा. आपका जन्म जिस परिवार में हुआ उस परिवार की सागरसमुदाय के प्रति ण भावना हम सभी के लिये गौरव लेने योग्य है. बीसवीं सदी के महान योगनिष्ट आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरजी के प्रति श्रीमान दलसुखभाई की गुरुभक्ति सर्वविदित रही है. उस जमाने में कुछेक अल्पमति दृष्टिरागी लोग साणंद में पूज्यश्री को उपद्रव करने लगे थे. उस समय आचार्यश्री के साथ रहकर आपने अनुकरणीय नैतिक सहयोग दिया था. आचार्य श्री की अमीदृष्टि उनके जीवन की मूल्यवान पूंजी थी. साणंद का श्री संघ भी पूज्य आचार्यश्री के प्रति आदर बहुमान करनेवाला था. आज के प्रसिद्ध तीर्थधाम महुडी की जैसे एक दीपक सैकडों दीपकों को प्रज्वलित करता है उसी प्रकार स्वयं को ___एवं अन्य अनेकों को प्रतिबोधित करनेवाले आचार्यों को भावभरी वंदना. सौजन्य गोळावाला डायमंड, मुंबई हस्ते अमृतलाल मोहनलाल शाह 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक स्थापना में साणंद संघ का सबसे मुख्य सहयोग रहा है. साणंद श्रीसंघ का साथ न होता तो शायद मधुपुरी में तीर्थ न बनता. जब महुडी में आचार्यश्री को प्रथम बार श्री घंटाकर्ण वीर की मूर्ति स्थापित करने की प्रेरणा हुई तब उस मूर्ति को बनवाने की पूर्ण जिम्मेदारी आचार्यश्रीने इन्हीं प्रौढ़ श्रावक श्रीमान् दलसुखभाई महेता को सौंपी. तीन दिन तक जयपुर में रहकर श्री दलसुखभाईने आचार्यश्री की दिव्य प्रेरणानुसार मूर्ति का निर्माण कराया था. पूज्य आचार्यश्री की श्री दलसुखभाई पर इतनी कृपा दृष्टि थी कि उन्होंने स्वयं एक छोटी सी श्री घंटाकर्ण की छवी आशीर्वाद के रूप में उनको अर्पित की थी. जो आज भी साणंद के जिनालय में दर्शनार्थ लगाई गई है. योगनिष्ठ पूज्यश्री के अनन्य भक्तों की पंक्ति में दलसुखभाई महेता का नाम अग्रगण्य था. जब भी कोई शासन का प्रश्न उठता तो श्री महेता आचार्यश्री के समर्थन में हमेशा अडिग रहते थे. आचार्य श्रीमद् के प्रति आपकी आस्था और गुरुभक्ति अनन्य कोटि की थी. ऐसे परिवार में सात भाई व तीन बहनों में सबसे छोटे अवंतिकुमार को माता-पिता व सभी भाई-बहनों का लाङप्यार मिल रहा था, संसार की समस्त सुख-सुविधाएँ बालक के चारों ओर घूम रही थी, बालपन सुखमय व्यतीत हो रहा था, किन्तु शांत प्रकृति अवंतिकुमार का मन सांसारिकता से अध्यात्म की ओर प्रेरित हो रहा था. वीतराग का कल्याणकारी संयम मार्ग उनके हृदय को भा गया. मन में चारित्र की एक ही लगन अंकुरित होने लगी. विद्यानुरागी अवंतिकुमार ने प्राथमिक शिक्षा साणंद शहर के शेठ सी. के. हाईस्कूल में तथा अहमदाबाद शाहपुर के ज्ञानयज्ञ विद्यालय से नौवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की. विद्यार्जन की लगन ने आपको अपने सहपाठियों व गुरुजनों का प्रियपात्र बना दिया. लौकिक शिक्षा प्राप्त करने के क्रम में आप आध्यात्मिक शिक्षा भी प्राप्त करते रहे. अपने भाई-बहनों व मित्रों के साथ खेलने में नेतृत्व करते व सभी को अच्छी-अच्छी बातें बताते और पढने के लिए प्रेरित भी करते. वे गुण आज भी पूज्यश्री की विशिष्टता के परिचायक हैं. व्यावहारिक शिक्षा के साथ साथ धार्मिक क्रिया कलापों में भी आपकी अभिरुचि रहती. माता-पिता के संस्कार स्वतः ही बालक में दृष्टिगत होने लगे. वैराग्यशील आत्मा संयम धारण करने के लिए आतुर होने लगी. पूर्वजन्म में अभ्यस्त त्याग और वैराग्य सहज में प्रकट होने लगे. माता-पिता की भी ऐसी भावना थी ही कि उनकी एक संतान तो आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी की परम्परा में संयम ग्रहण कर प्रभु शासन को समर्पित हो. उनकी यह भावना भी आगे जा कर अवंतिकुमार के दीक्षा ग्रहण के लिए बडी निर्णायक सिद्ध हुई. पिता श्री दलसुखभाई और माता शांताबेन ने अपने लाडले १७ वर्षीय अवन्तिकुमार को जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने के लिए पूज्य योगनिष्ठ आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी की पाट परम्परा में जिनके करकमलों से महान शासन प्रभावना होगी ऐसे लक्षण देखकर पूज्य गुरुदेव श्री पद्मसागरसूरिजी के श्रीचरणों में अपने कुल दीपक को समर्पित कर शासन प्रभावना व गुरुपरम्परा के प्रति आस्था का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत किया. जिनकी विशिष्ट कृपादृष्टि महेता परिवार पर जीवनपर्यन्त रही. ऐसे परम पूज्य प्रशान्तमूर्ति आचार्य श्री कीर्तिसागरसूरीश्वरजी ने अपने वरदहस्तों से पूज्य आचार्य श्री कैलाससागरसूरिजी की पावन उपस्थिति में मार्गशीर्ष शुक्ला ४, विक्रम संवत् २०२५, दिनांक २३ नवम्बर, १९६८ को अहमदाबाद अरुण सोसायटी में मुमुक्षु अवंतिकुमार को भागवती दीक्षा 10 .0 0 0 0 0 0 RREE पाँच इन्द्रियों के विषयों को रोकनेवाले, नव प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्ति के धारक, चार कपाय से रहित, पंच महाव्रत युक्त, पंचाचार पालक, पाँच समिति से समित एवं तीन गुप्ति के धारक आचार्यों को भावभरी वंदना. 000000000 भरतभाई के. शाह परिवार, सहयोग ग्रूप, पूना 18 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक प्रदान कर मुनि अमृतसागरजी नामकरण किया. वह दिन नवदीक्षित मुनि के जीवन में ऐतिहासिक परिवर्तन का दिन था. लगा जैसे उत्तम बीज को किसी ने मरुभूमि से लाकर उर्वर भूमि में रख दिया हो, पूज्य गुरुदेव का सान्निध्य पाते ही नूतन मुनि की आध्यात्मिक भावना ने अपना रंग दिखाना प्रारम्भ कर दिया. विद्याभ्यास, संयम एवं तप-जप की ऐसी साधना आरम्भ हुई कि क्रमशः गणि व पंन्यास पद प्राप्त कर प्रभु महावीर की पाट परम्परा में शासन धुरा वहन करने वाले आचार्य पद की योग्यता को उजागर कर दिया. सदा आनंदमय सौम्यता का गुण आपने आभूषण की तरह संचित किया है. आपके दिव्य, तेजस्वी, यशस्वी चेहरे पर सौम्यता हर क्षण लहराती रहती है. संयम उसी में स्थिर रहता है जो सरल स्वभावी होता है, उनके तप-जपमय चारित्र के प्रभाव से एक सौम्य आभा उनके चारों ओर बनी रहती है. इसी कारण पूज्य पंन्यासजी के परिचय में आने वाला व्यक्ति भी आपसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता. सहजता-सरलता ही चारित्रवान व्यक्तित्व का गुण है. उदारता आपके जीवन का सर्वविदित गुण है. संयमी को सहयोगी बनने के भाव आपके हृदय में कूट-कूट कर भरे हुए हैं. निखालसता, करुणा और वात्सल्य के कारण आप श्रमण समुदाय में सबके प्रिय व श्रद्धेय बने हुए हैं. आप में करुणा इतनी है कि आपको परदुःख में स्वयं को दुःखी अनुभव करते देखा गया हैं. समस्त श्रमणों के साथ विशिष्ट मैत्रीपूर्ण व्यवहार करते हुए आप संयम में सदा प्रफुल्लित रहते हैं. कुशल जीवन शिल्पी पंन्यास श्री अमृतसागरजी ने अपने वात्सल्य तथा कृपापूर्ण भावों से कई मानवों को सन्मार्ग की ओर प्रवृत करने में सफलता प्राप्त की है. कई परिवारों को धर्म पथ पर लाकर समाज कल्याण का कार्य किया है. आप ऐसे परोपकारी कार्यों से आनन्द का अनुभव करते हैं. जिनशासन को समर्पित जीवन वैभव के धनी पूज्य पंन्यास प्रवर श्री अमृतसागरजी नूतन दीक्षित मुनियों को पंचाचार पालन और व्यावहारिक जीवन के आवश्यक पहलुओं के लिये मार्गदर्शन करते हुए उल्लासपूर्वक संयमित जीवन जीने की कला सिंचित करते रहते हैं. सदा प्रसन्न आत्मीय मृदु व्यवहार, सरल हृदय, सादगीपूर्ण जीवन और मधुरवाणी आपके संत हृदय व्यक्तित्व के परिचायक है. आपकी प्रेरणा से कई मुमुक्षुओं ने संयम मार्ग में स्थिरता प्राप्त की है. अध्ययनशील पूज्यश्री मूलतः गुजराती होते हुए भी उत्तर व दक्षिण भारत के कई भाषाओं का ज्ञान रखते है. आप संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, मराठी तथा गुजराती भाषा के ज्ञाता हैं. प्रभु भक्ति के परम अनुरागी पूज्य पंन्यासश्री का अधिकतम समय आभ्यन्तरतप और जप में व्यतीत होता है. आपकी संयमयात्रा से प्रसन्न पू. आचार्य श्री ने वसंतपंचमी माघ शुक्ला पंचमी वि. सं. २०४९ दिनांक २८ फरवरी, १९९३ को अहमदाबाद में गणिपद से विभूषित किया. पूज्यश्री की देव-गुरु तथा धर्म के प्रति प्रगाढ निष्ठा इसी से प्रगट होती है कि आप स्वयं बड़ी मात्रा में महामंत्र नवकार का जाप करते रहते हैं तथा परिचय में आने वाले व्यक्तियों व अनुयायियों को भी नवकार महामंत्र को आत्मसात करने की प्रेरणा देते हैं. नवकार मंत्र की आराधना करने एवं इसी में विश्वास रखने के लिये प्रेरित करते हैं. आपका जीवन नवकार महामंत्र के प्रभाव की विकासयात्रा का प्रकट रूप है. विकल्पविधि के ज्ञाता, लिपि-गणित-शब्द-अर्थ-निमित्त-उत्पाद और पुराण को ग्रहण कर उनके रहस्यों को जाननेवाले आचार्यों को भावभरी वंदना. ० सौजन्य शाईन डीझाईन प्रा. लि., मुंबई 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक संगीतप्रिय पूज्यश्री रागरागिनी में स्तवनों व पदों के द्वारा आत्म मस्ती में स्वयं तो मग्न रहते ही हैं, साथ-साथ आराधना में उपस्थित श्रोताओं के हृदय कमलों को भक्तिसंगीत के द्वारा प्रफुल्लित कर देते हैं. इतना ही नहीं मानो कि भजनों के स्वर आपके कंठ का स्पर्श पाकर मधुरता प्राप्त करते है. आपने भारत भर के प्रायः सभी कोनों में विचरण कर भारत भूमि को पवित्र किया है व विदेश में काठमांडू (नेपाल) तक जाकर अपने अनुभवों को समृद्ध किया है.शास्त्र वचन है कि देशाटन का अनुभव भी आचार्य पद प्रदान के लिये एक महत्त्वपूर्ण योग्यता है, जिसे आपने गुरु की निश्रा में रहकर प्राप्त की है. पंन्यासश्री में गुरुभक्ति है कि ऐसी धुन की ३८ वर्ष के सुदीर्घ संयम पर्याय में निरंतर वैयावच्चमय गुरुकुलवास का सौभाग्य प्राप्त किया है. गुरु की प्रत्यक्ष निश्रा में दीर्घ संयमी जीवन व्यतीत करने का अवसर पुण्योदय से ही प्राप्त होता है. वर्षीतप, अठठाई, नवपदजी की ओली, वर्द्धमान तप की ओली आदि अनेक विध तपों से पवित्र आपश्री का जीवन अन्य जीवों के लिये भी प्रेरणादायी रहा है. आपकी योग्यता को देखते हुए पूज्य गुरुदेव आचार्यश्री ने तीर्थाधिराज श्री सम्मेतशिखर की पावन भूमि पर वसंतपंचमी के दिन (माघ शुक्ल पंचमी) विक्रम संवत् २०५२, दिनांक २४ जनवरी, १९९६ के दिन आपको पंन्यासपद से विभूषित किया. पूज्य पंन्यास श्री अमृतसागरजी के संसारी बडे भ्राता श्रीमान् महेशभाई और श्रीमती धर्मज्ञाबेन ने अपने हृदय के टुकडे समान पुत्र भाविककुमार को उसकी जन्म से ही तेजस्वी पुण्यशालीता को देख कर जिनशासन की सेवा के माध्यम से जगत कल्याण हेतु अपने अनुज बन्धु के शिष्य के रूप में जिनशासन को समर्पित किया, जो आज के जैन जगत में मुनिपद पर रहते हुए भी गुरुजनों के आशीर्वाद से अभूतपूर्व शासन प्रभावना कर रहे हैं. गुरुपरम्परा के विस्तरण में प्रयत्नशील पूज्यश्री ने एक शिष्य एवं दो प्रशिष्यों की अभिवृद्धि की है, जो सुंदर संयम पालना पूर्वक श्रीसंघ की निरन्तर सेवा कर रहे हैं. आपने एकमात्र शिष्य मुनि नयपद्मसागरजी को उनकी छुपी शक्तियों को पहचान कर उन्हें हर तरह की शिक्षाएँ देकर समर्थ बनाया. 'एकश्चंद्रः तमोहंति...' की कहावत को चरितार्थ करने में समर्थ शिष्य, जैन एकता के कार्य में स्वयं को अहर्निश समर्पित हो अपने गुरु भगवंतों की कृपा प्राप्त कर जैन एकता का अभूतपूर्व कार्य कर रहे हैं. मुनिश्री नयपदमसागरजीने Jain International organization (J.I.O), Jain International Trade organization (J.I.T.O), Jain Doctors Federation. Jain C.A Federation. Jain Advocate Federation. जैन संस्थान, जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक युवक महासंघ आदि अनेक संगठनों की स्थापना कराकर जैन समाज के शक्ति केन्द्रों को सुसंगठित किया है व इनके माध्यम से शिक्षा आदि के क्षेत्र में एक नई जागृति व क्रांति लाई है. पूज्य पंन्यास प्रवरश्री के अंतरंग समर्थन सहित मुनिश्री का यह कार्य जैन एकता का बेनमून व जीता जागता उदाहरण है. जैन एकता के भगीरथ कार्यों में आशीर्वाद रूप सशक्त बल प्रदान कर आपने जैन समाज को उपकृत किया है. जिनशासन की सेवा में समर्पित पूज्य पंन्यास प्रवर श्री अमृतसागरजी महाराज का व्यक्तित्व व कृतित्व हमारी प्रेरणा के स्रोत बने रहेंगे, आचार्य पद पदारोहण की मंगलमय वेला में कोटिशः वंदना. चार प्रकार की विकथा तथा चार कपायों के त्यागी हैं और चार प्रकार की विशुद्ध बुद्धि से युक्त, चतुर्विधाहार निरालवमतिवाले। आचार्यों को भावभरी वंदना. सौजन्य - थराद निवासी प्रेमचंद मणीलाल मोरखीया, मुंबई 20 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक अमृतसागर के अमृत-वचन १. हम जिसके प्रति आसक्त बने हैं, उससे विरक्त होकर हमें पूर्णता की ओर प्रयाण करना चाहिए. २. निःसार-संसार को समझ लेने के बाद, विषयों के थोथे आनंद में ब्रह्मानंद को कौन भूल सकता है. ३. अहर्निश आत्म जागति की ओर बढ़ने का प्रयास साधक को उत्तरोत्तर विकासशील बनाता है. ४. आत्मा ही एक मात्र परमतत्त्व है, ऐसा समझकर अपने गन्तव्य स्थान का लक्ष्य निर्धारित कर लेना चाहिए. ५. आराधना से शून्य जीनव नये पुण्य का उपार्जन नहीं होने देता है. ६. परमात्मा महावीर ने प्यासे को रजोहरण देकर अव्याबाध सुख की प्राप्ति का साधन बताया है. ७. यदि हम चारित्र जीवन ग्रहण नहीं कर सकते, तो जो आज संयम के धारक हैं, उनकी अनुमोदना कर पुण्योपार्जन तो करें. ८. जिन्दगी के सभी पहलुओं पर जो ठीक से नहीं सोचता है, उसकी निश्चिन्तता सच्ची नहीं होती. ऑखो भी बसी कोमलना आँखो में बसी कोमलता मन में बसी विरागता पंचमहाव्रतधारी, पाँच प्रकार के निर्यथ-निदान के ज्ञाता, पाँच प्रकार के चारिख के ज्ञाता, पाँच प्रकार के चारित्र लक्षण से संपन्न तथा पाँच समितियों से समित आचार्यों को भावभरी वंदना. श्री धनराजभाई ढढ्ढा रिलीजीयस ट्रस्ट, मुंबई Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान' महोत्सव विशेषांक Peory अजात शत्रु आचार्य प्रवर श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी की निश्रा में संयम पूर्वे अनुमोदना 00 परिवर्तन का शंखनाद किर्तीसागरसूरीजी के वरद हस्तों से भवतारक रजोहरण ग्रहण प्रभु समक्ष महाप्रण का आनंद दीक्षा विधि में तल्लीन जो विस्मृत पाठ को याद कराते हैं, अशुद्ध पढ़ते हुए को रोकते हैं, अध्ययन के लिए प्रेरित करते हैं। और जो नहीं पढ़ते उन्हें कठोर वचन से प्रेरित करने वाले आचार्यों को भावभरी वंदना. • सौजन्य ● सी. महेन्द्र एक्षपोर्ट, मुंबई 22 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक उज्ज्वल संयमी द्वारा उज्ज्वल संयम का आशीर्वाद - वासक्षेप ग्रहण श्रमणत्व सह गुरु चरणों में समर्पण - नूतन दीक्षीत पाट पर बिराजमान तथा गुरुदेव द्वारा आशीर्वचन नूतन गणिवर्यजी को वर्धमान विद्या प्रदान गच्छाधिपति श्री सुबोधसागरसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रा में गणिपद प्रदान प्रसंग पर उपकारी मातुश्री की उत्साहपूर्ण उपस्थिति દશ 1િોવા, દશ શુદ્ધિ દોષ, યાતિojય રામાધિ, યાર થdeliાધિ, થાણ 1પ: રણaluશિ સાથે યાદ આયાણ સામાધિના પાટ૬ માવા છીણા ગુણોથી યુક્ત जासायनिक सोय જૈMવિજયભાઈ કે. જીરાવાલા, મુંબઈ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक पंन्यास पदवी प्रसंग - दायित्त्व में अभिवृद्धि पदारुढ पूज्यश्री की पदयात्रा का आरंभ - शिष्य संग दायित्त्व भरे कदम गुरु भगवंतों से आशीर्वाद ग्रहण करते हुए नूतन पंन्यासजी भगवंत श्रमणी भगवंतों द्वारा वासक्षेप कराते हुए नूतन पंन्यासजी भगवंत पाप समूह से आक्रान्त और भव रूपी महान अन्ध कूप में डूबे हुए जीवों का जो निस्तारण करते है उन आचार्यों को मैं नमस्कार करता हूँ. चंपालाल किशोरचंद्र वर्धन नीलम ग्रुप कन्स्ट्रक्शन कंपनी मुंबई 24 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतत्तागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक पूज्यश्री की अमृतमय यात्रा दीक्षा दाता : आचार्यदेव श्रीमत् कीर्तिसागरसूरीश्वरजी दीक्षा गुरू : (आचार्य) मुनिराज श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी दीक्षित नाम : मुनिराज श्री अमृतसागरजी शिष्य : मुनिराज श्री नयपद्मसागरजी (संसारी भतीजे) प्रशिष्य : मुनि श्री ध्यानपद्मसागरजी, मुनि श्री अक्षयपद्मसागरजी वर्तमान उम्र : ५५ वर्ष वर्तमान संयम पर्याय : ३८ वर्ष पदयात्रा : प्रायः सम्पूर्ण भारत व नेपाल सहित ७०,००० कि.मी. संस्कार दाता उपकारी परिवार सागर समुदाय के प्रति विशेष समर्पित, आचार्य श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी के आशीर्वाद से सिंचित साधु-साध्वीजी भगवंतों के पिता तुल्य विनम्र स्वभावी पिताश्री महेता दलसुखभाई गोविंदभाई संस्कार दात्री मातृश्री शांताबेन आचार्य भगवंत के आशीर्वाद सह स्थापित नाम : सबसे लाडले सबसे छोटे अवन्ती कुमार सहकारी बन्धु वर्ग स्व. भरतभाई, कुमुदभाई, महेशभाई, शरदभाई, शैलेशभाई, जयन्तभाई वात्सल्यदात्री बहनें स्व. प्रभावतीबेन, भारतीबेन, ज्योत्सनाबेन साणंद का सागर से सागर का साणंद से ऋणानुबन्ध साणंद (आनंदमय साणंद) धर्मभूमि, संस्कार भूमि, तीर्थ भूमि विद्वान आचार्य भगवंतों की चरण रज से पवित्रता को प्राप्त पावन भूमि * प.पू. मुनिराज श्री रविसागरजी म.सा. विचरण (कर्म) भूमि * प.पू. आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी म.सा. योग साधना भूमि * प.पू. आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. ज्ञानाभ्यास भूमि छः प्रकार की विकथा के त्यागी, षड्द्रव्यों के ज्ञाता, षट्स्थान विशुद्ध प्रत्याख्यान के उपदेशक तथा पड़ जीवनिकाय के प्रति दयावान आचार्यो को भावभरी वंदना. सौजन्य विमलाचल प्रिण्ट एण्ड पेक्स प्रा. लि., वी. आर, शाह स्मृति शिक्षण मंदिर, अहमदाबाद 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक * प.पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. संयम स्वीकार भूमि * प.पू. पंन्यासप्रवर श्री अमृतसागरजी म.सा. अवतरण (जन्म) भूमि • प.पू. मुनिराज श्री नयपद्मसागरजी म.सा. बाल क्रीडा व दीक्षा भूमि * अनेक आत्माओं की संयम भावना पल्लवित करने वाली भूमि * पूज्यों के उपकारों से सदा सर्व को मोक्ष साधना में सहायक भूमि संयमी की भावयात्रा जन्म २००८ वैशाख वदी १३, २२ मई १९५२, साणंद (चांदा महेतानो टेकरो) दीक्षा २०२५ मागसर सुदी ४, २३ नवम्बर १९६८, अहमदाबाद (विश्वनंदीकर जैन संघ) बड़ी दीक्षा २०२५ महा सुदी ११, २९ जनवरी १९६९, माणसा (मुख्य मंदिर के प्रांगण में) गुरु पद २०४० महा सुदी ६, ०८ फरवरी १९८४, साणंद (सागरनो उपाश्रय) गणिपद २०४९ महा सुदी ५, २८ फरवरी १९९३ अहमदाबाद (साबरमती) पंन्यास पद २०५२ महा सुदी ५ २४ जनवरी १९९६ सम्मेतशिखरजी (भोमियाजी भवन) जिनेश्वर रूपी सूर्य तथा सामान्य केवली रूप चन्द्र के भी अस्त होने पर जो प्रदीप के समान पदार्थ स्वरूप को प्रकट करते हैं, उन आचार्यों को मैं नमस्कार करता हूँ. महेन्द्र ब्रधर्स मुंबई 26 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक પંન્યાસશ્રી અમૃતસાગરજીનો મિતાક્ષરી પરિચય મનોજ ૨, જૈન, જ્ઞાનતીર્થ કોબા વર્તમાનમાં સાગર સમુદાયમાં તપ-જપ-મૌનની સાધનાના ઉચ્ચ આરાધક પૂજ્ય પંન્યાસ શ્રી અમૃતસાગરજી આજે તો પોતાની સાધના અને યોગ્યતાના બળથી શ્રમણ પરંપરાના ગરિમાપૂર્ણ પદ ?આચાર્ય પદવી?થી અલંકૃત થઈ રહ્યા છે. પૂજ્યશ્રીને આચાર્ય પદે વિભૂષિત કરીને જૈન સમાજ ગૌરવનો અનુભવ કરવા થનગની રહ્યો છે. મનોવિજ્ઞાનનું કહેવું છે કે વ્યક્તિના હૃદયમાં જે ભાવો રમણ કરતાં હોય છે, તે ભાવો તેના ચહેરા પર વાંચી શકાય છે. અર્થાત્ વ્યક્તિના હૃદયમાં ઉત્પન્ન થતાં ભાવો તેના મુખકમલ પર ઉભરી આવતા હોય છે. વ્યક્તિનો ચહેરો પુસ્તકના પાના સમાન હોય છે. જેને કુશળ માનવ વાંચી લેતો હોય છે. આ જ રીતે ચહેરાના ભાવોને ઉકેલવામાં સમર્થ પૂજ્ય ગુરુદેવ, રાષ્ટ્રસંત આચાર્ય શ્રીમતું પદ્મસાગરસૂરીશ્વરજી મહારાજે (તત્કાલિન મુનિ શ્રી પદ્મસાગરજીએ) સાણંદ ખાતે ઉપાશ્રયમાં બાલક્રીડા - આરાધના કરતા સુકુમાર એવા શ્રી અવન્તિકુમારના ચહેરાના ભાવો પારખીને જ પાત્રતા પ્રમાણે દીક્ષા વખતે તેમનું નામકરણ મુનિ શ્રી અમૃતસાગરજી રાખ્યું હતું. યથા નામ તથા ગુણની કહેવતને ચરિતાર્થ કરનારા પંન્યાસશ્રીની વાણીના પ્રભાવે ઘણા ભવ્યજીવો ધર્મ માર્ગે જોડાયા છે. જૈન ધર્મ અને સંસ્કૃતિના કેન્દ્ર સમા ગુજરાત રાજ્યના સાણંદ નગરમાં વૈશાખ વદી ૧૩, વિ. સં. ૨૦૦૮ના રોજ પુણ્યયોગે સાગર સમુદાયના અનન્ય અનુરાગી શેઠ શ્રી દલસુખભાઈ ગોવિંદજી મહેતાના ઘરે સંઘમાતા તુલ્ય શ્રીમતી શાન્તાબેનની રત્નકુક્ષીથી દશમી સંતાન રૂપે એક તેજસ્વી બાળકે જન્મ લીધો. જિનશાસનની સુવિહિત ગુરુપરંપરાને સમર્પિત માતા પિતાએ પ્રભુ મહાવીરના શાસનમાં જાજ્વલ્યમાન નક્ષત્ર થનારા ઓ નવજાત લાડકવાયાં બાળકનું નામ અવન્તિકુમાર પાડ્યું. जिन्होंने सूत्रों के सार जान लिये हैं, जो केवल परोपकार करने में तत्पर हैं और जो तत्त्वोपदेश रूप धर्म दान देते हैं, उन आचार्यों को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ. कीर्तिलाल कालीदास महेता परिवार Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक અવન્તિકુમારનો જન્મ જે પરિવારમાં થયો એ લબ્ધપ્રતિષ્ઠિત પરિવારની યોગનિષ્ઠ શ્રીમદ્ બુદ્ધિસાગરસૂરિજી અને સાગર સમુદાય પ્રત્યેની શ્રદ્ધા અને સમર્પણ ભાવના સહુને માટે ગૌરવ લેવા જેવી અને અનુકરણીય છે. વીસમી સદીના મહાનુ યોગી ક્રાન્તદષ્ટા આચાર્ય શ્રીમદ્ બુદ્ધિસાગરસૂરિજી પ્રત્યેની શેઠ શ્રીમાન્ દલસુખભાઈની ગુરુભક્તિ સર્વવિદિત છે. તે જમાનામાં કેટલાક અલ્પમતિ લોકો સાણંદમાં પૂજ્ય આચાર્યશ્રીને ઉપદ્રવ કરતા હતા તે સમયે શ્રી દલસુખભાઈએ અડીખમ રીતે પૂજ્યશ્રીના પડખે રહી તેમને અનુકરણીય સહયોગ આપ્યો હતો. સાણંદનો સંઘ પણ એ જમાનામાં ઘણો આગેવાન અને ગૌરવશાળી હતો. પૂજ્ય આચાર્યશ્રીના પ્રત્યે બહુમાનના સત્કારવાળો હતો. આજના સુપ્રસિદ્ધ તીર્થધામની મહુડી ખાતે સ્થાપનામાં સાણંદના સંઘનો મુખ્ય સહયોગ રહ્યો છે. કહેવાય છે કે સાણંદ સંઘનો સાથ-સહકાર જો ન હોત તો મહુડીમાં આ તીર્થ કદાચ ન હોત. જ્યારે મહુડીમાં યોગનિષ્ઠ આચાર્યશ્રીને પહેલીવાર શ્રી ઘંટાકર્ણવીરની મૂર્તિ પ્રતિષ્ઠિત ક૨વાની પ્રેરણા થઈ ત્યાંરે મૂર્તિ બનાવવાની પૂર્ણ જવાબદારી પૂજ્યશ્રીએ પ્રૌઢ શ્રાવક શ્રી દલસુખભાઈ મહેતાને જ સોપી હતી. શ્રી દલસુખભાઈએ તે સમયે ત્રણ દિવસ સુધી જયપુરમાં રહીને આચાર્ય ભગવત્તની દિવ્ય પ્રેરણાને અનુરૂપ પ્રભાવશાળી મૂર્તિનું નિર્માણ કરાવ્યું હતું. શ્રી દલસુખભાઈ ઉપર આચાર્યદેવની એટલી બધી કૃપાદૃષ્ટિ હતી કે તેઓશ્રીએ સ્વંય પોતાના હાથે ઘંટાકર્ણવીરની એક આબેહુબ તસ્વીર આશીર્વાદ રૂપે અર્પણ કરી હતી. જે આજે પણ સાણંદના દેરાસરમાં દર્શનાર્થે મૂકાયેલ છે. આચાર્યશ્રીના અનન્ય ભક્તસમુદાયમાં શેઠ શ્રી દલસુખભાઈનું સ્થાન અગ્રગણ્ય હતું. જ્યારે પણ કોઈ શાસનનો પ્રશ્ન ઉઠતો ત્યાંરે શ્રી દલસુખભાઈ મહેતા આચાર્યશ્રીના સમર્થનમાં હંમેશા અડગ ઉભા રહેતા હતા. એવા યશસ્વી પરિવારમાં સાત ભાઈ અને ત્રણ બહેનોમાં સહુથી નાના અવન્તિકુમારને માતા-પિતા અને બધા ભાઈ બહેનોનો લાડ-પ્યાર મળતો હતો. સંસારની સુખ-સુવિધાઓમાં જરાયે કમી ન હોતી. બાળપણ સુખમય વ્યતીત થઈ રહ્યું હતું પરન્તુ અવન્તિકુમારનું ભાગ્યબળ તેમને અધ્યાત્મ તરફ પ્રેરિત કરતું હતું. વીતરાગના કલ્યાણકારી અણગાર ધર્મ દ્વારા જીવન નિર્માણ કરવાનું સદ્ભાગ્ય લઈને અવતર્યા હતા તેથી મા-બાપ, ભાઈ-બહેનોનો અપાર સ્નેહ પણ તેમને આકર્ષી ન શક્યો. ઉલટું બાળહૃદયમાં ચારિત્ર અંગીકાર કરવાની ભાવના પ્રબળ બનવા લાગી. વિદ્યાનુરાગી અવન્તિકુમારે વ્યાવહારિક અભ્યાસ સાણંદની શેઠ સી. કે. હાઈસ્કૂલમાં અને અમદાવાદમાં શાહપુરની જ્ઞાનયજ્ઞ વિદ્યાલયમાં કર્યો. વિદ્યાભ્યાસની લગની ઉત્કૃષ્ટ હતી તેથી જોતજોતામાં પોતાના સહપાઠીઓનામાં અને ગુરુજનોના પ્રિયપાત્ર બન્યા હતા. બાળપણમાં પણ અવન્તિકુમા૨માં એક આગવો ગુણ હતો નેતૃત્વ કરવાનો. જેના કારણે તેઓ ભાઈબહેનો અને મિત્રો સાથે રમતમાં પણ નેતૃત્વ પૂરું પાડતા હતા. અવસરે બધાને સારી સારી વાતો બતાવીને ભણવામાં પ્રેરિત કરતા હતા. બાળપણાનો એ ગુણ આજે પણ તેમની આગવી ઓળખાણ ઉભી કરાવે છે. વ્યાવહારિક શિક્ષણની સાથે સાથે ધાર્મિક ક્રિયા-કલાપોમાં પણ અવન્તિકુમારની અભિરુચિ વિશેષ રહેતી હતી. માતાપિતાના સંસ્કારો બાળકમાં સહજ રીતે દેખાઈ આવે છે. તેઓશ્રીનો વૈરાગ્યશીલ આત્મા સંયમ ધારણ કરવા માટે ઉત્તરોત્તર વધુ આતુર થવા લાગ્યો. જેમને શ્રાવકપણું ફળ્યું હતું એવા માતા શાન્તાબેન અને પિતા દલસુખભાઈની પણ એવી ભાવના તો હતી सत्कार, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, एवं मान-अपमान में समभाव को धारण करनेवाले हैं तथा अचपल, असवल व क्लेश रहित आचायों को भावभरी चंदना, ० सौजन्य ● विमलाबेन सोमचंद खोडीदास शाह परिवार, हस्ते - मोहीतभाई, अहमदाबाद 28 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरिजी રર્વદૃ કાજ महोत्सव विशेषांक જ કે પોતાનું એક સંતાન તો આચાર્યશ્રીની પરંપરામાં દીક્ષિત બનીને જૈન શાસનને સમર્પિત થાય. તેઓશ્રીની આ ભાવના જ આગળ જતાં અવન્તિકુમારને દીક્ષા લેવા માટે નિર્ણાયક સિદ્ધ થઈ. | પિતા શ્રી દલસુખભાઈ અને આત્માના જતન ઇચ્છતા માતા શાન્તાબેને પોતાના લાડકવાયા ૧૭ વર્ષીય અવન્તિકુમારને પારમેશ્વરી ભાગવતી દીક્ષા અપાવવા માટે હૈયાના ઉમળકા સાથે નક્કી કરીને પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી બુદ્ધિસાગરસૂરિજીની પાટ પરંપરામાં જેમના હાથે મહાન શાસન પ્રભાવના થશે એવા પુણ્ય લક્ષણવંતા આચાર્ય શ્રી પદ્મસાગરસૂરિજીના ચરણોમાં પોતાના કુળદીપકને સમર્પિત કરીને પ્રભુ મહાવીરના શાસનની શ્રદ્ધાનું જ્વલંત ઉદાહરણ પ્રસ્તુત કર્યું. જેમની વિશિષ્ટ કૃપાદૃષ્ટિ મહેતા પરિવાર પર જીવનપર્યન્ત રહી એવા પરમ પૂજ્ય પ્રશાન્તમૂર્તિ આચાર્ય શ્રીમતુ આચાર્ય શ્રી કૈલાસસાગરસૂરિજીની પાવન ઉપસ્થિતિમાં વિ. સં.૨૦૨૫ના માગસર સુદ ૪ ના શુભ દિવસે અમદાવાદ અરુણ સોસાયટીમાં ભવ્ય મહોત્સવ સાથે મુમુક્ષુ અવન્તિકુમારને ભાગવતી દીક્ષા પ્રદાન કરીને તેમનું મુનિશ્રી અમૃતસાગરજી મહારાજ નામ જાહેર કર્યું. તે દિવસ નૂતન દીક્ષિત મુનિશ્રી માટે ચારિત્રની સાધનાનો સુવર્ણ દિવસ બન્યો. પૂજ્ય ગુરુદેવનું સાંનિધ્ય પામીને મુનિશ્રી અમૃતસાગરજીના સંયમી જીવનમાં વિદ્યાર્જન અને તપ-જપની એવી સુંદર સાધના પ્રારંભાઈ કે જેણે પ્રભુ મહાવીરની પાટ પરંપરાની શાસનધુરા વહન કરનારા આચાર્યપદની દુર્લભ ગણાતી યોગ્યતાને પ્રગટ કરી દીધી. પૂજ્ય પંન્યાસજી મહારાજના ગુણવૈભવમાં સૌમ્યતાનું આભૂષણ સહુને આકર્ષણ જમાવે તેવું શ્રેષ્ઠ કોટીનું છે. એમના મુખ કમલ પર સૌમ્યતાની આભા હર સમય જોવા મળી શકે છે. સંયમની સુવાસ સમું તેમનું સરલ વ્યક્તિત્વ પરિચયમાં આવનારને પ્રભાવિત કરી લે છે. તેમનામાં રહેલી સહજ સરલતા જ તેમના સાધુપણાને પ્રગટ કરે છે. એવા તો અનેક ગુણો તેમના જીવન ઉદ્યાનમાં ખીલેલા જોવા મળે છે. ઉદારતા, સંયમીઓને સહયોગી બનવાની તત્પરતા, નિખાલસતા, કરુણા અને વાત્સલ્યને કારણે પૂજ્યશ્રી શ્રમણ સમુદાયમાં સર્વના પ્રિય અને શ્રદ્ધાસ્પદ બન્યા છે. કરુણા તો એટલી બધી કે પરના દુ:ખે સ્વયંને દુ:ખી અનુભવતા નિકટ પરિચિતોએ જોયા પણ હશે. જિનશાસનને સમર્પિત જીવન વૈભવના સ્વામી પુજ્ય પંન્યાસ પ્રવર શ્રી અમૃતસાગરજી નૂતન દીક્ષિત મુનિઓમાં પંચાચાર. પાલન અને વ્યાવહારિક જીવનના આવશ્યક પાસાઓ હેતુ માર્ગદર્શન કરીને સંયમિત જીવન જીવવાની કલા વિકસિત કરતા રહે છે. નુતન મુનિઓના જીવનનિર્માણમાં પોતાનું આગવું યોગદાન કરતા પૂજ્યશ્રી ઉત્કૃષ્ટ આનંદ અનુભવે છે. અધ્યયનપ્રિય પૂજ્યશ્રી મુળ ગુજરાતી હોવા છતાં ઉત્તર અને દક્ષિણ ભારતની ઘણી બધી ભાષાઓના જાણકાર છે. સંસ્કૃત, પ્રાકૃત, હિન્દી, મરાઠી આદિ ભાષાઓના જ્ઞાતા છે. પ્રભુ ભક્તિના અનુરાગી પૂજ્ય પંન્યાસજીનો અધિકતમ સમય આભ્યન્તર તપ અને જપમાં વ્યતીત થતો હોય છે. તેઓશ્રીની સંયમ યાત્રાથી પ્રસન્ન પૂજ્ય ગુરુમહારાજ શ્રીએ તેમને વિ.સં. ૨૦૪૭ના મહાસુદી પ (વસંતપંચમી)ના દિવસે અમદાવાદમાં ગણિપદવીથી વિભૂષિત કર્યા હતા. નમસ્કાર મહામંત્રના ઉપાસક પૂજ્યશ્રીની દેવ-ગુરુ-ધર્મ પ્રત્યેની પ્રગાઢ નિષ્ઠા પ્રસંગોપાત્ત વ્યક્ત થતી હોય છે. પોતાના પરિચયમાં આવનારને પણ નમસ્કાર મહામંત્રને આત્મસાત કરવાની સતત પ્રેરણા આપતા હોય છે. કેવળ નવકાર મહામંત્રની निर्मल चारित्र को धारण करनेवाले हैं, दशविध आलोचनादोष के ज्ञाता हैं, अठारह आचार स्थान के ज्ञाता हैं तथा आठ प्रकार के आलोचनाह के गुणों का उपदेश करनेवाले आचार्यों को भावभरी वंदना. - IIM – केशवलाल टी. शाह, हस्ते - कल्पेशभाई, अहमदाबाद 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक જ આરાધના કરવાની અને તેનામાંજ દૃઢ વિશ્વાસ રાખવા પ્રેરિત કરતા હોય છે. તેઓશ્રીનું સમગ્ર જીવન નવકારમંત્રના પ્રભાવની વિકાસયાત્રાસમું પ્રતીત થાય છે. - રાગરાગીણીમાં સ્તવનો, પદો ગાતા પંન્યાસજીની આત્મમસ્તી જોવા જેવી હોય છે. તે વખતે તેઓ પોતાની સાથે આરાધનામાં ઉપસ્થિત આરાધકોના હૃદયકમલોને ભક્તિસંગીત દ્વારા પ્રફુલ્લિત કરી દેતા હોય છે. ભારત ભરમાં પ્રાયઃ બધા પ્રદેશોમાં વિચરણ કરીને દેશાટનનો બહોળો અનુભવ મેળવ્યો છે. જે એમને આચાર્ય પદ પ્રદાન કરવા માટે એક મહત્વપૂર્ણ ગુણ કેળવ્યો ગણાય છે. એ અનુભવજ્ઞાન પણ પૂજ્યશ્રીએ ગુરુ નિશ્રામાં રહીને પ્રાપ્ત કર્યું છે. ગુરુભક્તિની તેમની એવી અઠંગ ધૂન કે ૩૮ વર્ષના સુદીર્ઘ સંયમ પર્યાયમાં નિરંતર વૈયાવચ્ચય ગુરુકુળવાસનું સૌભાગ્ય પ્રાપ્ત કર્યું છે. ગુરુનિશ્રામાં સંયમી જીવન વ્યતીત કરવાનો અવસર પુણ્યોદયથી જ મળતો હોય છે. વર્ષીતપ, અઠાઈ, નવપદજીની ઓળી, વદ્ધમાનતપની ઓળી, વીશાનક તપ આદિ અનેકવિધ તપો દ્વારા પંન્યાસજીએ પોતાના જીવનને પવિત્ર બનાવ્યું છે. તેઓશ્રીની આવી અનેક પ્રકારની યોગ્યતાઓને જોઈ પૂજ્ય ગુરુદેવે તીર્થાધિરાજ શ્રી સમેતશિખરની પાવન ભૂમિમાં વિ. સં. ૨૦૫૨, મહાસુદી ૧ (વસંતપંચમી)ના શુભ દિવસે પંન્યાસ પદવી આપી હતી. - પંન્યાસ પ્રવર શ્રી અમૃતસાગરજીના સાંસારિક મોટાભાઈ શ્રી મહેશભાઈ અને શ્રીમતી ધર્મજ્ઞાબેને પોતાના હૃદયના ટુકડા જેવા વહાલસોયા પુત્ર ભાવિકકુમારને તેમના અનુજ બન્યુ (પંન્યાસજી)ના શિષ્ય તરીકે જિનશાસનને સમર્પિત કર્યા, જે આજના જૈન જગતમાં મુનિપદ પર રહેવા છતાં ગુરુજનોના આશીર્વાદથી અભૂતપૂર્વ શાસન પ્રભાવના કરી રહ્યા છે. - સંસારીપક્ષે ભત્રીજા અને તેઓશ્રીએ એક માત્ર શિષ્ય મુનિશ્રી નયપદ્મસાગરજીમાં રહેલી શક્તિઓને ઓળખીને સાધુજીવનને ઉન્નત બનાવનારા વ્યાવહારિક અને આધ્યાત્મિક શિક્ષણ દ્વારા સમર્થ સાધુ બનાવ્યા છે. ?એકચંદ્રઃ તમોહંતિ? એ કહેવતને ચરિતાર્થ કરીને પોતાના શિષ્યને જબરદસ્ત શાસન પ્રભાવક બનાવ્યા છે. આજે તેમની જૈન એકતાના કાર્યોની અભૂતપૂર્વ સુવાસ જગતભરમાં પ્રસરી રહી છે. ગુરુપરંપરાના વિસ્તરણમાં પ્રયત્નશીલ પૂજ્યશ્રીની એક શિષ્ય અને બે પ્રશિષ્યો રૂપ શિષ્ય સંપદા છે. તેઓ પણ સુંદર સંયમપાલન કરવા પૂર્વક શ્રીસંઘની નિરંતર સેવા કરી રહ્યા છે. Jain International organization (J.I.O), Jain International Trade organization (J.I.T.O), Jain Doctors Federation. Jain C.A Federation. Jain Advocate Federation. જૈન સંસ્થાન, જૈન શ્વેતામ્બર મૂર્તિપૂજક યુવક મહાસંઘ આદિ જૈન એકતાના નેજા હેઠળ અનેક સંગઠનોની સ્થાપના કરાવીને પંન્યાસજીના શિષ્ય મુનિશ્રી નયપધસાગરજીએ જૈન સમાજના શક્તિ કેન્દ્રોને સુસંગઠિત કર્યા છે. તેમની પ્રેરણાથી શિક્ષાના ક્ષેત્રમાં એક નવી જાગૃતિ આવી છે. પૂજ્ય પંન્યાસ પ્રવરશ્રીના અંતરંગ સમર્થનપૂર્વકના મુનિશ્રીના આ કાર્યો જૈન એકતાનું જીવતું જાગતું ઉદાહરણ છે. જૈનએકતાના ભગીરથ કાર્યોમાં આશીર્વાદ રૂપ સશક્ત બળ અર્પને પંન્યાસજીએ જૈન સમાજ પર મોટો ઉપકાર કર્યો છે. અંતે જિનશાસનની સેવામાં સમર્પિત પૂજ્ય પંન્યાસજી શ્રી અમૃતસાગરજીને પૂજ્યપાદ રાષ્ટ્રસન્ત આચાર્ય શ્રીમતુ પદ્મસાગરસૂરીશ્વરજી મહારાજાના વરદ હસ્તે અપાતી આચાર્યપદવી પ્રભુ શ્રી મહાવીરદેવના શાસનને દિગન્તવ્યાપી બનાવે आलोचना योग्य सूत्र रहस्यों के ज्ञाता, अपरिश्रावी, प्रायश्चित देने में कुशल, मार्ग-कुमार्ग के ज्ञाता आचार्यों को आचार्यों को भावभरी वंदना. ( સીનન્ય सुनिलभाई जीवराजजी सींघी, अहमदाबाद 30 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक એવી મંગળ કામના સાથે કોટીશઃ વંદના. શ્રી અમૃતસાગરજીના અમૃત વચનો ૧. આપણે જેના પ્રત્યે આસક્ત છીએ તેનાથી વિરક્ત થઈને પૂર્ણતાની તરફ પ્રયાણ કરવું જોઈએ. ૨. નિઃસાર-સંસારને સમજી લીધા પછી વિષયોના થોથા આનંદમાં બ્રહ્માનંદને કોણ ભૂલી શકે. ૩. અહર્નિશ આત્મજાગૃતિની તરફ પ્રયાણ કરવાનો પુરુષાર્થ સાધકને ઉત્તરોત્તર વિકાસશીલ બનાવે છે. ૪. આત્મા જ એકમાત્ર પરમતત્વ છે, એવું સમજીને પોતાના ગન્તવ્ય સ્થાનનું લક્ષ્ય નિર્ધારિત કરી લેવું જોઈએ ૫. આરાધનાથી શૂન્ય જીવન નવા પુણ્યના ઉપાર્જનને થવા દેતું નથી. ૬પરમાત્મા મહાવીરે ભવ્યજીવોને રજોહરણ આપીને અવ્યાબાધ સુખની પ્રાપ્તિના સાધક બનાવ્યા. ૭. જો આપણે ચારિત્ર જીવન ગ્રહણ ન કરી શકતા હોઈએ, તો આજે જેઓ સંયમના ધારક સાધુ ભગવંતો છે તેમની અનુમોદના કરીને પણ પુણ્યોપાર્જન તો કરીએ. ૮. જિંદગીના બધા પાસાઓ પર જેઓ સારી રીતે નથી વિચારતા તેમની નિશ્ચિતતા સાચી નથી હોતી. ભગવાન મહાવીર સ્વામીની ૧૧ ગણઘણો ક્રમ ર . . નામ ગામ પિતા માતા ગોત્ર ઇન્દ્રભૂતિ ગોબર વસુભૂતિ પૃથ્વી ગૌતમ અગ્નિભૂતિ ગોબર વસુભૂતિ પૃથ્વી ગૌતમ વાયુભૂતિ ગોબર વસુભૂતિ પૃથ્વી ગૌતમ વ્યક્ત કુભાગ ધર્મમિત્ર વારૂણી ભારદ્વાજ સુધર્મા કુર્ભાગ ધમ્મિલ ભદ્રિલ્લા અગ્નિવેશમ મંડિત કુભાગ ધનદેવ વિજયા વશિષ્ટ મૌર્યપુત્ર મૌર્ય મૌર્ય વિજયા કશ્યપ અકમ્પિત મિથિલા દેવ જયંતિ ગૌતમ અચલભ્રાતા કૌશલ વસૂ નંદા હારિત મેતાર્ય વચ્છપુરી વરુણા કૌડિન્ય પ્રભાસ રાજગૃહી બલ અતિભદ્રા કૌડિન્ય ૧૦. ૧૧. " G 0 0 0 0 0 0 0 0 मुनियों को अनेक प्रकार के उपायपूर्वक आचारोपदेश करनेवाले, अश्व के समान बिना देखे ही स्वच्छन्द शिष्यों के अभिप्राय को जाननेवाले आचार्यों को भावभरी वंदना. o o o o o o o o o o मनोहर माणेक एलोयज प्रा. लि., मुंबई 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक रत्नत्रयी का त्रिवेणीसंगम श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ श्रमण परम्परा के महान जैनाचार्य, गच्छाधिपति श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. की पावन प्रेरणा व दिव्य कृपा एवं युगद्रष्टा, राष्ट्रसंत, श्रुतोद्धारक, आचार्य प्रवर श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. के शुभाशीर्वाद से अहमदाबादगांधीनगर राजमार्ग पर पावन तीर्थ श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा की स्थापना २६ दिसम्बर, १९८० के दिन की गई. जिनशासन की प्रमुख संस्थाओं में अग्रगण्य श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबातीर्थ संयम, साधना और ज्ञान के त्रिवेणीसंगम के रूप में विश्रुत है. जैनधर्मानुयायियों द्वारा प्रायः तीर्थक्षेत्रों पर जिनालय, आवासीय परिसर, भोजनशाला आदि का निर्माण एवं संचालन की परम्परा रही है. परन्तु इस पावन तीर्थ की अपनी एक विशिष्टता है कि यहाँ धर्म साधना के लिए जिनालय, आवासीय परिसर. भोजनशाला के साथ ही ज्ञानसाधना के लिए ज्ञान संरक्षण-संवर्द्धन के प्रमुख केन्द्र ज्ञानमंदिर की स्थापना की गई है जहाँ साधक-मुमुक्षु अपनी ज्ञान पिपासा को तृप्त कर सकते हैं. वर्तमान में श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबातीर्थ अपनी अनेकविध प्रवृत्तियों के साथ निम्नलिखित शाखाओं, प्रशाखाओं के द्वारा धर्मशासन के उन्नयन में निरंतर तत्पर एवं अग्रसर है. महावीरालय : हृदय में अलौकिक धर्मोल्लास जगाने वाला बेनमून कलात्मक कलात्मक स्तम्भों व दरवाजों से युक्त भव्य महावीरालय दर्शनीय है. प्रथम तल पर गर्भगृह में मूलनायक महावीरस्वामी की मनोज्ञ एवं चमत्कारिक प्रतिमा के साथ अलग-अलग देरियों में १३ प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं. भूमि तल पर आदीश्वर भगवान की भव्य प्रतिमा, माणिभद्रवीर तथा भगवती पद्मावती सहित पांच प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं. सभी प्रतिमाएँ भव्य, मनोज्ञ एवं चुम्बकीय आकर्षण युक्त हैं. दर्शन करते ही मन धार्मिक भावना से ओत प्रोत हो जाता है. महावीरालय की विशिष्टता यह है कि आचार्यश्री कैलाससागरसूरीश्वरजी के अन्तिम संस्कार के समय २२ मई, को दोपहर २.०७ बजे प्रतिवर्ष महावीरालय के शिखर में से सूर्य की किरणें श्री महावीरस्वामी के ललाट को देदीप्यमान करती हैं, इस अनुपम, अद्वितीय एवं आलादक घटना का दर्शन प्रतिवर्ष भक्तजन भावविभोर होकर करते हैं. आचारकुशल, संयम में लीन, ओजस्वी प्रवचनकार, देशकालानुसार शिष्य-वस्त्र-पात्रादि का संग्राहक आचार्यों को भावभरी वंदना. सौजन्य हितेशभाई मोता, ग्लोबल एक्ज़ीम प्रा. लि., मुंबई 32 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि स्मृति मंदिर (गुरु मंदिर) : पूज्य गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी के पुण्य देह के अन्तिम संस्कार स्थल पर पूज्यश्री की पुण्य-स्मृति में संगमरमर का कलात्मक शिल्पकारी, पच्चीकारीव चित्रकारी युक्त गुरु मंदिर निर्मित किया गया है. स्फटिक रत्न से निर्मित अनन्तलब्धि निधान श्री गौतमस्वामीजी की मनोहर मूर्ति तथा स्फटिक से ही निर्मित गुरु चरण-पादुका दर्शनीय एवं वंदनीय हैं. इस मंदिर में दीवारों पर संगमरमर की जालियों में दोनों ओर श्रीगुरुचरणपादुका तथा गुरु श्री गौतमस्वामी के जीवन की विविध घटनाओं का तादृश रूपांकन करने का सफल प्रयास किया गया हैं, आराधना भवन : आराधकों को साधना-धर्म-आराधना करने में सुविधा हो, इसलिए आराधना भवन का निर्माण किया गया है. प्राकृतिक पवन एवं प्रकाश से पूर्ण इस आराधना भवन में मुनि भगवंत स्थिरता कर अपनी संयम आराधना के साथ-साथ विशिष्ट ज्ञानाभ्यास, ध्यान, स्वाध्याय आदि का योग प्राप्त करते मुमुक्षु कुटीर : जिज्ञासुओं तथा ज्ञान पिपासुओं के लिए मुमुक्षु कुटीरों का निर्माण किया गया है. दस कमरों वाले इस मुमुक्षु कुटीर का हर खण्ड जीवन यापन सम्बन्धी प्राथमिक सुविधाओं से सम्पन्न है. संस्था के नियमानुसार मुमुक्षु, साधक, अन्वेषक आदि सुव्यवस्थित रूप से यहाँ रहकर उच्चस्तरीय ज्ञानाभ्यास, प्राचीनअर्वाचीन जैन साहित्य का संशोधन, मुनिजनों से तत्त्वज्ञान तथा विद्वान पंडितजनों से मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं. भोजनशाला एवं अल्पाहार गृह :___यहाँ आनेवाले श्रावकों, दर्शनार्थियों, मुमुक्षुओं, विद्वानों एवं तीर्थयात्रियों की सुविधा हेतु जैन धर्मानुकूल सात्त्विक भोजन उपलब्ध कराने की सुन्दर उपजाह अनुपयह पाया व्यवहार प्रतिष्टिवादले जाता आचार्यों को भावभरी वंदना. 20 सौजन्य अल्पेश डायमंड, मुंबई 33 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक व्यवस्था है. भोजनालय व अल्पाहार गृह में आगन्तुक भोजन एवं अल्पाहार प्राप्त कर सकते हैं. इस तीर्थ पर आनेवाले तीर्थयात्रियों की बढती हुई संख्या को दृष्टिगत करते हुए उनकी सुविधा हेतु एक बड़े भोजनशाला का निर्माण भी किया गया है, जिसमें कम से कम ५०० व्यक्ति एक साथ बैठकर भोजन कर सकते हैं. यात्रिक धर्मशाला : कोबातीर्थ में यात्रार्थ पधारने वाले तीर्थयात्रियों, दर्शनार्थियों तथा श्रावकों को समुचित आवासीय व्यवस्था उपलब्ध हो सके इसलिए दो नवीन धर्मशालाओं का निर्माण किया गया है. आधुनिक सुविधाओं से सुसज्ज ३८१८ कमरों वाले इन - नूतन धर्मशालाओं के १८१८ कमरे वातानुकूलित हैं. तीर्थ में आनेवाले तीर्थयात्री, श्रद्धालु, भक्तजन नवनिर्मित धर्मशाला में स्थिर होकर दर्शन-वंदन, साधना-आराधना का लाभ प्राप्त कर सुखानुभूति का अनुभव करेंगे. श्रुत सरिता : महातीर्थ कोबा में आने वाले तीर्थयात्रियों, दर्शनार्थियों एवं ज्ञान-पिपासुओं को उचित मूल्य पर उत्कृष्ट जैन साहित्य व आराधना की आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराने हेतु मुख्यद्वार पर एक पुस्तक विक्रय केन्द्र की स्थापना की गई है. यहाँ से तीर्थयात्री अपनी साधना-आराधना में सहायक पुस्तकें एवं उपयोगी सामग्री का क्रय कर सकते हैं. यहाँ आगन्तुकों के सुविधार्थ एस.टी.डी. टेलीफोन बूथ भी संचालित है, विश्व मैत्री धाम बोरीज, गांधीनगर : योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी महाराज की साधनास्थली गुजरात की राझधानी गांधीनगर गत बोरीजतीर्थ का पुनरुद्धार परम पूज्य आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी की प्रेरणा एवं शुभाशीर्वाद से श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र की भगिनी संस्था विश्व मैत्री धाम के तत्त्वावधान में नवनिर्मित १०८ फीट उँचे विशालतम जिनालय में ८१.२५ ईंच के पंच धातुमय पद्मासनस्थ श्री वर्द्धमान स्वामी प्रभु प्रतिष्ठित किये गये हैं. ज्ञातव्य हो कि पुराने मन्दिर में इसी स्थान पर जमीन में से निकली भगवान महावीरस्वामी आदि प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज द्वारा हुई थी. नवीन मन्दिर स्थापत्य एवं शिल्प दोनों ही दृष्टि से दर्शनीय है. यहाँ पर भविष्य में एक कसौटी पत्थर की देवकुलिका के भी पुन:स्थापन की योजना है जो पश्चिम बंगाल के जगत शेठ फतेहसिंह स्वसमय-परसमय में निपुण, ओज और तेज पूर्ण तथा वाणी व यश में अपराजेय आचार्यों को भावभरी वंदना. सौजन्य कुलीनकुमार टुर ट्रावेल्स रीसोर्ट प्रा. लि., मुंबई 34 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक गेलडा द्वारा १८वीं सदी में निर्मापित किये गये कसौटी मन्दिर के पुनरुद्धार स्वरूप है. वर्तमान में इसे जैनसंघ की ऐतिहासिक धरोहर माना जाता है. निस्संदेह इससे इस परिसर में पूर्व व पश्चिम के जैनशिल्प का अभूतपूर्व संगम होगा. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर : जैनधर्म एवं भारतीय संस्कृति का विश्व में विशालतम संग्रहालय एवं शोध संस्थान के रूप में अपना स्थान बना चुका आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र की आत्मा है. अद्यतन संसाधनों से सुसज्ज ज्ञानमंदिर के अन्तर्गत निम्नलिखित विभाग कार्यरत हैं : (१) देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण हस्तप्रत भांडागार, (२) आर्य सुधर्मास्वामी श्रुतागार, (३) आर्यरक्षितसूरि शोधसागर एवं (४) सम्राट सम्प्रति संग्रहालय. ज्ञानमंदिर की उपलब्धियाँ आगम, न्याय, दर्शन, योग, साहित्य, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद, इतिहास-पुराण आदि विषयों से सम्बन्धित मुख्यतः जैन धर्म एवं साथ ही वैदिक व अन्य साहित्य से संबद्ध इस विशिष्ट संग्रह के रखरखाव तथा वाचकों को उनकी योग्यतानुसार उपलब्ध करने का कार्य परंपरागत पद्धति के अनुसार यहाँ संपन्न किया जाता है. इन ग्रंथों की भाषा प्रायः संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, ढुंढारी, मराठी, बंगाली, उड़िया, मैथिली, पंजाबी, तमिल, तेलगु, मलयालम, परशियन आदि के साथ-साथ अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, अरबिक, परशियन, तिब्बतन, भूटानी आदि विदेशी भाषाएँ भी है. परिणामतः यह ज्ञानतीर्थ जैन एवं भारतीय विद्या का विश्व में अग्रणी केन्द्र बन गया है. इस संग्रह को अभी इतना अधिक समृद्ध करने की योजना है कि जैन धर्म से सम्बन्धित कोई भी जिज्ञासु यहाँ पर अपनी जिज्ञासा पूर्ति किए बिना वापस न जाय. इस ज्ञानमन्दिर का मुख्य ध्येय जैन परम्परा के अनुरूप जैन साहित्य के संदर्भ में गीतार्थ निश्रित अध्ययन-संशोधन व अन्वेशन हेतु यथासम्भव सामग्री एवं सुविधाओं को उपलब्ध करवाकर उन्हें प्रोत्साहित करना व उनके कार्यों को सरल और सफल बनाना है. वर्तमान में संस्था द्वारा एक विशिष्ट प्रकार का प्रोग्राम तैयार किया जा रहा है, जिसके तहत हस्तलिखित प्रतों को स्केन करके उस मैटर को टेक्स्ट के रूप में प्राप्त किया जा सके. जिससे एन्ट्री आदि का कार्य ही न करना पडे एवं अपेक्षित हस्तप्रत को क्षणमात्र में टेक्स्ट के रूप में प्राप्त किया जा सकेगा. जिसे ओ. सी. आर. नामक प्रोग्राम के रूप में जाना जाता है. __काल दोष से लुप्त हो रहे जैन साहित्य के मुद्रित एवं हस्तलिखित ग्रंथों में अन्तर्निहित विविध सूचनाओं की सूक्ष्मातिसूक्ष्म उदार चित्तवाले, क्रोध के संचार को जीतने वाले, जितेन्द्रिय, जीवन-मृत्यु एवं अन्य भयों से मुक्त तथा परीपहजेता आचार्यों को भावभरी वंदना. एम. सुरेशकुमार एण्ड कंपनी, मुंबई Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक विस्तृत सूचनाएँ विशेष प्रकार से विकसित प्रोग्राम द्वारा कम्प्यूटर में प्रविष्ट की जाती हैं. इस प्रणाली के द्वारा वाचक को यदि उसकी आवश्यकता की ग्रन्थ के सम्बन्ध में अल्पतम सूचना भी ज्ञात हों तो उनकी इच्छित सूचनाएँ सरलता से प्राप्त की जा सकती हैं. इस सूचना पद्धति का परम पूज्य साधु-भगवंतों, देशी-विदेशी विद्वानों तथा समग्र समाज ने भूरि-भूरि अनुमोदना की है. प्राचीन लिपि को जानने व समझनेवाले बहुत कम विद्वान ही रह गये हैं. विद्वानों एवं अध्येताओं को प्राचीन हस्तलिखित साहित्य को पढने में सुगमता रहे, इस हेतु देवनागरी- खासकर प्राचीन जैनदेवनागरी लिपि के प्रत्येक अक्षर/जोडाक्षर में प्रत्येक शतक में क्या-क्या परिवर्तन आए और उनके कितने वैकल्पिक स्वरूप मिलते हैं, उनका संकलन करते हुए उनके चित्रों का कम्प्यूटर पर एक डेटाबेस में संग्रह किया जा रहा है. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर की अहमदाबाद स्थित शाखा : अहमदाबाद के विविध उपाश्रयों में स्थिरता कर रहे पूज्य साधु-भगवंतों तथा श्रावकों की सुविधा हेतु अहमदाबाद के जैन बहुसंख्यक क्षेत्र पालडी में एक कोबा की एक शहरशाखा की स्थापना का निर्णय लिया गया. १९ नवम्बर १९९९ को पूज्य आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी म.सा. की शुभ प्रेरणा व आशीर्वाद से कोठावाला फ्लैट के पास श्रीमान् विजयभाई हठीसिंह के द्वारा उपलब्ध किए गए स्थान (शाह एन्टरप्राईज ) में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का शाखा ग्रंथालय विधिवत् प्रारम्भ किया गया. जहाँ से लगभग छः वर्षों तक अहमदाबाद शहर में सथिरता कर रहे पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंतों तथा अन्य वाचकों के ग्रन्थ सम्बन्धी आवश्यकता पूरी की जाती रही. पूज्य साधु-साध्वीजी म. सा. तथा जैनधर्म व साहित्य के ऊपर अध्ययन, संशोधन कर रहे विशिष्ट अभ्यासियों के लिए टोलकनगर में स्थायी तौर पर नवनिर्मित भवन में ९ जनवरी २००६ को शहर शाखा का प्रारम्भ किया गया, जहाँ से वाचकों को उनके अपेक्षित ग्रन्थ नियमित रूप से उपलब्ध कराए जाते हैं, इसके अतिरिक्त कोबा स्थित ग्रंथालय की पुस्तकें भी नियमित रूप से मंगवा कर दी जाती हैं. योगनिष्ठ आचार्यदेव श्रीमद् बुद्धि-कीर्ति कैलास-कल्याणसागरसूरीश्वरजी के पट्टधर श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमद् पद्मसागरसूरीश्वरजी के शुभाशीर्वाद व मंगल प्रेरणा से यह तीर्थ भविष्य में ज्ञान, ध्यान तथा आराधना के लिये विद्यानगरी काशी के सदृश सिद्ध होगा. जिनशासन को समर्पित धर्मतीर्थ, ज्ञानतीर्थ व कलातीर्थ का त्रिवेणी संगम श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबातीर्थ प्रगति के पथ पर निरंतर अग्रसर है. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र के परिसर में नवनिर्मित विशाल भोजनशाला, उपाश्रय, विश्रांति गृह आदि के साथ नवीन सम्राट संप्रति संग्रहालय बनाने की भी योजना है. प्राकृतिक मनोहर वातावरण में अवस्थित रत्नत्रयी के त्रिवेणीसंगम तीर्थ पर दर्शन-वंदन के लिए सपरिवार, इष्ट मित्र एवं स्नेहीजनों के साथ एक बार अवश्य पधारें. सकल मैथुन, क्रीडा एवं संसर्ग से रहित हैं, निर्मोही, निरहंकारी, एवं किसी को भी पीडा नहीं पहुँचाने वाले आचायों को भावभरी वंदना. • सौजन्य राम सन्स, मुंबई 36 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक सम्राट संप्रति संग्रहालय अरुण झा आर्य सुहस्तीसूरि ने दुष्काल के समय कौशाम्बी नगरी में साधुओं से भिक्षा की याचना करने वाले रंक को अपने ज्ञानबल से भावी में कल्याण को जान कर दीक्षा दी. वह रंक मरकर सम्राट अशोक के पुत्र कुणाल के यहाँ उत्पन्न हुआ. जन्म के समय इसका नाम संप्रति रखा गया. शैशवकाल में ही दस महीने के संप्रति को अशोक सम्राट ने अपने विशाल साम्राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया. यही संप्रति आगे चलकर वीर निर्वाण संवत् २९२ में मगध की राजगद्दी पर आया. सम्राट संप्रति को लगा कि पाटलिपुत्र में उसके अनेक शत्रु हैं. ऐसा जानकर पाटलिपुत्र का त्याग किया और अवन्ती (उज्जैन) में आकर सुख से राज्य करने लगा. यह भी अशोक की तरह बड़ा पराक्रमी था, जिसने नेपाल, तिब्बत और भूटान के भू-भाग को अपने अधीन किया था. महाराजा संप्रति के तिब्बत, भूटान आदि प्रदेशों पर विजय के डर से चीनी सम्राट सी. ह्यु. वांग. ने वीर निर्वाण संवत् ३१२,ईस्वी पूर्व २१४ में एक ऊँची दीवार बनवाई.जो चीन की दीवार के नाम से विश्व का एक आश्चर्य है. संप्रति के सिक्के जो वर्तमान में मिल रहे हैं, उनके एक तरफ सम्प्रति और दूसरी तरफ स्वस्तिक, रत्नत्रयी मोक्ष के प्रतीक हैं और उनमें लिखे गए लेख ब्राह्मी लिपि में हैं, यह सिद्ध हो चुका है. ऐसे जैन राजा के नाम पर कोबा संग्रहालय का नाम सम्राट संप्रति संग्रहालय है. परम पूज्य आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरिजी के स्वप्न स्वरूप इस संग्रहालय का प्रारंभ २८ अप्रैल १९९३ में हुआ, जो विकास के पथ पर निरन्तर आगे बढ़ रहा है, भगवान महावीर स्वामी के आदर्श सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार एवं जैन संस्कृति के धरोहर और भारतीय कला संपदा का संरक्षण-संशोधन करना एवं इसके लिये लोक जागृति लाना इस संग्रहालय का प्रमुख उद्देश्य है. इस संग्रहालय में प्राचीन एवं कलात्मक रत्न, पाषाण, धातु, काष्ठ, चन्दन आदि की कलाकृतियाँ विपुल प्रमाण में संगृहीत है. इनके अलावा ताड़पत्र एवं कागज पर बनी सचित्र हस्तप्रतें, प्राचीन चित्रपट्ट, विज्ञप्ति पत्र, गट्टाजी, लघु चित्र, सिक्के एवं अन्य प्राचीन कलाकृतियों का भी संग्रह है. इस संग्रहालय में विशेष रूप से जैन संस्कृति, जैन इतिहास और जैनकला का अपूर्व संगम है. संग्रहालय चार खण्डों में विभक्त है : १. वस्तुपाल तेजपाल खण्ड व ठक्कुर फेरु खण्ड,२. परमार्हत कुमारपाल व जगत शेठ खण्ड, ३. श्रेष्ठी धरणाशाह व पेथडशा मन्त्री खण्ड, ४. विमल मन्त्री व दशार्णभद्र खण्ड, वस्तुपाल, तेजपाल व ठक्कुर फेरु शिल्प खण्ड ___ संग्रहालय में प्रवेश करते ही प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की वि. सं. ११७४ में बलुआ पत्थर से बनी प्रतिमा है. गुच्छेदार केशयुक्त मस्तक, तिरछी पलक, अधखुली आँखें, नुकीले नाक, सुंदर होठ, श्रीवत्स, हथेली एवं पैर के तलवों पर मांगलिक चिह्न व शान्त एव प्रसन्न भाव मथुरा शैली की विशेषता है. પણ પStew/ દેશાઇll, થાણે કાણoણી થા, થાણ પSIPolી , થાણે પાણoણી છે!ાલિની, વાટ પકolી હalleણા અમwો મો| US!!! દયા61611 ડાતા માવ! છગીરણ ગુણોથી યુકત માયાને વંદન જવેલેડસ ઈન્ડિયા પ્રા.લિ., ajનઈ 37 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक आदिनाथ ___प्राचीन काल में मथुरा जैनकला का महत्वपूर्ण केन्द्र था. शुंग-कुषाण युग में मथुरा में जैन परंपरा के अनुसार जिन प्रतिमाओं का अंकन प्रारंभ हो चुका था. प्रारम्भ से मध्ययुग तक परिवर्तन की श्रृंखला में प्रतिमाएँ सुंदर रूप से अंकित होने लगी थी. साहित्य एवं अभिलेखों के प्रमाण के आधार पर मथुरा के अंतर्गत कंकाली टीला में एक प्राचीन स्तूप था. जिसके अवशेष विपुल प्रमाण में प्राप्त हुए हैं. यह सामग्री ई.. पूर्व २-३री शताब्दी से वि. सं. ११०० के मध्य की हैं. इनमें आयागपट्ट, जिनप्रतिमाएँ, सर्वतोभद्र प्रतिमाएँ व तीर्थंकरों के जीवन दृश्यों के अंकन महत्वपूर्ण इसके अलावा पारेवा पत्थर से निर्मित पद्मासनस्थ प्रतिमा तीर्थकर नेमिनाथ की है, जो प्रायः ७वीं शताब्दी की है. दो प्रतिहार्य (त्रिछत्र एवं गद्दी) युक्त इस प्रतिमा के पार्श्व में पहाड़ी एवं वृक्ष का अंकन, मुख के तीनों ओर वस्त्र-तोरण का अंकन, गद्दी के मध्य में धर्मचक्र, दोनों ओर शंख एवं सिंहाकृतियों का अंकन किया गया है. शरीर रचना में अंगो का पारस्परिक सम्बन्ध स्वाभाविक लगता है. नेमिनाथ (१०वीं सदी) नालंदा से प्राप्त प्रतिमाएँ उस युग की सौंदर्य-चेतना का प्रतिनिधित्व करती है. इन तीर्थंकर प्रतिमाओं में प्राचीन परंपरा से कहीं अधिक प्रगतिशील स्थूलता को सरलता से रेखांकन करने का प्रयत्न किया गया है. एक प्राणवान रूप प्रदान करने की भावना सभी प्रतिमाओं में दिखाई देती है. जहाँ कही मूर्तियों में प्राचीन परंपरा दिखाई देती है वह कुषाण कालीन मथुरा शैली के प्रभाव के कारण है, समग्र रूप से ये प्रतिमाएँ उत्तर और मध्य भारत के अन्य क्षेत्रों की कलाकृतियों के सदृश है. इस शिल्प खंड में प्राचीनतम प्रतिमाओं में बलुआ पत्थर से निर्मित द्वारपाल की प्रतिमा प्रदर्शित है, जो लगभग ई. सन ३री शताब्दी की है. उसके ऊपरी भाग में शिल्पांकित मत्स्य प्रतिमा के कुषाणकालीन होने का प्रमाण है. - विभिन्न प्रदेशों से प्राप्त विभिन्न शैलियों में विविध सामग्रियों में निर्मित जिनमंदिर की बारसाख, स्तंभ, तोरण, वाद्ययुक्त शालभंजिकाएँ, देव-देवियाँ एवं स्वद्रव्य निर्मित जिनमंदिरों का शिल्प आदि आकर्षक कलाकृतियों को रोचक ढंग से प्रदर्शित किया गया है. પાંય .પાંય યાર, પાંય મહાdd, પાંચ વયવહાણ, પાંચ માથાર, પાંય રાdia, પણ હતાશાય અને રોડ રાંવેગલની પાવા છગીરણ ગુણોથી યુક્ત આચાર્યોને વંદન | સોજબ) eiઘવી એક્ષપોર્ટ, મુંબઈ 38 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक शालभंजिका अप्सरा जिनपीठिका शाहीदाता शालभंजिका प्रस्तुत शिल्पांश को प्रदर्शित करने का उद्देश्य जिनमंदिर के महत्वपूर्ण शिल्प स्थापत्य से लोगों को परिचित कराना है. भारत के कई जिनमंदिर अपने स्तम्भ एवं दीवारों पर की गई नक्काशी एवं महत्वपूर्ण प्रसंगों के चित्रांकन के लिये विश्वविख्यात है, शत्रुजय, गिरनार, आबु के जिनमंदिर, नालंदा, खजुराहो, तारंगा, कुंभारिया, ओसिया, राणकपुर, देवगढ के जिनमंदिरों में की गई नक्काशी उस समय के समाज की कला एवं धर्मभावना के प्रति उदारता की साक्षी हैं. शिल्प लाक्षणिकता कुषाण युग की जिनप्रतिमाओं में प्रतिहार्य, धर्मचक्र, मांगलिक चिह्नों एवं उपासकों का अंकन पाया जाता है. परन्तु गुप्तकाल की प्रतिमाओं में अष्टप्रतिहार्य (अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्य ध्वनि, चामरधारी सेवक, सिंहासन, त्रिछत्र, देव दुन्दुभि एवं भामण्डल), सिंहासन में धर्मचक्र, लघु जिनप्रतिमा, यक्ष-यक्षी, जिनों के कर एवं पादुका पर धर्मचक्र, पद्म, त्रिरत्न जैसे मांगलिक चिह्न भी पाए जाते हैं, उस काल की प्रतिमाओं में श्रीवत्स, पूर्णघट, स्वस्तिक, वर्धमान, मत्स्य एवं नंद्यावर्त के अंकन भी पाए जाते हैं. जिनप्रतिमाओं में लांछन के अंकन के साथ-साथ परिकर में लघु जिन प्रतिमाएँ नवग्रह, गजाकृतियाँ, विद्या देवी, श्वेताम्बर प्रतिमाओं में सिंहासन के मध्य में पदम-पुस्तक युक्त शांतिदेवी तथा गज एवं मृग का भी अंकन पाया जाता है, साथ-साथ जिनेश्वरों के जीवन दृश्यों का अंकन, पंचकल्याणक, भरत-बाहुबली युद्ध, नेमिविवाह तथा पार्श्वनाथ एवं महावीरस्वामी के उपसगों का अंकन भी देखने में आता है. त्रितीर्थी प्रतिमाएँ, चौमुखी जिनप्रतिमाएँ, पंचतीर्थी जिनप्रतिमाएँ एवं चौवीसी जिनप्रतिमाओं का अंकन प्राचीन समय में लोकप्रिय रहा होगा ऐसा अनुमान किया जाता है. इस खंड में क्रमबद्ध परंपरा एवं विविध लाक्षणिकताओं के साथ प्रतिमाएँ प्रदर्शित की गई है. महत्वपूर्ण जिनप्रतिमाएँ भारतीय धातुप्रतिमा के इतिहास में जैनकला का महत्वपूर्ण योगदान है. हड़प्पा से प्राप्त कांस्य निर्मित नर्तकी की प्रतिमा (ई. पूर्व. २५००-१५००) को छोड़कर भारत की प्राचीन धातुप्रतिमाएँ जैनकला की देन है. जैनकला की सबसे पुरानी कांस्य प्रतिमा चौसा (जि. भोजपुर, बिहार) से प्राप्त हुई. जो पहली शताब्दी की कही जाती है. धातु प्रतिमा कला को वास्तविक प्रोत्साहन उत्तर गुप्तकाल में मिला. इस काल की सबसे महत्वपूर्ण रचनाएँ भी जैनकला की देन है. वैसे तो जैन प्रतिमा पूरे भारत में मिलती है, फिर भी अकोटा, वसंतगढ, लील्यादेव, चहर्दी, कड़ी, वल्लभी, महुड़ी, પાંય ઈન્દ્રિયોના અને પાંચેય ઈન્દ્રિયોના વિષયોના સ્વરૂપના ડાતા, પાંચ પ્રમાદ, પાંચ માણd, પાંચ વિદ્રા, પાંય કુમાdilod (ભાણી સાથે પSજીવંતિકાયની રક્ષા કરવાવાળા આવા છplીણ ગુણોથી યુકI આચાર્યોને વંદન જ સૌyવ્ય છે. સી.દિલીપ એન્ડ કંપની, મુંબઈ 39 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक सिरपुर और घोघा से महत्वपूर्ण जैन धातप्रतिमाएँ प्राप्त हुई है. दक्षिण भारत में लिंगसर, बापटला में श्रवणबेलगोला जैन धातु शिल्पकला के महत्वपूर्ण स्थान हैं. यहाँ पर कांस्य प्रतिमाएँ ७वीं से १९वीं शताब्दी के मध्य की तीर्थंकर आदिनाथ से महावीर स्वामी तक की है. इन प्रतिमाओं में अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताएँ, कला एवं उत्कीर्ण प्रशस्तियों की विशेषताएँ देखी जाती है, इनमें से कई प्रतिमाओं के पीछे प्रशस्तियाँ ऐसी है, जो जैन इतिहास एवं परंपरा के संशोधन के लिए महत्वपूर्ण हैं. वसंतगढ कांस्य प्रतिमानिधि वसन्तगढ़ शैली की धातु निर्मित तीर्थंकरों आदि की ६-८वीं शताब्दी की प्रतिमाएँ अपनी अलौकिक एवं अभूतपूर्व मुद्रा के साथ दर्शकों को आकर्षित करती है. यहाँ पर ईसा की ३री से १९वीं शताब्दी तक की विभिन्न स्थानों एवं शैलियों की पाषाण एवं धातु निर्मित प्रतिमाएँ भी प्रदर्शित है.. जिन प्रतिमा आदिनाथ जिन प्रतिमा अकोटा एवं वसंतगढ की प्रतिमाओं में बहुत कुछ समानता है. बड़े नेत्र, विस्तृत ललाट, थोड़ी नुकीली नाक, सुडौल मुख तथा बौने धड़ पर रही छोटी ग्रीवा, नुकीली अंगुलियाँ, चौडी छाती, हाथ और पैर सुनिर्मित एवं वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिह्न प्रारंभिक पश्चिम भारतीय शैली के लक्षण है. धोती में चिह्न प्रारंभिक पश्चिम भारतीय शैली के लक्षण हैं. तीर्थंकर के शरीर पर रही धोती में समान्तर पंक्तियों के मध्य में पुष्प अंकित है, जो एक आद्यकला का प्रतीक है. परमार्हत कुमारपाल एवं जगतशेठ श्रुत खण्ड श्रुत खण्ड इस संग्रहालय का महत्वपूर्ण खण्ड है, जो सामान्यतया अन्य किसी संग्रहालय में नहीं होता है. इस खण्ड में प्राचीन से अर्वाचीन काल तक की श्रुत ज्ञान परम्परा प्रदर्शित की गई है. वर्तमान परिस्थितियों में जहाँ चारों ओर हिंसा, अत्याचार और भ्रष्टाचार जैसी बुराईयाँ फैल रही है. फिर भी हमलोगों में सत्य, अहिंसा एवं क्षमा जैसी भावना आंशिक रूप में भी है, तो उसका एक मात्र कारण है, हमारे जैनाचार्यों द्वारा रचित उपदेश प्रधान श्रुत सम्पदा, तीर्थंकर भगवान महावीर ने कहा है कि जगत के कल्याण में ही स्व का कल्याण है. हमारे जैनाचार्यों एवं पूर्वजों ने भावी સાત ભય, સાત પિpsણણા, સાતપાોષણા, રાત સુખ અને આઠ વાદળી જ્ઞાતા આવા છolીણ ગુણોથી યુક્ત થાીિવીલળી सोन्यસી.દિનેશ એન્ડ કંપની, ajolઈ 40 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक पीढी के लिये निःस्वार्थ भाव से विपुल साहित्य की रचना की है. इन रचनाओं को पूर्वजों ने बड़े जतन से संभाल के रखा. प्राकृतिक विपदाओं से श्रुत-संपदाओं को बचाने के लिये कितना त्याग किया यह प्राचीन ग्रन्थों को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. इस परंपरा को आगे बढाने के लिये उन्होंने जो अथक परिश्रम किया उसके कारण आज हमारे पास विपुल प्रमाण में श्रुत साहित्य उपलब्ध हैं एवं जगह-जगह पर संगृहीत है, जो हमारे जैनाचार्यों एवं पूर्वजों की अमूल्य निधि है. पठन-पाठन की पाँच प्रक्रिया द्वारा श्रुत का शिक्षण एवं संरक्षण, ब्राह्मी लिपि की उत्पत्ति एवं विकास, आगम वाचना, ग्रन्थलेखन, जैन लिपि, लेखन के माध्यम एवं साधन, सुलेखन कला ग्रंथ के विविध स्वरूप, ग्रन्थ संरक्षण के माध्यम के साथसाथ ४५ आगम एवं अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर रचित हस्तप्रतों को इस खंड में प्रदर्शित किया गया है. पठन-पाठन से ग्रंथालेखन ___ पठन-पाठन की पाँच प्रक्रियाओं के द्वारा गुरु अपने शिष्य को और शिष्य अपने शिष्य को मुखपाठ के द्वारा श्रुत को कंठस्थ करवाते थे और इस तरह श्रुतशास्त्रों को संरक्षित रखते थे. यह परंपरा तीर्थंकर श्री महावीर के निर्वाण के बाद करीब एक हजार साल तक चली. इन वर्षों में तीन महादुष्काल आने से श्रुत धीरे-धीरे नष्टप्राय हो रहा था. इस अंतराल में तीन आगम वाचनाएँ हुई. अंतिम वाचना वल्लभीपुर में आचार्य देवर्धिगणी क्षमाश्रमण की निश्रा में हुई. तब ८४ आगमों में से सिर्फ ४५ आगम ही बच पाये. भविष्य में श्रुत और नष्ट न हो इसलिये प्रथम बार उन्होंने बचे हुए आगमों को ग्रंथारुढ करवाया. ब्राह्मीलिपि सभ्यता के प्रारंभिक चरणों में मनुष्य अपने भावों को व्यक्त करने के लिये चित्रों का उपयोग करता था. जिसे चित्रलिपि के नाम से जाना जाता है. मनुष्य का चिंतन, भावनाएँ, सोचने एवं समझने की शक्ति एवं अभिव्यक्ति के लिये भाषा का होना आवश्यक है. भाषा की अभिव्यक्ति को वार्तालाप के बाद भी सुरक्षित रखने के लिये लिपि की भी उतनी ही आवश्यकता है, भारतीय परिवेश में पनपी संस्कृत, प्राकृत, पाली आदि सर्वाधिक प्राचीन भाषाओं की विशेषताओं में इनमें प्रयुक्त संयुक्ताक्षरों की संख्या विश्व की अन्य भाषाओं की तुलना में सर्वाधिक है. भारतीय भाषाएँ सर्वाधिक कठिन होते हुए भी भारत में लिपि का विकास बहुत ही रोचक ढंग से हुआ है. ऐतिहासिक युग में सबसे प्राचीन लिपि के नमूनों में ब्राह्मी, खरोष्ठी तथा ग्रीक इत्यादि लिपियाँ मिलती है. किन्तु इनमें से मात्र ब्राह्मी का उपयोग भारत में खूब प्रचलित एवं लोकप्रिय हुआ जबकि अन्य लिपियाँ लुप्त हो गई. प्राकृत, संस्कृत जैसी वर्ण समृद्ध भाषा को लिखने में समर्थ होने वाली ब्राह्मी लिपि ने अपनी जड़े अन्य लिपियों की तुलना में ज्यादा जमा ली और धीरे-धीरे अन्य लिपियाँ लुप्त हो गई. अशोक के समय ब्राह्मी सभी जगह एक ही जैसी लिखी जाती थी लेकिन कालान्तर में इसकी लेखन पद्धति उत्तरी एवं दक्षिणी शैलियों में बँट गई. ब्राह्मी लिपि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें जैसे लिखते हैं वैसे ही पढते हैं तथा जैसे पढते हैं वैसे ही लिखते हैं. कहीं कोई भ्रम नहीं होता कि क्या लिखा है और क्या पढना है. इसमें स्वर और व्यंजन पूरे हैं तथा स्वरों में ह्रस्व, दीर्घ, अनुस्वार और विसर्ग के लिये स्वतंत्र संकेत चिहन हैं. व्यंजन भी उच्चारण के स्थानों के अनुसार वैज्ञानिक क्रम से बैठाए गए 0000000000 ભાાઠ ડાળીયાર, ચાઠ દર્શofીયાર, આઠ યાર ગાણાટ, નાક સાદગુણ1 જાને માટે બુદ્ધિના ઘા ઇll 9 મીટાણુથી | - આયાર્યોને વંદન lo 0 0 0 0 0 0 0 0 0 એસ.વિનોદ જોઇS કંપની, a[બઈ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं. व्यंजन के साथ स्वर होने पर इनको स्वर चिह्नों के द्वारा लिखने की अनूठी पद्धति अन्य लिपियों में नहीं दिखती, आर्य कुल की भाषाओं की ध्वनियों को व्यक्त करने के लिये इसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है. आलेखन माध्यम प्राचीन काल में लेखन के लिये विभिन्न माध्यमों का उपयोग होता था, जैसे कि पाषाण, ताम्रपत्र, लाखपत्र, ताड़पत्र, भोजपत्र, कागज एवं वस्त्र, जिन्हें प्रदर्शित किया गया है. परन्तु पोथी लेखन के लिये अंतिम चार माध्यम लोकप्रिय थे. ताड़पत्र के साथ-साथ भोजपत्र का भी प्रचलन था. __भोजपत्र बहुत ही कोमल माध्यम होने से उस पर लिखे ग्रंथ मिलना अति दुर्लभ है. वस्त्र पर आलेखित पोथियाँ बहुत कम प्राप्त हुई है. कागज पर लिखने की परंपरा भारत में १२वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुई जो निरन्तर चली आ रही है. आलेखन तकनीक लिखने के लिये कई प्रकार के साधनों का प्रयोग किया जाता था. ताड़पत्र पर लिखने से पहले उसकी सतह को दो या तीन भागों में विभाजित किया जाता था. लेखन के बीच के रिक्त स्थान पर छेद कर पत्रों को धागों से पिरोया जाता था. भारत में लिखने के लिये कलम-स्याही का प्रयोग प्राचीनकाल से प्रचलित था. लेकिन बाद में दक्षिण भारत में शलाका-कलम से ताड़पत्र पर कुरेद कर लिखने की परंपरा का विकास हुआ. कुरेदे हुए अक्षरों को सुवाच्य बनाने के लिये वस्त्र पोटली द्वारा स्याही भर दी जाती थी. कागज पर लिखने से पहले उसे कोड़ा या हकीक से घोंटकर उसकी सतह को चिकनी बनाई जाती थी. लिखने से पहले रेखापाटी द्वारा रेखाएँ समानान्तर रूपसे उत्पन्न की जाती थी जो लेखिनी का मार्गदर्शन करती थी. कलम के लिये प्रायः बरु का प्रयोग किया जाता था. इसके अतिरिक्त हासियों की रेखा खींचने के लिये लोहे की कलम (जुजवळ) का उपयोग होता था. इनके अलावा आंकणी (फुटपट्टी), कागज काटने के लिये चाकू, लेखनपाटी, विभिन्न प्रकार की दवातें आदि अनेक प्रकार के साधनों का उपयोग करते थे. पोथी लिखने के लिये प्रायः पक्की स्याही का प्रयोग किया जाता था. जिसके कारण सैंकड़ों वर्ष बीत जाने के बावजूद भी प्राचीन ग्रन्थ आज तक सुरक्षित रहे हैं. ओळिया प्राचीन लेखन सामग्री कलम आलेखन संरक्षण ताड़पत्रीय पोथियों की सुरक्षा के लिये उसके प्रत्येक पत्रों को धागे से पिरो कर पोथी के ऊपर-नीचे एक-एक પાઠ કર્યા. મોઠ કાષ્ટાંગ યોગ, અાઠ મહારાદ્ધિ, ગાઠશોગદષ્ટિ અને યાણ અનુયોગની હાdી આવા છમીણ ગુણોથી યુxt આચાર્યોને વંદન | રાજુ છે. રજનીકાન્ત એes કંપની, મુંબઈ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक काष्ठपट्टिका रखकर मजबूती से बिना गाँठ से बाँधा जाता था. कागज की पोथियों की सुरक्षा के लिये ग्रंथ के दोनों ओर काष्ठ या गत्ते द्वारा निर्मित आवरणों का प्रयोग किया जाता था. जिन पर सुन्दर सुशोभन चित्र जैसे चौदह स्वप्न, अष्टमंगल, नेमिनाथ स्वामी की बारात, तीर्थंकरों के चित्र, उपदेश-श्रवण आदि का अंकन किया जाता था. आर्द्र वातावरण, धूल, कीट आदि से सुरक्षित रखने के लिये इन पोथियों को वस्त्र के बस्ते में लपेटकर रखी जाती थी. इन पोथियों को अधिक सुरक्षा प्रदान करने हेतु काष्ठमंजुषा में रखी जाती थी. जिन पर भी सुंदर चित्रकारी की जाती थी. ग्रंथों को हानिकारक कीट आदि से सुरक्षा हेतु कुछ पारंपरिक औषधियों का भी उपयोग किया जाता था. जैसे कि सांप की केचुली, तम्बाकु के पत्ते, नीम के पत्ते, घोड़ावज इत्यादि. जैन धर्म में ज्ञानपंचमी का पर्व सुरक्षित पोथियों की साफ-सफाई से जुड़ा है जो कार्तिक शुक्ल पंचमी के दिन मनाया जाता है. इस समय वातावरण में आर्द्रता न होने के कारण ग्रंथो की सफाई के अनुकूल होता है. इस दिन शास्त्रपूजन की परंपरा जैन समाज की ज्ञान के प्रति उत्कृष्ट भावना को दर्शाती है. इस अनूठी परंपरा के कारण आज तक जैन ज्ञानभंडार सुरक्षित रह पाये हैं. प्राचीन विद्वानों ने पोथी सुरक्षा हेतु कुछ श्लोंकों की भी रचना की थी जो प्रायः ग्रंथ के अंत में लिखे जाते थे. जिससे पाठक बार-बार स्मरण करता रहे. उदकानल चोरेभ्यो, मूषकेभ्यो तथैव च, अग्नेरक्षेज्जलाद् रक्षेत्, रक्षेत् शिथिल बंधनात्. कष्टेन लिखितं शास्त्रं, यत्नेन परिपालयेत्, मूर्ख हस्ते न दातव्यं, एवं वदति पुस्तिका..१.. सुलेखन कला जैन लिपिकार आलेखन के साथ-साथ लेखनकला में कुशल होने से वह अपनी सूझ-बूझ से जैन प्रजा की उदारता को ध्यान में रखकर आलेखन में कई विशेष कलाओं का उपयोग करते थे. असंख्य ग्रंथों में सुलेखन कला के उदाहरण देखने को मिलते हैं जो कई ज्ञान भंडारों में विद्यमान हैं, जिसे देखने से लिपिकार की कुशलता का दर्शन होता है. आनंदघन चौवीसी सह टबार्थ १८वीं सदी ताड़पत्र जैसे माध्यम की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए अधिक से अधिक पंक्तियो का समावेश करने के लिये दो पंक्तियों के बीच का अंतर कम रखा जाता था और लिपि में आने वाले ह्रस्व, दीर्घ इ,ई, उ, ऊ की मात्रा को वर्ण के ऊपर नीचे न palanwaryaनिनिमय નવતd, લવ olહાથ ગુપ્તિ, છાત નિદાન તથા નવ પ્રકારે કર્યાવિહારની સ્વરૂપના જ્ઞાતાં માવા છીણ ગુણોથી યુકત આચાર્યોને વંદન જ સૌજળ * તનવીરકુમાર ડાયમંડ લિમીટેડ, મુંબઈ 43 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक लिखकर वर्ण के आस-पास लिखे जाते थे. इस तरह लिखी गई लिपि को पड़ी मात्रा लिपि कहते हैं. सुलेखन के लिये लिपिकारों की आदतें भी महत्व रखती थी. कई लिपिकार लिखते समय पत्र के नीचे लेखन पाटी रखकर लिखते थे तो कई कश्मीरी लिपिकार पत्र को बिना कुछ आधार दिये लिखते थे. कई लिपिकार एक पैर पर बैठकर लिखते थे तो कई दोनों पैर के सहारे बैठकर लिखते थे. इसके अलावा लिपिकार अपनी कलम तक एक दूसरे को नहीं देते लिपिकार ग्रंथ लिखते समय लिपि के बीच-बीच में ऐसी खूबी से जगह छोडते थे जो एक आकृति का रूप धारण कर लेती थी. जिसे रिक्त स्थान चित्र कहा जाता है. इन आकृतियों में चतुष्कोण, त्रिकोण, षट्कोण, छत्र, स्वस्तिक, पेड़, विशेष व्यक्ति का नाम, श्लोक,गाथा आदि का समावेश होता है. कई लिपिकार काली स्याही से लिखे गए ग्रन्थों में विशेष वर्णों को लाल, पीली, सोनेरी, रूपेरी स्याही से लिखकर उभारते थे जिससे चित्राकृतियाँ बनती थी, जिसमें संवत, ग्रंथ के लेखक, रचनाकार, दानकर्ता नाम, कलश, फूल, ध्वज, स्वस्तिक आदि का समावेश होता है.ग्रन्थ के मध्य में छोड़ी गई जगह में, दोनों ओर के हासिये में एवं अंक स्थान में कई प्रकार के चित्र एवं फुल्लिकाएँ अलग-अलग स्याही से बनाते थे. कई ग्रन्थों में जहाँ पशु-पक्षी आदि के नाम का उल्लेख होता था उसके आसपास उनके चित्र बना दिए जाते थे. कल्पसूत्र जैसे पवित्र ग्रन्थों को स्वर्णाक्षर से लिखे जाते थे. प्राचीन काल में मूल, टीका, विवरण आदि के लिये अलग-अलग प्रतियाँ लिखी जाती थी पर अभ्यास के समय बार-बार अलग-अलग प्रतियाँ देखने की समस्या के कारण इस प्रथा को बंद कर मूल सूत्र के नीचे सूक्ष्म अक्षरों में टीका, भाष्य आदि लिखने की परंपरा शुरु हुई. सूक्ष्माक्षरी लिपि में ग्रंथ लिखे जाने लगे थे. पर्युषण जैसे महापर्व के शुभ अवसर पर बड़े अक्षरों से लिखे गए स्थूलाक्षरी ग्रंथों का उपयोग होता था, जिस में कल्पसूत्र, कालकाचार्य कथा जैसे ग्रंथों का समावेश होता है. प्रदर्शित हस्तलिखित प्रतियों में ऐसी ही विशेषताएँ हैं. (भोजपत्र के एक ही पृष्ठ श्रेष्ठि धरणाशा एवं पेथडशा मंत्री चित्र खण्ड पर अतिसूक्ष्म अक्षरों में सचित्र पाण्डुलिपियाँ लिखा हुआ पूरा कल्पसूत्र) दीवारों, काष्ठ फलकों, वस्त्रों पर चित्रांकन की परंपरा प्रारंभिक काल से प्रचलित रही है. सातवाहनकालीन अजंता की गुफा के भित्तिचित्र इस परंपरा के स्पष्ट साक्ष्य हैं. विक्रम संवत ११७ (१०६० ई.) की रची जैसलमेर की ओघनियुक्ति सब से प्राचीन उपलब्ध प्रमाण हैं, जिसके फलस्वरूप ताड़पत्रीय पाण्डुलियों पर चित्रांकन की परंपरा प्रकाश में आई है. १०वीं शताब्दी के पूर्व ही धार्मिक और साहित्यिक ग्रन्थों की सचित्र पाण्डुलियों की एक सामान्य परंपरा प्रचलित थी. प्रारंभिक पाण्डुलिपियों की चित्रशैली प्राचीनकाल से चली आ रही अजन्ता की उच्चस्तरीय चित्र-परंपरा से ली गयी थी. परंतु इसकी रचना में कहीं આયાર્યોને વંદન જયંતીલાલ નાગરદાસ શાહ, બેંગલોર 44 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक अधिक स्थिरता और प्रस्तुतीकरण में औपचारिकता थी. अजंता एलोरा की चित्रशैली गुजरात में १२वीं शताब्दी तक निरंतर रूप से प्रचलित रही. आगे चलकर उसने एक विकसित शैलीबद्ध स्थान ग्रहण किया, १३वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ताड़पत्रीय चित्रों में एक अन्य विशेषता का विकास हुआ. चित्रकारों ने ताड़पत्र में सीमित क्षेत्रफल के होते हुए भी विषयवस्तु के अनुरूप अधिक भावाभिव्यक्ति का प्रारम्भ किया, जिस सीमा तक पूर्ववर्ती चित्रकार कभी नहीं गये थे. अब तक सिर्फ तीर्थंकर, देवी-देवता एवं उनके सेवकों के चित्र बनाए जाते थे, उनके स्थान पर तीर्थंकरों के जीवन चरितों के दृश्य, चित्रों में चट्टानों, वृक्षों और अन्य पशु-पक्षियों के चित्र चित्रित किये गए. विभिन्न घटनाएँ एक क्रमबद्ध विवरणात्मक विधि से अंकित होने लगी थी. १४वीं शताब्दी के मध्यकाल तक ताड़पत्रों पर चित्रांकन प्रचलित था. तत्पश्चात् कागज की पाण्डुलियों का प्रचलन हुआ. प्रारम्भिक काल की पाण्डुलियों का क्षेत्रफल ताड़पत्र के नाप का था पर बाद में धीरेधीरे क्षेत्रफल बढता गया और उन पर अंकित चित्रों में भी विशेषताएँ स्पष्ट रूप से विकसित होने लगी. चित्रों में स्वर्ण और रौप्य का उपयोग संभवतः फारसी कला के प्रभाव के कारण होने लगा था. यहाँ तक कि प्रारम्भिक पाण्डुलियों में जहाँ चित्रों की संख्या कम थी बाद में वह भी बढती गई. चित्रकला के यह उपलब्ध प्रमाण गुजरात-राजस्थान के कई ज्ञानभंडारों में सुरक्षित हैं, कुछ सचित्र पाण्डुलिपियाँ इस संग्रहालय में भी प्रदर्शित हैं. गट्टाजी गट्टाजी एक प्राचीन परंपरा है. जैनधर्म में प्रातः सर्वप्रथम जिनदर्शन, पूजा एक नित्यक्रम माना गया है. प्राचीन काल में तीर्थयात्रा के दौरान जहाँ दूर-दूर तक जिनमंदिर दिखाई नहीं देते थे वैसी जगह पर भी रात्रि विश्राम करना पड़ता था. ऐसी परिस्थिति में गट्टाजी में अंकित तीर्थंकर के दर्शन-पूजा आदि करके अपने धर्म का पालन करते थे. रत्न जड़ित गटाजी इन गट्टाजी में तीर्थंकरों के चित्र, सिद्धचक्र, देवी-देवताओं के चित्र अंकित होते थे, जो सामान्य चित्रकारी से लेकर मूल्यवान रत्न व स्वर्ण जड़ित होते थे. यह परंपरा अन्य धर्मों में भी प्रचलित थी. राधा-कृष्ण, शंकर-पार्वती, राम-सीता एवं श्रीनाथजी आदि के चित्र अंकित किये गए गट्टाजी भी पाये गए हैं. विज्ञप्ति पत्र कुण्डलीनुमा पटों पर कथा-चित्रण एक प्राचीन परम्परा है. इसी परम्परा के तहत विज्ञप्ति अथवा विनती पत्र की रचना हुई. विज्ञप्ति पत्र वास्तव में एक विशेष प्रकार का पत्र है. जो जैन संघ की ओर से गुरु महाराज आचार्यश्री को अपने स्थान દાણા પૈયાલમે. દશા |વજયે !ાદો પાણ ધal oો દડો શSIB11 Bhપst| std] આચાર્યોને વંદન કેવલડિટણ લોથિંગલિ., મુંબઈ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक पर चातुर्मास करने के लिये आमंत्रण के साथ भेजे जाते थे. इस पत्र में निवेदन के साथ-साथ धार्मिक क्रिया-कलापों और नगर के प्रमुख स्मारकों का चित्रण भी होता था. १७वीं शताब्दी से इन विज्ञप्तिपत्रों में चित्रों का समावेश होने लगा. इसमें प्रायः चित्र आरम्भ में ही होते हैं. सबसे पहले अष्टमांगलिक चिह्न, चौदह स्वप्न और शय्या पर विश्राम करती तीर्थंकर की माता और उसके बाद नगरचित्रण होता है. नगरचित्र का प्रारम्भ जिनमंदिर, बाजार, किला, राजदरबार, प्रमुख स्मारक, देवालय आदि के चित्र होते हैं. चित्रों के बाद गद्यात्मक अथवा सुन्दर काव्यात्मक शैली में पत्र लिखा होता है और अन्त में समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के हस्ताक्षर होते श्रेष्ठि विमलमंत्री एवं दशार्णभद्र परंपरागत खण्ड इस खण्ड में चन्दन, हाथीदाँत एवं चीनी-मिट्टी की बनी कलात्मक वस्तुएँ प्रदर्शित की गई हैं जो दर्शकों का मन मोह लेती है. साथ ही यहाँ परम्परागत कई पुरा वस्तुओं का प्रदर्शन भी किया गया है जो दर्शकों को अपने गौरवशाली अतीत की याद दिलाता है, साथ ही जैन धर्म एवं दर्शन के प्रति चिन्तन-मनन एवं इस सम्बन्ध में अध्ययन के लिये आकर्षित भी करती जैन संस्कृति की प्राचीनता एवं भव्यता से समाज के नई पीढी को परिचित कराना इस संग्रहालय का प्रमुख उद्देश्य है. इस समय इस संग्रहालय में बड़ी मर्यादित संख्या में ही कलाकृतियों को प्रदर्शित किया गया है. शेष बहुसंख्यक दुर्लभ कलाकृतियाँ भंडार में सुरक्षित है. संग्रहालय का स्वतंत्र एवं विशाल भवन शीघ्र बनने वाला है जिसमें और अधिक कलाकृतियों को आकर्षक तरीके से प्रदर्शित करने की योजना है. अहमदाबाद और गाँधीनगर के निकट होने के कारण इस ज्ञानमंदिर का उपयोग सभी समुदायों के सन्त विद्वान व श्रद्धालु करते हैं. भारत के सुदूर क्षेत्रों के साथ ही विदेशी विद्वान भी इसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं. દશ રૂયિ, બાર કાંગ, બાણ ઉપાંગ અoો હો શિalloળા ડાતા નવા છે મીણા ગુણોથી યુક્ત આથાને વંદન सोडलय. ડી. નવીનચંદ્ર એes કંપની, મુંબાઈ 46 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक ज्ञानतीर्थ आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर _ प्रगति के सोपान विश्व में जैनधर्म एवं भारतीय संस्कृति के विशालतम शोध संस्थान के रूप में अपना स्थान बना चुका यह ज्ञानतीर्थ श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र की आत्मा है. ज्ञानतीर्थ स्वयं अपने आप में एक लब्धप्रतिष्ठ संस्था है. इस ज्ञानमंदिर के अन्तर्गत निम्नलिखित विभाग कार्यरत हैं : (१) देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण हस्तप्रत भांडागार (२,००,००० दो लाख प्रायः हस्तलिखित ग्रन्थों से समृद्ध, जिसमें ३००० ताडपत्र हैं तथा अगरपत्र पर लिखित कई अमूल्य ग्रन्थ हैं.) (२) आर्य सुधर्मास्वामी श्रुतागार (विविध विषयों से सम्बन्धित प्राचीन व नवीन १,५०,००० डेढ लाख मुद्रित पुस्तकों का संग्रह) (३) आर्यरक्षितसूरि शोधसागर - कम्प्यूटर केन्द्र (ग्रन्थों के इस विशाल संग्रह को आधुनिक तकनीक से सूचीबद्ध करने तथा अध्येताओं को किसी भी ग्रन्थ से सम्बन्धित कोई भी माहिती अल्पतम समय में उपलब्ध कराने के लिए सदा सक्रिय) (४) सम्राट सम्प्रति संग्रहालय (पाषाण व धातु मूर्तियों, ताड़पत्र व कागज पर चित्रित पाण्डुलिपियों, लघुचित्र, पट्ट, विज्ञप्तिपत्र, काष्ठ तथा हस्तिदंत से बनी प्राचीन एवं अर्वाचीन अद्वितीय कलाकृतियों व पुरावस्तुओं को अत्यन्त आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक ढंग से धार्मिक व सांस्कृतिक गौरव के अनुरूप प्रदर्शित की गई है) देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण हस्तप्रत भांडागार : वीर संवत् ९८० (मतान्तर से ९९३) में एक शताब्दी में चार-चार अकाल की परिस्थिति में लुप्तप्राय हो रहे भगवान महावीर के उपदेशों को पुनः सुसंकलित करने के लिए भारतवर्ष के समस्त श्रमणसंघ को तृतीय वाचना हेतु गुजरात के वल्लभीपुर में एकत्रित करने वाले पूज्य श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की अमर स्मृति में जैन आर्य संस्कृति की अमूल्य निधि-रूप इस हस्तप्रत अनुभाग का नामकरण किया गया है.. आगम, न्याय, दर्शन, योग, साहित्य, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद, इतिहास-पुराण आदि विषयों से सम्बन्धित मुख्यतः जैन धर्म एवं साथ ही वैदिक व अन्य साहित्य से संबद्ध इस विशिष्ट संग्रह के रखरखाव तथा वाचकों को उनकी योग्यतानुसार उपलब्ध करने का कार्य परंपरागत पद्धति के अनुसार यहाँ संपन्न होता है. सभी अनमोल दुर्लभ शास्त्रग्रंथों को विशेष रूप से बने ऋतुजन्य दोषों से मुक्त कक्षों में पारम्परिक व वैज्ञानिक ढंग के संयोजन से विशिष्ट प्रकार की काष्ठमंजूषाओं में संरक्षित किये जाने का कार्य हो रहा है. क्षतिग्रस्त प्रतियों को रासायनिक प्रक्रिया से सुरक्षित करने की बृहद् योजना कार्यान्वित की जा रही है. विगत वर्षों में इस विभाग में सम्पन्न विविध कार्यों की एक झलक यहाँ प्रस्तुत है__ शास्त्रग्रंथों का संग्रहण : प. पू. राष्ट्रसन्त आचार्य भगवंत श्रीमद् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. ने अपने अबतक के लगभग ८०,००० कि. मी. विहार के दौरान भारतभर के गाँव-गाँव में पैदल विचरण करते हुए वर्षों से उपेक्षित ज्ञानभंडारों में જાગ્યા ઉપાણs પ્રતિમા. બાર ddoો તેડિયાથા[ળી ઝાણકાર પાવાગીણ ગુણોથી યુક્ત આચાર્યોને વંદન જ સૌsoથમ લલિતાબેન તારાચંદ પોપટલાલ પરિવાર, સ્વાઈ 47 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक अस्त-व्यस्त स्थिति में प्राप्त हस्तप्रतों को देखकर उनका हृदय द्रवित हो गया. उन ग्रन्थों को यथास्थिति में प्राप्त कर यहाँ संग्रह तथा संरक्षण का कार्य प्रारम्भ कराया. इस प्रकार आगरा, इन्दौर, भावनगर, जोधपुर आदि स्थानों के श्रीसंघ को प्रेरणा देकर उन ग्रन्थों को अपने यहाँ मँगाया तथा अपने देश की अमूल्य ज्ञानसम्पदा को अपने देश में ही सुरक्षित व संरक्षित करने का अद्भुत प्रयास प्रारम्भ किया. शास्त्रग्रंथों का भण्डारण : हस्तलिखित शास्त्रग्रंथों को पूर्णतया सुरक्षित करने हेतु जंतु, तापमान व आर्द्रता ( भेज-नमी) से मुक्त सागवान लकड़ी की खास प्रकार से निर्मित मंजूषा (कबाटों) में रखा गया है. इन काष्ठनिर्मित मंजूषाओं जीव-जंतु, रजकण, वातावरण की आर्द्रता आदि से सुरक्षित कर स्टेनलेस स्टील की मोबाईल स्टोरेज सिस्टम में रखा गया है अस्त-व्यस्त हस्तलिखित शास्त्रों का मिलान व वर्गीकरण कार्य के प्रारम्भिक चरण में अस्तव्यस्त अवस्था में प्राप्त हुई लगभग ६५,००० हस्तप्रतों का वर्गीकरण प.पू. मुनिराज श्री निर्वाणसागरजी म.सा. व मुनिश्री अजयसागरजी म. सा. के कुशल मार्गदर्शन में हुआ. तत्पश्चात् इस कार्य को आगे बढ़ाते हुए ५ पंडितों ने अब तक संग्रहित लगभग आधे से ज्यादा हस्तप्रतों को मिलाने का कार्य पूर्ण कर लिया है. हजारों की संख्या में अधूरे दुर्लभ शास्त्रों को बिखरे पन्नों में से एकत्र कर पूर्ण किया जा सका है. इस कार्य के अंतर्गत प्रमुख रूप से (१) बिखरे पन्नों का विविध प्रक्रियाओं से मिलान कर ग्रंथों को पूर्ण करना (२) फ्यूमिगेशन की प्रक्रिया द्वारा ग्रंथों को जंतुमुक्त रखना (३) चिपके पत्रों को योग्य प्रक्रिया से अलग करना (४) जीर्ण पत्रों को पुनः मजबूती प्रदान करना व उनकी फोटोकोपी आदि प्रतिलिपि बनाना (५) वर्गीकरण (६) रबर स्टाम्प लगाने (७) नाप लेने (८) हस्तप्रत के पंक्ति-अक्षरादि की औसतन गणना (९) इनकी भौतिक दशा संबन्धी विस्तृत कोडिंग (१०) उन पर खादी भंडार के हस्तनिर्मित हानिरहित कागज के वेष्टन चढ़ाने (११) लाल कपड़े में पोथियों व ग्रंथों को बांधने आदि कार्य किये जाते हैं. ये सभी कार्य पर्याप्त श्रमसाध्य व अत्यन्त जटिल होते है. जिसे संपन्न करने के लिए काफी धैर्य, अनुभव व तर्कशक्ति की आवश्यकता होती है. हस्तलिखित शास्त्र सूचीकरण : खास तौर पर विकसित विश्व की एक श्रेष्ठतम सूचीकरण प्रणाली के तहत विशिष्ट प्रशिक्षित पंडितों की टीम के द्वारा ग्रंथों के विषय में सूक्ष्मतम सूचनाओं को संस्था में ही विकसित कम्प्यूटर प्रोग्राम की मदद से सीधे ही कम्प्यूटर पर सूचीबद्ध करने का कार्य तीव्र गति से चल रहा है. उपर्युक्त कार्य सम्पन्न करने के लिए दूरंदेशी धरानेवाले पूज्य विद्वान गुरुभगवंतों की देखरेख में ५ पंडित, २ प्रोग्रामर व ७ सहायकों की टीम पूरी निष्ठा से लगी हुई है. इस विशालकाय संग्रह को समयानुसार लोकाभिमुख बनाने हेतु विविध प्रयासों के अंतर्गत निम्नलिखित प्रमुख कार्य विगत वर्षों में हुए : १००७९६ ९६७५५ १३६२३७ हस्तप्रतों को अनुक्रमांक दिया जा चुका है, जिसमें लगभग ४५० ताडपत्र भी शामिल हैं.. शेष हस्तप्रतों को मिलाने, वर्गीकरण कोडिंग आदि प्रक्रियाएँ चल रही हैं. हस्तप्रतों की सम्पूर्ण सूचनाएँ कम्प्यूटर पर प्रविष्ट की गई. कृतियों के साथ प्रतों का संयोजन हुआ. અગ્યારપાણઙપ્રતિમા, બાર વત અને તે ડિયાસ્થાનના જાણકાર આવા છત્રીસ ગુણોથી યુક્ત આથાર્થોનો વંદની - યોજન્ય - શ્રીમતી તારાદેવી રમેશકુમાર ૐન, મુંબઈ શ્રીમતી પૂનમબેન જિતેન્દ્રકુમાર જૈન, મુંબઈ શ્રીમતી શીતલબેન જિનેન્દ્રકુમાર જૈન, મુંબઈ શ્રી મેશભાઈયોથમલજી જૈન શ્રી જિતેન્દ્રકુમાર રમેશભાઈ જૈન શ્રી જિનેકુમાર રમેશભાઈ જૈન 48 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक १०८६०० हस्तप्रतों का फ्यूमिगेशन किया गया, १३५७६२ हस्तप्रतों की दशा, विशेषतादि लक्षणों की कोडींग हुई है. ३१६५ हस्तप्रतों की जिरॉक्स प्रतियाँ विद्वानों को उपलब्ध कराई गईं. सूचीगत सूचनाओं का संपादन व केटलॉग का प्रकाशन : आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर में संग्रहीत कम्प्यूटर पर प्रविष्ट दो लाख से अधिक हस्तप्रतों की सूक्ष्मातिसूक्ष्म सूचनाओं के डाटा को संपादित करने व प्रमाणित करने का कार्य बड़े पैमाने पर चल रहा है. इस कार्य के अंतर्गत प्रविष्ट आंकड़ों की सूक्ष्मातिसूक्ष्म छान-बीन, शुद्धि तथा वैधता आदि की परीक्षा की जाती है, संपादित व प्रमाणित होने से ही सूचनाओं को समय पर उचित पद्धति से शुद्धातिशुद्ध रूप में प्राप्त किया जा सकेगा. इस प्रोजेक्ट में अब तक किए गए कार्य की प्रगति निम्नलिखित है: १६४४ कृति परिवारों की ४४५० कृतियाँ प्रमाणित की गईं. १८७७६ कृतियों की सूचनाओं का संपादन किया गया, ५८१६ आदि वाक्यों का संपादन किया गया. ३९१७ अंतिम वाक्यों का संपादन किया गया ६२८४ विद्वान माहिती का संपादन किया गया. अन्य भंडारों में उपलब्ध विशिष्ट हस्तप्रतों की प्रतिलिपियों का संग्रहण : पूज्य मुनिश्री जंबूविजयजी द्वारा करवाई गई पाटण आदि मुख्य भंडारों में विद्यमान विशिष्ट ताडपत्रीय आदि प्रतों की झेरोक्स प्रतियां भी हजारों की संख्या में यहाँ उपलब्ध की गई है. आर्य सुधर्मास्वामी श्रुतागार (ग्रंथालय): प्रभु श्री महावीरस्वामी के पट्टधर आर्य सुधर्मास्वामी को समर्पित यह विभाग विविध माध्यमों से मुद्रित; जैसे शिलाछाप (लिथो). मुद्रित (प्रिन्टेड) पुस्तकें तथा प्रतें, इलेक्ट्रानिक मिडिया में कैसेट, सी.डी. आदि व सामायिक पत्र-पत्रिकाओं का व्यवस्थापन करता है. यहाँ पर संग्रहित १,४०,००० से अधिक पुस्तकों को २७ विभागों में रखा गया है. इन ग्रंथों की भाषा प्रायः संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, ढुंढारी, मराठी, बंगाली, उड़िया, मैथिली, पंजाबी, तमिल, तेलगु, मलयालम, आदि के साथ-साथ अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, अरबी, तिब्बती, भूटानी आदि विदेशी भाषाएँ भी है, परिणामतः यह ज्ञानतीर्थ जैन एवं भारतीय विद्या का विश्व में अग्रणी केन्द्र बन गया है. इस संग्रह को अभी इतना अधिक समृद्ध करने की योजना है कि जैन धर्म से सम्बन्धित कोई भी जिज्ञासु यहाँ पर अपनी जिज्ञासा पूर्ति किए बिना वापस न जाय. यह विभाग जैन ग्रन्थों के अध्ययन एवं अध्यापन की भी सुविधा उपलब्ध कराता है. भारत-भर में यत्र-तत्र विहार कर रहे all (/ળો ૧, દશા પ્રાણ સામે યદ કાકાણ II 11111111 1} મીણા ગુણોણ}} R[+1 આચાર્યોને વંદન 0000000000 looooooooo થી 15મારડિશોરભાઈ શાહ શ્રીમતી હીનાબેન કે. શાહ, મુંબઈ શ્રી યાવિંદભાઈ કે. શાહ શ્રીમતી પારુલોન એ. શાહ, aવાઈ 49 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक पूज्य साधु-भगवन्तों तथा स्व-पर कल्याणक गीतार्थ निश्रित सुयोग्य मुमुक्षुओं को उनके अध्ययन-मनन के लिए यहाँ संग्रहीत सूचनाएँ, संदर्भ एवं पुस्तकें उपलब्ध करने के साथ ही दुर्लभ ग्रंथों की लगभग ११२०५ पन्नों की फोटोस्टेट प्रतियाँ भी निःशुल्क उपलब्ध करायी गई है. विविध विषय जैसे प्राचीन भाषाएँ, शास्त्र, आयुर्वेद, गणित, ज्योतिष, वास्तु, शिल्प, विविध कलादि ज्ञान-विज्ञान, लुप्त हो रही ज्ञानसंपदा तथा नवीन सिद्धियाँ यथा कृति, प्रकाशन, पारम्परिक तकनीकी ज्ञान-विज्ञान आदि जिज्ञासु जनों को उपलब्ध कराया जाता है. ग्रंथालय के वाचकों में प्रमुख रूप से सम्पूर्ण जैन समाज के साधु-साध्वीजी भगवन्त, मुमुक्षु वर्ग, श्रावक वर्ग, देशी-विदेशी संशोधक, विद्वान एवं आम जिज्ञासु सम्मिलित हैं. श्रमणवर्ग को उनके चातुर्मास स्थल तथा विहार में भी पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती हैं. वाचकों हेतु अध्ययन की यहाँ पर सुन्दर व्यवस्था है. विगत पन्द्रह वर्षों में इस विभाग में हुई प्रगति का विवरण इस प्रकार है: पुस्तक संग्रहण : १२९९२५ पुस्तकें दाताओं की ओर से भेट में प्राप्त हुई हैं. ५३३४ पुस्तकें प्रकाशकों तथा पुस्तकविक्रेताओं से क्रय की गईं. १३९०८८ कुल पुस्तकें अब तक संग्रहित की गईं. १५२५०० पुस्तकों पर आवेष्टन चढ़ाकर ग्रंथनाम लिखने का कार्य हुआ. ५०७८० पुरानी पुस्तकों का फ्यूमिगेशन किया गया. ग्रंथ परिक्रमण (वाचक सेवा) : १०२१ वाचक संस्था से पुस्तक आदि अध्ययन हेतु ले जाते है. इनमें १८० पूज्य साधुभगवन्त, १६० पूज्य साध्वीजी, ७६ संशोधक एवं विद्वान आदि एवं ५५३ अन्य वाचक शामिल हैं. १२५०० करीब पुस्तकें संस्था में वाचकों द्वारा अध्ययन की गई ४०९१७ पुस्तके वाचकों को इश्यु की गईं. ३८८९२ पुस्तके वाचकों से वापस आईं. प्रत्यालेखन (फोटोकापी) विभाग : दस्तावेजों व विविध सामग्री की प्रतिलिपि छापने के लिए यहाँ पर एक Ricoh Afficio 270 Digital Printer cum Copier तथा एक Canon 408 printer cum Copier मशीनें है. इन मशीनों का निम्नलिखित सदुपयोग किया गया. ६६.९०२ पन्नों की झेरोक्ष प्रतियाँ पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंतों को निःशुल्क प्रदान की गई. १,३८.७६९ पन्नों की झेरोक्ष प्रतियाँ देश-विदेश के विद्वानों, संशोधकों तथा छात्रों को उपलब्ध की गईं. ચૌદ ગુણસથાળ, થોર પ્રતિસ્પાદ અને આઠ કૃallી જ્ઞાતા ગાવા છpણીeણ ગુણોથી યુક્ત આચાર્યોને વંદન જ સૌsળ્યું કે શ્રી નિતીનભાઈ પ્રહાલ૮ શ્રી એન્થની સીકવેરા, મુંબઈ 50 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक २,४६,६६९ पन्नों की झेरोक्ष प्रतियाँ ज्ञानमंदिर के उपयोगार्थ निकाली गईं. हस्तप्रत जेरोक्स सेवा का लाभ पूज्य आचार्य रामसूरिजी, मुनिश्री जम्बूविजयजी, आचार्य प्रेमसूरिजी, आचार्य श्री प्रद्युम्नसूरिजी, आचार्य श्री मुनिचंद्रसूरिजी, आचार्य श्री हेमप्रभसूरिजी, आचार्य श्री कलाप्रभसागरसूरिजी (अचलगच्छ) आ. श्री चंद्रोदयसूरिजी, आ. श्री धर्मधुरंधरसूरिजी, मुनिश्री भुवनचंद्रजी (पायचंदगच्छ) मुनिश्री सर्वोदयसागरजी (अचलगच्छ) आ. सा. विस्तीर्णाजी (स्थानकवासी) आ. महाप्रज्ञजी (तेरापंथ), डॉ. कुमारपाल देसाई.. पं. पार्श्वकुमार (अचलगच्छ) डॉ. इमरेबाघा (यु. एस. ए.) डॉ. कविन शाह, उपा. विनयसागर जी (खरतरगच्छ) एल. डी. इन्डोलोजी अहमदाबाद, डॉ. वैद्य हार्डिकरजी, डॉ.कलाबेन, डॉ. मौलिबाई महासती, डॉ. शीवमुनिजी (आ. स्थानकवासी) डॉ. अनिल जैन (दिगंबर) डॉ. आर. एस. लोकापुर, डॉ. बिन्दुबेन, डॉ. प्रभुरक्षित मुनि (स्वामीनारायण) डॉ. चंद्रकान्त कडिया, डॉ. रामैय्या श्रीनिवासन, डॉ. रामप्रियजी, महाजनम् संस्था, श्रुतलेखनम् संस्था, डॉ. अभय दोसी, डॉ. वेंकटाचार्य, श्री जयन्तभाई कोठारी, इत्यादि सैंकड़ों साधु साध्वीजी प्रमुख विद्वान. पत्र-पत्रिका विभाग: संस्था में लगभग २० हजार पुरानी तथा नवीन पत्रिकाएँ संग्रहित की गई हैं. इनमें से कुछ पत्रिकाओं तथा जर्नल्स के सेट दुर्लभ हैं. प्रतिमास औसतन ६०-६५ नवीन पत्र-पत्रिकाएँ खरीद तथा भेट में नियमित रूप से मँगाई जाती हैं. इन्हें वाचकों को पठनार्थ उपलब्ध कराया जाता है. पुस्तक वितरण : अन्य ज्ञानभंडारों अथवा सद्गृहस्थों से भेंटस्वरूप प्राप्त पुस्तकें यदि अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण होती हैं तथा उसकी निर्धारित संख्या ज्ञानमन्दिर में पहले से ही उपलब्ध होती हैं अथवा उस पुस्तक की विषयवस्तु ज्ञानमन्दिर के स्तर के अनुरूप नहीं होती हैं. तो उन पुस्तकों को एक अलग विभाग में सुरक्षित रखा जाता है तथा समय-समय पर उन्हें अन्य ज्ञानभंडारों को भेंट स्वरूप दे दिया जाता है. अब तक लगभग २५,००० पुस्तकें समयोचित अन्य संस्थाओं/संघों को उनकी आवश्यकतानुसार भेंट स्वरूप दी गई. जिनके लाभार्थी हैं- श्रुतनिधि ट्रस्ट अहमदाबाद, शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च इन्स्टीच्यूट अहमदाबाद, प्राकृत भारती एकेडमी, जयपुर, प्राच्य विद्यामंदिर, शाजापुर, जैन सेन्टर, अमेरिका व यू. के, आंबावाडी जैनसंघ, अहमदाबाद, सिरोडी, राजस्थान, बुद्धिविहार, माउन्ट आबू, अजीमगंज, कलकत्ता, संभवनाथ जैन पेढ़ी, श्रीसंघ, वड़ोदरा व मोहित कोबावाला स्कूल. आर्यरक्षितसूरि शोधसागर : जैनागमों के अध्ययन हेतु मास्टर-की रूप अनुयोगद्वारसूत्र के रचयिता युग प्रधान श्री आर्यरक्षितसूरि को समर्पित इस अनुसन्धान का मुख्य ध्येय जैन परम्परा के अनुरूप जैन साहित्य के संदर्भ में गीतार्थ निश्रित शोध-खोल एवं अध्ययन-संशोधन हेतु यथासम्भव सामग्री एवं सुविधाओं को उपलब्ध करवाकर उसे प्रोत्साहित करना व सरल और सफल बनाना है. जैन साहित्य को भारतवर्ष में ही नहीं अपितु विश्व साहित्य में अपना एक अनोखा व विशिष्ट स्थान प्राप्त है. इसमें जैनधर्म के प्रवर्धक तथा . ચૌદ ગુણસ્થાન, પ્રતિપાદિ અને મૃaalolી શાતા આવા છplીસ ગુણોથી યુd થાર્યોને વંદol રા શ્રી શાબનીવાવ મોહનલાલ દોશી શ્રીની માયાબેof શાંતિelluદોણી હeતે નિતીનભાઈએણ.દોણી, સંબઈ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक संरक्षणशील श्रमण परम्परा के असंख्य मनीषियों की साधना का निचोड़ है, जो किसी भी देश काल के जीव की गतिविधि के हर पहलू को स्पर्श करता है. इस ज्ञान परम्परा को सशक्त करने, आत्मार्थियों को इसकी योग्य उपलब्धि के द्वारा सम्यक उपयोग हो सके इसके लिए इस अनुभाग में विविध विशिष्ट परियोजनाएँ गतिशील की जा रही हैं. पिछले पन्द्रह वर्षों में इस विभाग में निम्नलिखित कार्य सम्पन्न किए गए. लायब्रेरी प्रोग्राम से सम्बन्धित कार्य ज्ञानमंदिर में उपलब्ध हस्तलिखित प्रतें, ताडपत्र, गुटका, मुद्रित पुस्तकें व मुद्रित प्रतों के विस्तृत विवरण कम्प्यूटर में संग्रहीत की जा सकें. इस हेतु को लक्ष्य में रखकर आधुनिक तकनीकों से युक्त एक विशाल प्रोग्राम तैयार किया गया. संस्था द्वारा सम्पादित हस्तप्रतों की सूची, जो ५० से अधिक भागों में प्रकाशित होने वाली है, उनमें से पाँच भागों के बटर प्रिन्टिंग तक का कार्य यहीं सम्पन्न हुआ, ये सभी भाग लोक समक्ष प्रस्तुत हो चुके हैं, आगे के कार्य जारी हैं. ज्ञानमंदिर में आ रही पत्र-पत्रिकाओं के विवरणों को व्यवस्थित रूप से संग्रहीत करने के लिए भी संस्था द्वारा एक प्रोग्राम विकसित किया गया है. सम्राट सम्प्रति संग्रहालय के अंतर्गत प्रदर्शित प्राचीन वस्तुओं आदि का रजिस्ट्रेशन एवं देखरेख किया जा सके, इस हेतु से संग्रहालय के लिए भी प्रोग्राम तैयार किया गया है. वाचक सेवा १.ज्ञानमंदिर में पधारनेवाले प्रत्येक गच्छ, समुदाय तथा संघ के प. पू. साधु, साध्वीजी भगवंत तथा अन्य विशिष्ट विद्वानों को उनकी योग्यता के अनुसार अपेक्षित माहितीयाँ कुछ ही पलों में उपलब्ध करायी जाती है. इसमें किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं रखा जाता है. २. भारत भर से ही नहीं, बल्कि विदेशों में स्थित विद्वानों के द्वारा इन्टरनेट द्वारा पूछे गए उनके प्रश्नों का उत्तर ईमेल द्वारा दिये जाते है, यदि उन्हें किसी ग्रन्थ के झेरोक्ष या स्केनिंग की आवश्यकता हो तो कुरियर अथवा पार्सल द्वारा भेजने का कार्य भी किया जाता है. ३. लायब्रेरी मेन्टेनेन्स प्रोग्राम में विद्वानों के द्वारा दिये गये अभिप्रायों को ध्यान में रखते हुए आवश्यक सुविधाएँ दी जाती है. जिससे विद्वानों को उनकी इच्छित माहिती क्षणभर में दी जी सकती है. डी. टी. पी. व पुस्तक प्रकाशन से सम्बन्धित कार्य १.डी.टी.पी. जॉब वर्क दौरान प्रफ रिडींग की आवश्यकता नहिवत रहे, ऐसा टेक्स्ट तैयार करने के लिए संस्था द्वारा ही 'डबल एन्ट्री प्रोग्राम तैयार किया गया है. जिसके तहत एक ही टेक्स्ट को दो बार दो अलग-अलग ऑपरेटरों द्वारा एन्ट्री करवाने से कम्प्यूटर खुद ही एक-एक अक्षर को टेली करके संभवित संभवित अशुद्ध पाठों के प्रति ध्यान आकृष्ट करता है. जिससे टेक्स्ट को शुद्ध किया जा सके. પંદર યોગ, પંદર રાંડલા, ગણ ગાતા ચલો ગણI શલ્યની સીતા માતા છગીણ ગુણોથી યુકત સ્ત્રીમિથાજોની €ળી થી હર્ષવદનભાઈo1. શાહ શ્રીમતી રાતોના હ. શાહ, મુંબઈ થી અis[Sભાઈol. Plહ શ્રીમતી પૂણામાળો | સા. શાહ, મુંબઈ થી વાવયભાઈo. શાહ શ્રીમતી ભારતીબેન C. Piાહ, મુંબઈ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक २.प. पू. आचार्य भगवंत श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. एवं संस्था के अन्य मुनि भगवंतो द्वारा तैयार किये गए विविध मैटरों की एन्ट्री एवं उसे सुधार करके उसे प्रेस में छापा जा सके, उस स्तर के कार्य अर्थात् बटर प्रिन्टींग तक के कार्य यहाँ सम्पन्न होते हैं. ३.प. पू. मुनिराजश्री निर्वाणसागरजी म. सा. द्वारा तैयार किये गये रोमन लिप्यन्तरण सहित सार्थ पंचप्रतिक्रमण सूत्र पुस्तक का चार से पाँच अलग-अलग आकार एवं प्रकारों के बटर प्रिन्टिंग तक के कार्य किये गये है. ४.प.पू. मुनिराजश्री महेन्द्रसागरजी म. सा.,प्रशांतसागरजी म. सा. एवं पद्मरत्नसागरजी आदि द्वारा प्रकाशित किये जाने वाले प्रकाशनों के बटर प्रीन्टींग तक का कार्य भी यहाँ पर किया गया है. ५. प. पू. मुनिराजश्री जंबूविजयजी म. सा. द्वारा जेसलमेर, पाटण, लींबडी, भांडारकर ओरिएण्ट रिसर्च इन्स्टीट्युट, पुणे आदि भंडारों में स्थित हस्तप्रतों आदि की झेरोक्ष एवं माइक्रोफिल्म का कार्य करवाया गया, उन सभी डेटा की एन्ट्री एवं केटलॉग तैयार करने का कार्य भी यहाँ पर किया गया है... ६.प.पू. मुनिराजश्री यशोविजयजी म. सा. के द्वारा तैयार किये गयेद्वात्रिंशिका ग्रंथ के परिशिष्टों का एवं भाषारहस्य ग्रंथ के बटर प्रिन्टिंग तक का कार्य भी यहाँ पर तैयार किया गया है. इस हेतु विशिष्ट प्रोग्राम बनाया गया, जिसके आधार से ग्रन्थ में प्रयुक्त विशिष्ट शब्दों का खास आकारादिक्रम बड़े ही कम समय में सम्भव हो सका. ७.विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट द्वारा उनके सभी प्रकाशनों के मुद्रण व विक्रय का कार्य श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा को सौंपा गया है. उस प्रोजेक्ट के तहत लगभग ६० प्रकाशनों की एन्ट्री एवं डबल एन्ट्री का कार्य भी पूर्ण किया जा चुका है. ८. प. पू. मुनिराजश्री जंबुविजयजी म. सा. के लिए भगवतीसूत्र आदि ग्रंथों की डबल एन्ट्री, पू. आचार्य भगवंत श्री प्रद्युम्नसूरीश्वरजी म.सा. के लिए उपदेशमाला ग्रंथ, पू. मुनिराज श्री सुव्रतसेनविजयजी म.सा. के लिए भी स्तवन संग्रह, प. पू. मुनिराजश्री अक्षयचंद्रसागरजी म. सा. के लिए नंदीसूत्र ग्रंथ, प. पू. मुनिराजश्री वैराग्यरतिविजयजी म. सा. के लिए अष्टसहस्री तात्पर्य विवरण में शब्द आकारादि परिशिष्ट, पू. साध्वी श्री सौम्यगुणाश्रीजी म.सा. के लिए विधिमार्ग प्रपा ग्रंथ का संपूर्ण कार्य यहाँ पर किया गया है तथा प. पू. मुनिराज श्री हंसविजयजी म. सा. के लिए सिद्धान्तलक्षण ग्रंथ का बटर प्रीन्टींग तक का कार्य भी यहाँ पर सम्पन्न हुआ है. ९. इसके अतिरिक्त प.पू. साधु, साध्वीजी भगवंतों एवं विद्वानों के द्वारा चयनित स्तोत्र, स्तवन आदि तथा दैनिक स्वाध्याय में उपयोगी हो सके, ऐसे सूत्रों को टाईप करके बुकलेट के स्वरूप में उपलब्ध कराया जाता है. १०. अमेरीका स्थित ख्वरऋसंस्था हेतु डेटा एन्ट्री के कार्य हेतु भी यहाँ नियमित रूप से सहयोग किया जा रहा है, अन्य विशिष्ट कार्य जैन साहित्य व साहित्यकार कोश परियोजना : इस परियोजना के अंतर्गत काल दोष से लुप्त हो रहे जैन साहित्य के मुद्रित एवं हस्तलिखित ग्रंथों में अन्तर्निहित विविध सूचनाओं का डाटा-बेस खड़ा किया जा रहा है, जिसके अन्तर्गत किसी સોળ ઉદ્ગમ દોષ, સોળ ઉત્પાદન દોષ અને યાર અભિગહoll 13પોના વિરુપક આdi છીણ ગુણોથી યુક્ત આચાર્યોને વંદન હા મોજા શ્રી મુકેશભાઈન. શાહ શ્રીમતી ઘરાનેo[ a[. શાહ, મુંબઈ થી વિનીતભાઈબ. શાહ શ્રીમતી પૂર્ણાબેન વિ. શાહ, a[બઈ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक कृति भी कृति, विद्वान, हस्तप्रत, प्रकाशन, पुस्तक आदि की सूक्ष्मातिसूक्ष्म विस्तृत सूचनाएँ खास तौर पर विकसित प्रोग्राम के द्वारा कम्प्यूटर पर प्रविष्ट की जाती हैं. इस प्रणाली के द्वारा वाचक को यदि ग्रन्थ के सम्बन्ध में अल्पतम सूचनाएँ ज्ञात हों तो भी उनकी इच्छित विस्तृत सूचनाएँ सरलता से प्राप्त की जा सकती हैं. इस सूचना पद्धति का परम पूज्य साधु-भगवंतों, देशी-विदेशी विद्वानों तथा समग्र समाज ने भूरि-भूरि अनुमोदना की है. इस विशेष परियोजना के तहत अब तक निम्नलिखित कार्य सम्पन्न हए: ग्रंथालय के कम्प्यूटर प्रोग्राम में निम्नलिखित सूचनाओं के आधार पर शोध संभव है :९६७५५ हस्तप्रत १२८६७६ १३६२८४ कृतियाँ हस्तप्रतों में उपलब्ध १८०४१५ कृतियाँ प्रकाशनों में उपलब्ध ५५५२३ विद्वान नाम (कर्ता/व्यक्ति/संपादक/प्रतिलेखक आदि के रूप में) ६७४०३ प्रकाशन १३९०८८ पुस्तक १९५५ ग्रंथमाला नाम ग्रंथालय के कम्प्यूटर प्रोग्राम में सूचनाओं का संपादन एवं प्रमाणीकरण : लायब्रेरी प्रोग्राम में पूर्व प्रविष्ट सूचनाओं का सुधार, निरंतर नवीन सुविधाओं को उपलब्ध किये जाने के कारण पूर्व प्रविष्ट सूचनाओं को अद्यतन करने हेतु इन सूचनाओं के संशोधन, संपादन एवं प्रमाणीकरण के कार्य होते रहते हैं. ग्रंथानुयोग (कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग): उपर्युक्त वर्णित व संपन्न किये गए सभी कार्य संस्था में ही विकसित किये गये कम्प्यूटर आधारित विशेष लायब्रेरी प्रोग्राम के तहत होते हैं. विद्वानों को महत्तम सूचनाएँ शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त हो सके, इसके लिए इस प्रोग्राम को नियमित रूप से उपयोगितानुसार अद्यतन करने हेतु निम्नलिखित कार्य किये गये: १.इस प्रोग्राम में कार्यरत पंडितों के द्वारा प्रविष्टि, संपादन, प्रमाणीकरण तथा वाचकों हेतु विविध सूचनाओं को सरलतम पद्धति से न्यूनतम समय में प्राप्त किया जा सके एतदर्थ नियमित सुधार तथा नवीन सुविधाएँ प्रदान करने का कार्य किया गया. २. वाचकों की इच्छित विशिष्ट प्रकार की सूचनायें कम्प्यूटर आधारित विशेष प्रोग्राम द्वारा उपलब्ध की गई. ३. लायब्रेरी प्रोग्राम जो पहले डॉसबेस था, उसे विंडो बेस बनाया गया है, जिससे किसी भी प्रकार का शोध व प्रविष्टि अल्पतम समय में तथा अनेक प्रकार से की जा सकती है. ४. संस्था कुल ३४ कम्प्यूटर, ३ लैप टॉप, २ स्कैनर, १ डीसी २९० केमरा, ७ प्रिन्टर १ रिको प्रिन्टर कम कॉपियर मशीन સોળ વયન લિંધિ, સસણ સંયમ રુoો ગણ વિટાઘનીe|| સ્વરૂપની ડગીતા ચણાના 9 મીણ ગુણોથી યુકત નાણાને વંદ.| નાથાથી વંદન ૪ સોમંથ છે શ્રીમતી ફાગુનીબેન કે. શાહ- શ્રી ડdicોશeભાઈ જે. શાહ, થામદાવાદ 54 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी) अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक से सज्ज है. वेब-साईट डिजाईनिंग व इन्टरनेट सुविधाएँ : १. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ का विस्तार से परिचय कराने वाली वेब-साईट की सामग्री तैयार कर इसे यहां पर विकसित किया गया है. समय-समय पर इसे अपडेट भी किया जा रहा है. संस्था के साथ वाचक पत्र व्यवहार हेतु इ-मेल का उपयोग कर रहे हैं. २. पाइय सद्द महण्णवो शब्दकोश प्रायोगिक तौर पर इन्टरनेट पर उपलब्ध किया गया है. अर्धमागधी कोष तथा शब्दरत्नमहोदधि भी शीघ्र ही इंटरनेट पर उपलब्ध करा देने के प्रयास चल रहे हैं, १. प्राकृत, संस्कृत शब्दकोश कम्प्यूटरीकरण प्रोजेक्ट : इस प्रोजेक्ट में जैन परंपरा के निम्नलिखित कोशों को कम्प्यूटरीकरण हेतु चयन किया गया है- (१) पाईअसद्दमहण्णवो- (प्राकृत, संस्कृत, हिंदी), (२) अर्धमागधी कोश ५ भागों में (प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, हिंदी, अंग्रेजी), (३) शब्दरत्न महोदधि ३ भागों में (संस्कृत-गुजराती). २. इन तीनों के अतिरिक्त हस्तप्रत लेखन वर्ष एवं कृति के रचनावर्ष को बतानेवाले सांकेतिक शब्दों हेतु संख्यावाचक शब्दकोश को भी कम्प्यूटर पर उपलब्ध किया गया है. यह कोश काफी उपयोगी सिद्ध हो रहा है, ३. प्रायोगिक तौर पर पाइअसद्दमहण्णवो को www.kobatirth.org/dic/dic.html वेब साईट पर भी रखा गया अक्षर (प्राचीन लिपि) प्रोजेक्ट : प्राचीन लिपि को जानने व समझनेवाले बहुत कम विद्वान ही रह गये हैं. सदियों की संचित हस्तप्रत, ताडपत्र, ताम्रपत्र, भोजपत्र, वस्त्रपटादि अपनी श्रुत धरोहर को सुरक्षित रखने, उनकी महत्ता, उपयोगिता से अगली पीढ़ी को परिचित कराने हेतु अक्षर प्रोजेक्ट का कार्य चल रहा है. विद्वानों एवं अध्येताओं को प्राचीन हस्तलिखित साहित्य को पढ़ने में सुगमता रहे, इस हेतु वि. सं. ९०० से वि.सं. २००० तक देवनागरी-खासकर प्राचीन जैनदेवनागरी लिपि के प्रत्येक अक्षर/जोडाक्षर, अंक व अन्य संकेतों में प्रत्येक शतक में क्या-क्या परिवर्तन आए और उनके कितने वैकल्पिक स्वरूप मिलते हैं, उनका संकलन करते हुए उनके चित्रों का कम्प्यूटर पर एक डेटाबेस में संग्रह किया गया है. ला. द. विद्यामंदिर के श्री लक्ष्मणभाई भोजक का भी इसमें सहयोग रहा है. वास्तव में तो कोबा तीर्थ एवं ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर दोनों के संयुक्त प्रोजेक्ट के रूप में इसे देखा जा सकता है. यह कार्य दो भागों में विभाजित है. अक्षर संकलन: अप्रकाशित कृतियों के प्रकाशनार्थ लिपि विषयक दुरूहता को ध्यान में रखकर खासकर साधु-भगवन्त, शोधार्थियों हेतु इस कार्य के अन्तर्गत विक्रम संवत् की १०वीं से २०वीं सदी तक के विभिन्न हस्तलिखित ताडपत्रीय आदि शास्त्रग्रन्थों को स्केनिंग करके अपेक्षित मूलाक्षर, जोडाक्षर, मात्राएँ, विविध लाक्षणिक चिह्नों, विशेषताओं, अंकों/अक्षरांकों आदि का व्यापक છે દીક્ષા અપાનની અઢાર દોષની જ્ઞાતી ને અઢાર પ્રકારના પાપસ્થM5ll Pવરૂપના નિરુપs આવા છત્રીસ ગુણોથી યુકત હતો આયાર્યોને વંદન सोय. થી શાબાdICI બાવકુભાઈ ઝવેરી શ્રીમતી s[cરીeણીબા શાબિતભાઈ ઝવેરી હસ્તે શ્રી હરેશભાઈ શાંતિલાલ ઝવેરી, મુંબઈ 55 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक पैमाने पर कम्प्यूटर प्रोग्राम के द्वारा तद्रूप में ही संचय किया गया है. परिचय लेखन : चयन का कार्य पूरा होते ही प्रत्येक अक्षर हेतु शतक अनुसार, उपलब्ध विकल्पों अनुसार एवं भ्रम होने के स्थानों पर परिचय लेखन का कार्य प्रारंभ होगा. इसके पूर्ण होने पर इसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जा सकेगा. देश के प्रमुख ज्ञानभण्डारों में स्थित महत्वपूर्ण हस्तप्रतों के संकलित सूचीकरण हेतु पूज्य श्रुतस्थविर मुनिराज श्री जंबूविजयजी म.सा. का प्रोजेक्ट : पाटण, खंभात, लिंबडी, जेसलमेर, पूना आदि भंडारस्थ अत्यावश्यक महत्वपूर्ण जैन एवं जैनेतर ताडपत्रीय व कागज पर लिखी विशिष्ट प्राचीन हस्तप्रतों को पूज्य श्रुतस्थविर मुनिवर श्री जम्बूविजयजी म.सा. के निर्देशन के अन्तर्गत श्रीसंघ के अनुपम सहयोग से उपरोक्त भंडारों की अपेक्षित हस्तप्रतों की माइक्रोफिल्मिंग व जेरॉक्सिंग करायी गयी थी. इन भंडारों के विविध सूचीपत्रों का मिलान कर एक सम्मिलित सूचीपत्र तैयार करने का सौभाग्य आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर को प्राप्त हुआ. कार्य अपने आप में बिल्कुल ही दुरूहतम था, पर अशक्य नहीं. दो चरणों में संपन्न इस संकलित सूची के विविध ग्यारह प्रकार से प्रिंट लिए गए जो लगभग २२०० पृष्ठों में समाविष्ट हैं. इसके अतिरिक्त अन्य विकल्प से भी लगभग १३००० पृष्ठों के प्रिन्ट व जेरॉक्स पूज्यश्री को उपलब्ध कर दी गई है. यह कार्य पूर्ण करने में तीन वर्षों का समय लगा. विविध प्रकार के कम्प्यूटर आधारित प्रोग्रामों का निर्माण : १. जैन विद्या में स्वशिक्षण के लिए नवीन प्रोग्राम विकसित करने की शृंखला में नवकार मन्त्र के गूढ़ रहस्यों व अर्थों को इस तरह सरलता एवं सहजता से समझाने के लिए कम्प्यूटर पर एक प्रोग्राम विकसित किया गया है, जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति बहुत ही कम समय में इसे समझ कर सीख सकता है. प्रकाशन के क्षेत्र में यहाँ नए आयाम प्रस्तुत किये गये हैं. संस्था में विकसित डबल एन्ट्री प्रोग्राम के तहत संस्कृत- प्राकृत आदि ग्रंथों की प्रूफ रीडिंग की जरूरत नहींवत् रह जाती है. वर्ड इन्डेक्स प्रोग्राम में प्रकाशित हो रहे ग्रन्थ में आए शब्द गाथा, श्लोक आदि की अकारादि अनुक्रम के निर्माण की उलझनें स्वतः समाप्त हो जाती है और महीनों तक चलने वाला कार्य कुछ ही दिनों में हो जाता है और सम्पादक और संशोधक का समय बच जाता है. जैन संघ के एक मात्र सीमंधरस्वामी प्रत्यक्ष पंचांग का गणित पूर्ण शुद्धिपूर्वक करने का प्रोग्राम भी मुख्य तौर पर यहीं विकसित किया गया है. आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी आचार्य श्री भद्रगुप्तसूरिजी आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी आदि विरचित पुस्तकों का कम्प्यूटरीकरण तथा यथावश्यक प्रकाशन कार्य जारी है एवं उन्हें web पर भी रखने का आयोजन है. અઢાર શીલાંગ અને અઢાર પ્રકારના બ્રહાયર્થના ઉપદેશક આવા છત્રીસ ગુણોથી યુક્ત આચાર્યોને વંદન યોજ્ય શ્રી મેહુલભાઈ શાહ શ્રીમતી મોનિકાબેન મ. શાહ, મુંબઈ 56 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर की अहमदाबाद स्थित शाखा : अहमदाबाद के विविध उपाश्रयों में स्थिरता कर रहे पूज्य साधु-भगवंतों तथा श्रावकों की सुविधा हेतु अहमदाबाद के जैन बहुसंख्यक क्षेत्र पालडी में १९ नवम्बर १९९९ को पूज्य आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी म.सा. की शुभ प्रेरणा व आशीर्वाद से आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का शाखा ग्रंथालय विधिवत् प्रारम्भ किया गया. यहाँ के साहित्य वाचकों को उपलब्ध करने के अतिरिक्त कोबा स्थित ग्रंथालय की पुस्तकें भी वाचकों की योग्यतानुसार नियमित रूप से मंगवा कर दी जाती हैं. यहाँ से दी गई वाचक सेवाओं की संक्षिप्त रूपरेखा इस प्रकार है१.५.१२७ पुस्तके वाचकों को ईश्यु की गई. २.४.९५१ पुस्तके वाचकों से वापस आई. ३.२५० वाचक इस शहरशाखा के सदस्य हैं, जिनमें से १०० नियमित वाचक हैं. ४.५.४४२ पुस्तकें भेंट स्वरूप प्राप्त हुईं. ५. ग्रंथालय संबंधी कार्यों के अतिरिक्त श्री महावीर जैन आराधना केंद्र, कोबा के अहमदाबाद में जनसंपर्क सम्बन्धी विविध कार्य इस शाखा के द्वारा किये जाते हैं. ६. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर की परियोजनाओं हेतु डेटा एन्ट्री का कार्य भी किया जाता है. श्रुत सरिता : इस बुक स्टाल में उचित मूल्य पर उत्कृष्ट जैन साहित्य, आराधना सामग्री, धार्मिक उपकरण, कैसेट्स एवं सी.डी. आदि उपलब्ध किये जाते हैं. यहाँ यात्रियों के लिए एस.टी.डी टेलीफोन बूथ भी कार्यरत है. प. पू. आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. की पुण्य स्मृति में प.पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. की पावन प्रेरणा से निर्मित एवं समाज के मूर्धन्य दानवीरों के सहयोग से संचालित संयम, शिक्षा व संस्कृति-संरक्षण का त्रिवेणी संगम महातीर्थ का रूप प्राप्त कर चुका है. श्रुतज्ञानाकाश में देदीप्यमान नक्षत्र की भाँति जैन व प्राच्य-विद्या के प्रांगण को आलोकित कर रहा यह ज्ञानमंदिर आने वाली पीढी के लिए पथ प्रदर्शक का कार्य करने में समर्थ होगा. ઓગણીસ પ્રકાII Gર્ણદોષના જ્ઞાતા સાથે સતર પ્રકારના મeણાના સ્વરૂપના દેશનાક્ષ આવા છplીણ ગુણોથી યુક્ત આથાને વંદન सोय શ્રી જૈન sીકટ ફેડરેશન પરિવાર, મુંબઈ) (શ્રમeણ આરોગ્યમ સમી સપ્રદાય કે પૂ.સાધુ સાધ્વીજી ભગવંતોં કી ભારતમe મેં સર્વત્ર ચિંતામુકતયિકલા ડી અભિનવ યોજવી.) 57 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर हमारा संकल्प हम विश्व के समक्ष प्रस्तुत करेंगे जैन व आर्य साहित्य की धरोहरों को संशुद्ध कर लोकोपयोगी ढंग से प्रकाशन कर जैन साहित्य की गरिमा को. हमारा आनंद व संतोष निहित रहेगा * श्रमणवर्ग, विद्वज्जन एवं प्रत्येक जिज्ञासुओं की ज्ञान-पिपासा की तृप्ति में हमारा मुद्रालेख रहेगा * जैन साहित्य के संग्रहण के क्षेत्र में श्रेष्ठता एवं निपुणता का हम संकलन करते हैं, जैन व आर्य धरोहर रुप भ हस्तप्रतों का, जो यत्र-तत्र बिखरी पड़ी है. * मुद्रित पुस्तकों का, जो विश्वभर से अनेक भाषाओं में निरंतर प्रकाशित हो रही है हम तत्पर हैं यहाँ उपलब्ध साहित्य एवं अन्य विविध सेवाओं के द्धारा आत्मार्थी जिज्ञासुओं की ज्ञान पिपासा को शांत करने हेतु. हम प्रयासरत हैं *उचित व्यक्ति को उचित अध्ययन सामग्री, उचित समय पर, उचित स्थल पर उपलब्ध कराने हेतु. हम अपनी धरोहर रूप साहित्य को * सुरक्षित करेंगे, जो विविध प्रकार से विनष्ट हो रहा है. * व्यवस्थित करेंगे, जो अस्त-व्यस्त है. * मजबूती देंगे, जो जीर्ण-शीर्ण है. * चिरस्थाई करेंगे, विविध माध्यमों के द्वारा. * संजोकर रखेंगे, हर तरह से. हम हमेशा सहयोग करेंगे * जैन साहित्य के क्षेत्र में होने वाले प्रत्येक विशिष्ट कार्यों को. વીણ સમાધિસ્થાઇ[. દશા એષણાદોષ, પાંચ માણૌષણા થાને એક પ્રકારના Hિથાવના (13પની ફlliા નાની છ બીણ ગુણોથી યુકત માથાને વંદol 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0 0000000000 NASCIIC DIरशे6,ajes aiyલાબેન રણscલાલ શેઠ, મુંબઈ 58 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवस्त्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक हम अन्यत्र उपलब्ध प्राचीन व अर्वाचीन जैन साहित्य की सूचनाओं का ऐसा विशिष्ट संग्रह करेंगे कि यहाँ से जैन साहित्य संबधी सूचनाएँ प्राप्त करना हर किसी के लिए अपने आप में एक आह्लादक अनुभव बन जाय. हम सुखद भविष्य का निर्माण करने में सक्षम सिद्ध होंगे सांस्कृतिक-पुरातात्विक धरोहरों को यथारूप आने वाली पीढी को सौंप कर, हम अतीत को गौरव प्रदान करेंगे जैन एवं आर्य सांस्कृतिक-पुरातात्विक धरोहर रूप नमूनों और कलावशेषों को विशिष्ट आधुनिक तकनीक द्वारा संरक्षित कर. हमारा अस्तित्व गौरवप्रद होगा जैन मात्र व समग्र जगत के लिए. हम सदा अग्रसर रहेंगे जैन साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में. हम समाधान के रूप में बने रहेंगे जैन साहित्य के अन्वेषण-संशोधन के आने वाली प्रत्येक समस्याओं के लिए. हमारा प्रेरणा स्रोत होगा जिनाज्ञा एवं श्रमणों का मार्गदर्शन, પાંચ પ્રકારની ક્ષમા અપકાર ક્ષમા : મારૂં બગાડશે, અહિત કરશે એમ માની ક્ષમા આપે. ઉપકાર ક્ષમા : મારો ઉપકારી છે માટે ક્ષમા આપે. તિર્યંચને પણ હોય. વચન ક્ષમા : હું બોલીશ તો ૧૦ સાંભળવી પડશે. જેથી ક્ષમા રાખે. વિપાક ક્ષમા : કર્મોના વિપાક વિચારી ક્ષમા રાખે. ધર્મ ક્ષમા : લોકોત્તર ક્ષમા - સહન કરવું તે મારો ધર્મ છે. ધર્મ માનીને ખમાવે. NU છોડવીણા દોષણક્ષા યાને પંદર ફિlaiાળા સ્વરૂપના નાના oldી છplીણ ગુણોથી યુકti માથાર્થોને વંદન सोन्य યોસ.જોગાણી : કંપની, a[બઈ શૈલેશભાઈ જોગાણી, મુંબઈ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक भारतीय प्राचीन लेखन परंपरा में : तालपत्र लेखन गिरिजाप्रसाद षडंगी प्राचीन काल से भाषाओं को लिपिबद्ध करने के लिए मानव ने भिन्न भिन्न वस्तुओं का सहारा लिया है. लेखन सामग्री के रूप में सर्वप्रथम पत्थर, मिट्टी, धातु आदि का आधार बनाया. इनमें से एक है तालपत्र, इसकी निर्माण नैसर्गिक है. विश्व के इतिहास मे सर्वप्रथम मिश्रवासी लोगों के द्वारा तालपत्र का लेखन में उपयोग करने का उल्लेख मिलता है. भारतवर्ष में तालपत्र को लेखन सामग्री के रुप में प्राचीन उपयोग बौद्ध जातक में प्राप्त है. ह्यु-एन्संग के जीवन चरित्र से ज्ञात होता है। कि भगवान बुद्ध की मृत्यु के बाद जब प्रथम बार सभा बैठी तब त्रिपिटक को तालपत्र पर लिखा गया था. भारत के इतिहास से ज्ञात होता है कि गुप्त काल में तालपत्रों का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता था. धार्मिक तथा शास्त्रीय ग्रंथों को इस पत्र पर स्याही से और उत्कीर्णन पद्धति से लिखा जाता था. उत्कीर्णन पद्धति का विकास क्रमशः शिलालेख, (प्रस्तर, दीवार, स्तंभ एवं मूर्ति) ताम्रपत्र, ( राजाज्ञा, दानपत्र, शासनादेशादि ) तालपत्र (धार्मिक ग्रंथ ) के रूप में पाया जाता है. भारतवर्ष की प्रचलित लिपियों के विकासक्रम का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि नौवीं शताब्दी के प्रारंभ में उत्कीर्णन शैली में लेखन पाया जाता था. तालपत्र में उपलब्ध लिपि को नांदीनागरी के रुप में जाना जाता है. इसी नागरी लिपि का पूर्ण विकसित स्वरूप वर्तमान देवनागरी लिपि है. तालपत्रों का प्राप्तिस्थान भारत के समुद्र तटवर्ती, ओडीसा, आन्ध्रप्रदेश, कर्णाटक, केरल, तमिलनाडु राज्य तथा श्रीलंका व मलबारद्वीप में इसका मुख्य उत्पत्ति स्थल माना जाता है. तालपत्र दो प्रकार के होते हैं- खरताल और श्रीताल, तालपत्रों में श्रीताल का पत्र सर्वश्रेष्ठ है. श्रीताल और यह तालपत्र के मूल उदल में से निकलने वाली पट्टिका रूप होता है. श्रीताल का पत्र लंबाई, चौड़ाई तथा सुंदरता की दृष्टि से कागज जैसा है. सामान्य गुणवत्तावाले तालपत्र भारत के बाकी राज्यों में प्राप्त होते हैं. तालपत्रीय ग्रन्थों को पोथी कहा जाता है तथा इसे पूज्य माना जाता है, लेखन कार्य हेतु तालपत्र की संस्कार पद्धति प्राचीन काल में लिखने से पहले तालपत्र को पेड़ से काटकर पानी में डुबाकर कुछ दिनों तक रखा जाता था. पानी से निकालकर छाया में सुखाने के बाद आवश्यकतानुसार इन तालपत्रों को संधियों में से काटकर, पर्याप्त लंबी परंतु चौडाई में एक से पांच ईंच तक की पट्टियाँ निकाली जाती थी, उनमें से जितनी लंबाई का पत्र बनाना हो उतना काट लेते थे, जिससे यह लिखने के लिए उपयुक्त बन सके, ग्रन्थ लिखने के लिये जो ताडपत्र काम में आते थे, उन्हें शंख, कौडी या चिकने पत्थर आदि से घोंटा जाता था. तालपत्र में ३ से ७ पंक्तियाँ लगभग ७५ से १२० अक्षरों तक तथा श्रीताल में १० से २२ पंक्तियाँ १०० से २०० अक्षरों में लिखा जाता था. कम लंबाई के पत्रों के मध्य में एक छिद्र तथा अधिक लंबाई वाले पत्र में कुछ अंतर पर दाईं व बाईं ओर एक-एक छिद्र किया जाता था. ग्रन्थ के नीचे और ऊपर उसी माप की सुराख वाली लकडी की पट्टियाँ लगाई जाती थीं. इन सुराखों में डोरी डाले जाने से एक माप की एक से अधिक ग्रन्थ एकत्र कर बांधे जा सकते थे. पढ़ने બાવીસ પશિહોને રાહબકવાવાળા અને ચૌદ આાંતર ગંથિઓથી મુક્ત આવા છગીરા ગુણોથી યુક્ત આચાર્યોને વંદન - સોજન્ય જિનેશભાઈલાલ, મુંબઈ 60 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के समय डोरी को ढीला करने से प्रत्येक पत्र दोनों ओर से आसानी से उलटाया जा सकता है तथा सरलता से पढ़ा जा सकता है साथ ही पत्र बिखरते भी नहीं हैं. पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक कश्मीर और पंजाब के कुछ अंश को छोडकर बहुधा सारे भारतवर्ष में तालपत्र का बहुत प्रचार था. प्राचीन समय में • तालपत्र और भूर्जपत्र (भोजपत्र) की बहुतायत होने तथा अल्प मूल्य में उपलब्ध होने के कारण इसके ऊपर ग्रंथलेखन की परंपरा प्रचुरता से रही. पश्चिमी उत्तरी व उत्तरपूर्वी भारत में स्याही से लिखने का प्रचलन था, परंतु दक्षिण-पूर्व में तीखे गोल मुख की शलाका के माध्यम से अक्षरों को कुरेदकर लिखा जाता था. उसके बाद पत्रों पर काजल आदि फिरा देने से कुरेदे गये खड्डो में अक्षर काले बन जाते थे. इन्हें सुरक्षा हेतु देवालय तथा ग्रंथालयों में रखा जाता था. सुरक्षा की दृष्टि से ग्रंथ के दोनों ओर चन्दन, बांस, साल, ताल आदि वृक्ष की काष्ठपट्टी को सूत की रंगीन डोरी से बांध कर धुआँ जाने के स्थल में रखा जाता था, जिसके कारण कीड़े आदि ग्रन्थ को नष्ट नहीं कर सके. तालपत्र लेखन संबंधी विशिष्ट जानकारियाँ विभिन्न देश व काल में उत्कीर्ण लेखों के प्रारंभ एवं अंत में मांगलिक प्रतीक चिह्नों का अंकन जैसे भले मिंडी, स्वस्तिक, ओम, त्रिरत्न, चैत्य, सूर्य, चन्द्र, शंख, पद्म, नंदी, कलश आदि के चित्र बनाए जाते थे तथा ग्रन्थ के प्रारम्भ में मांगलिक श्लोक लिखे जाते थे. उसके बाद मूल ग्रन्थ का प्रारंभ होता था. मूल ग्रन्थ संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं तथा प्रान्तीय लिपियों में पाए जाते थे. इस प्रकार के तालपत्रीय ग्रंथों में आगम, वेद, पुराण, आयुर्वेद, ज्योतिष, मन्त्र-तन्त्र, शिल्पकलादि से सम्बन्धित कृतियाँ प्राप्त होती हैं. यदि मूल ग्रन्थ के साथ टीकादि भी हो तो वह क्रमशः लिखे जाते थे. मूल कृति के लेखन के साथ साथ ही इनका भी लेखन किया जाता था. कोई कोई ग्रंथों में मूल कृति ही पाई जाती है. टीकादि विवरण या तो होता ही नहीं है या फिर बाद में लिखने हेतु जगह छोड़ी हुई देखी जाती है. ग्रंथ के अन्त में प्रायः प्रतिलेखन पुष्पिका हुआ करती हैं, जिसके अन्तर्गत प्रतिलेखन वर्ष, ग्रन्थमान लिखानेवाला, लिखनेवाले आदि से सम्बन्धित जानकारियाँ पाई जाती हैं. इसके अतिरिक्त प्रतिलेखन से सम्बन्धित विशिष्ट जानकारियाँ तथा किसी महत्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख भी प्रतिलेखन पुष्पिका में पाया जाता है. किन्हीं ग्रंथो में प्रतिलेखन पुष्पिका प्रत्येक अध्याय आदि के अन्त में भी होती है. कथा से संबन्धित ऋषि, मुनि, पशु-पक्षी, वृक्ष आदि का चित्रण भी किया जाता था. मध्य काल में लेखन शैली का भी पर्याप्त विकास हो चुका था, वर्ण एवं शब्दों का समुदायीकरण कर अक्षरों से शब्द, पद्य एवं बडे गद्यांशों के अंत में विरामादि चिन्हों का प्रयोग आदि देखा जा सकता है. वर्तमान काल में भारत के दक्षिणी और दक्षिण पूर्वी हिस्सों के प्रारंभिक पाठशालाओं में विद्यार्थियों के लिखने हेतु; रामेश्वर, जगदीश आदि के मन्दिरों में जमा कराये हुए रुपयों की रसीदें देने आदि कार्यों में आज भी तालपत्र के प्रयोग किए जाते हैं, उत्कल प्रांत में तालपत्र से निर्मित जन्मपत्रिका तथा धर्मग्रंथादि की लेखन परंपरा आज भी देखी जा सकती है. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में तालपत्र आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर, कोबा में लगभग ३००० से ज्यादा तालपत्र ग्रंथ संग्रहित है. जिसमें जैन, वैदिक, पाथवेहिया होष तिने पचीस प्रतिजननी पनी झाला खाता छत्रीश गुशोधी युक्त આચાર્યોને વંદન सो ભરતભાઈશાહ, મુંબઈ 61 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक बौद्ध आदि धार्मिक ग्रन्थों के साथ-साथ वैद्यकशास्त्र, ज्योतिष, आगम, काव्य, नाटक, नीति, वंशावलि, स्तोत्रादि से संबन्धित सैकडों अप्राप्य विषयों के ग्रंथ हैं. प्राकृत, संस्कृत, बंगला, तेलुगु, तामिल, कन्नड, ओडिया आदि भाषाओं में देवनागरी, तमिल, तेलुगु, कन्नड, उडिया, मलयालम, आसामी, मैथीली, और बंगला आदि लिपिओं में लिखित स्याही और उत्कीर्ण दोनों प्रकार के तालपत्र ग्रंथ उपलब्ध हैं.. संरक्षण की प्राकृतिक विधिविविध स्थलों से प्राप्त कुछेक प्राचीन तालपत्र, ऐसी स्थिति में थे, जो परस्पर चिपके हुए थे तथा उन्हें खोलना भी असंभव इस हेतु इन ग्रंथों को वर्षा ऋतु में हवादार स्थानों में खोलकर रखा गया तथा प्रतिदिन उसके पत्र खोलते गये, थोडे ही दिनों में सभी चिपके ग्रंथों को सामान्य प्रयत्नों से अलग करना संभव हो सका. मिट्टी आदि से सफाई के लिए धर्मस्थल (कर्णाटक) में प्रयुक्त विधि को यहाँ पर अपनाया गया है. शुद्ध जल में सिट्रोनेल्ला तेल की कुछ बूंदें डालकर मलमल के कपड़े से सफाई की जाती है. यदि पत्र में स्याही (त्दत्त) निकल गई हो और अक्षर ठीक से नहीं दिखाई देते हों तो उसे पुनः स्पष्ट रूप से देखने के लिए नैसर्गिक रुप से प्राप्त सिन्दूर, आलता, मसी, हल्दी, काजल, अडूस, कोयला आदि का प्रयोग किया जाता है, सबसे उत्तम तरीका है कि सीम (शिम्ब) के पत्तों का रस भर देने से अक्षर सुस्पष्ट रुप से दिखने लगते है. यह एक अनुभवसिद्ध प्राचीन विधि है. इसका प्रयोग करने से तालपत्र में किसी प्रकार के कीड़े नहीं लगते हैं तथा अक्षर दीर्घकाल तक स्पष्ट व सुरक्षित रहते हैं, खंडित पत्रों को जोडने हेतु खास टिस्यु पेपर को एक विशेष प्रकार के गम से चिपकाने पर अक्षर सुस्पष्ट हो जाते हैं और पत्र भी जुड कर सुदृढ होता है. पत्रों में सिट्रोनेल्ला तैल का कोटिंग दिया जाता है, जो कीटाणुओं (सिल्वर फिस आदि) से इसकी रक्षा करता है. जीर्ण काष्ठ पट्टी को बदलकर नयी पट्टी लगाई जाती है तथा नये सूत की डोरी से बांधकर रखा जाता है. कहीं-कहीं ग्रंथ को लाल कपडे से बांधने का भी प्रचलन है, जो समशीतोष्ण होता है तथा उसका मुख्य उद्देश्य कीट और धूल आदि से ग्रन्थ को सुरक्षित रखना है. तालपत्र ग्रंथो में लिखित अप्राप्य विषयों को वाचकों के समक्ष दीर्घकाल तक पहुँचाने के लिए सुरक्षा भी महत्वपूर्ण अंग है. इस हेतु से संपूर्ण नैसर्गिक वस्तुओं के प्रयोग की विधि यहां पर अपनाई गई है. प्राचीन तालपत्रीयग्रंथ - तालपत्र में लिखने की परंपरा प्राचीन है. जापान के होरियूजि के मठ में रखे हुए प्रज्ञापारमिताहृदयसूत्र तथा उष्णीषविजयधारणी चौथी शताब्दी के ग्रन्थ हैं. नेपाल के तालपत्रीय ग्रन्थसंग्रह में ई. स. सातवीं शताब्दी का लिखा हुआ स्कंदपुराण है. लगभग इसी काल में लिखी हुई विशेषावश्यक भाष्य की तालपत्रीय प्रति जैसलमेर ज्ञानभंडार में मौजूद है, जो कि भारतवर्ष में उपलब्ध सबसे प्राचीन तालपत्रीय प्रति कही जा सकती है. आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा के ग्रंथालय में सबसे पुराना तालपत्रीय ग्रंथ प्रायः दशवीं सदी का एक ग्रंथ व १३-१४ सदी के लिखे देवनागरी लिपि में अनेक ग्रंथ संग्रहीत है. दक्षिणी शैली के ग्रंथों में संग्रहीत ६०० वर्ष प्राचीन जैनधर्म से सम्बन्धित ग्रन्थ उपलब्ध है, जो तेलुगुलिपि मे સતાપીણ હામાર ગુણ અને 6[d oોની વિશુદ્ધિની ! માવા છ ગણ ગુણોથી યુ51 આયાર્યોને વંદન વિનોદભાઈયૂSાવાળા, મુંબઈ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक जैनधर्म में तालपत्र-अन्य धर्मग्रंथों के साथ-साथ जैनधर्म से सम्बन्धित ग्रंथ दक्षिण भारत में तालपत्र में लिखे गये है. कागज पर लिखने की पद्धति पश्चातवर्ती होने से अधिकतर लेखकों ने ताडपत्र पर लिखे हुए ग्रन्थों की पद्धति का अनुकरण किया है. क्योंकि प्राचीन तालपत्रीय ग्रन्थों में प्रत्येक पत्र के मध्य जहाँ डोरी डाली जाती थी, वह स्थान प्रायः रिक्त पाया जाता है. जब कागज के ग्रंथों में लिखने का प्रारंभ हुआ तो तालपत्र की तरह पत्रों के बीच में छेद करने का भी अनुकरण हुआ होगा ऐसा कागज की प्रतियों में देखने से ज्ञात होता है. जिसमें कहीं हिंगलू का वृत्त, चतुर्मुख वापी आदि के रंगीन या खाली चित्र मिलते है. इतना ही नहीं, ई. सन् १४ वीं शताब्दी में लिखे हुए ग्रन्थों में प्रत्येक पत्र के ऊपर व नीचे की पट्टियों में छेद किया हुआ देखने में आया है, यद्यपि उन छेदों की कोई आवश्यकता न थी. पन्नवणासूत्र, समवायांगसूत्र आदि ग्रन्थों में १८ लिपियों के नाम मिलते है, जिनमें सबसे पहला नाम बंभी (ब्राह्मी) लिपि का आता है. भगवतीसूत्र में ब्राह्मी लिपि को नमस्कार करके (नमो बंभीए लिविए) सूत्र का प्रारंभ किया है. ब्राह्मी लिपि वास्तव में नागरी (देवनागरी) का ही प्राचीन रुप है. विशेष ज्ञातव्य-तालपत्रों को अधिक समय तक खोलकर नहीं रखना चाहिए, इन्हें आर्द्रता तथा अति उष्णता से बचाना चाहिए, सफाई की प्रक्रिया को बार बार बदलना नहीं चाहिए, ग्रन्थ के दोनों ओर काष्ठ की उत्तम पट्टियों से कसकर बांध देना चाहिए. प्लास्टिक का प्रयोग नहीं करना चाहिए. क्योंकि अक्षर अपठनीय हो जाते हैं परंतु उपरोक्त पद्धति अपनाने से यह समस्या नहीं होती, केमिकल का प्रयोग ग्रन्थ को अल्पायु कर सकता है, अतः इसका उपयोग नहीं करना चाहिए. अधिक उष्ण हवा से हानि होती है. यही कारण है कि नेपाल आदि शीतप्रधान देशों में तालपत्रीय ग्रन्थों को दीर्घावधि तक संरक्षित किया जा सकता है. गवेषणा से यह जानकारी प्राप्त होती है कि तालपत्र का आयुष्य हजारों वर्षों से भी अधिक है. हमारे पास उपलब्ध १००० वर्ष प्राचीन तालपत्र ग्रंथ इसे प्रमाणित करते हैं. ये अभी भी सुंदर, सुदृढ तथा कमनीय लगते हैं. देश के भिन्न भिन्न संग्रहालयों में संग्रह, संशोधन आदि कार्य प्रगति पर है. सरकारी स्तर पर भी ताडपत्रों का संरक्षण, प्रशिक्षण कार्य जारी है. तालपत्रों की यह संरक्षण पद्धति प्राचीन विद्या के क्षेत्र में संशोधन करनेवाले संशोधकों हेतु अत्यन्त उपयोगी प्रतीत होती है. सातवासात अशाजियसाधना यद्यानधारावमल समामादावावधामा सध्याचार्यमाहिम मेयीमारिवल प्राचीन तालपत्र के कुछ विशिष्ट नमूने-चित्र संख्या-१, चित्र संख्या-२ કાઠઠાવીસ Clધે અને સાઠ પ્રભાdડની સ્વરૂ૫oll હાલ નાની ઉમીણ ગુણોથી યુક્ત આથાર્થોને વંદન सोन्य જિતેન શાહ C૮૧0C80ર0 , ajolઈ 63 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक यह विशिष्ट तालपत्रीय ग्रन्थ ईस्वी सन् ११वीं शताब्दी में संस्कृत भाषा व जैनदेवनागरी लिपि में लिखित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के प्रथम पृष्ठ का है तालपत्र के ऊपर उत्कीर्णन पद्धति से रहित मात्र रंगों से बनाये गये इस चित्र में क्रमशः ग्रन्थकर्ता श्रीहेमचंद्राचार्यजी और कुमारपाल महाराजा चित्रित है. चित्र संख्या ३ यह बंगाली लिपि व संस्कृत भाषा में लिखित ईस्वी सन् १४वीं सदी का ग्रंथ है, ग्रंथ का नाम शिशुपालबध है. एक पत्र में ७ पंक्तियाँ हैं और एक पंक्ति में लगभग ६० से ७८ अक्षर हैं. पत्र में स्थित छेद ग्रंथ को बांधने के स्थल दर्शाता हैं चित्र संख्या-४ यह कन्नड लिपि तथा कन्नड भाषा में श्रीताल पत्र में लिखित विशिष्ट ग्रंथ है. ग्रंथ का नाम श्रावकाचार सार है, यह १७वीं शताब्दी का ग्रंथ है. इसमें १० पंक्तियाँ हैं, तथा प्रत्येक पंक्ति में लगभग ५४ अक्षर हैं. पृष्ठ संख्या बांई ओर छेद के ऊपर दर्शायी गई है, लेखन को दो भागों में विभक्त किया गया है.. ग्रंथ बांधने हेतु दो छेद किए गए हैं. इस ग्रन्थ के ऊपर मात्र सफाई की गई है. चित्र संख्या ५ यह श्रीताल पत्र के ऊपर संस्कृत भाषा में व तेलुगु लिपि में गद्य-पद्यबद्ध लिखित ग्रंथ है. ईस्वी सन् की १९वीं शताब्दी में लिखित ग्रंथ है. ग्रंथ का नाम सुंदरकाण्ड है. बांई ओर १ से ९ तक पंक्तियों के क्रमांक भी दिए गए हैं. लगभग एक पंक्ति में ४५ से ४९ अक्षर हैं, ग्रन्थ को बांधने हेतु दो छेद किए गए हैं. 65 adh ' Laxt 4 ferent r (a) on't 64 ad Has 196 any 5038601 684 ● सोन्य● પૃથ્વીરાજ કોઠારી ૯૮૯૨૨૪૦૨૧૬, મુંબઈ महाय EXTER ઓગણત્રીસ પાપત રૂપ અને સાત વિષ્ણુવિના ગુણોના સ્વરૂપના જાણકાર આવી છત્રીય ગુણોથી યુક્ત આચાર્યોને પં Hepala act MZ D 26550 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक वाचकों के पत्र मैं कोबा में मात्र २ घंटे ही रुकने के लिए आया था. मगर ६२ घंटो से ज्यादा रहा. यहाँ की व्यवस्था तो अच्छी है मगर ज्ञानमंदिर की जैसी सुंदर व्यवस्था है, वह देखकर दंग रह गया. ज्ञानमंदिर में कार्यरत व्यक्तियों ने भी भरपुर सहयोग दिया, मैने अपने काम के संदर्भ में प्रतियाँ देखी. बहुत अच्छे ढंग से मुझे दिखाई गईं. आपलोगों की श्रुतभक्ति अनुमोदनीय है. पूज्य आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज की जिनभक्ति, प्रवचनभक्ति, और साधुभक्ति का उदाहरण ज्ञानमंदिर है, ऐसा मैं मानता हूँ आचार्य धर्मधुरधरसूरि आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के ट्रस्टीगण को धर्मलाभ परमात्मा की कृपा से अनहद आनंद है. आ.भ. श्रीमद पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. की सत्प्रेरणा से कोबा में संग्रहित हस्तलिखित प्रतिओं की सूची का जो प्रकाशन कार्य चल रहा है, इसके अनुसंधान में तृतीय खंड और द्वितीय खंड का प्रकाशन किया गया. इसका बार बार की प्राप्ति हुई है . कड़ी महेनत के साथ जो प्रकाशन कार्य आप सभी कर रहे है, वह अत्यन्त अभिनन्दनीय है. जिनशासन की उन्नति के कारणरूप श्रुतरक्षा का यह कार्य जिनशासन का स्वर्णिम इतिहास बन कर रहेगा. आचार्य महाबलसूरि આનંદસમુચ્ચયની ઝેરોક્ષ પ્રતિલિપિ મને પહોંચી છે. અંગત ધ્યાન આપીને કરાવી મોકલવા બદલ ઘણો આભારી છું. આ, શીલચંદ્રસૂરિ आपकी संस्था द्वारा प्रकाशित कैलास श्रुतसागर ग्रन्थसूची प्राप्त हुई. आपका प्रयास जिज्ञासुवर्ग के लिए उपयोगी ही नहीं बल्कि विशेष उपयोगी बनने योग्य है, आपकी संस्था का प्रयास अनुमोदनीय व सराहनीय है. आचार्य रत्नाकरसूरि આચાર્ય શ્રી કૈલાસસાગરસૂરિ જ્ઞાનમંદિરની કીર્તિકથા સાંભળી તેના પુણ્યદર્શન મેળવી શકવા હું આ વર્ષે સદ્ભાગી બનવા પામ્યો છું... આટલો વિશાલ સંગ્રહ સમગ્ર વિશ્વમાં ક્યાંય નથી. સંગ્રહની દ્રષ્ટિએ આ જ્ઞાનમંદિર અજોડ છે. ખૂબ જ વ્યવસ્થિત રીતે તેની જાળવણી પણ થાય છે. આપશ્રીના મહાન પ્રયત્નથી વ્યવસ્થા ક્ષેત્ર કમ્યુટર આદિની સહાયથી સુદૃઢ થયેલ જ્ઞાનમંદિરમાંથી ઘણી જાણકારીઓ પ્રાપ્ત થઇ છે અને થઇ પણ રહી છે. મુનિ જ્ઞાનરહિત વિજય મારા ત્યાંના સંશોધન પ્રવાસથી હું બહુમુલ્ય સાહિત્ય સામગ્રી અર્જિત કરી શક્યો છું. જે ૫. મુનિરાજ અજયસાગરજી મહારાજ તથા આપશ્રીના વ્યકિતગત તેમજ ઉષ્માભર્યા સહયોગ વિના શક્ય ન બનત. આ સંબંધમાં મુનિ સર્વોદયસાગરજી મ.સા. ને પત્ર લખવાનું સૂચવ્યું હતું. આશા છે કે એઓ શ્રીનો આભાર દર્શક પત્ર આપને મળી ગયો હશે. | plીણા મોહરાણા! યoો કાબ10 Satuદ, iપિટકo|| 2:13પો[I હિન3|| s2111111 આવા 901ીણ ગુણોથી યુક્ત આયાર્યોને વંદન सोन्य એશિયન એસોસિયેટ, Cog/couपारण माट..रा.स.,मुंब४ 65 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक આપશ્રીને ત્યાં વિદ્વાનોની કદર જોવા મળી તેથી હું ખરેખર પ્રભાવિત થયો છું અને ફરી આપ સૌનો આભાર માનું છું. એજ કુશળ પાર્શ્વના વંદન (અંચલગચ્છીય વિદ્વાન પાર્શ્વભાઈ શાહ) Dear Sir, Thank you very much for sending me the Xerox copies of the manuscripts I had ordered in the first week of October. The copies reached me safely, and promptly. Ramya Sreenivvasan AARE TR પાંચ મહાવ્રતના પાલનથી શું થાય ? પ્રાણાતિપાતના પાલનથી - જીવ નિર્ભય બને. મૃષાવાદના પાલનથી - જીવને વયન સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય. અદત્તાદાનના પાલનથી - માગ્યા વિના વસ્તુ મળે. બ્રહ્મચર્યના પાલનથી - દેવતાઓ પણ નમે. પરિગ્રહના પરિમાણથી - અધિક વસ્તુઓ મળે. એક્ઝીટ સિદ્ધના ગુણો અને પાંચ જ્ઞાનના સ્વરૂપોને બતાવવાવાળા આવ છત્રીસ ગુણોથી યુક્ત આચાર્યોને વંદન - સૌજન્ય - જે.સી.સીમેન્ટ એન્ડ ટીલ પ્રા. લિ., મુંબઈ 66 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જ્ઞાનતીર્થ આચાર્ય શ્રીકૈલાસસાગરસૂરિ જ્ઞાનમંદિર વિષે ગુરુભગવંતોના અભિપ્રાય ‘સમ્યગ્ જ્ઞાનનાં સંરક્ષણ-સંવર્ધન-સંપાદનનું કાર્ય વૈજ્ઞાનિક પદ્ધતિથી સુંદર રીતે થઈ રહ્યું છે. તે પ્રત્યક્ષ નિહાળ્યું, ખુબ આનંદ થયો. શ્રી મહાવીર જૈન આરાધના કેન્દ્ર પોતાનાં ગંતવ્ય તરફ ઉત્તરોત્તર અગ્રેસર બને એવી શુભેચ્છા સહ આશીર્વાદ... આચાર્ય વિજયરામસૂરિ ‘વિશ્વભરમાં અદ્વિતીય સુંદર જે જ્ઞાનમંદિર... વિગેરે સમ્યગ્ દર્શનને સમ્યગ્ જ્ઞાનના કારણભૂત કાર્યની ભૂરિ-ભૂરિ અનુમોદના.‘ આચાર્ય મેરૂપ્રભસૂરિ જ્ઞાનભંડારાદિ સમ્યગ્ જ્ઞાનનાં પોષક કાર્યોમાં મુનિ ભગવંતો પણ જૈન શાસનની સઘળી મર્યાદાને પૂર્ણ રીતે જાળવવાની જે ખેવના રાખે છે તે જાણી વિશેષ આનંદ થયો છે. એજ ભાવનાની ઉત્તરોત્તર વૃદ્ધિ થાય એજ એક મંગલ કામના. पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक આચાર્ય મહોદયસૂરિ ‘પૂજ્ય વીરવિજયજીએ કહ્યું છે કે કલિકાલમાં જિનબિંબ અને જિનાગમ જ ભવ્ય જીવોને આધારરૂપ છે. જિનબિંબથી પરમાત્માની ઉપાસના અને જિનાગોથી શ્રુત ઉપાસના થાય છે. કોબાના આ મંગળ ધામમાં આ બંન્ને વસ્તુ સાકાર થઈ છે. પરમાત્માની મનોહર મૂર્તિ સાધકોના હૃદયને પવિત્ર બનાવે છે. તો અહીંનો વિશાળ શાસ્ત્ર-સંગ્રહ બુદ્ધિ ને વિકસિત બનાવે છે. બુદ્ધિ અને હૃદયનો સમકક્ષી વિકાસ જ્યાં થઈ શકે, એવું આ મંગળ સ્થાન સૌને ઉન્નતિ પ્રેરક બની રહે એજ કલ્યાણ કામના. આચાર્ય કલાપૂર્ણસૂરિ ‘સંસ્થાના જ્ઞાનમંદિરના શિલાસ્થાપન પ્રસંગે રહેવાનું થયું. જ્ઞાનમંદિરના નિર્માણ કાર્યની દીર્ઘદ્રષ્ટિ જો એ મુજબ કાર્યરત બની રહેશે તો વિજ્ઞાન અને ધર્મ બંનેની સાપેક્ષતાનો અનુભવ કરી શકાય તેવી શક્યતા છે. ઉત્સાહી કાર્યકરો પૂરેપૂરા સમર્પિત તો છે જ પણ જ્ઞાનમંદિરનું નિર્માણ કાર્ય પૂર્ણ થતા તેને ચેતનવંતુ બનાવવા અથાગ પ્રયત્નની જરૂરિયાત આવશ્યક બની રહેશે. શાસનદેવને પ્રાર્થના છે સર્વને પ્રાચીન વિદ્યાઓનું એક પ્રતીક બનાવવા સહાય કરે. આચાર્ય ચન્દ્રોદયસૂરિ જયવંતા શ્રી જિનશાસનની શતાબ્દીઓ જ નહીં બલ્કે સહસ્રાબ્દીઓ જૂની ભવ્યતા, વિશિષ્ટતા, વિરલતાને નજરો નજર તાદેશ કરતા આ આરાધના કેન્દ્રના જ્ઞાનમંદિર અને સંગ્રહાલય ખરી રીતે તો શ્રુતતીર્થ અને વારસાતીર્થની ઉપમાને યોગ્ય છે. એમાં જાળવણી કાજે જે વિશિષ્ટ દૃષ્ટિ અને આધુનિક શોધનો સાર્થક ઉપયોગ કરાયો છે, એને અંતરના અભિનંદન. આ મહાન કાર્યના પ્રેરક અને વ્યવસ્થાપક સૌની ખુબ-ખુબ અનુમોદના. અહીંનો શ્રેષ્ઠ સંગ્રહ શ્રીસંઘને, સમાજને સૈકાઓ પર્યંત ઉપયોગી બની રહે એવી અંતર-અભિલાષા સાથે અહીંના ભાવી આયોજનો પૂર્ણ ચંદ્રની જેમ પૂર્ણ વિકાસ પામે એજ આશીષ...’ આચાર્ય સૂર્યોદયસૂરિ (ધર્મસૂરિ સમુદાય) દવિધ સમાયારી દશ તિસમાધિ અને સોળ કાયાના વિષયોના જ્ઞાતા આવા છગીરા ગુણોથી યુક્ત આચાર્યોને વંદન શોકનું રામીત ઝવેરી, મુંબઈ 67 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक "ज्ञानभंडार का विकास, प्रगति, व्यवस्था और उनका पंडित वर्ग तथा कर्मचारियों का स्नेहभाव देखकर बहुत ही प्रसन्नता हुई ....आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी म. सा. ने शासनप्रभावना के अनेकविध कार्य करते हुए भी इस ज्ञानमंदिर के विकास के लिए जो प्रयत्न किया है, वह चिरस्मरणीय एवं अन्य आचार्यों के लिए प्रेरणास्पद बनता रहेगा. अनेक विशिष्टताओं को देखकर हमारा हृदय गद्गदित हो चुका ૐ आचार्य जनकचंद्रसूरि ‘પ્રભુશાસનના અણમોલ વારસાની આટલી સુંદર જાળવણી નિહારતા મન પ્રસન્નતાથી તરબતર બની ગયું. આપણી પાસે આવો ભવ્ય વારસો છે. એ ખ્યાલે દિલ અહોભાવ સભર બની ગયું. આ વારસાની આટલી સુંદર જાળવણી થઈ રહી છે એ ખ્યાલે દિલ અનુમોદન સભર બની ગયું. આવા ભવ્ય વારસાના સદુપયોગ માટે પૂરતા પ્રમાણમાં પ્રયત્નો શરુ થાય એ જ શુભકામના સાથે રત્નસુંદરસૂરિના ધર્મલાભ’ 'बहुत ही सुंदर है. म्यूजियम में प्राचीन कलाकृतियाँ बहुत ही यत्न से सहेजी गई हैं. यत्नकर्ता बहुत ही अभिवंदन व अभिनंदन के पात्र हैं : આવાર્ય ડૉ. શિવમુનિ (રસ્થાન વાસી) ‘પુસ્તક કાઢી આપવાની ઝડપ અને સામેની વ્યક્તિને સંતોષ આપવાની તરવરતા સ્ટાફમાં અધિક દેખાઈ રહી છે.’ મુનિ વિનયરક્ષિતવિજય 'आचार्य श्रीकैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का अवलोकन किया. आपका परिश्रम और ज्ञानमंदिर के लिए जो समर्पण है, वह स्तुत्य है. निश्चित तौर पर यदि कोई ज्ञान का आराधक अपनी सम्पूर्ण लगन एवं निष्ठा के साथ ज्ञान की आराधना करें तो वह अपने जीवन को आमूल चूल ज्ञानमय कर सकता है. आराधना का यह कार्य सतत् गतिशील रहे. यही भावना ! दिगम्बर मुनि प्रसन्नसागर જ્ઞાન અને સંસ્કાર એ જીવનની મૂડી છે. આ જીવન પાયાના મુખ્ય આધારસ્તંભને અહીં નિહાળી ખૂબ આનંદ થયો. જ્ઞાનની સુરક્ષા તેમજ માહિતી પ્રાપ્તિ અંગેની વ્યવસ્થા પ્રશંસનીય અને અનુમોદનીય છે. પૂ. ગુરુભગવંતના આશીર્વાદ પ્રેરણા અને નિશ્રા વિના આ કાર્ય અસંભવ છે. એવીણ રાબલ દોષસ્થાન અને પંદર શિક્ષાના સ્વરૂપના જ્ઞાતા આવા છત્રીસ ગુણોથી યુક્ત આચાર્યોને વંદન - સોજન્ય શ્રી ડેતનભાઈ શાહ શ્રીમતી નિયતિબેન કે. શાહ, મુંબઈ 68 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान આ સંસ્થા ખૂબ સારૂ કાર્ય કરી રહી છે. સ્થાન રમણીય- પ્રભુ પ્રતિમા ભવ્ય-નયનરમ્ય છે. હજી ઉત્તરોત્તર વધુ પ્રગતિ સાધી તમારા ધ્યેયને સિદ્ધ કરો એજ પ્રભુ પ્રાર્થના વિદ્વાનોના અભિપ્રાય अत्यद्भुतं इतः पूर्वमदृष्टं बहु अत्र संगृहीतं विश्वश्यैकदेशदृश्यमिव आकृष्टमनाः सम्यग्दृष्टवान् अमन्दमानन्दमनुभवामि इतःपरमपि बहुद्रष्टव्यमस्ति इतिवदन्ति अत्रत्याः किमाश्चर्यम्. महोत्सव विशेषांक S. Srinivasa Sharma Chidambaram (T.N) आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के दर्शन से हृदय आनंदित हो उठा. हमारे पूर्वजों ने ज्ञान के खजाने को सुरक्षित एवं संवर्द्धित करने के लिए अनुपम प्रयास बड़े प्रेम से किया है. उनके प्रेम एवं श्रद्धा से प्रकटित कला को हम वंदन करते हैं. दुर्लभ ज्ञानग्रंथ एवं कलाकृतिओं की सुरक्षा करने वाले सभी कार्यकर्ताओं एवं दाताओं को भी हम अभिनंदन देते हैं. सचमुच यह केन्द्र ज्ञानतीर्थ है. यहाँ के दर्शन से हम कृतार्थ होते हैं. इस केन्द्र में ज्ञान की ज्योति सुरक्षित एवं संवर्द्धित होती रहे. इस महान तीर्थ के सर्जन के लिए प्रेरणा देनेवाले सभी आचार्य भगवंतो को हृदय से वंदना .. સાધ્વી, દિવ્યયશાશ્રીજી श्री सद्गुरु शास्त्री, स्वामीनारायण गुरुकुल, अहदाबाद ‘અહીં જે કાંઈ કાર્ય થયું છે, થઈ રહ્યું છે,તે ખુબજ નિષ્ઠાપૂર્વક, પ્રેમપૂર્વક થઈ રહ્યું છે. દરેકને ખૂબજ પ્રેરણા મળે તેવું કાર્ય થાય છે. ભારતભરની, વિશ્વભરની લાઈબ્રેરીઓને માર્ગદર્શન મળે તેવું કાર્ય અને વ્યવસ્થા છે. લાયબ્રેરીનો પ્રોગ્રામ પણ अति प्रशंसनीय छे... યોજન્ય. मेसर्स सनरान डायमंड ोक्षपोर्ट, ચંદ્રકાન્તભાઈ ડી. ગાંધી પરિવાર, મુંબઈ इस जैन दर्शन संस्थान पुस्तकालय में आकर अत्यन्त आह्लाद हुआ. यहाँ अनेक दुर्लभ पुस्तकों का संग्रह मैंने देखा . सभी भाषाओं सभी विषयों की पुस्तकें संगृहीत हैं और अधिक समृद्ध करने का आपका कार्य स्तुत्य है. बहुत ही सुव्यवस्थित कार्य को देखकर पुनः पुनराहलाद व प्रशंसा इस संस्था के प्रति मेरे हृदय में अंकित है 69 સાધુ પ્રભુચરણદાસ, શિષ્ય પ્રમુખસ્વામી મહારાજ आचार्या नन्दिता शास्त्री, वाराणसी भारत में जैन विद्या के क्षेत्र में कार्य करने वाली जो संस्थाएं हैं. उनमें यह अल्पकाल में ही शीर्षस्थ स्थान पर आ गई है. इस संस्था में पुस्तकों, हस्तप्रतों, कलाकृतियों आदि का जो संग्रह है, वह केवल संख्या में विशाल ही नहीं है, अपितु उच्च कोटि का भी है. संस्था की विशेषता यह है कि यह अत्याधुनिक सुविधाओं एवं तकनीक से युक्त है. जैन विद्या के क्षेत्र में शोध कार्य करने वाले विद्यार्थियों के लिये इस संस्था का योगदान महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा.' બાવીણ પરિષહોને રાહબરવાવાળા અને ચોદ આણંતર ગ્રંથિઓથી મુક્ત આવા છત્રીણ ગુણોથી યુક્ત આચાર્યોને વંદન Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवर श्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक डॉ. सागरमल जैन, निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 'आपकी संस्था की ओर से मुझे अभूतपूर्व सहयोग मिल रहा है और मेरा कार्य वायुयान की गति से हो सका है. क्योंकि आवश्यक पुस्तकादि यहाँ पर नहीं मिलने पर या अति विलंब से मिलने पर कार्य करने में आपत्ति आती है. आपश्री ने कुशल वैद्य के समान मेरी पीड़ा दूर की है आप सभी को धन्यवाद... धन्यवाद... आपकी कार्य प्रणाली की अनुमोदना.' डॉ. कविन शाह, बिलीमोरा 'यह पुस्तकालय अद्भुत है, मैंने अपनी रिसर्च के दौरान अनेक पुस्तकालयों में जाकर काम किया लेकिन जैसी सुविधा तथा आतिथ्य यहाँ प्राप्त हुआ, अन्य जगह नहीं. भविष्य में और भी अधिक उन्नति की कामना करती हूँ. मंजू नाहटा, चित्रकार कोलकाता ‘ખુબ સુંદર આયોજન. હસ્તપ્રતોનો આટલો વિશાળ ભંડાર બીજે ક્યાંય જોયો નથી. ખુબ સુંદર સંરક્ષણ વ્યવસ્થા છે. મંદિર સાથે આટલું પવિત્ર, ભવ્ય, વિદ્યાગૃહ જોડાયું હોય એ સુખદ સંયોગ છે. સમર્પણ તથા ત્યાગની ભાવના વિના આવું નિર્માણ शध्य नथा.' પ્રો. રાજેદ્ર આઈ. નાણાવટી ,વડોદરા "We were extremely pleased to be at Koba and look at its excellent facilities while are being developed. " Prof. M. A. Dhaky, Director, American Inst. of Indian Studies "It was a good occasion to visit the complex and I was very much impressed by the activities (academic as well religious) carried here. The working of computer was astonishing and its multifarious fields of work were very useful for use this modern age. Prof. Dr. K. R. Chandra, Ahmedabad વિશિષ્ટ અતિથિ ऊपर का संग्रह देखा. अद्भुत है. अत्यंत प्रभावित हुआ. शोधकर्ताओं के लिये अमूल्यनिधि है. किन्तु अभी यह शोध यहीं बैठकर हो सकता है. यदि संग्रहीत सामग्री को ग्रन्थों के रूप में तैयार किया जाए तो शोधकर्ताओं के लिये कार्य सुलभ हो सकेगा. लालकृष्ण आडवाणी दिल्ली છોગણીeણ પાપમ્પના સાપ જો રાસ તથoળા ગુણોના 13ળા જાણકાર છાપા 9 મીણ ગુણોથી યુt1 માથાને વંદન सोय દાંતોષ ટાર્થ પ્રોઇટાલિ. હed સોહolલાલ યૌઘરી, અમદાવાદ 70 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान - महोत्सव विशेषांक इस अद्भुत संग्रहालय को देखने का एक अवसर मिला. संग्रहीत सामग्री तथा इसका रख-रखाव अत्यधिक सावधानी से किया गया. दुर्लभ चित्रों का संग्रहण आकर्षक है. यह कार्य, एक भगीरथी से कम नहीं है. भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रखने का प्रयास अत्यंत सराहनीय है. नवलकिशोर शर्मा, राज्यपाल, गुजरात पूज्य गुरुदेव की असीम अनुकम्पा से आज प्रथम बार इस स्थान पर आने और गुरुदर्शन तथा इस स्थल को भी देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ. यहाँ का काम अदभुत है, अवर्णनीय है, जैन दर्शन का साक्षात्कार करने के लिए जो प्रयत्न यहाँ हुआ है तथा हो रहा है वह विश्व में अपने किस्म का अनूठा ही है. यहाँ पर काफी समय इसको देखने समझने के लिए चाहिए. मैं फिर-फिर यहाँ आना चाहूँगा. जैन समाज इस महान कार्य के लिए आचार्य श्री पदमसागरजी महाराज का अनन्त काल तक ऋणी रहेगा. सुन्दरलाल पटवा मुख्यमंत्री (एम.पी.) आज यहाँ आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. यहाँ का वातावरण आध्यात्मिकता से अभिभूत है. दुर्लभ ग्रन्थों का अनूठा संग्रह है. यह केन्द्र भारतीय संस्कृति का मूर्त्तवत् प्रतीक है. पूज्य आचार्यश्री का संक्षिप्त एवं सारवान् उद्बोधन प्रेरणादायक रहेगा. कल्याण सिंह (मु.मंत्री, उत्तर प्रदेश), श्री भैरोसिंह शेखावत (मु.मंत्री, राजस्थान), श्री शान्ताकुमार, (मु.मंत्री,हिमाचलप्रदेश) "Amazing collection and excellent upkeep of every thing. The heritage will be handed down for generations for which Jains and Indians will be extremely proud of and indebted to Param Pujya Guru Bhagvant Acharya Sri Padmasagarsuriji Saheb. Samveg Lalbhai, Ahmedabad આચાર્ય શ્રી કૈલાસસાગરસૂરિ જ્ઞાનમંદિર જોઈને ખૂબ આનંદ થયો. અહીં માત્ર જૈન ધર્મના જ સંગ્રહાલય તરીકે નથી પરંતુ ભારતની સંસ્કૃતિને લગતા તમામ ધર્મ અને સંસ્કૃતિને લગતા સ્થાપત્યો રાખેલ છે. અને ભારતની સંસ્કૃતિ આપણને ગૌરવ અપાવે તેનો સ્પષ્ટ શક્તિ આપણને આપે છે. આ સંગ્રહાલય ભવિષ્યમાં ખૂબ અગત્યનો બની રહેશે અને પૂરા હિંદુસ્તાનમાં ગુજરાતનું નામ રોશન કરશે. તેની મને ખાત્રી છે. મંગળભાઈ પટેલ, ગુજરાત વિધાનસભાધ્યક્ષ આચાર્યોને વંદન जी.सी.पोवा, मुंबई Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक “મુલાકાતે આવવાનો આજે લાભ મળ્યો. મનમાં થયું આટલો મોડો કેમ આવ્યો? આજની નવી પેઢીને જુનું એટલે સાવ નકામું અને નાખી દેવા જેવું માનવાવાળાની પણ આવી આધુનિક માન્યતાઓ હચમચી જાય અને આપણા જુના વારસાની ભવ્યતાને નિહાળી, તે તેનો પૂજક થઈ જાય તે નિશંક છે. હાલનું સંગ્રહાલય ભવ્યતા તરફથી અતિભવ્યતા તરફ હરહંમેશ કરતું રહે તેવી પ્રભુ પાસે પ્રાર્થના.' પ્રવિણભાઈ રતિલાલ મણિયાર, રાજકોટ 'अतिसुंदर परिकल्पना है. आने वाली पीढ़ी को महत्वपूर्ण मदद मिल सकेगी. एक ही स्थान पर इतना ज्ञान एकत्र कर पाना एक महान उपलब्धि है. इसके अवलोकन से ही आचार्य श्री पदमसागरसूरिजी के विराट व्यक्तित्व एवं दूरदर्शिता के दर्शन हो जाते हैं. संयम लोढा, विधायक, राजस्थान I Find the collections of manuscripts is marvelous. I hope the sooner they are rearly in modern language. The for of doing is very stigmatic tar. I pray god, the dreams of their institution is realized soon. K. Harilal Naick Commissioner of income tax A' bad जो द्वादशांगी के पारंगत हैं, द्वादशांगी के अर्थों के धारक हैं और जो सूत्रार्थ के विस्तार में रसिक हैं, उन आचार्यों को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ. प्रकाश स्टीलाएज लि. मुंबई Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म तारीख वि. सं., माघसर वद जन्म स्थळ जगरांव (पंजाब) दादाजी नुं नाम गंगारामजी पिताजी नुं नाम रामकिशनदासजी माताजी नुं नाम रामरखीदेवी संसारिक नाम काशीराम पत्नी नुं नाम शान्तादेवी दीक्षा तीथि वि. सं. पौष वदी अमदावाद दीक्षा दाता-गुरू महातपस्वी मुनि श्री जितेन्द्रसागरजी गणिवर्य पद तिथि वि. सं. माघसर वद पूना पंन्यास पद तिथि वि. सं. माघसर सुद मुंबई उपाध्याय पद तिथि वि. सं. माघसर सूद साणंद आचार्य पद तिथि वि.सं. महा वद साणंद गच्छाधिपति पद तिथि वि. सं. जेठ सुद महुडी तीर्थ कालधर्म तिथि वि. सं. जेठ सुद अमदावाद समाधि स्थळ गुरुमंदिर, कोबा गांधीनगर. गच्छाधिपति आचार्यश्री कौलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. आचार्यश्री प. पू. कल्याणसागरसूरीधरजी म. सा. जन्म स्थान - अणगाम (बलसाड-गुजरात) जन्म तिथी - वि.सं.१९८१ आसोज वदि ३, गुरुवार दीक्षा - वि.सं. २००५ वैशाख सुदी६ दीक्षा स्थल- डभोई पिता का नाम - श्री गणेशमलजी माता का नाम - श्रीमती चन्दन बहन दीक्षा दाता - आ.भ.श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी गुरु का नाम- आ.भ.श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सांसारिक नाम- श्री किस्तुरचन्दजी आचार्यपद- वि.सं. २०३२ फाल्गुन सुदि-७ आचार्य श्री प. पू. पदासागरसूरीधरजी महाराज जन्म : १० सितम्बर सन् १९३५, जन्म स्थान : अजीमगंज, पश्चिम बंगाल पिता का नाम : श्री रामस्वरूपसिंहजी माता का नाम : श्रीमती भवानीदेवी बचपन का नाम : प्रेमचन्द/लब्धिचन्द्र दीक्षा तिथी : १३ नवम्बर १९५५, शनिवार, दीक्षा स्थल : साणंद दीक्षा प्रदाता : आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज दीक्षा गुरु : आचार्य श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी महाराज गणिपद से विभूषित : २८ जनवरी, १९७४, सोमवार, जैननगर, अहमदाबाद, पंन्यासपद से विभूषित : ८ मार्च, १९७६, सोमवार, जामनगर, आचार्यपद से विभूषित : ९ दिसम्बर, १९७६, गुरुवार, महेसाणा. प. पू. स्व. धरणेन्द्रसारजी म. सा. जन्म स्थान- जोधपुर जन्म तिथी-वि.सं.१९९४ आश्विन शुक्ला १४ पिता का नाम - श्री हुकमराजजी मुहणोत माता का नाम - श्रीमती ज्ञानदेवी मेहता सांसारिक नाम- श्री संकरराजजी कालधर्म - आसो वदि-२, वि.सं.२०५४ दीक्षा - वि.सं.२०१७ प्रथम ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी दीक्षा स्थल - मेड़ता रोड दीक्षा दाता - आचार्यश्री पदमसागरसूरीश्वरजी म.सा. गुरु का नाम - आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा पद - उपाध्याय, अक्षय तृतिया, वि.सं.२०४९, कोबा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू.आचार्यश्री वर्धमानसागरजी म. सा. जन्म स्थान - रवेल (उ.गू.) दीक्षा -१०-६-६५. वि.सं.२०२१, ज्येष्ठ शुदि-१२, बुधवार जन्म तिथी-२८-३-४८ दीक्षा स्थल-मेड़ता रोड (राज.) पिता का नाम- श्री अमुलखदास दुगाणी दीक्षा दाता- आचार्यश्री पदमसागरसूरीश्वरजी म.सा, माता का नाम - स्व. श्री शान्ताबेन गुरु का नाम- आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. सांसारिक नाम - श्री वसंतभाई गणि पद-गणि, महा सुद-१२. वि.सं.२०३३, सिहोर पंन्यास पद - वि.सं. २०४९, अक्षय तृतिया, कोबा आचार्य पद-वसंत पंचमी, वि.सं.२०५४, मुंबई (गोडीजी) प. पू.आचार्यश्री अमृतसागरजी म. सा. जन्म स्थान - साणंद (चांदा महेतानो टेकरो) जन्म तिथी- वैशाख वदी-१३, २२-५-१९५२ पिता का नाम - श्री महेता दलसुखभाई गोविंदभाई माता का नाम- श्रीमति शांताबेन सांसारिक नाम - श्री अवन्ती कुमार दीक्षा- मागसर सुदी४, २३.११.१९६८, दीक्षा स्थल - अहमदाबाद (विश्वनंदीकर जैनसंघ) दीक्षा दाता आचार्यदेव श्रीमत कीर्तिसागरसूरीश्वरजी गुरु का नाम आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. गणिपद - महा सुदी-५. वि.सं.२०४९.२८-२-१९९३. अहमदाबाद (साबरमती) पंन्यास पद - महा सुदी-५, वि.सं. २०५२, २४-१-१९९६, सम्मेतशिखरजी (भोमियाजी भवन) आचार्य पद - फाल्गुन वदी-(दि) १. वि.सं.२०६३, ५-३-२००७ प.पू.पंन्यास श्री अरुणोदयसागरजी म.सा. जन्म स्थान - जोधपुर जन्म तिथी-४-१०-१९५७ पिता का नाम - श्री रामराजजी सिंघवी माता का नाम - श्रीमति नारंगकंवर सांसारिक नाम- श्री महेन्द्रसिंह सिंघवी दीक्षा - मागशर सुद-३, वि.सं.२०२८, २१-११-७१ दीक्षा स्थल-मुंबई (गोडीजी) दीक्षा दाता - आ. श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. गुरु का नाम - आ. श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. गणिपद- इ.स.१९९३, कार्तिक सुद-५, वि.सं.२०४९ पंन्यासपद - ज्येष्ठ वदि-११, वि.सं.२०५४ प. पू. पंन्यास श्री विनयसागरजी म. सा. जन्म स्थान - जाम्बानगर (बडौदा) दीक्षा - २१-११-७१, मागशर सुद-३, वि.सं.२०२८ जन्म तिथी- श्रावण सुदि पूर्णिमा दीक्षा स्थल - मुंबई (गोडीजी) पिता का नाम - श्री सोमाभाई दीक्षा दाता- आचार्यश्री पदमसागरसूरीश्वरजी म.सा. माता का नाम - श्रीमती रतनावेन गुरु का नाम - प. पू. वर्धमानसागरजी म.सा. सांसारिक नाम- श्री वसन्तकुमार गणि पद - वि.सं.२०४९ कार्तिक सुद-५, भीनमाल, पंन्यास पद -ज्येष्ठ वदि-११, वि.सं.२०५४, महेसाणा प. पू. पंन्यास श्री देवेन्द्रसागरजी म. सा. जन्म स्थान कोल्हापूर (पामोल, गुज.) दीक्षा - ८-३-७६, वि.सं.२०३२, फाल्गुन शुदि-७ जन्म तिथी - १४-१-६१ दीक्षा स्थल - जामनगर पिता का नाम - स्व. श्री रतनचंद शहा दीक्षा दाता- आ.श्री.कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. माता का नाम - श्रीमती शशिकलाबेन गुरु का नाम- पंन्यास अरुणोदयसागरजी म.सा. सांसारिक नाम - श्री दिलीपकुमार गणि पद - वि.सं.२०४९, कार्तिक सुद-५, भीनमाल, पंन्यास पद - इ.स. २१-३-२००३, पालीताणा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू. पंन्यास श्री हेमचंद्रसागरजी म. सा. जन्म स्थान - जामनगर दीक्षा- वैशाख वदी-५, वि.सं.२०३४, शनिवार जन्म तिथी-१४-४-१९६२ दीक्षा स्थल-अहमदावाद (खानपुर) पिता का नाम- श्री केशवजी वाडीलालभाई शाह दीक्षा दाता- आ.श्री कैलाससागरसूरीजी म.सा. माता का नाम- श्रीमति विमलाबेन गुरु का नाम - ग.श्री ज्ञानसागरजी म.सा. (सा. प्रशमजिनेशाश्रीजी) गणि पंन्यास पद- महा सुद-१०, वि.सं. २०६३ सांसारिक नाम - श्री हरेशभाई २८-१-२००७ प. पू. गणिवर्य श्री विवेकसागरजी म. सा. जन्म स्थान- जाम्बा दीक्षा - ३०-१-८२, वि.सं.२०३८, माघशुदि-५ जन्म तिथी-३०-५-१९६५ दीक्षा स्थल - आदोनी (आ.प्र.) पिता का नाम- श्री सोमाभाई दीक्षा दाता- आ.श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. माता का नाम - श्रीमती रतनबेन गुरु का नाम - पंन्यास श्री वियनसागरजी म.सा. सांसारिक नाम - श्री गोविन्दकुमार गणिपद - महासुद-५, वि.सं.२०५९ प. पू. गणिवर्य श्री अरविंदसागरजी म. सा. जन्म स्थान -बेंगलोर जन्म तिथी-३-१०-१९६६ पिता का नाम- श्री खीमराजजी सा. माता का नाम- श्रीमती शान्ताबाई सांसारिक नाम - श्री मुकेश दीक्षा - ११-१२-८२, वि.सं.२०३९, मृगशीर्ष कृष्णा-११ दीक्षा स्थल-बेंगलोर दीक्षा दाता- आचार्यश्री पदमसागरसूरीश्वरजी म. सा. गुरु का नाम - पं.श्री अरुणोदयसागरजी म.सा. गणि पद - महा सुद-५, वि.सं.२०५९ प. पू. मुनिराज श्री प्रेमसागरजी म. सा. दीक्षा - वि.सं.२०३४, मागशर शुदी-३ जन्म स्थान - अहमदाबाद जन्म तिथी-४-१-६७दीक्षा स्थल - भावनगर (सौराष्ट्र) पिता का नाम-श्री कान्तिलाल मगनलाल शाह माता का नाम - श्रीमती पुष्पावेन सांसारिक नाम - श्री पियुषकुमार दीक्षा दाता - आ.श्री.कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. गुरु का नाम - आ.श्री.पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. प. पू. मुनिराज श्री निर्वाणसागरजी म. सा. जन्म स्थान - गुडाबालोतान (राज.) जन्म तिथी-२२-९-१९५२ पिता का नाम - श्री लालचंदजी हीराचंदजी जैन माता का नाम - श्रीमती सोनीवाई सांसारिक नाम- श्री पारसमलजी दीक्षा - १२-३-८१, वि.सं.२०३७, फाल्गुन शुदि-७ दीक्षा स्थल-बेल्लारी दीक्षा दाता- आ.श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. गुरु का नाम - प.पू.श्री धरणेन्द्रसागरजी म.सा. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू. मूनिराज श्री अजयसागरजी म. सा. जन्म स्थान सिरोही (राज.) जन्म तिथी ५-६-१९६३ दीक्षा- १९-४-८२, वि.सं. २०३८ वैशाखसुदि १० दीक्षा स्थल मद्रास पिता का नाम श्री हुक्मीचंदजी मेघाजी खींवेसरा दीक्षा दाता आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. माता का नाम श्रीमती गंगाबाई गुरु नाम आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. सांसारिक नाम श्री महावीरकुमार प. पू. मूनिराज श्री विमलसागरजी म. सा. जन्म स्थान हिरीयुर (कर्नाटक) जन्म तिथी २२-४-१९६६ पिता का नाम श्री छगनराजजी जीवाजी बागरेचा माता का नाम श्रीमती सुआबाई सांसारिक नाम श्री इन्द्रकुमार प. पू. मूनिराज श्री महेन्द्रसागरजी म. सा. जन्म स्थान लफणी (गुज.) जन्म तिथी १६-१९६७ पिता का नाम माता का नाम श्रीमती पूनमवेन सांसारिक नाम श्री मयुर स्व. श्री मगनभाई जैन प. पू. मूनिराज श्री नयपद्मसागरजी म. सा. जन्म स्थान अमदावाद जन्म तिथी पिता का नाम माता का नाम श्रीमति धर्मज्ञावेन सांसारिक नाम श्री भाविकभाई १५-५-१९६८ श्री महेशभाई महेता प. पू. मूनिराज श्री प्रशांतसागरजी म. सा. जन्म स्थान कडी जन्म तिथी २९-४-१९६९ * पिता का नाम श्री सुरेन्द्रभाई संघवी माता का नाम श्रीमति हसुमतीवेन सांसारिक नाम श्री प्रकाशभाई दीक्षा ११-१२-८२, वि.सं. २०३९ मृगशीर्ष वदि-११ दीक्षा स्थल बेंगलोर . दीक्षा- १९-४-८२, वि.सं. २०३८ वैशाखवदि- १० दीक्षा स्थल मद्रास दीक्षा दाता आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. गुरु नाम आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.. दीक्षा दाता आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. गुरु का नाम पंन्यास श्री विनयसागरजी म. सा. दीक्षा महा सुद-६, वि.सं. २०४० ००-१-१९८४ दीक्षा स्थल साणंद दीक्षा दाता आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. गुरु का नाम आ. श्री अमृतसागरजी म.सा. . दीक्षा फाल्गुन सुद-७, वि.सं. २०४०, १०-३-१९८४ दीक्षा स्थल पादरु दीक्षा दाता आ.श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. गुरु का नाम आ. श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. . Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू. मुनिराज श्री पद्मरत्नसागरजी म. सा. जन्म स्थान - शिलोग (आसाम) कड़ी जन्म तिथी- १८-९-१९६७ पिता का नाम - सुरेन्द्रभाई संघवी माता का नाम - हसुमतिबेन सांसारिक नाम - श्री दीपकभाई दीक्षा -११-२-१९८७, महा सुद-१३. वि.सं.२०४३ दीक्षा स्थल - कोवा दीक्षा दाता - आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा, गुरु का नाम - आ.श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. प. पू. मुनिराज श्री अमरपद्मसागरजी म. सा. जन्म स्थान - नागोर दीक्षा - १-२-१९८८ जन्म तिथी - १५-७-१९६९ दीक्षा स्थल- नागोर पिता का नाम - श्री मांगीलालजी दीक्षा दाता - उ.श्री धरणेन्द्रसागरजी म.सा. माता का नाम - श्रीमती भंवरीबाई गुरु का नाम - ग.श्री अरविन्दसागरजी म.सा. सांसारिक नाम - श्री पारस प. पू. मुनिराज श्री पद्मविमलसागरजी म. सा. जन्म स्थान • मुंबई (मलाड) जन्म तिथी - २१-९-१९७३ पिता का नाम - श्री किर्तीलाल एम.शाह माता का नाम - श्रीमति रसीलाबेन के. शाह सांसारिक नाम - श्री हेतलभाई दीक्षा - वैशाख सुद-६, ३०-४-१९९० दीक्षा स्थल- बेलगाम दीक्षा दाता - आ. श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. गुरु का नाम - मुनिराजश्री विमलसागरजी म.सा. प. पू. मुनिराज श्री रविपद्मसागरजी म. सा. जन्म स्थान · कोलकाता (बीकानेर-राजस्थान) जन्म तिथी-१६-७-१९७५ पिता का नाम - श्री मगनमलजी रामपुरीया माता का नाम - श्रीमती सरलादेवी रामपरीया सांसारिक नाम - श्री संदिपभाई दीक्षा-९-२-१९९७,माघ सुद-२,वि.सं.२०५३, रविवार दीक्षा स्थल - कोलकाता दीक्षा दाता - आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. गुरु का नाम - पंन्यास श्री विनयसागरजी म. सा. प. पू. मुनिराज श्री कैलासपद्मसागरजी म. सा. जन्म स्थान - अहमदाबाद दीक्षा - २०-६-१९९८, ज्येष्ठ वदि-११, वि.सं.२०५४ जन्म तिथी-२-८-१९८६ दीक्षा स्थल- महेसाणा पिता का नाम- श्री भरतभाई दीक्षा दाता - आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. माता का नाम - श्रीमती भारतीबेन गुरु का नाम - पू.श्री अमरपद्मसागरजी म.सा. सांसारिक नाम-श्री कितन w Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू. मुनिराज श्री हीरपदमसागरजी म. सा. जन्म स्थान - पाटन जन्म तिथी-६-१२-१९८२ पिता का नाम - श्री हरेशभाई माता का नाम- श्रीमती दक्षावेन सांसारिक नाम - श्री हेमन्त दीक्षा-३०-१-१९९९, महा सुद-१४, वि.सं.२०५५ दीक्षा स्थल-कोबा दीक्षा दाता - आ.श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म.सा. गुरु का नाम- ग.श्री अरविन्दसागरजी म.सा. प. पू. मुनिराज श्री राजपद्मसागरजी म. सा. जन्म स्थान -लोद्रा (गुजरात) दीक्षा -३०-१-१९९९, महासुद-१४, वि.सं. २०५५ जन्म तिथी- १०-१२-१९८५ दीक्षा स्थल- कोबा पिता का नाम- श्री रमणभाई शाह दीक्षा दाता - आ.श्री कल्याणसागरजी म.सा. माता का नाम श्रीमति सविताबेन गुरु का नाम - गं.श्री विवेकसागरजी म.सा. सांसारिक नाम- श्री विजयभाई प. पू. मुनिराज श्री महापद्मसागरजी म. सा. जन्म स्थान - अजीमगंज (बंगाल) जन्म तिथी-३०-६-१९८७ पिता का नाम- श्री उत्तमचन्दजी माता का नाम श्रीमति लक्ष्मीदेवी सांसारिक नाम- श्री उत्पलकुमार दीक्षा-३०-१-१९९९, महासुद-१४ दीक्षा स्थल- कोवा दीक्षा दाता- आ.श्री कल्याणसागरजी म.सा. गुरु का नाम- पं.श्री देवेन्द्रसागरजी म.सा. प. पू. मुनिराज श्री पुनितपद्मसागरजी म. सा. जन्म स्थान - अजिमगंज (पं.बंगाल) जन्म तिथी-१३-२-१९९० पिता का नाम- श्री सुरेन्द्रसिंह श्रीमाल माता का नाम- रेखादेवी सांसारिक नाम- श्री राजेशभाई दीक्षा - २९-१-२००१, महा सुद-५, वि.सं.२०५४ दीक्षा स्थल - मुंबई (गोडीजी) दीक्षा दाता- आ.श्री पदमसागरसूरीश्वरजी म.सा. गुरु का नाम - मुनिश्री प्रशान्तसागरजी म.सा. प. पू. मुनिराज श्री कल्याणपद्मसागरजी म. सा जन्म स्थान. गोवा दीक्षा - २-१२-२००१, वि.सं.२०५८, कार्तिक वदि-२ जन्म तिथी-२-२-१९८५ दीक्षा स्थल - अहमदाबाद, लावण्य सोसायटी पिता का नाम- श्री राजेशकुमार दोसी दीक्षा दाता- आचार्यश्री पदमसागरसूरीश्वरजी म. सा. माता का नाम - श्रीमती प्रविणाबेन गुरु का नाम - गं.श्री विवेकसागरजी सांसारिक नाम - श्री करण Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू. मुनिराज श्री सौभाग्यपद्मसागरजी म. सा. जन्म स्थान - नारलाई जन्म तिथी- १९-२-१९३९ पिता का नाम - श्री चुनीलाल बोहरा माता का नाम- श्रीमती धापुबाई सांसारिक नाम - श्री गुलाबजी दीक्षा - १२-१२-२००२, वि.सं.२०५९ दीक्षा स्थल- पाली दीक्षा दाता - आचार्यश्री पदमसागरसूरीश्वरजी म.सा. गुरु का नाम- पं. श्री अरुणोदयसागरजी म.सा. प. पू. मुनिराज श्री ध्यानपद्मसागरजी म. सा. जन्म स्थान - दिल्ली (पाटण) जन्म तिथी-११-४-१९८५ पिता का नाम - श्री प्रफुलभाई शाह माता का नाम - श्रीमति ज्योतिकाबेन सांसारिक नाम- श्री भाविकभाई दीक्षा - महा सुद-७, वि.सं.२०५९, ८-२-२००३ दीक्षा स्थल-बोरीज (गांधीनगर) दीक्षा दाता - आ.श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म.सा. गुरु का नाम - मु.श्री नयपद्मसागरजी म.सा. प. पू. मुनिराज श्री भुवनपद्मसागरजी म. सा. जन्म स्थान छपरा (बिहार) दीक्षा - महासुद-७, वि.सं.२०५९, ८-२-२००३ जन्म तिथी-३०-१२-१९८६ दीक्षा स्थल- बोरीज (गांधीनगर) पिता का नाम - राधाकृष्णजी दीक्षा दाता- आ.श्री कल्याणसागरजी म.सा. माता का नाम- रेणुदेवी गुरु का नाम - आ.श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. सांसारिक नाम- श्री विकेशभाई प. पू. मुनिराज श्री अक्षयपद्मसागरजी म. सा. जन्म स्थान- पूना (सिरोही) दीक्षा - महा सुद-७, वि.सं.२०५९, ८-२-२००३ जन्म तिथी-२१-२-१९९१ दीक्षा स्थल - बोरीज (गांधीनगर) पिता का नाम- श्री इन्द्रचन्दजी कांगटानी दीक्षा दाता - आ.श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म.सा. माता का नाम - श्रीमति मीनाबेन गुरु का नाम - मु.श्री नयपद्मसागरजी म.सा. सांसारिक नाम - श्री अक्षयभाई प. पू. मुनिराज श्री मुनिपद्मसागरजी म. सा जन्म स्थान - अमदावाद दीक्षा - ज्येष्ठ वद-००, वि.सं.0000, २३-६-२००२ जन्म तिथी-१७-१-१९७९ दीक्षा स्थल-कोबा पिता का नाम - श्री दिनेशभाई दीक्षा दाता- पं.श्री अरुणोदयसागरजी म.सा. माता का नाम - श्रीमति उर्वशीबेन गुरु का नाम- गं.श्री अरविन्दसागरजी म.सा. सांसारिक नाम - श्री मित्तलभाई Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. पू. मुनिराज श्री पूर्णपद्मसागरजी म. सा. जन्म स्थान - मुंबई दीक्षा - १०-३-२००६.फाल्गुन सुद-१०, वि.सं.२०६२ जन्म तिथी-२-४-१९९१ दीक्षा स्थल- कोबा पिता का नाम - मुकेशभाई संघवी दीक्षा दाता - आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. माता का नाम - मीनाक्षीबेन गुरु का नाम-म.श्री पदमरत्नसागरजी म.सा.. सांसारिक नाम- श्री ऋषभभाई प. पू. मुनिराज श्री ज्ञानपद्मसागरजी म. सा. जन्म स्थान - मुंबई जन्म तिथी-२९-१-१९४६ पिता का नाम-श्री मगनलाल जगजीवनलाल शाह माता का नाम- श्रीमति जीविवेन सांसारिक नाम- श्री नविनचंद्र दीक्षा- वैशाखसुद-१२, १०-५-२००६. बुधवार दीक्षा स्थल- जामनगर दीक्षा दाता.आ.श्री पदमसागरसूरीजी म.सा. गुरु का नाम-पं. श्री हेमचन्द्रसागरजी म.सा. प. पू. मुनिराज श्री हेमपद्मसागरजी म. सा. जन्म स्थान- महेसाणा जन्म तिथी-२५-२-१९९४ पिता का नाम - श्री हर्षदभाई माता का नाम - श्रीमती कल्पनावेन सांसारिक नाम - श्री हर्ष दीक्षा- वैशाख सुद-१२, वि.सं.२०६२. १०-५-२००६. बुधवार दीक्षा स्थल -जामनगर दीक्षा दाता आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. गुरु का नाम - गं.श्री अरविन्दसागरजी म.सा. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक जैन साहित्य सूचि का बहुआयामी प्रकाशन कैलासश्रुतसागर ग्रंथसूची मनोज र. जैन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर - कोबा ज्ञान भंडार प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य का विशाल ज्ञानसागर है. जैन हस्तलिखित साहित्य का बेशुमार खजाना कहा जा सकता है. राष्ट्रसंत पूज्य आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज की सत्प्रेरणा से संस्थापित इस ज्ञानतीर्थ में प्रत्येक वर्ष हजारों दर्शनार्थी आते हैं. संशोधकों, विद्वानों, अध्ययन अध्यापन कर रहे पूज्य साधु साध्वीजी भगवन्त तथा सामान्य जिज्ञासुओं के लिए यह स्थान आशीर्वाद रूप सिद्ध हआ है. वाचकों को अपेक्षित ग्रंथ की अत्यल्प माहिती के आधार पर ही यहाँ कम्प्युटर के विशेष प्रोग्राम के द्वारा ढेर सारी इच्छित सामग्री मिल जाती है, वह भी कुछ ही समय में, आनेवाले जिज्ञास को संतोष देकर सन्मानित किया जाना इस ग्रंथालय की सब से बड़ी विशेषता कही जाती है. शास्त्रों का संरक्षण और संवर्धन करने का तरीका भी इस भंडार की अपनी स्वतंत्र शैली का है. साथ साथ जैन और भारतीय संस्कृति की धरोहर समान कलाकृतियों का संग्रहालय भी अद्भुत है. गुजरात की राजधानी के समीपस्थ होने के कारण यहाँ दर्शनार्थियों की हमेशा भीड़भाड़ रहती है. कई महानुभावों के हृदयोदगार निकलते हैं कि यहाँ नही आये होते तो शायद हमारी यात्रा अपूर्ण रह जाती, जीवन में कुछ नया देखने का, अनुभव करने का और चिंतन करने का अवसर देनेवाले इस ज्ञानमंदिर में संग्रहित जैन व जैनतर हस्तलिखित शास्त्रों की लगभग दो लाख प्रतियाँ उपलब्ध हैं. तथा मुद्रित प्रत और पुस्तकें लगभग एक लाख चालीस हजार के आसपास संग्रहित है. इनमें से हस्तलिखित ग्रंथों का सूचीकरण कार्य पिछले दस वर्षों से चल रहा हैं. अत्यन्त श्रमसाध्य व दुरुह इस कार्य को यहीं पर विकसित कम्प्युटर प्रोग्राम के माध्यम से पंडित टीम द्वारा संपादित किया जा रहा है. विगत वर्षों में कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची के १-३ खंडों का प्रकाशन किया गया था. गत वर्ष ८ नवम्बर, २००६ को चौथे व पाँचवें खंड को प्रकाशित कर साधु साध्वीजी, प्रमुख जैन संघ और विद्वानों के कर कमलों में प्रस्तुत किया गया है. कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची की विशेषताएँ ग्रन्थसूची के प्रथम खंड में इस ज्ञानमंदिर में संग्रहीत जैन हस्तप्रत सं. १ से ५५८५, दूसरे खंड में ५५८६ से ९३१५, तीसरे खंड में ९३१६ से १३२५८, चौथे खंड में १३८२६ से १७३०० और पाँचवें खंड में १७३०१ से २०९९९ तक की प्रतियों का समावेश हुआ है. इन खंडों में विजयधर्मलक्ष्मी ज्ञानभंडार-आगरा की अधिकतर प्रतों की सूची दे दी गई है.. पांचों खंडों में समाविष्ट १५६०६ जैन हस्तप्रतों में प्राकृत एवं संस्कृत भाषा की ३६६९ रचनाएँ तथा मारूगुर्जरादि भाषा की कृतियाँ यहां के कम्प्यूटर आधारित सूचनाओं के अनुसार संकलित की गई है. आगे के खंड - का कार्य संपादित हो रहा है.. कैलास श्रुतसागर ग्रंथसूची के नाम से प्रकाशित इस सूची के आगे के करीब खंडों का कार्य अथक प्रयत्न पूर्वक जारी है. यह सूची एक तरह से प्राचीन जैन साहित्य के इन्साइक्लोपिडीया के रूप में पहचान प्राप्त करेगी. जैन व जैनेतर साहित्य को उजागर करने में इसे एक सफल प्रयास कहा जा सकता है. बृहत सूची के इन खंडों में अनेक प्रकार की संशोधनपूर्ण विशेषताएँ संयोजित की गई है जो आज तक की सभी सूचियों की परंपरा में एक गौरवपूर्ण विकास कदम है. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि चित्कोश में संग्रहित हस्तलिखित शास्त्र ग्रंथों में से जैन साहित्य की प्रतियों को इस सूची के प्रारंभिक खंडों में वरीयता दी गई है. यहाँ के भंडार में जैन साहित्य की जितनी हस्तप्रतें हैं, उन सभी की विस्तृत माहिती इस सूचीपत्र में क्रमशः समाविष्ट की जा रही है. इस में अत्यन्त प्रभावी कम्प्युटर आधारित तकनीक का उपयोग किया गया है, जिससे वाचक सरलता से अपने विषय की संपूर्ण माहिती प्राप्त कर सकते हैं. थोड़े समय में इच्छित सामग्री Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक उपलब्ध कराना इसकी खास विशेषता है. अब तक के छपे हुए सूचीपत्रों में एक या दो प्रकार से ही जानकारी मिल पाती है, परंतु इस सूचीपत्र में विविध पद्धत्तियों से अनेक प्रकार की जानकारियाँ हस्तगत हो सकती है. जैसे प्रारंभिक खंडों में प्रतनाम व प्रत संबंधित माहिती, दूसरे क्रम में कृति और कृतिगत माहिती, तीसरे क्रम में विद्वान विषयक माहिती और अंत में भाषा के आधार पर कृतियों का अकारादिक्रम इत्यादि मिलेगा. ध्यानाह है कि सूचीकरण के कार्य हेतु ग्रंथालय की किसी प्रस्थापित प्रणाली के अनुसार नहीं परंतु अनुभवों के आधार पर भारतीय साहित्य की लाक्षणिकताओं के अनुरूप बहुजनोपयोगी तर्कसंगत सूचिकरण प्रणाली विकसित की गई है व तदनुरूप कम्प्युटर में विशेष प्रोग्राम तैयार किया गया है. जिसके अन्तर्गत उपरोक्त सभी प्रकार की सूक्ष्मतम जानकारी मात्र यहीं पर पहली बार कम्प्यूटराईज की गई है. जैन साहित्य के विषय में संशोधन कर रहे गुरुभवंतों, संशोधको एवं विद्वानों को इस सूचीग्रंथ से कल्पनातीत लाभ मिल सकेगा. जिन्हें अतीत का इतिहास ढूंढना है, उन्हें वह भी मिलेगा. जिन्हें संस्कृत प्राकृत भाषा प्रधान साहित्य के क्षेत्र में कार्य करना है, उन्हें भी उस भाषा के ग्रन्थ विपुल प्रमाण में मिल सकेंगे. जिन्हें मारुगुर्जर और प्राचीन हिन्दी प्रधान साहित्य को उजागर करना है उन्हें ऐसी कृतियाँ भी मिल सकेगी. सूची ऐसी पद्धत्ति से बनाई गई है कि वाचकों को हस्तलिखित प्रतों का उपयोग करने में बड़ी सरलता रहेगी. हस्तप्रत को ग्रहण करने से पहले ही बहुत कुछ सुस्पष्ट हो जाए, ऐसी संपादन शैली रखी गई है. इस सूची के परिशिष्ट में प्राकृत, संस्कृत, मारुगुर्जर आदि भाषाओं के अनुसार अकारादिक्रम से कृति सूची दी गई है तथा साथ में प्रस्तुत सूची पत्र में उनकी जितनी प्रतियाँ है उनके सभी नंबर भी उपलब्ध कराये गये है. इस सूची में शामिल कतिपय महत्वपूर्ण ऐसी कृतियाँ मिली हैं, जो आज तक अप्रकट प्रतीत हुई है. उत्तराध्ययनसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र, कल्पसूत्र इत्यादि आगमग्रंथों की टीकाएँ, अवचूरि आदि कृतियाँ संशोधको, विद्वानों को संपादन कार्य के लिए प्रेरित करने की क्षमता रखती हैं. हमारे महापुरुषों ने प्राकृत संस्कृत व देशी भाषा में शास्त्र ग्रंथों से लेकर उपदेश मूलक व व्यावहारिक शिक्षापरक अनेक कृतियाँ बनाई हैं. जैन श्रावक कवि ऋषभदास, पं. जिनहर्ष गणि, पं. समयसुंदर गणि तथा उपा. सकलचंदजी गणि आदि कवियों की अनेक कृतियाँ अभी भी अप्रकाशित हैं. जिन्हें इस क्षेत्र में काम करना हैं, उन्हें इस सूची से यत्र तत्र सर्वत्र भरपूर सामग्री मिलती है. उपाध्याय यशोविजयजी तथा आनंदघनजी के अनेक आध्यात्मिक पदों की अभी तक प्रायः अप्रसिद्ध प्रतीत होनेवाली कृतियाँ भी इन्हीं प्रतों में दिखाई देती हैं. यह सूची सुसंकलित, बहुआयामी होने के साथ साथ संशोधनपरक सूचनाओं की गहराई का परिचय देती है. इस हेतु इसमें हर जगह लघुतम आवश्यक निर्णायक सूचनाएँ दी गई है. इस सूची के भविष्य में अनेक प्रकार के संशोधन के स्रोत प्राप्त हो सकेंगे. धर्म, इतिहास, आराधना, चरित्र, विधिविधान, भाषा वैविध्य, पट्टावलियाँ, गच्छमत की महत्वपूर्ण अनेक कड़ियाँ भी प्राप्त हो सकेगी. कुल मिलाकर यह सूची एक सर्वतोग्राही उपयोगिता को लेकर संशोधन के क्षेत्र में निःसंदेह पथदर्शिका सिद्ध होगी. આરોગ્યવર્ધક ઔષધ ભોજન કર્યા પછી તરત જ ખાવાથી, મૈથુન કરવાથી, શ્રમ કરવાથી અને ઉંઘવાથી આયુષ્ય ઘટે છે. 82 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक जैनागमों का परिचय मनोज र. जैन, कोबा शासननायक भगवान महावीर की वाणी सूत्र रूप में गणधरों को प्राप्त हुई थी. उन सूत्रों को गणधरों एवं चतुर्दशपूर्वधर श्रुतस्थविरों ने जनसामान्य के कल्याणार्थ नियुक्ति के रूप में प्रस्तुत किया. नियुक्ति सामान्यतः संक्षिप्त शैली से सूत्र की प्रस्तावनारूप या सूत्र को समझने के लिए आवश्यक पदार्थों/बातों की स्पष्टता/पूर्ति रूप होती है. वर्तमान में मात्र ८अ२ आगमों पर ही नियुक्ति मिलती हैं. परंपरा से नियुक्तियों के कर्ता श्री भद्रबाहुस्वामी कहे जाते हैं. नियुक्तियाँ पद्यबद्ध - गाथामय ही होती है व इनकी भाषा अर्धमागधी/प्राकृत होती है. परन्तु नियुक्ति प्रायः प्राकृत में श्लोकबद्ध तथा अत्यन्त संक्षिप्त होती हैं. नियुक्तियों के तुरंत बाद के काल में श्रुतस्थविरों द्वारा भाष्यों की रचना हुई. ये भी नियुक्तियों की ही तरह गाथाबद्ध प्राकृत में ही लिखे गए हैं. सामान्यतः इनकी गाथा संख्या नियुक्तियों से काफी कम होती हैं, ये भाष्य मूल व नियुक्ति पर नियुक्ति के अवशिष्ट विषयों को स्पष्ट करते हैं. वर्तमान में ९ आगमों पर भाष्य उपलब्ध है. जैनागमों व नियुक्तियों पर प्रायः संयुक्त रूप से कथंचित् विस्तारपूर्वक प्राकृत व संस्कृत मिश्रित भाषा में की गई व्याख्या चूर्णि कही जाती है. चूर्णि शब्द चूर्ण से आया है. जिस तरह मोटे (गरिष्ठ) दल का भोजन पचने में भारी होता है, परंतु उसे पीस कर उसका चूर्ण बनाकर दिया जाय तो छोटा बालक भी उसे अच्छी तरह पचा सकता है. उसी तरह विवेच्य कृति के दुरूह अंशों को चूर्ण कर 'बालानां सुखबोधाय' रची हुई कृति को चूर्णि से संबोधित किया गया है. मूल कृति पर सामान्यतः संस्कृत अथवा प्राकृत भाषा में रचित वृत्ति, व्याख्या, दीपिका, न्यास, लघुवृत्ति और बृहद्वृत्ति आदि रचनाओं को टीका कहा जाता है, जो कि सामान्यतः गद्यात्मक ही होती है. क्वचित् पद्यबद्ध टीकाएँ भी मिलती है. टीका अपनी उपरी कृति के प्रतिपाद्य विषय के सामान्य, मध्यम, विस्तृत या अतिविस्तृत विवरण के रूप में होती है. यह मूल, नियुक्ति, भाष्य, टीका या इनके किसी अंश/हिस्से मात्र पर रची जाती है. कई बार यह एक ही परिवार की मूलअनियुक्तिअभाष्य इन तीनों पर संयुक्त स्वरूप से भी होती है. खासकर आगमों पर इस तरह की टीकाएँ पाई जाती है. इसी तरह मूल व टीका पर भी अन्य संयुक्त टीकाएँ पाई जाती है. इस प्रकार आगम को समझने के लिए नियुक्ति, मूल व नियुक्ति को समझने के लिए भाष्य, मूल, नियुक्ति व भाष्य को समझने के लिए चूर्णि व टीका. इन्हें पंचांगी कहा जाता है. टीका के सिवाय आगमग्रंथों पर अवचूर्णि या अवचूरि, विषमपद व्याख्या और टिप्पनादि भी उपलब्ध होते हैं जो क्वचित मूलसूत्रादि के विशेष पदार्थों को और कभी टीकाओं के गंभीर रहस्यों को बालग्राह्य बनाते हैं. अंगसूत्र आचारांगसूत्र २५५४ श्लोक प्रमाण इसमें जीवन शुद्धि की उत्कृष्टता का उपदेश संगृहीत है. प्रत्येक प्राणी के साथ आत्मीयभाव जागृत करना व उसके लिए ६ प्रकार के जीवों की जयणा पूर्वक आचार की शुद्धि कैसे करना है, इत्यादि का मार्गदर्शन यह सूत्र देता हैं. आचारांगसूत्र पर उपलब्ध विवरण इस प्रकार है नियुक्ति, आचार्य भद्रबाहुस्वामी * चूर्णि, गणि जिनदास महत्तर * अवचूर्णि, अज्ञात जैनश्रमण * टीका, शीलांकाचार्य * प्रदीपिका टीका, गच्छाधिपति जिनहंससूरि * प्रथमश्रुतस्कंध-अवचूर्णि, अज्ञात जैनश्रमण * प्रथमश्रुतस्कंध-दीपिकाटीका, आचार्य अजितदेवसूरि 83 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक सूत्रकृतांगसूत्र- २१०० श्लोक प्रमाण इसमें षड्दर्शन (विभिन्न धर्मो) एवं अन्यान्य धर्ममतों की अपूर्णता सिद्ध कर स्याद्वाद सिद्धान्त की स्थापना की है. साधु के आचार का व नरक के दुःखों का वर्णन किया गया है. इस आगम के अध्ययन से श्रद्धा मजबूत होती है. सूत्रकृतांगसूत्र पर उपलब्ध विवरण इस प्रकार है नियुक्ति, आचार्य भद्रबाहुस्वामी * चूर्णि, मुनि अज्ञात जैनश्रमण * दीपिका वृत्ति, मुनि हर्षकुल बृहद्वृत्ति, शीलांकाचार्य * सम्यक्त्वदीपिका टीका, उपाध्याय साधुरंग. स्थानांगसूत्र- ३७०० श्लोक प्रमाण इस आगम में जगत के भिन्न भिन्न पदार्थों का वर्गीकरण १ से १० प्रकार से किया है. आत्मतत्त्व को पहचानने हेतु उपयोगी पदार्थों का निरूपण करके चंचल वृत्ति का शमन होने पर तत्त्वज्ञान की भूमिका स्थिर होती है, यह कहा गया है. सैद्धान्तिक बातों का सम्यग्ज्ञान इस सूत्र से मिलता है. स्थानांगसूत्र पर उपलब्ध विवरण इस प्रकार है टीका, आचार्य अभयदेवसूरि * दीपिकाटीका, मुनि मेघराज * दीपिका वृत्ति, गणि नगर्षि समवायांगसूत्र- १६६७ श्लोक प्रमाण इस आगम में १ से १०० तक की गिनती में वस्तुओं का निरूपण करके कोडा-कोडी पर्यन्त की संख्या में पदार्थों का निर्देश किया गया है. सभी आगमों का संक्षिप्त परिचय, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, व प्रतिवासुदेव इत्यादि का वर्णन किया गया है. समवायांगसूत्र पर उपलब्ध विवरण इस प्रकार है समवायांगसूत्र-वृत्ति, आचार्य अभयदेवसूरि भगवतीसूत्र- १५७५१ श्लोक प्रमाण श्रीगौतमस्वामी द्वारा पूछे गये ३६००० छत्तीस हजार प्रश्नों के भगवान महावीर द्वारा किये गये सुंदर समाधानों का संकलन. गणधरदेव श्रावक-श्राविका और जैनेतरों द्वारा किये गये अन्य प्रश्नोत्तरों का भी संकलन. अद्वितीय शैली में अनेक विषयों का गंभीर वर्णन गुरुमुख से सुनने लायक हैं. भगवतीसूत्र पर उपलब्ध विवरण इस प्रकार है चूर्णि, आचार्य अज्ञात जैनाचार्य * भगवतीसूत्र आलापक की अवचूर्णि, अज्ञात जैनश्रमण * अभयदेवीय टीका के हिस्से -निगोदषट्त्रिंशिका प्रकरण की टीका, आचार्य रत्नसिंहसूरि * अवचूर्णि, मुनि अज्ञात जैनश्रमण * टीका, आचार्य अभयदेवसूरि * लघुवृत्ति, आचार्य दानशेखरसूरि. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र- ५४५० श्लोक प्रमाण यह आगम रूपक दृष्टान्त एवं महापुरुषों के जीवन चरित्रों से समृद्ध है. पूर्वकाल में इसमें २ अरब ४६ करोड ५० लाख कथा-उपकथाओं का निरूपण था, ऐसा निर्देश है. वर्तमान में मात्र १९ कथाएँ उपलब्ध होती है. बाल जीवों को धर्मानुरागी बनानेवाला धर्मकथानुयोग का सर्वोत्तम ग्रन्थ. इस ग्रन्थ पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध हैं टीका, आचार्य अभयदेवसूरि * ज्ञातानामुद्धार-टीका, अज्ञात जैनश्रमण. उपासकदशांगसूत्र- ८१२ श्लोक प्रमाण इस आगम में भगवान श्रीमहावीर प्रभु के १२ व्रतधारी प्रमुख दश श्रावकों की जीनवचर्या का वर्णन है. आदर्श श्रावक जीवन कैसा हो उसका सुंदर बोध होता है. गोशालक का नियतिवाद व उसके द्वारा परमात्मा को दी गई महामाहण, महागोप, महासार्थवाह, महाधर्मक और महानिर्यामिक की यथार्य उपमाओं का वर्णन किया गया है. उपासकदशांगसूत्र पर उपलब्ध विवरण इस प्रकार है उपासकदशांगसूत्र-वृत्ति, आचार्य अभयदेवसूरि 84 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक अन्तकृदृशांगसूत्र- ९०० श्लोक प्रमाण इसमें अन्तकृत् केवली भगवन्तों का वर्णन है. अन्त समय में केवलज्ञान पाकर अन्तर्मुहूर्त में मोक्ष में जाने वाले को अन्तकृत केवली कहा जाता है. द्वारिका नगरी के वर्णन से इस सत्र का प्रारंभ होता है. द्वैपायन ऋषि द्वारा द्वारिका नगरी का विनाश, अर्जुनमाली, अतिमुक्तक एवं शत्रुजय आदि के अधिकार प्ररूपित हैं. श्रेणिक राजा की २३ रानियों की तपश्चर्या का सुन्दर वर्णन है. अन्तकृद्दशांगसूत्र पर उपलब्ध विवरण इस प्रकार है टीका, अज्ञात जैनश्रमण * टीका , आचार्य अभयदेवसूरि. अनुत्तरौपपातिकसूत्र- १३०० श्लोक प्रमाण इस सूत्र में शुद्ध चारित्र के पालन से अनुत्तर देवविमान में उत्पन्न हुए एकावतारी ३३ उत्तम पुरुषों के जीवन चरित्र हैं. प्रभु श्रीमहावीर ने स्वयं जिनकी प्रशंसा की थी और जिनके शरीर का वर्णन किया था, उस धन्न कांकंदी महामुनि की कठोर तपस्या का रोमांचक वर्णन है. जिसके कारण उनकी काया हाडपिंजर हो गई थी. अनुत्तरौपपातिकदशासूत्र पर उपलब्ध विवरण निम्नलिखित हैं अनुत्तरौपपातिकदशांगसूत्र-टीका , आचार्य अभयदेवसूरि प्रश्नव्याकरणसूत्र- १२५० श्लोक प्रमाण हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन व परिग्रह इन पांच महापापों का वर्णन और इन पापों के त्याग रूप पांच महाव्रतों का स्वरूप इस आगम में निरूपित है. पूर्वकाल में इसमें मन्त्र-तन्त्र विद्या, अतिशय संबंधी अनेक बातें और भवनपति आदि देवों के साथ बात करने व भूत भावी जानने की मान्त्रिक पद्धतियों का वर्णन है. प्रश्नव्याकरण सूत्र पर उपलब्ध विवरण इस प्रकार है टीका, आचार्य अभयदेवसूरि * टीका, आचार्य ज्ञानविमलसूरि विपाकसूत्र - ११६७ श्लोक प्रमाण इस सूत्र में अज्ञानावस्था में हिंसादि द्वारा भयंकर पाप कर्म के फलस्वरूप परभव में असह्य पीड़ा भोगने वाले महापापी आत्माओं के चरित्र का और धर्म की उत्तम आराधना से परभव में उत्कृष्ट सुख भोगने वाले १० धर्मी आत्माओं के चरित्र का वर्णन है. मृगापुत्र (लोढियो) तथा महामुनि सुबाहु के प्रसंग अद्भुत है. विपाकसूत्र पर उपलब्ध विवरण इसप्रकार है विपाकसूत्र-टीका, आचार्य अभयदेवसूरि उपांगसूत्र औपपातिकसूत्र- ११६७ श्लोक प्रमाण यह आचारांगसूत्र का उपांग है. देव नारकी के उपपात-जन्म, मोक्ष-मन इत्यादि मुख्य विषय निरूपित हैं. श्रेणिक महाराज की प्रभु महावीर को वंदनार्थ जाने की अपूर्व तैयारियाँ, श्रेणिक द्वारा किया गया प्रभु का स्वागत (सामैया), अंबड तापस का ७०० शिष्यों सहित जीवन प्रसंग, केवली समुद्धात व मोक्ष का रोमांचक वर्णन इसमें संगृहित है. औपपातिकसूत्र पर उपलब्ध विवरण इस प्रकार है औपपातिकसूत्र-टीका, आचार्य अभयदेवसूरि राजप्रश्नीयसूत्र-२१२० श्लोक प्रमाण यह सूत्रकृतांगसूत्र का उपांग है. प्रदेशी राजाने जीवन संबंधी की गई शोध-परीक्षा, केशी गणधर द्वारा धर्मबोध, उनका समाधिमय मृत्यु, सूर्याभदेव के रूप में उत्पति, समवसरण में किये गये ३२ नाटक, भगवान महावीर को पूछे गये नास्तिकवाद के ६ गूढ प्रश्नों का तार्किक निराकरण इत्यादि इस आगम में वर्णित है. सिद्धायतनी १०८ जिन प्रतिमाओं का वर्णन भी मिलता है. राजप्रश्नीयसूत्र पर उपलब्ध विवरण इस प्रकार है हिस्सा आद्यपद की आद्यपदभंजिका टीका, उपाध्याय पद्मसुंदर ' टीका, आचार्य मलयगिरिसूरि 85 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक जीवाभिगमसूत्र- ४७०० श्लोक प्रमाण यह स्थानांगसूत्र का उपांग है. इसमें प्रश्नोत्तर शैली में जीव-अजीव, ढाई द्वीप, नरकावास तथा देवविमान संबंधी विशद विवेचन है. विजयदेव कृत जिनपूजा का वर्णन व अष्टप्रकारी पूजा का अधिकार अत्यंत रसप्रद है. जीवाभिगमसूत्र पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध है टीका, आचार्य मलयगिरिसूरि * लघुवृत्ति, आचार्य हरिभद्रसूरि प्रज्ञापनासूत्र- ७७८७ श्लोक प्रमाण यह समयवायांगसूत्र का उपांग है. प्रश्नोत्तर शैली के कारण इसे लघु भगवतीसूत्र भी कहा जाता है. जैन दर्शन के तात्त्विक पदार्थों का संक्षिप्त विश्वकोष माना जाता है. इसमें ९ तत्त्व की प्ररूपणा, ६ लेश्या स्वरूप, कर्म, संयम व समुद्धात आदि महत्त्वपूर्ण बातें विवेचित हैं. रत्नों का भंडार स्वरूप यह सूत्र उपांगों में सबसे बड़ा है. प्रज्ञापनासूत्र पर उपलब्ध विवरण निम्नलिखित हैं तृतीयपदसंग्रहणी की टीका, गणि कुलमंडन * टीका, आचार्य मलयगिरिसूरि * टीका, आचार्य हरिभद्रसूरि * टीका, अज्ञात जैनश्रमण. सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र- २२९३ श्लोक प्रमाण यह भगवतीसूत्र का उपांग है. खगोल विद्या की महत्त्वपूर्ण बातें इसमें संगृहित है. सूर्य-चन्द्र-ग्रह-नक्षत्र आदि की गति का वर्णन और दिन-रात-ऋतु आदि का वर्णन है. खगोल संबंधी सूक्ष्म गणित सूत्रों का खजाना है. सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध हैं सूर्यप्रज्ञप्ति-टीका, आचार्य मलयगिरिसूरि जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिसूत्र- ४४५६ श्लोक प्रमाण यह ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र का उपांग है. यह आगम मुख्य रूप से भूगोल विषयक है. कालचक्र और ६ आराओं का स्वरूप बहुत ही सुंदर ढंग से बताया गया है. उपरांत जम्बूद्वीप के शाश्वत पदार्थ, नवनिधि, मेरुपर्वत पर तीर्थंकरों के अभिषेक, कुलधर स्वरूप एवं श्रीऋषभदेव व भरत महाराजा का प्रासंगिक वर्णन है. जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध टीका, उपाध्याय धर्मसागरगणि * टीका, मुनि ब्रह्मर्षि * टीका, उपाध्याय पुण्यसागर * टीका, अज्ञात जैनश्रमण * प्रमेयरत्नमंजूषा टीका, उपाध्याय शान्तिचंद्रगणि. चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र- २२०० श्लोक प्रमाण यह उपासकदशासूत्र का उपांग है. जैन खगोल संबंधी गणितानुयोग से भरपूर है. चन्द्र की गति, मांडला, शुक्ल पक्ष | व कृष्ण पक्ष में चन्द्र की वृद्धि तथा हानि होने के कारण व नक्षत्रों का वर्णन है. वर्तमान में चन्द्र का अधिपति चन्द्रदेव है, वह पूर्वजन्म में कौन था, कैसे इस पद को प्राप्त किया इत्यादि रसप्रद बातों का वर्णन प्रासंगिक रूप से किया गया है. चंद्रप्रज्ञप्ति पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध हैं चंद्रप्रज्ञप्तिसूत्र-टीका, आचार्य मलयगिरिसूरि कल्पिकासूत्र (कप्पिआ) अन्तकृद्दशांगसूत्र का उपांग है. इसमें कोणिक राजा तथा चेड़ा राजा के साथ किए गए युद्ध का वर्णन है. जिसमें ८० करोड़ जनसंख्या की हानि हुई थी. सभी मरकर नरक गति में गए. अतः इस आगम का दुसरा नाम नरक आवली-श्रेणी पड़ा. कल्पिकासूत्र पर उपलब्ध विवरण इसप्रकार है कल्पिकासूत्र-टीका, आचार्य चंद्रसूरि कल्पावतंसिकासूत्र (कप्पवडंसिआ) यह अनुत्तरौपपातिकदशासूत्र का उपांग है. श्रेणिक महाराज के काल आदि १० 86 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक पुत्र एवं पदम-महापदम आदि १० राजकुमार पौत्रों ने परमात्मा के पास दीक्षा लेकर भिन्न भिन्न देवलोक में गए और मोक्ष में जाएँगे. उनके तप-त्याग संयम की साधना विस्तार से निरूपित की गई है. कल्पावतंसिका पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध हैं कल्पावतंसिकासूत्र-टीका, आचार्य चंद्रसूरि पुष्पिकासूत्र (पुल्फिआ) यह प्रश्नव्याकरण का उपांग है. श्रीवीरप्रभु के पास १० देव-देवी समुह अद्भुत समृद्धि के साथ वंदन करने पुष्पक विमान में बैठकर आता है. उनके पूर्वभव प्रभु श्रीगौतमस्वामी को फरमाते है. अन्य भी सूर्य-चन्द्र-शुक बहुपुत्रिका, देवी-पूर्णभद्र-माणिभद्र-दत्त-शील आदि के रोमांचक कथाएँ दी गई है. पुष्पिकासूत्र पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध हैं पुष्पिकासूत्र-टीका, आचार्य चंद्रसूरि पुष्पचूलिका (पुप्फचुलिया) यह विपाकसूत्र का उपांग माना जाता है. श्री, ह्री, धृति आदि १० देवियों के पूर्व भव सहित अनेक कथानक हैं. श्रीदेवी पूर्वभव में भूता नामक स्त्री थी. उसे श्रीपार्श्वनाथ ने निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा उत्पन्न कराया था. इत्यादि का सुंदर विवरण है. पुष्पचूलिकासूत्र पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध हैं पुष्पचूलिकासूत्र-टीका, आचार्य चंद्रसूरि वन्हिदशासूत्र (वृष्णिदशा) यह सूत्र दृष्टिवाद का उपांग रूप है. अंधक वृष्णि वंश के और वासुदेव श्रीकृष्ण के अग्रज बंधु बलदेव के निषध आदि १२ पुत्र अखंड ब्रह्मचारी बनकर प्रभु नेमनाथ के पास दीक्षा अंगीकार कर सर्वार्थसिद्ध देवलोक में जाते हैं. वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म पाकर मोक्ष में जायेंगे, इत्यादि हकीकत सुंदर शब्दों में कही गई है. वन्हिदशासूत्र पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध हैं वृष्णिदशासूत्र-टीका, आचार्य चंद्रसूरि निरयावलिकासूत्र- ११०० श्लोक प्रमाण (उपांग ८ से १२) निरयावलिका एक श्रुतस्कंध माना जाता है. जिसके अंतर्गत पांच वग्ग रूप कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका व वृष्णिदशा को पेटा विभाग माने जाते हैं. इन पांच उपांगसूत्रों का पांच वर्गों के रूप में समावेश है. समुदित ग्रंथाग्र ११०० है. अतः उपर्युक्त विवरण निरयावलिका का ही हैं. प्रकीर्णक चतुःशरण पयन्ना-६३ श्लोक प्रमाण इसमें आराधक भाव वर्धक अरिहंत-सिद्ध-साधु और धर्म रूप चार शरण की महत्ता, दुष्कृत की गर्दा एवं सुकृत की अनुमोदना खूब मार्मिक ढंग से कही गई है. १४ स्वप्न के नामोल्लेख हैं. यह सूत्र चित्त प्रसन्नता की चाबी समान है. त्रिकाल पाठ से चमत्कारिक लाभ होता है. दुसरा नाम कुशलानुबंधि भी है. आतुरप्रत्याख्यान पयन्ना- ८० श्लोक प्रमाण इस में अंतिम समय करने योग्य आराधना का स्वरूप, बाल मरण, पंडित मरण, बाल पंडित मरण, पंडित पंडित मरण का स्वरूप खूब स्पष्टता से किया गया है. दुर्ध्यान के प्रकार बताकर रोग अवस्था में किसका पच्चक्खाण करना, क्या वोसिराना, कैसी भावनाओं से आत्मा को भावित करना इत्यादि बातें अच्छी तरह समझायी गई हैं. इस पर पंचांगी में से मात्र एक ही अवचूर्णि पाई जाती है * आतुरप्रत्याख्यान प्रकीर्णक-अवचूर्णि, आचार्य गुणरत्नसूरि महाप्रत्याख्यान पयन्ना- १७६ श्लोक प्रमाण साधुओं को अन्त समय में करने लायक आराधना का वर्णन है. दुष्कृत्यों की निंदा, माया का त्याग, पंडित मरण की 87 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी 7चार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक अभिलाषा और प्रशंसा, पौद्गलिक आहार से अतृप्ति, पांच महाव्रतों का पालन और विशिष्ट आराधना इत्यादि का वर्णन किया गया है. भक्तपरिज्ञा पयन्ना- २१५ श्लोक प्रमाण इसमें चारों प्रकार के आहार का त्याग कर अनशन की पूर्ण तैयारी हेतु उपदेश है. पंडित मरण के तीन प्रकार है. १. भक्त परिज्ञा २ इंगित ३ पादपोपगमन. भक्त परिज्ञा मरण भी दो प्रकार से है. १. सविचार २ अविचार, चाणक्य के समाधि भी कही गई है. इस पयन्ना पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध हैं अवचूर्णि, अज्ञात जैनश्रमण * टीका, आचार्य गुणरत्नसूरि तंदुलवैचारिक पयन्ना- ५०० श्लोक प्रमाण यह पयन्ना वैराग्य रस का भंडार है. मनुष्य अपने १०० साल के आयुष्य के अन्दर ४,६०,८०,००००० चावल के दाने का एक वाह ऐसे साढे बाईस वाह प्रमाण आहार लेता है. उसी प्रकार दुसरी वस्तुओं का भी आहार करता है. फिर भी तृप्त नहीं होता. गर्भावस्था, जन्म की वेदना व आयु की १० प्रकार की दशाओं का वर्णन है. तंडुल-चावल खाने के विचार से इस सूत्र का नाम प्रसिद्ध हुआ है. तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक-अवचूर्णि विजयविमल गणि गणिविज्जा पयन्ना- १०५ श्लोक प्रमाण इसमें ज्योतिष संबंधी प्राथमिक ज्ञान आदि वर्णन है. दिवस, तिथि, ग्रह, मुहूर्त, शकुन, लग्न, होरा व निमित्त इत्यादि का निरूपण किया गया है. गच्छाचार पयन्न- २०० श्लोक प्रमाण इसमें राधावेध का वर्णन है. राधावेध की साधना की तरह स्थिर चित्त से आराधना का लक्ष्य रखकर सभी प्रकार की प्रवृत्ति में अध्यवसाय स्थिर करने पूर्वक मरण को सुधारने का उपदेश है. इस प्रकीर्णक पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध बृहट्टीका, गणि विजयविमल * गच्छाचार प्रकीर्णक-लघुटीका, गणि विजयविमल * टीका, वानर्षि, देवेन्द्रस्तव पयन्न- ३७५ श्लोक प्रमाण बत्तीस इन्द्रों द्वारा की गई परमात्मा की स्तवना का वर्णन है. तदुपरांत ३२ इन्द्रों के स्थान, आयुष्य, शरीर, आगम महिषी, रिद्धि, सिद्धि, पराक्रम इत्यादि का वर्णन व सूर्य-चन्द्र-ग्रह-नक्षत्र-सिद्धशिला स्वरूप सिद्धों का वर्णन इस पयन्ना में है. मरणसमाधि पयन्ना- ८३७ श्लोक प्रमाण इसमें समाधि-असमाधि मरण का विस्तृत विचार कर मरण सुधारने की आदर्श पद्धत्ति एवं मन की चंचलता, कषायों की उग्रता, वासना का प्राबल्य रोकने हेतु सफल उपाय तथा आराधक पुण्यात्माओं के अनेक दृष्टान्त हैं. संथारग पयन्ना- १५५ श्लोक प्रमाण इस पयन्ना में अंतिम संथारे का मार्मिक वर्णन है. अन्त समय की आदर्श क्षमापना विधि, पंडित मरण से प्राप्त होने वाली आत्मऋद्धि, द्रव्य और भाव संथारे का स्वरूप, एवं विषम स्थिति में भी पंडित मरण की आराधना करनेवाले महापुरुषों के चरित्र वर्णित है. संस्तारक प्रकीर्णक-टीका, आचार्य गुणरत्नसूरि छेदसूत्र दशाश्रुतस्कंध- २००० श्लोक प्रमाण 88 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपढ़ प्रदान महोत्सव विशेषांक इस सूत्र में असमाधि के २० स्थान इत्यादि अध्ययन है, इसीका ८ वां पर्युषणा अध्ययन है, जिसे कल्पसूत्र कहते है, तुर्विध संघ समक्ष धूम-धाम से व्याखान किया जाता है.२१ शब्दकोष, गुरु की ३३ आशातना, साधु श्रावक की प्रतिमा व नियाणा आदि का वर्णन है दशाश्रुतस्कन्ध पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध है नियुक्ति, आचार्य भद्रबाहुस्वामी * नियुक्ति की चूर्णि, अज्ञात जैनश्रमण * जनहिताटीका, मुनि ब्रह्मर्षि. बृहत्कल्पसूत्र- ४७३ श्लोक प्रमाण श्री बृहत्कल्पसूत्र में साधु साध्वी के मूलगुण व उत्तर गुण संबंधी प्रायश्चित का अधिकार है. उत्सर्ग और अपवाद का सूक्ष्मग्राही वर्णन है. विहार आदि में नदी पार करने में किस रीति का आचरण करना चाहिए जिसमें छद्मस्थ के अनुपयोग जन्य दोषों का शोधन निरूपित है. इस सूत्र का संकलन प्रत्याख्यान प्रवाद नामक पूर्व से किया गया है. इस पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध हैं नियुक्ति, आचार्य भद्रबाहुस्वामी * नियुक्ति की चूर्णि, अज्ञात जैनश्रमण * नियुक्ति की टीका, आचार्य क्षेमकीर्तिसूरि * भाष्य की टीका, आचार्य मलयगिरिसूरि (अपूर्ण) । चूर्णि, अज्ञात जैनश्रमण. व्यवहारसूत्र- ३७३ श्लोक प्रमाण यह दण्डनीति शास्त्र है. प्रमादादि के कराण लगे दोषों के निवारण की प्रक्रिया बतलाई गई है. आलोचना सुनने वाला और करने वाला कैसा होना चाहिए, आलोचना कैसे भावों से करनी चाहिए, किसको कितना प्रायश्चित लगता है, किसको पदवी देनी किसको नहीं, कैसै आराधकों को अध्ययन कराना व पाँच प्रकार के व्यवहार इत्यादि का वर्णन किया गया है. इस पर निम्नलिखत विवरण उपलब्ध हैं नियुक्ति, आचार्य भद्रबाहुस्वामी * टीका, आचार्य मलयगिरिसूरि जीतकल्पसूत्र-२२५ श्लोक प्रमाण जीतकल्प गंभीर सूत्र है. साधु जीवन में संभवित अतिचारों, अनाचारों के १० और १९ प्रकार के प्रायश्चितों का विधान किया गया है. समर्थ गीतार्थ गुरु भगवन्त ही इसके अधिकारी माने जाते हैं. इस ग्रन्थ पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध चूर्णि, आचार्य सिद्धसेनसूरि * चूर्णि की विषमपदव्याख्या, आचार्य चंद्रसूरि * टीका, आचार्य तिलकाचार्य निशीथसूत्र- ८५० श्लोक प्रमाण इस सूत्र में साधु के आचारों का वर्णन है. प्रायश्चित और सामाचारी विषयक बातों का भंडार है, प्रमादादि से उन्मार्गगामी साधु को सन्मार्ग में लाता है. इसका दुसरा नाम आचार प्रकल्प है. निशीथ याने मध्यरात्रि में अधिकार प्राप्त शिष्य को एकान्त में पढाने योग्य महत्त्वपूर्ण आगम ग्रन्थ है. इस पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध हैं नियुक्ति, आचार्य भद्रबाहुस्वामी * नियुक्ति की चूर्णि, गणि जिनदास महत्तर * भाष्य की विशेष चूर्णि, गणि जिनदास महत्तर. महानिशीथसूत्र- ४५४८ श्लोक प्रमाण महानिशीथ सूत्र में वर्धमान विद्या तथा नवकार मंत्र की महिमा, उपधान तप का स्वरूप, विविध तप, गच्छ का स्वरूप, गुरूकुल वास का महत्त्व, प्रायश्चित का मार्मिक स्वरूप और ब्रह्मचर्य व्रत खंडन से होने वाले दुःखों की परंपरा बताकर कर्म सिद्धांत को सिद्ध किया है. संयमी जीवन की विशुद्धि पर खूब जोर दिया गया है. मूलसूत्र आवश्यकसूत्र- १३५ श्लोक प्रमाण आवश्यक सूत्र में साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ को प्रतिदिन करने योग्य छ आवश्यक याने 89 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान • महोत्सव विशेषांक सामायिक, २४ जिनस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और पच्चक्खाण का क्रमबद्ध वर्णन है. इसमें आत्मोत्थान के लिए प्रचुर उपयोगी पदार्थ हैं. अनेकों प्रासंगिक पदार्थों का संकलन भी इस आगम में किया गया है. इस पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध है निर्युक्ति, आचार्य भद्रबाहुस्वामी निर्युक्ति की अवचूर्णि, गणि धीरसुंदर चूर्णि, गणि जिनदास महत्तर * अवचूर्णि आचार्य ज्ञानसागरसूरि * टीका, आचार्य मलयगिरिसूरि (अपूर्ण) * दीपिका टीका, आचार्य माणिक्यशेखरसूरि * लघुवृत्ति, आचार्य तिलकाचार्य * शिष्यहिता टीका, आचार्य हरिभद्रसूरि. * दशवैकालिकसूत्र- ८३५ श्लोक प्रमाण. आचार्य श्रीशय्यंभवसूरिजीने अपने पुत्र मनक मुनि का अल्प आयुष्य जानकर पूर्व में से वैराग्य रस पोषक प्रचुर मात्रा में गाथाओं को लेकर दश अध्ययन रूपी कलशों में संग्रहित किया है. जिसका अमृत पान कर श्रमण अपने संयम भाव में सहजता से स्थिर हो सके. मनक मुनि के कालधर्म के बात श्रीसंघ की विनती से आचार्यश्रीने इस आगम को यथावत् रखा. इस आगम पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध हैं * निर्युक्ति, आचार्य-भद्रबाहुस्वामी * चूर्णि, गणि-जिनदास महत्तर चूर्णि, आचार्य-अगस्तिसिंह तिलकाचार्य * दीपिका वृत्ति, उपाध्याय-समयसुंदर गणि * लघुटीका, आचार्य-सुमतिसूरि रत्नशेखरसूरि * शिष्यबोधिनी टीका, आचार्य- हरिभद्रसूरि उत्तराध्ययनसूत्र- २००० श्लोक प्रमाण. * 90 * टीका, आचार्य विवरणोद्धार, आचार्य परमात्मा श्रीमहावीर प्रभु का निर्वाण जब नजदीक आया, तब अंतिम हितशिक्षा रूप महत्वपूर्ण बातें लगातार सोलह तरह तक देशना द्वारा बताई. उन्हीं उपदेशों का संग्रह इसमें है. उस देशना में ९ मल्ली और ९ लच्छी राजा उपस्थित थे. वैराग्य, मुनिवरों के उच्च आचार, जीव अजीव, कर्मप्रकृति एवं लेश्या इत्यादि का रोचक वर्णन संगृहित है. इस पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध हैं * * निर्युक्ति, आचार्य भद्रबाहुस्वामी * चूर्णि, मुनि-गोवालियमहत्तर शिष्य * सुखबोधालघुवृत्ति, पंन्यास देवेंद्रगणी अधिरोहिणी वृत्ति, मुनि भावविजय * टीका, अज्ञात जैनाचार्य * दीपिका टीका, आचार्य जयकीर्तिसूरि * दीपिका टीका, मुनि विनयहंस * लघुटीका, अज्ञात जैनाचार्य * लेशार्थदीपिका टीका, अज्ञात जैनाचार्य * शिष्यहिता बृहद्वृत्ति, आचार्य शांतिसूरि * सर्वार्थसिद्धिटीका, उपाध्याय कमलसंयम * सुखबोधा लघुटीका, आचार्य नेमिचंद्रसूरि सुगमार्थ टीका, वाचक अभयकुशल * सूत्रार्थदीपिका टीका, गणि लक्ष्मीवल्लभ. पिण्डनिर्युक्ति- ८३५ श्लोक प्रमाण इस सूत्र में गोचरी की शुद्धि का स्पष्ट वर्णन किया गया है. संयम साधना हेतु शरीर जरूरी है. शरीर को टिकाने हेतु पिण्ड यानि गोचरी जरूरी है इसलिए साधु गोचरी वहोरने जाय, तब उद्गम, उत्पादन व एषणा के दोषों से रहित आहार पानी लाकर ग्रासेषणा के दोष का त्याग करे, इसका सुंदर निरूपण किया गया है. इस नियुक्ति पर निम्नलिखित विवरण उपलब्ध हैं दीपिका टीका, आचार्य माणेक्यशेखरसूरि * वृत्ति, आचार्य मलयगिरिसूरि * शिष्यहिता टीका, मुनि वीर गणि चूलिका सूत्र नंदीसूत्र- ७०० श्लोक प्रमाण परम मंगल रूप इस आगम में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान व केवलज्ञान इन पांचों ज्ञानों का क्रमशः वर्णन किया गया है. द्वादशांगी का संक्षिप्त वर्णन बहुत सुंदर है. अनेक उपमाओं से श्रीसंघ का वर्णन, तीर्थंकरों व गणधरों के नाम, स्थविरों के संक्षिप्त चरित्र इत्यादि संकलित है. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका, आचार्य हरिभद्रसूरि * टीका, आचार्य मलयगिरिसूरि. अनुयोगद्वारसूत्र - २००० श्लोक प्रमाण यह सूत्र भी आगम ग्रंथों की चाबीरूप है. इस आगम के अभ्यास से अन्य सभी आगमों को समझने की पद्धति ज्ञात होती है. क्योंकि पदार्थों के निरूपण की व्यवस्थित संकलना स्वरूप शैली यही इस आगम की अनूठी विशिष्टता है. अनेक महत्त्वपूर्ण व प्रासंगिक बातों पर प्रकाश डाला गया है. अनुयोगद्वारसूत्र - टीका, आचार्य हरिभद्रसूरि आगमसूत्रों पर अन्य अनेक ज्ञात अज्ञात जैनाचार्य महापुरुषों ने टीकादि साहित्य रचा है. इस प्रकार ११ अंग, १२ उपांग, १० पयन्ना, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र, २ चूलिका मिलकर ४५ आगमों का संक्षिप्त परिचय पूर्ण होता है. जैन आगम संबद्ध पारिभाषिक शब्दों का संक्षिप्त परिचय आगमः श्रुतस्कंधः अध्ययन: उद्देश: सूत्र: निर्युक्तिः चूर्णि: भाष्यः टीका: छेदसूत्रः तीर्थंकर परमात्मा की मौलिकवाणी. किसी भी आगम का मुख्य विभाग. श्रुतस्कंध का उपविभाग. पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक अध्ययन का उपविभाग. उद्देश का उपविभाग. आगमग्रन्थों पर चौदह पूर्वधर समर्थ श्रुतधर आचार्य भगवंतों की प्राकृत भाषाबद्ध पद्यमय व्याख्या, जिसमें शब्दों के व्युत्पत्ति अर्थों की प्रधानता होती है.. आगमसूत्रों पर गुरुपरंपरागत अर्थों का संकलन-विवेचन. गीतार्थ पुरुषों द्वारा संगृहित आगमिक परंपरा का संकलन. समर्थ ज्ञानी आचार्यों द्वारा की गई संस्कृत प्रधान व्याख्या. अत्यन्त गंभीर व गूढार्थवाले आगमसूत्र. काठमांडू- नेपाल-हरिद्वार व गोवा की भूमि पर सैंकड़ों वर्षों के बाद जिनमंदिर की स्थापना व प्रतिष्ठा करने वाले आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी के चरणारविन्द में वन्दनावली । 91 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक महान ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय. मनोज र. जैन १. उपदेशमाला - श्रीमहावीर प्रभु के हाथों दीक्षित बने श्रीधर्मदास गणि द्वारा निर्मित. धर्मदास गणि तीन ज्ञान के धारक थे. इस में २५० विषयों पर उपदेश संगृहीत है. अपने लिये यह ग्रंथ इतना मूल्यवान है कि स्वाध्याय न करने पर अतिचार लगता है. ग्रंथ में रहे उपदेशों का महत्त्व दो वाक्यों में कैसे समझाया जा सकता है. ग्रंथकार ने स्वयं गाथा ५३४ में कहा है कि यह ग्रंथ पढ लेने पर भी जिसको धर्म में उद्यम करने का मन नहीं होता वह अनन्त संसारी है, यही एक कथन इस महान ग्रंथ के लिये पर्याप्त है. आगमों की पंक्ति में रखने योग्य इस ग्रंथ का जीवन में कम से कम एक बार अध्ययन करना अनिवार्य है. २. प्रशमरति- जैन शासन के पदार्थों का संकलन करने वाला यह ग्रन्थ २२ अधिकार व ३६३ श्लोक प्रमाण है. पूज्य वाचकवर्य उमास्वातिजी महाराज द्वारा रचित है. इसमें दर्शन शास्त्र की चर्चाएं, कषाय विजय के उपाय, इन्द्रिय स्वरूप, गुरुकुलवास, विनय, १२ भावना, १० विध यतिधर्म, सम्यग्दर्शन स्वरूप, ध्यान और मुक्त अवस्था स्वरूप इत्यादि पदार्थों को प्रस्तुत किया गया है. अल्प शब्दों में भरपुर पदार्थ कहने की दक्षता तो सचमुच वाचकवर्य की ही कह सकते हैं. ३. तत्त्वार्थसूत्र (तत्त्वार्थाधिगमसूत्र) - कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य ने अपने सिद्धहेम व्याकरण में उपोमास्वाति संग्रहीतास कहकर सर्वश्रेष्ठ संग्रहकार के रूप में संबोधित किया है. उमास्वातिजी ने १० अध्याय और २ कारिकाओं से अलंकृत इस ग्रन्थ में जैन धर्म के तत्वज्ञान का संग्रह वैज्ञानिक रीति से किया है. इसी एक ग्रन्थ से जैन तत्वज्ञान विषयक संपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं. सम्यग्दर्शन की मुख्यता पूर्वक मोक्षमार्ग के वर्णन के साथ जीवादि तत्व. ७ नय, औपशमिकादि भाव. नारकी. द्वीप समुद्र, देव, धर्मास्तिकायादि अजीव, आश्रव, पांच व्रत, भावना, कर्मबंध के कारण, कर्मस्वरूप, संवर, तप और मोक्ष आदि पदार्थों का रोचक वर्णन किया गया है. ४. द्वादशार नयचक्र - आचार्य श्रीमल्लवादिसूरिजी ने मात्र १ श्लोक के आधार से १०००० श्लोक प्रमाण इस ग्रन्थ की रचना की है. जिसमें विधि, विधिनिधि, विद्युभय, विधिनियम, उभय, उभयविधि, उभयोभय, उभयनियम, नियम, नियमविधि, नियमोभय व नियमनियम इस प्रकार भिन्न भिन्न प्रकार से ७ नयों का १२ आरास्वरूप अध्यायो में विस्तार से निरूपण है. ५. श्रावक प्रज्ञप्ति - उमास्वातिजी द्वारा रचित इस ग्रन्थ में ४०५ श्लोक हैं. श्रावक धर्म का प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थों में यह सब से प्राचीन और प्रमाणभूत है. जिसमें सम्यक्त्व का स्वरूप-नयतत्त्व का स्वरूप-कर्म के भेद, श्रावक के १२ व्रत और श्रावक योग्य सामाचारी इत्यादि का विशद् वर्णन किया गया है. ६. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका - पूज्य आचार्य सिद्धसेन दिवाकरसूरि विरचित यह ग्रन्थ वर्तमान में संपूर्ण रुप से उपलब्ध नहीं होता है. मात्र २१ द्वात्रिंशिका उपलब्ध है. भिन्न-भिन्न विषयों को समेटते इस ग्रंथ में अनेक मतों की समीक्षा, वादोपनिषद्, वाद, वेदवाद, गुणवचन, उपाय, सांख्यप्रबोध, वैशेषिक, बौद्ध संताना, नियति, निश्चय, दृष्टि व महावीर संबंधी पदार्थों की प्रस्तुति बडी रोचकता से की गई है. ७. संमतितर्क प्रकरण - पू. आ. सिद्धसेन दिवाकरसूरि द्वारा रचा गया यह प्रकरण द्रव्यानुयोग का सर्वोत्तम ग्रन्थ माना जाता है. परिकर्मित मतिमान के लिए ही यह प्रकरण वाच्य बनता है. जिसके द्वारा सम्यक्त्व याने शुद्ध मति प्राप्त होती हो. ऐसे तर्क का वर्णन जिसमें हो उसका नाम संमतितर्क प्रकरण है. ग्रथ का मुख्य विषय अनेकान्तवाद से संबद्ध है. परन्तु वह एकान्त के निरसन द्वारा ही शक्य होने से मूलग्रंथ में न्याय-वैशेषिक-बौद्ध इत्यादि दर्शनों की समीक्षा की गई है. तदुपरांत द्रव्यार्थिकादि नय, सप्तभंगी व ज्ञान दर्शन के भेदवाद आदि जैन दर्शन के अनेक विषयों की महत्त्वपूर्ण चर्चा 92 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक प्रस्तुत की है. ८. पउमचरियं - आ. विमलसूरिजी द्वारा वि. सं.६० में रचित इस ग्रंथ में पद्म अर्थात् दशरथ पुत्र राम का चरित्र मुख्य रूप से वर्णित है. राम, सीता, जनक, दशरथ, रावण इत्यादि पात्रों के वर्णन के साथ सम्पूर्ण रामायण का वर्णन है. प्रासंगिक अनेक विषयों का भी समावेश किया गया है. ९. शत्रंजय माहात्म्य - श्रीहंसरत्न मनिद्वारा रचित एवं १५ अधिकारों में विभक्त यह ग्रन्थ शाश्वत गिरिराज श्रीशत्रुजय के माहात्म्य को उजागर करता है. पर्वत के एक-एक कंकर के जितने जहाँ अनन्त आत्माएँ सिद्ध हुई हैं ऐसे गिरिराज के माहात्म्य के साथ ही गिरिराज के १६ बार उद्धार किस-किसने कब-कब किया, इत्यादि का वृतान्त दिया गया है. साथही उन अनेक राजाओं के जीवन चरित्र भी वर्णित हैं जिन्होंने गिरिराज पर अनशन द्वारा मोक्ष प्राप्त किया. हम भी भावोल्लास से गिरिराज की यात्रा कर सकें, इसलिए इस ग्रंथ का अवगाहन करना आवश्यक है. १०. पंचसंग्रह - चन्द्रर्षि द्वारा रचित यह ग्रन्थ दो विभागों में उपलब्ध है. प्रथम में योग-उपयोग का स्वरूप, जीवस्थानकों में भिन्न-भिन्न द्वारों का स्वरूप, आठ कर्म, कर्म के १५८ उत्तरप्रकृति स्वरूप, ध्रुवबंधी-अधूबंधी प्रकृति स्वरूप, साद्यादि प्ररूपणा व गुणश्रेणी इत्यादि पदार्थों का वर्णन मिलता है. दूसरे में करणों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है. इसके विषय लगभग कम्मपयडी के समान ही हैं. ११.बृहत्संग्रहणी - श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित इस ग्रंथ में चार गति में रहे हुए जीवों का स्वरूप निरुपित है. जीवो के आयु, शरीर, वर्ण, अवगाहना, गति, आगति, विरह काल, लेश्या इत्यादि अनेक द्वारों का विस्तार से वर्णन है. रचयिता ने मात्र ३६७ गाथाओं में जीवतत्त्व की विचारणा-अनुप्रेक्षा कर सके ऐसा निरुपण किया है. १२. बृहत्क्षेत्र समास - श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित इस ग्रंथ में तिर्छालोक के स्वरूप का ५ अधिकारों में वर्णन किया गया है. प्रथम अधिकार में जम्बूद्वीप और सूर्य-चन्द्रादिक की गति का वर्णन. दुसरे में लवण समुद्र का, तीसरे में घातकी खंड का, चौथे में कालोदधि समुद्र का व पांचवें में पुष्करावर्त द्वीप और प्रकीर्णाधिकार में शाश्वत जिन चैत्यों का वर्णन कुल ६५५ गाथाओं में किया गया है. १३. ध्यानशतक - पू. जिनभद्रसूरिजी महाराज ने ध्यान विषयक बातें मात्र १०५ गाथाओं में निबद्ध कर इस ग्रन्थ की रचना की है. पूज्य हरिभद्रसूरिजी महाराज ने इसकी टीका की है. ध्यान ही मोक्ष का श्रेष्ठ कारण है, साधना में बाधक कौन सा ध्यान हैं यह जानकर उनका त्याग करना, आवश्यक साधक ध्यान बारह प्रकार के द्वारों से समझना, ध्यान के अधिकारी कौन है? ध्यान कब करना चाहिए? आदि विषयों का विवेचन विस्तार पूर्वक किया गया है. __१४. पंचसूत्र - इस दुःखरूपी संसार से बचने के लिए क्या करें ? कहाँ जाएँ ? दुःख कभी आये नहीं, सुख कभी जाये। नहीं - ऐसी हार्दिक इच्छा का उत्तर इस ग्रंथ में है. १५. अनेकान्त जयपताका - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी द्वारा रचित. इस में अनेकान्तवाद का स्वरूप वर्णित है. भेद-अभेद, धर्म-अधर्म, एक-अनेक, सत-असत्, इत्यादि का विभाग कर, उसे अनेकान्तवाद का स्वरूप कहकर उन्हें एक वस्तु में घटित करने का प्रयास किया गया है. चार अधिकारों में अनेक विषयों पर प्रकाश डालने वाला यह महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है. ___१६. उपदेशपद - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी द्वारा रचित यह ग्रन्थ दो विभागों में विभक्त है. जिसमें दृष्टान्त पूर्वक मनुष्य की दुर्लभता, विनय, चार प्रकार की बुद्धि का स्वरूप, मिथ्यात्व, चारित्र के लक्षण, उचित प्रवृत्ति का फल, वैयावच्च का फल, मार्ग का बहुमान तथा स्वरूप इत्यादि विषय और शुद्ध आज्ञायोग का महत्त्व, स्वरूप, उसके अधिकारी, देवद्रव्य का स्वरूप, उसके रक्षण का फल, महाव्रतों का स्वरूप, गुरुकुलवास का महत्त्व, जयणा का स्वरूप व फल आदि विषय दृष्टान्त द्वारा अनुठी शैली में वर्णित है. १७. ललितविस्तरा - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी द्वारा रचित यह ग्रंथ अत्यन्त प्रभावशाली है. महाबुद्धिशाली जीवों को आकृष्ट करने में समर्थ इस ग्रंथ के अध्ययन से बौद्धमत से प्रभावित प्रतिभाशाली सिद्धर्षि गणी जैन धर्म में पुनः स्थिर हुए 93 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक थे. इस में चैत्यवंदन के सूत्रों का अर्थ के साथ अरिहंतों के स्वरूप, शुभानुष्ठान करने की विधि और अनेक दर्शनों का वर्णन किया गया है. चैत्यवंदन करने वालों को एक बार यह ग्रंथ अवश्य पढ लेना चाहिए. १८. धर्मसंग्रहणी - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी रचित इस सूत्रग्रंथ के टीकाकार आ. श्रीमलयगिरिसूरिजी हैं. इस ग्रंथ में तीर्थंकर परमात्मा की महत्ता, धर्म के दो प्रकार, नास्तिकवाद का खंडन, आत्मा की सिद्धि पूर्वक अन्य मतों का खंडन, जैनागमों का प्रामाण्य, जगत्कर्तृत्वरास, एकान्त पक्ष-स्वभाव का खंडन व आत्मा शरीर प्रमाण है, ज्ञान शक्ति युक्त है इत्यादि का दार्शनिक विवेचन किया गया है. १९. पंचवस्तु - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी ने इस ग्रंथ में श्रमण जीवन का विस्तार से वर्णन किया है. १७१४ गाथा प्रमाण ग्रन्थ में प्रव्रज्या ग्रहण करने योग्य कौन और दीक्षा देने योग्य गुरु कैसे, साधु जीवन में प्रतिदिन कौन सी आराधना कैसे करे, किस भाव से करें, जीवन के अन्त में संलेखना करने का अधिकार किसे है, संलेखना कैसे करें आदि का पक्ष-प्रतिपक्ष द्वारा रोचक ढंग से वर्णन किया गया है. २०. पंचाशक- आ. हरिभद्रसूरिजी द्वारा रचित यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत में है. जिस में १९ पंचाशक है. इस ग्रंथरत्न में जैन आचार और विधिविधान के संबंध में अनेक गंभीर प्रश्नो को उपस्थित कर सुन्दर ढंग से समाधान किया गया है. २१. विंशतिविंशिका - आगमोक्त अनेक पदार्थों को समाविष्ट करता यह ग्रन्थ २०-२० श्लोक प्रमाण २० विंशिकाओं में विभक्त है, चरम पुदगल परावर्त का स्वरूप, सद्धर्म का स्वरूप, श्रावक धर्म, श्रावक प्रतिमा, यति धर्म की शिक्षा, भिक्षा योग व सिद्धिसुख इत्यादि पदार्थों का संक्षेप में वर्णन किया गया है. २२. योगशतक - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी द्वारा रचित यह ग्रन्थ योग के स्वरूप को समझाने वाला १०० गाथा प्रमाण है. योग के माध्यम से आत्मा का विकास किस प्रकार करे, आत्मा को मोक्ष के साथ योजित करना ही योग है, निश्चययोग और व्यवहारयोग की व्याख्या, चार प्रकार के योग के अधिकारी जीवों की व्याख्या, त्रिविधयोग शुद्धि की विचारणा, भय, रोग-विष के उपाय, कर्म का स्वरूप, राग-द्वेष-मोह का स्वरूप और उसके विनाश हेतु प्रतिपक्षी भावनाओं का चिन्तन, शुक्लाहार का वर्णन, मरणकाल को जानने के उपाय, मृत्युकाल जानकर सर्वभावों का त्याग पूर्वक अनशन विधि का आचरण, मुक्तिपद की प्राप्ति के उपाय आदि का सुन्दर शैली में वर्णन किया गया है. __२३. योगदृष्टि समुच्चय - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी रचित योगदृष्टि समुच्चय जैन योग की महत्त्वपूर्ण रचना मानी जाती है. योग की तीन भूमिकाओं- दृष्टियोग, इच्छायोग और सामर्थ्ययोग तथा योग के अधिकारी के स्वरूप- गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी व सिद्धयोगी इन चार प्रकार के योगियों का विस्तृत वर्णन किया गया है. २४. षड्दर्शन समुच्चय - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी रचित इस ग्रन्थ में भारतीय संस्कृति में प्रसिद्ध ६ दर्शनों की परिभाषा संक्षेप में प्रस्तुत की गई है. किसी भी दर्शन पर पक्षपात किये बिना प्रत्येक दर्शन के तत्वों का सरल भाषा में वर्णन किया गया है. देवता, पदार्थ व्यवस्था एवं प्रमाण व्यवस्था इन मुख्य तीन भेदक तत्त्वों द्वारा छः दर्शनों की मान्यताओं का विवेचन किया गया है. २५. षोडशक प्रकरण - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी रचित इस ग्रंथ में १६-१६ गाथा प्रमाण १६ प्रकरण है. प्रत्येक प्रकरण में विषय को संपूर्ण रूपेण न्याय देने का प्रयत्न किया गया है. सद्धर्मपरीक्षक, देशना की विधि, धर्म के लक्षण, धर्म के लिंग, लोकोत्तर तत्त्व की प्राप्ति, जिनभवन करण, जिनबिंब करण, प्रतिष्ठाविधि, पूजा, सदनुष्ठान की प्राप्ति इत्यादि अनेक पदार्थों का निरुपण करते हुए कहा है कि प्रत्येक हितकांक्षी आत्माओं को धर्म श्रवण में सतत प्रयत्न करना चाहिए. २६. सम्यक्त्व सप्तति - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी ने इस प्रकरण में ६७ स्थानों की विचारणा १२ अधिकारों में की है. सम्यक्त्व के स्थानों का वर्णन करने से पहले अयोग्य को अदेय मानकर सर्वप्रथम उसके अधिकारी का वर्णन किया गया । 94 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक २७. कवलय माला- उद्योतनसूरिजी म. ने इस ग्रंथ की रचना वि. ८३५ में की है. प्राकृत कथा साहित्य में यह ग्रन्थ आभूषण रुप है. इस ग्रंथ में कथाओं के माध्यम से क्रोधादि छः अन्तर्शत्रुओं का विस्तृत वर्णन किया गया है. २८. चेइयवंदण महाभाष्य(चैत्यवंदन महाभाष्य) - वादिवैताल शान्तिसूरिजी म. द्वारा रचित ८७४ गाथा प्रमाण इस ग्रन्थ में चैत्य अर्थात जिनमंदिर संबंधी विधि विस्तार पूर्वक वर्णित है. चैत्यवंदन करने का उद्देश्य, चैत्यवंदन के अधिकारी, वंदन काल, द्रव्यवंदन-भाववंदन के लक्षण इत्यादि का वर्णन प्ररूपित है. २९. उपमितिभवप्रपंच कथा-सिद्धर्षि गणि ने इस ग्रंथ की रचना वि. सं. १२०० में की. जगत के बाह्य और अभ्यन्तर दो प्रकार सभी को अनुभव में आते हैं. अंतरंग जगत अपने पास होते हुए भी उसे देखने व जानने का प्रयत्न कोई नहीं करता है. अंतरंग दुनिया में क्या है, किस प्रकार के भाव इसमें निहित हैं, क्रोधादि भाव से आत्मा कैसे दुखी होती है, क्षमादि के संग आत्मा किस प्रकार सुखी होती है इत्यादि का कथाओं के माध्यम से वर्णन किया गया है. ३०. योगशास्त्र - कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य रचित १२ प्रकाश-विभागों में विभक्त यह ग्रन्थ १००९ मूल श्लोक और टीका सहित १२००० श्लोक प्रमाण है. इस ग्रंथ में योग के द्वारा होने वाले लाभों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है. यदि आत्मिक गुणों का विकास करना हो, आरधना का सरल मार्ग चुनना हो, सम्यग्दर्शन प्राप्त करना हो, वैराग्य को मजबूत करना हो, संसार का स्वरूप समझना हो, कषायों को जीतना हो, इन्द्रियों को वश में करना हो, मन पर काबू करना हो, ममत्व को त्यागना हो, समत्व को धारण करना हो, ध्यान करने के लिए गुण प्राप्ति करना हो या धर्म-शुक्ल ध्यान में आरूढ होना हो तो इस ग्रंथ का अध्ययन करना लाभदायी सिद्ध होगा. ३१. त्रिशष्टिशलाका पुरूष चरित्र महाकाव्य - कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी ने कुमारपाल महाराजा की विनती से ३६ हजार श्लोक प्रमाण इस महाकाव्य की रचना की है. इसमें २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ वासुदेव, ९ प्रतिवासुदेव, ९ बलदेव एवं ९ प्रतिबलदेव सहित ६३ उत्तम पुरुषों के जीवन चरित्र का वर्णन सुन्दर उपदेश सहित किया गया है. १० पर्व एवं एक परिशिष्ट पर्व जिसमें भगवान महावीर देव की परम्परा के महापुरुषों का जीवन चरित्र व इतिहास संकलित ३२. जीवसमास प्रकरण - मलधारी हेमचन्द्रसूरिजी म. ने २८७ गाथा प्रमाण इस ग्रंथ में षड्द्रव्यों का वर्णन अनेक द्वारों से संक्षेप में किया है. जीवादि तत्त्व जानने का प्रयोजन व फल का निरुपण उपसंहार में किया गया है. ३३. प्रवचन सारोद्धार - आ. नेमिचन्द्रसूरिजी रचित यथा नाम तथा गुण वाले इस ग्रन्थ में जैन शासन के सारभूत पदार्थों का वर्णन किया गया है. चैत्यवंदन, अरिहंत परमात्मा, मुनि भगवंत, पांच प्रकार के चैत्य आदि पदार्थ भिन्न-भिन्न द्वारों से प्रस्तुत किये हैं. अन्य भी प्रायश्चित सामाचारी, जात-अजात, कल्प-दीक्षा, योग्य-अयोग्य-संलेखना-भाषा के प्रकार इत्यादि का संकलन है. ३४. प्रभावक चरित्र - आ. श्रीप्रभाचन्द्रसूरिजी ने इस ग्रन्थ में प्रभावक महापुरूषों का जीवन चरित्र सुन्दर ढंग से संकलित किये है. वज्रस्वामी प्रमुख महापुरुषों के जन्म से लेकर कालधर्म तक के वृतान्त अद्भुत मांत्रिक बातों से परिपूर्ण एवं रोचक है. ३५. हितोपदेशमाला - आ. प्रभानन्दसूरिजी द्वारा रचित इस ग्रंथ में सुविशुद्ध सम्यक्त्व, उत्तम गुणों का संग्रह, देशविरति तथा सर्वविरति इन चार गुणों में प्रबल पुरुषार्थ करना ही श्रेष्ठ मार्ग है, इत्यादि औपदेशिक बातों का वर्णन किया गया है. ३६. वीतराग स्तोत्र - कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी ने कुमारपाल महाराजा की विनती से उनके स्वाध्याय हेतु इस ग्रन्थ की रचना की थी. परमात्मा के स्वरूप, अतिशय आदि अलौकिक बातों का वर्णन २० विभागों में वर्णित है. ३७. आचार दिनकर - आ. वर्धमानसूरि रचित इस ग्रन्थ के दो विभाग है. प्रथम में श्रावक योग्य १६ संस्कारों का वर्णन व दुसरे में यति आचारन्तर्गत योग-पदवी-व्याख्यान-संलेखना तथा प्रतिष्ठा संबंधी विधि-पूजन, विद्यादेवी, लोकांतिक 95 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक देव-इन्द्र-यक्ष आदि का वर्णन तथा प्रायश्चित्त विधि का वर्णन है. ३८. अध्यात्मकल्पद्रुम - आ. मुनिसुन्दरसूरिजी द्वारा रचित इस ग्रंथ में समता का स्वरूप क्या है, स्त्री-पुत्र-धन-शरीर पर से ममता कैसे छूटे, विषय-प्रमाद, कषायों का निग्रह कैसे हो, चार गति का स्वरूप, शास्त्र के गुण क्या है इत्यादि का वर्णन बड़ा प्रभाव पूर्ण है. वैराग्य प्रतिपादन हेतु उत्तम ग्रंथरत्न है. ३९. समरादित्यकथा - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी द्वारा रचित यह धर्मकथा के साथ-साथ प्राकृत भाषा का विशाल ग्रंथ है. इसमें ९ प्रकरण हैं जो ९ भवनाम से कहे गये हैं. इस कथाग्रंथ में दो ही आत्माओं का विस्तृत एवं सरल वर्णन है. वे हैं - उज्जैन नरेश समरादित्य और उन्हें अग्नि द्वारा भस्मसात् करने में तत्पर गिरिसेन चाण्डाल. एक अपने पूर्व भवों के पापों का पश्चाताप, क्षमा, मैत्री आदि भावनाओं द्वारा उत्तरोत्तर विकास करता है और अन्त में परमज्ञानी और मुक्त हो जाता है, तो दूसरा प्रतिशोध की भावना लिए संसार में बुरी तरह फँसा रहता है. इस कथानक के माध्यम से जन्म-जन्मांतर के कर्मों के फल कैसे पीछा करते हैं, इसका वर्णन किया गया है. ___४०. धर्मसंग्रह - उपाध्याय मानविजयजी कृत यह ग्रन्थ साधु एवं श्रावकोपयोगी है. इसके अन्दर चरण, करणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग के विषय संकलित हैं. संस्कृत व प्राकृत भाषा में रचित यह ग्रन्थ तीन अधिकारों में विभाजित है. ४१. धर्मरत्न प्रकरण - आ. शान्तिसूरि द्वारा रचित इस ग्रन्थ में श्रावकों के लिए आराधनामूलक विषयों का संकलन किया गया है. यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है तथा इसके ऊपर संस्कृत में टीका तथा गुजराती व हिन्दी में कई अनुवाद, विवेचन प्रवचन आदि किए गए हैं. ४२. द्रव्यसप्ततिका - उपाध्याय लावण्यविजयजी के द्वारा रचित इस ग्रन्थ में देवद्रव्यादि सात क्षेत्रों में द्रव्य व्यवस्था का सुन्दर निरूपण किया गया है. यह श्रीसंघों की पेढ़ी में रखने योग्य ग्रन्थ है, जिससे देव द्रव्यादि के सम्बन्ध में मार्गदर्शन प्राप्त हो सके. यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है तथा इसके ऊपर संस्कृत में टीका तथा गुजराती में कई अनुवाद, विवेचन आदि उपलब्ध हैं. ____४३. वसुदेवहिंडी - श्री संघदासगणि द्वारा रचित इस ग्रन्थ में प्राचीन महापुरुषों के चरित्र का वर्णन विस्तार के किया गया है. इसका प्रधान विषय धर्मकथानुयोग है. ऐतिहासिक तथ्यों से परिपूर्ण यह ग्रन्थ अध्येताओं के लिए पूरक माहितियों का खजाना है. यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है तथा इसके ऊपर संस्कृत में टीका तथा गुजराती व हिन्दी में अनुवाद आदि उपलब्ध हैं. ४४. शास्त्रवार्ता समुच्चय - आचार्य हरिभद्रसूरिजी कृत इस ग्रन्थ में दर्शनों का स्याद्वाद से मिलान व समन्वयकारी तत्वों का विश्लेषण किया गया है. यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है तथा इसके ऊपर संस्कृत में छाया तथा गुजराती व हिन्दी में कई अनुवाद आदि उपलब्ध हैं. ___४५. भूवलय ग्रन्थ - इस ग्रंथ की रचना आचार्य श्री कुमुदेन्दु स्वामी ने ईस्वी सन् की आठवीं शताब्दी में की थी. हालांकि आचार्य कुमुदेन्दु ने ग्रंथ के मूल कर्ता बाहुबली को ही माना है. भरत बाहुबली युद्ध के बाद जब बाहुबली को वैराग्य हो गया, तब उन्होंने ज्ञानभंडार से भरे हुए इस काव्य को अन्तर्मुहुर्त में भरत चक्रवर्ती को सुनाया था. वही काव्य परम्परा से आता हुआ गणित पद्धति अनुसार अंक दृष्टि से कुमुदचन्द्राचार्य द्वारा चक्रबंध रूप में रचा गया है. पूर्वाचार्यों के समान इन्होंने ४६ मिनट में ग्रंथ को रचना की है, ऐसा व्यपदेश किया गया है. ७१८ भाषा, ३६३ धर्म तथा ६४ कलादि अर्थात तीन काल तीन लोक का, परमाणु से लेकर बृहद्ब्रह्माण्ड तक और अनादि काल से अनन्त काल तक होने वाले जीवों की संपूर्ण कथाएँ अथवा इतिहास लिखने के लिये प्रथम नौ नम्बर (अंक) लिया गया है. संपूर्ण भूवलय ग्रंथ की रचना ६४ अक्षरों में ही हुई है. इस भूवलय को गणित शास्त्र के आधार पर लिखा गया है. इस ग्रंथ में विश्व की समस्त भाषाओं यानी ७१८ भाषाओं का नामोल्लेख किया गया है, जिनमें १८ मुख्य भाषा एवं ७०० अन्य भाषाएँ हैं. मुख्य अठारह भाषाओं में प्राकृत, संस्कृत, द्रविड, अन्ध्र, महाराष्ट्र, मलयालम, गुर्जर, अंग, कलिंग, काश्मीर, कम्बोज, 96 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक हमीर, शौरसेनी, बाली, तिब्बति, व्यंग, बंग, ब्राह्मी, वजयार्ध, पद्म, वैदर्भ, वैशाली, सौराष्ट्र, खरोष्ट्री, निरोष्ट्र, अपभ्रंश, पैशाचिक, रक्ताक्षर, अरिष्ट, अर्धमागधी आदि. इस प्रकार आने वाली भाषा व लिपियों को एक ही अंकलिपि में बांधकर उन सम्पूर्ण भाषाओं को इस कोष्टक रूप बंधाक्षर के अन्तर्गत समाविष्ट करके सभी कर्माटक के अनुराशि में मिश्रित कर छोड़ दिया है. __ आज अनेक मुनि-तपस्वी-चिंतक-विद्वान इस महान ग्रंथ को पढने की शैली विकसित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं. यदि सम्पूर्ण ग्रंथ को पढने की कला विकसित हो गई तो आज जो विज्ञान अनेक प्रकार की शोध-खोज में लगा है उसमें सहायक सिद्ध होगा. ४६. श्राद्धविधि प्रकरण - आ. रत्नशेखरसूरिजी कृत इस ग्रन्थ में श्रावक जीवन हेतु अत्यन्त उपयोगी मार्गदर्शन किया गया है. यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है तथा इसके ऊपर संस्कृत में छाया, मारुगुर्जर में टबार्थ तथा गुजराती व हिन्दी में कई अनुवाद आदि उपलब्ध हैं. ४७. वास्तुसार प्रकरण - ठक्कुर फेरू द्वारा रचित इस ग्रन्थ में देवालय, प्रासाद आदि के निर्माण से संबंधित शास्त्रीय निर्देश दिए गए हैं. यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है तथा इसके ऊपर गुजराती व हिन्दी में अनुवाद आदि उपलब्ध हैं. ४८. रत्नपरीक्षा - ठक्कुर फेरू कृत यह ग्रन्थ १४ सदी की रचना है. इस के अंदर रत्नो का परिचय तथा उससे संबंधित अन्य उपयोगी बातों का वर्णन किया गया है. यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है तथा हिन्दी में अनुवाद भी उपलब्ध है. ४९. बारभावना - उपाध्याय विनयविजयजी कृत शान्त सुधारस ग्रन्थ में वर्णित बार भावना मैत्री आदि चार भावनाओ का गेयात्मक सुंदर उपदेश दिया गया है. अध्यात्म जीवन हेतु इससे उपयोगी मार्गदर्शन मिलता है. इस ग्रन्थ पर गुजराती भाषा में श्री मोतीचंद गिरधरलाल कापडिया का सरल व ग्राह्य विवेचन भी उपलब्ध है. ५०. द्रव्यगुणपर्याय रास - उपाध्याय यशोविजयजी कत द्रव्यानयोग का देशी भाषाबद्ध अद्वितीय ग्रंथराज है. जैन तत्वदर्शन को जानने के लिए यह अद्वितीय ग्रंथ है. यह ग्रन्थ मारुगुर्जर भाषा में है तथा इसके ऊपर मारुगूर्जर में टबार्थ व गुजराती में अनुवाद भी उपलब्ध है. वर्तमान में इस आकर ग्रन्थ पर गणिवर्य श्री यशोविजयजी द्वारा संस्कृत में प्रौढ़ टीका का निर्माण हो रहा है. ५१. ओसवाल जाति का इतिहास - ओसवालो की उत्पति के विषय में वैविध्य सभर माहितीयों का खजाना इसमें दिया गया है. यह ग्रन्थ हिन्दी भाषा में है. ५२. बृहत्संग्रहणी - आचार्य चंद्रसूरिजी कृत इस ग्रन्थ में जैनभूगोल विषयक संपूर्ण मार्गदर्शन प्राप्त होता है. जैन शाश्वत पदार्थों का यह अद्भुत ग्रन्थ है. यह मूल प्राकृत भाषा में है तथा इसके ऊपर संस्कृत में टीका, अवचूरि, छाया तथा गुजराती व हिन्दी में कई अनुवाद आदि उपलब्ध हैं. ५३. क्षेत्रसमास - जैन भूगोल के पदार्थों का सुंदर वर्णन व तद्विषयक अनेक पदार्थों का वर्णन करने वाला यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में है तथा इसके ऊपर संस्कृत में छाया और गुजराती में अनुवाद भी उपलब्ध हैं. ५४. जैन तीर्थों का परिचय - भारत के प्राचीन-अर्वाचीन जैन तीर्थों की संक्षिप्त जानकारी देनेवाला हिन्दी भाषा में दिवाकर प्रकाशन, आगरा से प्रकाशित यह ग्रन्थ सामान्य जैन गृहस्थों के लिए बहुत उपयोगी है. ५५. जैन तीर्थ दर्शन भाग १-३ - इस ग्रन्थ में भारतवर्ष के सभी राज्यों के महत्त्वपूर्ण जैन तीर्थों का सचित्र वर्णन किया गया है तथा यह सामान्य जैन गृहस्थों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होता है. हिन्दी में यह ग्रन्थ जैन संघ मद्रास से प्रकाशित हुआ है. ५६. आचार्य श्रीकैलाससागरसूरीश्वरजीनी वार्ताओ-पु. आचार्य श्री कैलाससागरसरि द्वारा रचित यह ग्रंथ वार्त्तारूपी कुंभ से धर्मरूपी अमृत का पान करवाता है. इस ग्रंथ में गुजराती भाषा में धर्मकथानुयोग की प्रेरक कथाओं का संकलन किया गया है. 97 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक ज्ञानभंडारों की स्थापना एवं अभिवृद्धि डॉ. हेमन्तकुमार श्री महावीर प्रभु ने तत्वज्ञान की त्रिपदी गणधरों को दी. गणधरों ने उसे अवधारित कर अपनी प्रगाढ प्रज्ञा के बल से भव्यजीवों के कल्याणार्थ उस त्रिपदी को सूत्रबद्ध कर, विस्तार पूर्वक अर्थ करके अर्थागम के रूप में चतुर्विध श्रीसंघ के सम्मुख प्रस्तुत किया. जो कई सदियों तक शिष्य-प्रशिष्यों में श्रवण परम्परा के माध्यम से व्यवहृत होता रहा. भगवान महावीर की श्रमण परंपरा ने अपनी अवधारणा शक्ति के द्वारा इस श्रुतज्ञान को सुरक्षित रखा एवं उसका अध्ययन अध्यापन जारी रखा. कुछ समय तक यह आगमज्ञान अनुप्रेक्षा तथा स्वाध्याय के द्वारा अतिशुद्ध व अखंड रहा, परन्तु भगवान महावीर के निर्वाण के बाद कई बार व्यापक दुष्काल एवं देश काल जन्य कारणों से मुनिविहार का क्रम अवरुद्ध हो गया. स्वाध्याय, पुनरावर्तन तथा अध्ययन की प्रक्रिया छिन्न-भिन्न हो गई. जिसके कारण कंठस्थ श्रुत के अंश विस्मृत होते गए. काल के दुष्प्रभाव के कारण जैन श्रमणों में स्मरण शक्ति का ह्रास होने लगा और प्रभु श्री महावीर से चली आ रही श्रुतपरम्परा लुप्त होने के कगार पर आ गयी. उस समय तत्कालीन प्रमुख जैनाचार्यों ने इसे पुनः व्यवस्थित एवं संरक्षित करने के उद्देश्य से समय समय पर मुनियों के पाटलीपुत्र और माथुरी संमेलनों में वाचनाओं के माध्यम से विस्मृत ज्ञान को संकलित कर उसका पुनः स्थिरीकरण किया गया. इसके बाद भी जब जैनाचार्यों को यह प्रतीत हुआ कि हमारा श्रुतज्ञान बिना लिपिबद्ध किये सुरक्षित नहीं रहेगा तब पुनः नवमी दसवीं सदी के मध्य श्रमण समुदाय को एकत्र कर वल्लभी वाचना का आयोजन किया गया, जिसमें सर्वसम्मति से इसे लिपिबद्ध किया गया. यह सौभाग्य गुजरात प्रांत को प्राप्त हुआ. उस वल्लभी वाचना के प्रमुख संयोजक जैनाचार्य श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण थे. विस्मृत हो रहे श्रुत को सुरक्षित रखने के लिए क्षमाश्रमण की निश्रा में श्रुतालेखन के भगीरथ कार्य का जो शुभारम्भ किया गया था उस परम्परा का प्रवर्तन एवं विकास आज तक अखंड रूप से जैनाचार्यों और श्रेष्ठिवयों द्वारा मूल्यवान धरोहर के रूप में किया जाता रहा है. इसके पश्चात लेखनकला के नये-नये आविष्कार होते रहे. शुरुआत में ताड़पत्रों पर और बाद में कागज आदि पर जैनवाङ्मय लिखने - लिखवाने की परम्परा का प्रचलन प्रारम्भ हुआ. कालक्रम से इस तकनीक में क्रमशः विकास होता गया और यह इतना प्रसिद्ध हुआ कि धार्मिक व सामाजिक प्रसंगों के जरिये विपुल प्रमाण में साहित्य का सृजन हुआ जो आज हमारी विरासत के रूप में हमें गौरवान्वित कर रहा है. श्रुत साहित्य के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए पूज्य साधु साध्वीजी भगवंतो ने करण करावण और अनुमोदन की भावना से कार्य किया. जैनश्रमणों ने विपुल साहित्य का सृजन कर जहाँ एक ओर श्रुतसंवर्द्धन का कार्य किया वहीं तत्कालीन राजाओं, महामात्यों, नगर श्रेष्ठियों, धर्मनिष्ठ श्रावकों आदि को प्रोत्साहित कर साहित्यरचना, प्रतिलिपियाँ और ज्ञानभंडारों का निर्माण भी करवाया. विशेष अवसरों पर ज्ञानपूजा आदि का आयोजन करवाकर श्रुतसंवर्द्धन और संरक्षण का कार्य भी होता था. इतना ही नहीं जो राजा, मंत्री, नगरश्रेष्ठि एवं श्रावक श्राविका आदि शास्त्रों की रचना करने की ओर प्रवृत होते, उन्हें प्रोत्साहित कर उनकों और साहित्य सर्जन करने की प्रेरणा देते थे इसका वृतान्त हमें प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों के अंत में दृष्टिगोचर होनेवाली प्रशस्तियों में प्राप्त विविध उल्लेखों से मिलता है. प्राचीन ग्रन्थों की प्रशस्तियों और प्रतिलेखन पुष्पिकाओं को देखकर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जैन श्रमणों ने ज्ञानभंडारों की अभिवृद्धि हेतु सर्वतोमुखी उपदेश प्रणाली को स्वीकार किया था. समझदार व्यक्तियों को 98 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक ज्ञानभक्ति का रहस्य तथा उसके द्वारा होनेवाले लाभ समझाया जाता था. पुस्तकों के अंत में उनके नाम की प्रशस्ति आदि लिखी जाती थी. ताकि अन्यों को भी सुकृत की अनुमोदना व अनुसरण की प्रेरणा मिले. इस प्रकार साहित्य सृजन और ज्ञानभंडारों की स्थापना तथा अभिवृद्धि कराने वालों का विविध रूप से परिचय दिया जाता था. हस्तलिखित ग्रन्थों के अंत में लिखी जाने वाली इन प्रशस्तियों में पुस्तक लिखवाने वाले के पूर्वज, माता-पिता, बहनभाई, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि के नाम, उस समय के राजा, पुस्तक लिखवाने वाले का संक्षिप्त परिचय, उपदेशक अथवा धर्मगुरु, पुस्तक लिखवाने का निमित्त, पुस्तक लेखन हेतु किया गया धनव्यय तथा जहाँ-जहाँ ग्रन्थ भेंट दिया गया हो, उन स्थलों का उल्लेख किया जाता था. ये प्रशस्तियाँ संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, मारूगुर्जर आदि भाषाओं में गद्य-पद्यबद्ध श्लोकादि की सुंदर रचना के रूप में प्राप्त होती हैं. प्रशस्तियाँ लिखवाने की पद्धति के फलस्वरूप आज हमें कई महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य और वृत्तान्त प्राप्त होते जा रहे हैं. सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है की प्रशस्ति लेखन के माध्यम से ही आज हमारे समक्ष लाखों ग्रन्थ तथा सैकड़ों ज्ञानभंडार उपलब्ध है, इसके अतिरिक्त ज्ञानवृद्धि के निमित्त उत्सव, ज्ञानपूजा आदि महोत्सव आयोजित किये जाते थे. इसके परिणाम स्वरूप अनेक जैन राजा, मंत्री तथा कई धनाढय गृहस्थों ने तपश्चर्या के उद्यापन निमित्त, अपने जीवन में किए गए पापों की आलोचना के निमित्त, जैन आगमों के श्रवण के निमित्त, अपने स्वर्गस्थ माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि स्वजनों के आत्मश्रेयार्थ अथवा ऐसे ही प्रसंगों पर नये नये ग्रन्थ लिखवाकर या कोई अस्त-व्यस्त हो गए ज्ञानभंडार को यदि कोई बेच रहा हो, तो उसे खरीदकर नए ज्ञानभंडारों की स्थापना की जाती थी. इसी तरह पुराने ज्ञानभंडारों को भी समृद्ध किया जाता था. प्रसंगोपात कल्पसूत्रादि ग्रंथों को सुवर्णादि की स्याही से लिखवाकर सुन्दर चित्रों सहित तैयार कराके गुरुभक्त अपने श्रद्धेय आचार्य भगवन्तों को समर्पित करते थे. ऐसे अनेक ग्रंथ निर्मित होते थे और गुरुभगवंत इन ग्रंथों को ग्रंथालयों में संगृहीत करवाते थे. इसी प्रकार ज्ञानमंदिरों में वैविध्य सभर प्रतियों का संग्रह होता रहता था. जैन राजाओं के द्वारा श्रुतसंवर्द्धन ज्ञानकोश की स्थापना करनेवाले राजाओं में साहित्यरसिक सिद्धराज जयसिंहदेव तथा परमार्हत् कुमारपाल दो गुर्जरेश्वर राजा प्रसिद्ध हैं. महाराज सिद्धराज ने तीन सौ लहियों को रखकर प्रत्येक दर्शन के व प्रत्येक विषय से सम्बन्धित विशाल साहित्य लिखवाकर राजकीय पुस्तकालय की स्थापना की. आचार्य श्री हेमचंद्र कृत सांगोपांग सपादलक्ष ( सवालाख) सिद्धहेमशब्दानुशासन व्याकरण की सैकड़ों नकलें कराकर उनके अभ्यासियों को तथा विविध ज्ञानभंडारों को भेंट दिया. इसका उल्लेख प्रभावक चरित्र, कुमारपालप्रबंध आदि ग्रन्थों में मिलता है. परन्तु पाटण के तपागच्छ के जैन ज्ञानभंडार में सिद्धराज जयसिंहदेव द्वारा लगभग चौदहवीं सदी में लिखवाई गई लघुवृत्ति सहित सिद्धहेमव्याकरण की सचित्र ताडपत्रीय प्रति है, उस प्रति के चित्रों को देखकर उनके द्वारा ज्ञानभंडार बनवाये जाने का अनुमान प्राप्त होता है. उपरोक्त प्रति में एक चित्र के नीचे ' पंडितश्छात्रान् व्याकरणं पाठयति ' ऐसा लिखा हुआ व इसी में एक ओर पंडित सिद्धहेमव्याकरण की प्रति लेकर विद्यार्थियों को पढ़ाता तथा दूसरी ओर विद्यार्थी सिद्धहेमव्याकरण की प्रति लेकर पढ़ रहे हैं ऐसे चित्र हैं. सोलंकीयुग में पाटण जैन विद्या का मुख्य केन्द्र माना जाता था. महाराज कुमारपाल ने इक्कीस ज्ञानभंडारों की स्थापना की तथा श्रीहेमचंद्राचार्य विरचित ग्रंथों की स्वर्णाक्षरीय इक्कीस प्रतियाँ लिखवाने का उल्लेख कुमारपालप्रबंध तथा उपदेशतरंगिणी में मिलता है. लिखने के लिए ताडपत्र नहीं मिलने पर उन्होंने ताडपत्रों के लिए साधना की थी. जैन मंत्रियों के द्वारा श्रुतसंवर्द्धन जैन मंत्रियों में ज्ञानभंडार की स्थापना करनेवाले तथा ग्रन्थ लिखवानेवालों में प्राग्वाट (पोरवाड) जातीय महामात्य 99 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवर श्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक वस्तुपाल-तेजपाल, ओसवाल जातीय मंत्री पेथडशाह, महामंत्री मंडन आदि के नाम विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं. महामात्य वस्तुपाल-तेजपाल के हाथों लिखे ताडपत्रीय ग्रन्थ आज भी खंभात के ज्ञानभंडार में विद्यमान है तथा उनके स्वयं के द्वारा रचित ग्रन्थ आज भी मिलते हैं. उनके गुरु नागेंद्रगच्छीय आचार्य श्रीविजयसेनसूरिजी तथा उदयप्रभसूरिजी के उपदेश से ग्रन्थ लिखवाने का उल्लेख श्रीजिनहर्षकृत वस्तुपालचरित्र, उपदेशतरंगिणी आदि ग्रन्थों में देखा जा सकता है. मांडवगढ के मंत्री पेथडशाह तपागच्छीय आचार्य श्रीधर्मधोषसूरिजी के उपासक थे. उन्होंने जैन आगम सुनते हुए भगवतीसूत्र में गौतम शब्द का उल्लेख जितनी बार हुआ है उतनी स्वर्णमुद्राओं से पूजा की तथा उसी द्रव्य से ग्रन्थ लिखवाकर भरूच आदि सात नगरों में ज्ञानभंडार स्थापित करने का उल्लेख मिलता है. धनाढ्य जैन गृहस्थों के द्वारा श्रुतसंवर्द्धन राजाओं तथा मंत्रियों के अतिरिक्त ग्रन्थ लिखवाने वालों में धनाढ्य जैन गृहस्थों के नाम भी प्रशस्तियों में आते हैं. जिसप्रकार महामात्य वस्तुपाल आदि ने अपने-अपने धर्मगुरु के उपदेश से ग्रन्थ लिखवाए थे, उसी प्रकार खरतरगच्छीय आचार्य श्रीजिनभद्रसूरिजी के उपदेश से धरणाशाह ने, महोपाध्याय महीसमुद्रगणि के उपदेश से नंदुरबार निवासी प्राग्वाट जातीय भीम के पौत्र कालु ने, आचार्यश्री सोमसुंदरसूरि के उपदेश से मोढजातीय श्रावक पर्वत ने तथा आगमगच्छीय आचार्य श्रीसत्यसूरिजी, श्रीजयानंदसूरिजी, श्रीविवेकरत्नसूरिजी आदि के उपदेश से एक ही वंश में हुए प्राग्वाट जातीय पेथडशाह, मंडलीक तथा पर्वत-कान्हा ने ग्रंथ लिखवाकर ज्ञानभंडारों की स्थापना की थी. कुछ ऐसे गृहस्थ भी थे, जो किसी विद्वान जैनश्रमण के द्वारा रचित ग्रन्थों की एक साथ अनेकों नकल कराते थे. कुछ धनाढय गृहस्थ कल्पसूत्र की सचित्र प्रतियाँ लिखवाकर अपने गाँव में भेंट देते थे. डॉ. वुलर, डो. किर्व्हन, डो. पीटर्सन, श्रीयुत सी.डी. दलाल, प्रो. हीरालाल रसिकदास कापडीया आदि द्वारा संपादित प्राचीन ज्ञानभंडारों आदि का रीपोर्ट देखने से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि धनाढय गृहस्थों ने जो ग्रन्थ लिखवाए थे, वे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा अमूल्य थे. ज्ञानभंडारों की रक्षा के लिए भी अनेक प्रकार के उपाय किये जाते थे. मुगलों की चढ़ाई के समय प्रतिमाओं की रक्षा __ के लिए जिस प्रकार मंदिर के अंदर गुप्त तथा अगम्य मार्गों वाले भूतल बनाए जाते थे, उसी प्रकार ज्ञानभंडारों की रक्षा के लिए भी विशेष प्रकार के स्थल बनाए जाते थे. उदाहरण रूप जैसलमेर का किला विद्यमान है, वहाँ पर ताडपत्रीय ज्ञानभंडार को सुरक्षित इस तरह रखा गया है कि आसानी से किसी को पता नहीं चल सकता है. इसके अतिरिक्त कई ऐसे उदाहरण है कि बाहर से सामान्य लगनेवाले मकानों में भी शास्त्रग्रंथों को रखा जाता था. आक्रमण के समय अपने प्राणों की परवाह किए बिना भी ग्रन्थों को सुरक्षित करने के अनेक उदाहरण मिलते हैं. वर्तमान में प्राचीन जैन ज्ञानभंडार की दृष्टि से जैनाचार्यों की मंगल प्रेरणा व प्रोत्साहन से जैनों के बाहल्यवाले स्थानों में छोटे मोटे ज्ञानभंडारों की स्थापना तो होते ही रही हैं, साथ ही प्रमुख नगरों में प्रसिद्ध ज्ञानभंडारों की स्थापना विभिन्न जैनाचार्यों की प्रेरणा से होती रही है एवं ज्ञानपिपासुओं को तृप्त करती रही है. उनमें प्रमुख ज्ञानभंडार निम्नलिखित हैं पाटण में अनेक प्राचीन ग्रन्थभंडारों के संकलनरूप स्थापित हेमचंद्राचार्य ज्ञानमंदिर और अन्य गच्छीय भंडार, सुरत __ में श्री हुकमजी मुनि का भंडार तथा जैन आनंद पुस्तकालय, डभोई में मुक्ताबाई जैन ज्ञानभंडार, छाणी में मुनिश्री ___ पुण्यविजयजी के दो विशाल भंडार, वडोदरा में प्राच्य विद्यामंदिर तथा हंसविजयजी के ग्रंथभंडारों में भी हस्तप्रतों का विशाल संग्रह है, खंभात में श्रीशांतिनाथजी का ज्ञानभंडार तथा श्री विजयनेमिसूरिजी का ज्ञानभंडार, अहमदाबाद के डेहला के उपाश्रय के ज्ञानभंडार में, एल.डी. इन्डोलोजी में, पालडी में जैन प्राच्य विद्यामंदिर में तथा गुजरात विद्यासभा में विपुल प्रमाण में हस्तप्रतों का संग्रह है. कच्छ-कोडाय और मांडवी में भी हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह है. राजस्थान में जेसलमेर का आचार्य जिनभद्रसूरि ज्ञानभंडार और यतियों के भंडार, बिकानेर में नाहटाजी का संग्रह तथा उदयपुर के जैन ग्रंथभंडार 100 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान • महोत्सव विशेषांक उल्लेखनीय है. जोधपुर के महाराजा का संग्रह भी सुंदर है. श्री जौहरीमलजी पारख द्वारा संगृहीत सेवा मंदिर रावटी का संग्रह भी महत्वपूर्ण है. आत्मवल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि, दिल्ली में भी हस्तलिखित ग्रन्थों का सुन्दर खजाना विद्यमान है. वर्तमान में आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी द्वारा स्थापित आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा में कागज, ताडपत्र भोजपत्र आदि पर लिखित लाखों की संख्या में हस्तलिखित ग्रन्थ सुरक्षित हैं. इन भंडारों में प्राचीन ताडपत्रों पर सुन्दर मरोड़दार अक्षरों में विविध स्याही से लिखे हस्तिलिखित ग्रन्थ ग्रंथागार में संरक्षित हैं. इतना ही नहीं जैनेतर साहित्य को भी जैनाचार्यों द्वारा बड़े परिश्रम पूर्वक संजोये रखने का कार्य हुआ है. आज भी अन्यत्र अलभ्य वैदिक तथा बौद्ध प्राचीन साहित्य जैनज्ञानभंडारों से प्राप्त होते हैं. यह प्रत्यक्ष प्रमाण है कि जैनधर्म ने अन्य धर्मसाहित्य को भी इतना ही सम्मान पूर्वक आश्रय दिया है. भारत के विविध प्रान्तों के प्रमुख शहरों में यतियों और श्रीपूज्यों की गद्दीयाँ रहती थी. कुछेक जगहों पर तो आज भी गद्दियाँ विद्यमान हैं. जहां निजी ज्ञानशालाएँ होती थीं. एक सर्वेक्षण के अनुसार जैन साहित्य को सुरक्षित रखने और संवर्धित करने में श्रीपूज्यों, भट्टारकों, यतियों और कुलगुरुओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर हेतु पूज्य जिनविजयजी ने विश्वविख्यात सिंघी जैन सिरीज का सम्पादन व प्रकाशन का उल्लेखनीय कार्य किया था. शास्त्रभंडारों में दिगंबर संप्रदाय के ज्ञानभंडार भी उल्लेखनीय हैं, जिसमें उदयपुर के भट्टारक यशोकीर्ति जैन ग्रंथभंडार तथा दक्षिण भारत के भट्टारक चारुकीर्तिजी महाराज (मूडवद्री) श्रवणबेलगोला, वाराणसी, आरा तथा जयपुर के ग्रंथागार विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. हस्तलिखित ताडपत्रीय ग्रंथों की काफी संख्या दक्षिण भारत के तांजोर, त्रिवेन्द्रम, मैसूर, धर्मस्थल तथा मद्रास में अन्नामलाई के पास संरक्षित हैं. तिरूपति की संस्कृत युनिवर्सिटी में भी हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह है. महाराष्ट्र में भांडारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्युट, पूना, डेक्कन कोलेज, मुंबई के माधवबाग के पास लालबाग जैन पाठशाला में भी हस्तप्रतों का अच्छा संग्रह है. उत्तर भारत में वाराणसी के पास सरस्वती भवन तथा संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी, नागरी प्रचारिणी सभा; बिहार में जैन सिद्धान्त भवन आरा, नालंदा, दरभंगा आदि स्थलों में भी विशाल संख्या में हस्तप्रतों का संग्रह है. पटना यूनिवर्सिटी तथा बंगाल में कलकत्ता युनिवर्सिटी, रॉयल एशियाटिक सोसायटी तथा शांतिनिकेतन में भी हस्तप्रतों का अच्छा खासा संग्रह है. पंजाब के होशियारपुर में, लाहौर के पंजाब यूनिवर्सिटी में, तथा काश्मीर के जम्मू में भी शारदालिपिबद्ध हस्तप्रतों का विशाल संग्रह है. इस प्रकार श्रुतसंरक्षण-संवर्द्धन के महान कार्य में सदियों से जैनश्रमण श्रमणियों के साथ साथ श्रावकों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है जो आज हमारे लिए बहुमूल्य सिद्ध हो रहा है. वर्तमान में ज्ञानभंडारों को समृद्ध करने में जैनाचार्यों की देन जैनाचार्यों द्वारा नए ग्रंथों की रचना तथा प्राचीन ग्रंथों को हस्तलेखन द्वारा नवजीवन प्रदान कर ज्ञानभंडारों की जो समृद्धि की गई है, वह विश्व में अद्वितीय है. श्रुतज्ञान की इस परम्परा को जीवन्त रखते हुए आज भी अनेक जैनश्रमण इस कार्य में पूर्ण निष्ठा और लगन के साथ ज्ञानभंडारों की स्थापना तथा समृद्धि में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं. जेसलमेर, खंभात, पाटण, अहमदाबाद के ज्ञानभंडारों के विकास, सुरक्षा तथा मूल्यांकन के लिए पू. पुण्यविजयजी महाराज ने बहुत परिश्रम किया. पुराने ग्रंथों का वाचन-संशोधन किया. वर्तमान में विद्वान मुनिश्री जंबूविजयजी महाराज, आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज तथा अन्य अनेक जैनाचार्य इस कार्य में पूर्ण रूप से समर्पित है. 101 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक जैन धर्म की रूपरेखा परम करुणा व पूर्ण बोध से जन्मा जैन धर्म सदाकाल से सभी के लिए कल्याणकारी रहा है. जैन धर्म ने महान बातों के साथ वैसा ही महान जीवन व्यवहारिक धरातल पर सहजता से जीने का सुगम मार्ग भी बताया है जो इस धर्म की एक सबसे बडी विशेषता है. तीर्थंकर भगवंतों के द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट 'सर्वसत्त्वानां हिताय च सुखाय ऐसी धर्म व्यवस्था का दूसरा नाम अर्थात् जैन धर्म. - मनोज र. जैन जैन धर्म के पास अपना स्वयं का अद्भूत तत्त्वज्ञान एवं उसके अनुरूप सांगोपांग आचार व्यवस्था है. जिससे दुनिया की समस्त दुखद समस्याओं का समाधान संभव है. इससे जैन धर्म को विश्व हितकारी और विश्वधर्म कहा जा सकता है. जैन धर्म इतिहास ऋषभदेव इस अवसर्पिणी काल के प्रथम राजा बने एवं उन्होंने अपने विशिष्ट ज्ञान बल से सर्वप्रथम संस्कृति (युग) प्रवर्तन के लिए असि (अस्त्र-शस्त्र), मसि (स्याही व्यापार), कृषि और ६४ कलाओं १०० शिल्पों इत्यादि व्यावहारिक नीतिओं का ज्ञान अपने पुत्र पुत्रियों को देकर आज तक चली आ रही कल्याणमय समाज रचना का उद्गम किया. दीक्षा ग्रहण कर केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद वे जिन अर्थात् तीर्थंकर कहलाये. उन्होंने पूर्व के जिनेश्वरों द्वारा प्ररुपित जैन धर्म को इस काल में पुनः प्ररुपित किया. श्री ऋषभदेव ने सर्व प्रथम धर्मसभा में मोक्षमार्ग रूप साधुधर्म और गृहस्थधर्म की विधिवत् स्थापना चतुर्विध संघ के रूप में की. जैन धर्म वैसे अनादिकालीन होते हुए भी इस अवसर्पिणी काल की अपेक्षा से भगवान ऋषभदेव द्वारा सर्वप्रथम प्ररुपित कहा जाता है. भगवान आदिनाथ की भाँति ही बीच के २२ तीर्थंकरों ने तथा २६०० साल पूर्व में अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अपने गणधरों को ज्ञानत्रिपदी देकर श्रुतगंगा प्रवाहित की. आज हम उन्हीं के धर्मशासन में हैं. यथार्थ में जैन धर्म का कोई प्रारंभ नहीं है, कोई अंत नहीं है. यह समग्र विश्व की व्यवस्था मात्र को बताने वाला है। व विश्व की ही तरह शाश्वत है. जैन धर्म की विशिष्टताएँ १. जैन धर्म यानि सत्य की सभी विचारधाराओं (दृष्टियों) को स्व-स्व स्थान पर सम्मान देकर पूर्ण सत्य का स्वीकार करनेवाला धर्म दर्शन. २. विश्व की समस्त जीवसृष्टि के प्रति यथार्थ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करने वाला जीवन्त धर्म. ३. जगत की वास्तविकता का यथार्थ गहराई से परिचय देनेवाला अनन्य धर्म दर्शन. ४. व्यवहार के सभी पहलुओं पर तर्क-संगत मार्गदर्शन कर मोक्ष मार्ग के साथ अनुसंधान करने वाला धर्म. ५. दृश्य अदृश्य जीवन शक्तियों और कुदरत की संपत्तियों का जतन करके पर्यावरण का संतुलन बनायें रखनेवाला धर्म. ६. स्व जीवन के साथ दूसरों के लिए भी हितकारी, कल्याणकारी आचारों एवं विचारों की श्रेष्ठतम मर्यादाओं को आचरण में लेने वाला धर्म. 102 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक व्यक्ति, समाज, देश और समस्त विश्व को सुखमय, निरामय, शान्तिमय और उन्नतिमय करने के लिए अपना अस्तित्व रखने वाला धर्म. सभी जीव आत्मवत् है. सभी के प्रति परस्पर उपकार करने के लिए परिपक्व दृष्टि को विकसित कर जहां पर अक्षय, अजर, अमर आत्मसुख का निवास है उस स्थिति (मोक्ष) के सहभागी बनाने के लिए उदात्त अभिगम.के साथ प्रवर्तमान धर्म यानि जैन धर्म. जैनधर्म के रहस्यभूत कर्मवाद, सूक्ष्म तप मीमांसा, नवतत्त्व का सुन्दर स्वरूप, चार अनुयोगों का सुन्दर अनुपम निरूपण, चार निक्षेपों का रम्य वर्णन, सप्तभंगी तथा सप्तनय का सत्य स्वरूप, स्याद्वाद-अनेकान्तवाद की विशिष्टता, अहिंसा की पराकाष्ठा, तप की अलौकिकता, योग की अद्वितीय साधना तथा व्रत-महाव्रतों की सूक्ष्म पद्धति से पालन आदि के कारण उत्कृष्ट स्थान धराने वाला धर्म. किससे दोस्ती करूं? चंदा में दाग है, सूरज में आग है. तारों में विराग है, मैं किससे दोस्ती करू ? ग्रीष्म में तपन है, शीत में कम्पन है. वर्षा में अनबन है, मैं किससे दोस्ती करूं? पवन मदहोश है, वन-प्रान्त खामोश है. वसुन्धरा बेहोश है, मैं किससे दोस्ती करूं ? संसार मे भोग है, काया में रोग है, स्वार्थी सब लोग है, मैं किससे दोस्ती करूं? कैसा यह प्रश्न है, न जोश है न होश है, पूछता हूं प्रभु, मैं किससे दोस्ती करूं ? आत्मा ही शरण है, मोह माया मरण है निज स्वरूप अपना है, अन्य सब सपना है. क्यों न खुद से ही खुद की दोस्ती करूँ. 103 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक जैनधर्म और चार पुरुषार्थ शैलेष महेता * जैन धर्म ने चारों पुरुषार्थों को अपनी-अपनी जगह महत्त्व दिया है. * धर्मपुरुषार्थ को शेष तीनों पुरुषार्थों की सिद्धि के लिए आधाररूप माना है. * धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का सेवन समरूप से करना चाहिए. * व्यवहार के लिए अर्थोपार्जन को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानते हुए उसका सम्पादन धर्मानुसार न्याय-नीति से करना ही श्रेष्ठ आधार माना है. * सही तरीकों से उपार्जित अर्थ से धर्म और मोक्ष की प्राप्ति होती है. * सन्मार्ग में दान देना व स्वयं उचित उपभोग करना, अर्थ के ये ही दो प्रयोजन हैं अन्यथा नाश तो है ही । * तादात्विक, मूलहर और कदर्य इन तीनों का धन सदा नष्ट हो जाता है. * तादात्विक यानि उपार्जित धन को जो बिना विवेक के खर्च करता है वह. * मूलहर यानि पिता और पितामह से प्राप्त सम्पत्ति को जुआ, शराब, वेश्यावृत्ति आदि में उडाता है वह. * कदर्य यानि सेवकों को और खुद को भी कष्ट में डालकर मात्र धनसंग्रह ही करता है वह. * वैभव का फल इन्द्रियों और मन की प्रसन्नता है. जिस वैभव से अपनी इंद्रिया और मन प्रसन्न न रह सके वह वैभव नहीं कहा जाता. * काठ की हांड़ी में एक ही बार भोजन पकाया जा सकता है. अर्थात् बेईमानी एक ही बार चल सकती है. दान के क्षेत्र :- स्थावर जंगम तीर्थ, अनुकंपा, जीवदया, परोपकार, साधर्मिक, गुरु, ज्ञान भक्ति आदि. * आज भी बहुत सारे नामी-अनामी श्रेष्ठिजन जिनमंदिर, उपाश्रय, पांजरापोल, चिकित्सालय, विद्यालय आदि के निर्माण द्वारा समाज, धर्म, राष्ट्र व विश्व की सेवा कर के अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग कर रहे है. जैन व्यापार विधि * श्रावक को व्यवहार शुद्धि के साथ देश-काल के नियमों का पालन करते हुए अपने धर्म के अनुरूप अर्थोपार्जन करना चाहिए. * धन प्राप्ति के लिये अपनी आर्थिक स्थिति आदि को ध्यान में लेकर, अपने कुल के योग्य एवं नीति से धंधा रोजगार करना चाहिए. * योग्य तरीकों से प्राप्त धन वर्तमान जीवन में एवं परलोक में सुख देने वाला होता है. क्योंकि न्यायोपार्जित धन का निःशंक उपभोग हो सकता है एवं तीर्थयात्रा सुपात्र दान, अनुकंपा दान आदि सत्कार्य हो सकते हैं. * अन्याय से प्राप्त धन का शीघ्र नाश होता है. यदि नाश न हो तब भी 'मत्स्यगलभक्षण' न्याय से (लालच से कांटे में लगे खाद्य पदार्थ खाने से दुःख पाती मछली की तरह) उभय लोक में अहित करनेवाला होता है. * अन्याय से धन मिले या न भी मिले परंतु अनर्थ-दुःख तो निश्चित मिलता है. * एकान्त लोभी व्यक्ति के धन का कोई औचित्य नहीं है. आजीविका के शास्त्रदर्शित सात उपाय (१) व्यापार (२) विद्या (३) खेती (४) पशुपालन (५) शिल्प (६) सेवा (७) भिक्षा. अनाज, घी, तेल, कपास, सूत, वस्त्र, सोना-चांदी, धातु, मणि, मोती, रत्न आदि. १. व्यापार 104 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. विद्या ३. कृषि - ४. पशुपालन५. शिल्प वैद्यक- ज्योतिष आदि से धनार्जन. वर्तमान में सी.ए., एडवोकेट आदि के बौद्धिक व्यवसाय. प्राचीन समय से श्रेष्ठ व्यवसाय माना गया है. गाय, भैंस, बकरी, ऊँट, बैल, हाथी इत्यादि का पालन. शिल्प सौ प्रकार का है. कुम्हार, लुहार, चित्रकार, जुलाहा और नापित आदि उत्पादन व हुनर संबंधी. राजा, शेठ आदि मालिक की सेवा. भिक्षा से जीवन यापन. पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान • महोत्सव विशेषांक ६. सेवक ७. भिक्षा जिस कार्य में आरंभ समारंभ (हिंसा) ज्यादा हो या न्याय-नीति का पालन अशक्य- दुष्कर हो, ऐसी अर्थोपार्जन की प्रवृत्ति विवेकीजनों के लिये उचित नहीं है. अर्थात् त्याज्य है. संदर्भ- नीतिवाक्यामृतं, धर्मबिन्दु प्रकरण, श्राद्धविधि प्रकरण, अर्हन्नीति. प्राचीन व्यापार के विशिष्ट प्रकार कुत्रिकापण- तीनों लोक में उत्पन्न होने वाली सजीव, निर्जीव हर एक वस्तु जहाँ से मिल सके ऐसी देवाधिष्ठित दुकान. (संदर्भ:- भगवती, अंतकृद्दशांग, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशांग) सार्थवाह- जिस को आज की भाषा में मोबाईल मल्टी मेगा मोल कहा जा सकता है. अर्थ पुरुषार्थ विषयक सूत्र एवं अर्थ 'न्यायोपात्तं हि वित्तमुभयलोकहिताय' न्याय से प्राप्त धन इहलोक एवं परलोक दोनों में सुख देनेवाला होता है. 'सोऽर्थस्य भाजनं योऽर्थानुबन्धेनार्थमनुभवति' (धर्मबिंदु प्रकरण अ. १ सूत्र ४) (नीतिवाक्य. अर्थ समु. सूत्र २) धनी वह होता है जो अप्राप्त धन को प्राप्त करके प्राप्त धन की वृद्धि से अर्थ का उपभोग करता है. 'अतिव्ययोऽपात्रव्ययश्चार्थं दूषणम्' 105 (नीतिवाक्य. व्यसन समु. सूत्र १९ ) अत्यंत व्यय करना और निषिद्ध कार्यों में धन का व्यय करना अर्थ के पाप है. निंद्ये बाह्ये महानर्थकारणे मूर्छिता धने । शून्यास्ते दानभोगाभ्यां, ये पुनः क्षुद्रजन्तवः ।। इहैव चित्तसंतापं, घोरानर्थपरंपराम् । यत्ते लभन्ते पापिष्ठास्तत्र, किं भद्र ! कौतुकम् ? ।। (उपमिति) दान और भोग से रहित जो क्षुद्र जीव निंद्य और महा अनर्थ के कारणभूत धन में मूर्छा करते हैं वे निसंदेह इसी भव में चित्त के संताप को और घोर अनर्थों की परंपरा को प्राप्त करते हैं. योजयन्ति शुभे स्थाने, स्वयं च परिभुञ्जते । न च तत्र धने मूर्छामाचरन्ति महाधियः ।। ततश्च तद्धनं तेषां सत्पुण्यावाप्तजन्मनां । इत्थं विशुद्धबुद्धीनां, जायते शुभकारणम् ।। (उपमिति) इससे विपरीत बुद्धिमान पुरुष धन में मूर्छा नहीं करते हुए शुभ स्थान में व्यय करता है और स्वयं उसका उपभोग भी करता है. अतः ऐसा धन विशुद्ध बुद्धि वाले जीवों को शुभ का कारणभूत होता है. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक जैन श्रेष्ठि आशीष शाह समृद्धिशालि शालिभद्र __ पूर्व भव में तपस्वी साधु को उत्कृष्ट भाव से दी खीर के पुण्य से हर रोज उपभोग के लिए देवलोक में से ९९ पेटी आती थी. जिसमें ३३ पेटी वस्त्रों से, ३३ पेटी अलंकारों से व ३३ पेटी विविध खाद्य पदार्थो से भरी हुई रहती थी. एक बार पहने हुए वस्त्र या अलंकार दूसरी बार कभी नहीं पहनते थे. जिसकी एक कंबल भी मगध सम्राट श्रेणिक न खरीद सके, वैसी १६ रत्नकंबल भद्रा माता ने खरीद कर अपनी ३२ पुत्रवधूओं को नहाने के बाद पैर पोंछने के लिए दी. इतनी समृद्धि होने के बावजूद भी नित्य जिनपूजा करते थे. अंत में संसार की असारता को समझकर भगवान के पास दीक्षा ग्रहण कर उत्कृष्ट संयम का पालन किया. पुणिया श्रावक भगवान की देशना सुनकर अपनी सर्व संपत्ति का त्याग कर दिया था. दो आदमी का गुजारा हो सके, उतना ही प्रतिदिन धन कमाते थे. उससे ज्यादा की अभिलाषा नहीं रखते थे. प्रतिदिन एक साधर्मिक को भोजन करवाने का नियम था और घर में सिर्फ दो व्यक्ति खा सके, उतना ही भोजन रहता था. अतः श्रावक-श्राविका में से कोई एक उपवास करता था और उसके भोजन से साधर्मिक भक्ति करते थे. जगडुशा कच्छ के भद्रेश्वर शहर का निवासी श्रीमाळी जैन श्रावक, राजा वीसलदेव के समय में सं. १३१२ से १३१५ का त्रिवर्षीय दुष्काल में सिंध, गुजरात, काशी आदि देश में भरपूर अनाज देकर दानशालाएँ खोली और तीन साल के अकाल का संकट निवारण किया. अति धनवान होने के साथ-साथ साहसी, वीर, धर्मनिष्ठ और दीन-दुखिओं के उद्धारक थे. जैनों के प्रमुख तीर्थ शत्रुजय व गिरनार के संघ निकाल कर नये जैन मंदिर बनाये और पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार करके जैन धर्म की सेवा की. कर्माशा कर्माशाह कपडे के बड़े व्यापारी थे. चितौड के ओसवंश की वृद्ध शाखीय तोलाशाह (मेवाड के महाराणा सांगा के परममित्र) के पांच पुत्रों में सबसे छोटे कर्माशा बुद्धि, विनय, विवेक के कारण श्रेष्ठ और ख्यातिमान थे. तोलाशाह के द्वारा आचार्यदेव से यह पूछने पर कि ‘समराशाह के द्वारा सं. १३७१ में शत्रुजय पर स्थापित बिंब, जिसका मस्तक म्लेच्छों ने खंडित कर दिया है, का पुनः उद्धार करने का मनोरथ सिद्ध होगा या नहीं?' सूरिजी ने बताया कि 'तेरा पुत्र कर्माशाह वह उद्धार करेगा.' सं. १५८७ में शेठ कर्माशाह ने शत्रुजय की खंडित प्रतिमा का सोलहवाँ उद्धार किया. उन्होंने महामात्य वस्तुपाल के द्वारा रखवाए मम्माणी पाषाण खंडो को भूमिगृह से निकालवाये और वाचक विवेकमंडन व पंडित विवेकधीर के निर्देशन में उसकी प्रतिमा कराकर विद्यामंडनसूरि के पास प्रतिष्ठा करवाई. 106 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक झांझणशा ऊकेश वंशीय पेथड शेठ के दानी और धर्मनुरागी पुत्र. सं. १३४० में मंडपदुर्ग से संघ लेकर शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थों की यात्रा के लिए प्रस्थान किया. बालपुर में २४ जिन प्रतिमाओ की स्थापना, चित्रकूट में चैत्य परिपाटी, करहेटक में पार्श्वनाथ भगवान का ७ तल्ला का मंडपों से युक्त बडा मंदिर बनाया. सारंगदेव राजा के एक मागध को उसके काव्य से प्रसन्न होकर दान दिया एवं ९६ राजबंदी को मुक्ति दिलायी. देदाशा ऊकेश वंशीय देद नामक दरिद्रि श्रावक योगी से सिद्ध हुआ सुवर्ण रस प्राप्त होने से श्रीमंत हुआ. खंभात में पार्श्वनाथ भगवान की पूजा कर के सुवर्णदान करने से लोगों ने 'कनकगिरि' का बिरूद दिआ. देवगिरि में महा विशाल धर्मशाला-पौषधशाला का निर्माण. पेथड, झांझण जैसे भाग्यवान पुत्र और पौत्र. गुर्जराधीश भी उनके मित्र थे समराशा सं. १३७१ में पालीताणा तीर्थ का जीर्णोद्धार करवाया. धनजी सूरा अहमदाबाद नगर में रहते थे. महोपाध्याय यशोविजयजी के अष्टावधान को देखकर अतिप्रसन्न हुए और अधिक अभ्यास के लिए काशी भेजने एवं वहाँ के तमाम अभ्यास के खर्च का लाभ लिया था. नरशी नाथा मुंबई में अनंतनाथ जिनालय का निर्माण किया. सं. १९२० में शत्रुजय का संघ निकाला और वहां चंद्रप्रभस्वामी का जिनालय व धर्मशाला का निर्माण किया. कच्छी समाज में समूह लग्न का प्रारंभ करवाया. उनके नाम से मुंबई में नरशी नाथा स्ट्रीट नामक एरिया है. भामाशा महाराणा प्रताप की सभा में मंत्री थे. राज्य के कठिन समय में राजा को अपना संपूर्ण धन देकर राष्ट्रभक्ति की एक मिशाल कायम की. वस्तुपाल-तेजपाल की तरह मारवाड में उनका नाम प्रसिद्ध था. समस्त महाजन ज्ञाति का संमेलन होता था तब सर्वप्रथम उनको तिलक किया जाता था. भीमा कुंडलिया पालिताणा में हो रही मंदिर जीर्णोद्धार की टीप में अपना सर्वस्व (मात्र सात द्रम्म) दान में दे दिया. मंत्री बाहड ने ५०० स्वर्णमुद्राएँ देकर सन्मान करना चाहा, तो भी उसका साफ इन्कार कर दिया और कहा कि यह सन्मान लेकर मै अपना पुण्य बेचना नहीं चाहता. 107 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवर श्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक जावडशा युगप्रधान वज्रस्वामी धर्मगुरु थे. वि. १०८ में शत्रुजय तीर्थ का जीर्णोद्धार करवाया था. खेमा हडालीया मुहम्मद बेगड़ा के समय में गुजरात में पड़े हुए दुष्काल में समस्त गुजरात को भोजन कराके 'एक वाणियो शाह अने बीजो शाह पादशाह' कहावत को जन्म दिया. मोतीशा मुंबई के अति प्रसिद्ध व्यक्ति थे. उन्होंने पालिताणा पहाड के बीच में रही हइ कुंतासर खाई को समतल करवा कर मोतीशा ट्रंक का निर्माण किया. सं. १८८५ मुंबई के भायखल्ला में आदिनाथजी का मंदिर एवं पांजरापोल का निर्माण किया. महारानी विक्टोरिया भी उनका सन्मान करती थी. हठीसिंह शेठ अहमदाबाद के निवासी. अहमदाबाद दिल्ली दरवाजा के बाहर उन्होंने बावन जिनालय का निर्माण किया. जो हठीसिंह की वाडी नाम से प्रसिद्ध है. प्रतिष्ठा के समय समग्र भारत से श्रीसंघ को आमंत्रित किया. __ शेठ प्रेमाभाई के साथ मिलकर सिवील होस्पिटल का निर्माण किया. कस्तुरभाई लालभाई शेठ गुजरात के श्रेष्ठ महाजन, भारत के विख्यात उद्योगपति व जैन संघ के मुख्य अग्रणी. शिक्षण क्षेत्र के प्रखर हिमायती थे. अतः उन्होंने नये शिक्षा केन्द्रों के निर्माण में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहायता की. जिसमें से कुछेक देश-विदेश में अतिप्रसिद्ध है. अहमदाबाद एज्युकेशन सोसायटी, एल. डी. एन्जिनियरिंग कॉलेज, अहमदाबाद गुजरात युनिवर्सिटी, इंडियन इन्स्टिट्युट ऑफ मेनेजमेन्ट, स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर. जैन संघ के प्रमुख बनने के बाद आणंदजी कल्याणजी पेढी के तहत रहे हुए राणकपुर, आबु, कुंभारीयाजी, गिरनार, तारंगा आदि जिनालयों का जीर्णोद्धार करवाया. जैन समाज के किसी भी अतिविकट से भी विकट प्रश्नों को अपनी सूझ-बूझ और कौशल्य से सुलझाने की अपूर्व प्रतिभा थी. चाहे वो राजकीय या धार्मिक हो. ई. १९४८ व १९५१ में गुजरात राज्य में पडे हए दुष्काल के समय रविशंकर महाराज के साथ रहकर मदद की व्यवस्था की. डॉ. विक्रमभाई साराभाई उन्होंने अहमदाबाद में एक्स्पेरिमेन्टल सेटेलाईट कॉम्युनिकेशन अर्थ स्टेशन की स्थापना की. आंध्रप्रदेश के सागर किनारे पर श्री हरिकोटा का आकाशी मथक की स्थापना की.ई. १९७५ में भारत का स्वदेशी उपग्रह का स्वप्न साकार हुआ, उसका मंगलाचरण किया. डॉ. होमी जहाँगीर भाभा को भारत के अणुविज्ञान का पिता कहा जाता है. तो डॉ. साराभाई को भारत के अंतरिक्षयुग का पिता कहना अनुचित नही होगा. खगोल विज्ञान के अंतर्राष्ट्रीय परिषद में निर्णय लिया गया कि चंद्रमा पर स्थापित 'बेसेल ए' का नाम साराभाई रखा जाय. उन्होने कॉम्युनिटी सायन्स सेन्टर की रचना की थी. 108 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक भगवान महावीर के १० श्रावक आशिष शाह श्री आनंद * वाणिज्यग्राम के निवासी थे. * १२ करोड सुवर्णमुद्रा के मालिक थे. उसमे ४ करोड निधान में, ४ करोड व्याज मे, और ४ करोड व्यापारमे लगी हुए थी. * १०,००० गायो का एक गोकुल ऐसे ४ गोकुल थे. * भगवान के पास श्रावक के १२ व्रत का ग्रहण किया था. * अंतिम काल में पौषध व्रतमें ही उनको अवधिज्ञान हुआ था. एक मास का अनशन करके प्रथम देवलोक में देव हुए. श्री कामदेव * चंपा नगरी के वासी थे. भद्रा नामक पत्नी थी. * १८ करोड सुवर्णमुद्रा के मालिक थे, उसमे ६ करोड निधान में, ६ करोड व्याज मे और ६ करोड व्यापर मे उपयुक्त थे. *६ गोकुल थे. * भगवान की देशना सुनकर पत्नी सहित श्रावक के १२ व्रत स्वीकारे. * एक रात में देवने घोर उपसर्ग किये फिर भी समता भाव से सहन करके धर्म में अडग रहे. दूसरे दिन भगवानने अपनी देशना में उनकी प्रशंसा की. *२० साल श्रावक धर्म का पालन करके अंत मे समाधिमरण पा कर प्रथम देवलोकमें गये. श्री चुल्लनीपिता * वाराणसी नगरी में रहेते थे, श्यामा नाम की पत्नी थी. *२४ करोड सुवर्णमुद्रा के मालिक थे, ८ करोड निधान में, ८ करोड व्याज में और उतना ही धन व्यापरमें लगा हुआ था. २८ गोकुल थे. * भगवान की देशना सुनकर श्रावक के १२ व्रत लिए थे. * अंत में समाधिपूर्वक मृत्यु पाकर प्रथम देवलोक में देव हुए. श्री सुरादेव * वाराणसी नगरी के निवासी थे. धान्या नामक पत्नी थी. * कामदेव श्रावक जितनी ही संपत्ति एवं गोकुल थे. • भगवान की देशना सुनकर श्रावक के १२ व्रत लिए थे. अंत मे मृत्यु पा कर प्रथम देवलोक में देव हुए. श्री चुल्लशतक * आलंभिका नगरी के रहेवासी थे. बहुला नामक पत्नी थी. 109 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक * कामदेव श्रावक जितनी ही संपत्ति थी. * भगवान की देशना सुनकर श्रावक के १२ व्रत अंगीकार करके श्रावक की ११ प्रतिमा वहन की थी. अंत कालमें समाधि मरण पा कर प्रथम देवलोक मे देव हुए. श्री कुंडकोलिक • कांपिल्यपुर नगर मे रहेते थे. पुष्पा नाम की पत्नी थी. * कामदेव श्रावक जितनी ही ऋद्धि और गोकुल थे. * भगवान के पास श्रावक के १२ व्रत लिए थे. श्रावक की ११ प्रतिमा वहन कर अंत में मृत्यु पा कर प्रथम देवलोक में देव हुए. श्री सद्दालपुत्र * जात से कुंभार और पोलासपुर नगर में रहते थे. * गोशाला के मतानुयायी थे. * एक बार भगवान की देशना सुनकर श्रावक के १२ व्रत अंगीकार कीए. * गोशालाने अपने मत में पुनः खींचने के लिए बहुत प्रयत्न कीए फिर भी वे अडग रहे. अंत में पौषधव्रत में समाधिमरण होकर देवलोक में गये. श्री महाशतक * राजगृही नगरी में रहेते थे, रेवती वगेरह १३ पत्नियां थी. * चुल्लनीपिती श्रावक जितनी ही संपत्ति थी. एवं श्वरसुर पक्ष का भी बहुत धन था. फिर भी भगवान के पास व्रत लेने के कारण उस धन का त्याग किया था. * अंत समय में धर्माराधना से अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ था. समाधि मरण पा कर देवलोक में गये, श्री नंदिनीपिता * श्रावस्ती नगरी में रहेते थे, अश्वीनी नामक पत्नी थी. * संपत्ति एवं गोकुल आनंद श्रावक जितने ही थे. * प्रभु की देशना सुनकर श्रावक के १२ व्रत लिये थे. * १४ वर्ष तक श्रावकधर्म का पालन कर के अंत समय में पौषधव्रत में ही मृत्यु पा कर देवगति मे गये. श्री तेतलीपिता श्रावस्ती नगरी के वासी थे, फाल्गुनी नामक पत्नी थी * समृद्धि आदि आनंद श्रावक जितनी ही थी. * भगवान के पास श्रावक के १२ व्रत स्वीकार के उसका निरतिचार पालन किया, अंत मे समाधि मरण पाकर देवलोक मे देव बने. 110 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान • महोत्सव विशेषांक दक्षिण भारत में जैन धर्म रामप्रकाश झा जैन धर्म के प्राचीन शास्त्रों व इतिहास के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकरों का जन्म और निर्वाण उत्तर भारत में ही हुआ. उस समय दक्षिण भारत में जैन धर्म की क्या स्थिति थी, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है. परन्तु भगवान महावीर के पश्चात् जैन धर्म का विस्तार दक्षिण भारत में भी हुआ इसके कई प्रमाण शिलालेखों और दक्षिण भारत के साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होता है. दक्षिण के कई राजवंशों का संरक्षण एवं मंत्रियों सेनापतियों का सहयोग प्राप्त कर जैनाचार्यों ने जैन धर्म को सर्वप्रिय धर्म बना दिया. जैन धर्म को दक्षिण भारत में जड़ पकड़ चुके बौद्धधर्म एवं शैवधर्म का सामना करना पडा. सर्वप्रथम मैसूर तथा तमिलनाडु के राजवंश के अनेक राजाओं ने जैन धर्म को उत्साह पूर्वक संरक्षण दिया. धीरे-धीरे यह धर्म प्रभावशाली होता गया. लगभग एक हजार वर्षों तक कर्नाटक की जनता तथा वहाँ के राजवंशों के सक्रिय सहयोग के कारण जैनधर्म दक्षिण भारत के कण-कण में व्याप्त रहा. इसका सारा श्रेय उन जैनाचार्यों को जाता है, जिन्होंने अपनी महानता, समुचित विचारदक्षता तथा समाजसेवा के आधार पर दक्षिण भारत की जनता को अपने सदुपदेशों से अनुप्राणित किया तथा उन प्रदेशों की भाषाओं में दक्षता प्राप्त करके अपनी रचनाओं द्वारा दक्षिण भारत की भाषाओं और जैन साहित्य के भण्डार को समृद्ध किया. जैन धर्म को अनेक प्रमुख राजवंशों से संरक्षण तथा संपोषण प्राप्त हुआ था. जिसमें पल्लव राजवंश तथा चोल राजवंश के शासकों की जैन समाज और जैनधर्म के प्रति गहरी आस्था को प्रगट करने वाले अनेक उल्लेख मिलते हैं. कर्नाटक में चालुक्यों का राज्य स्थापित होने पर तेलुगु प्रदेश में जैनधर्म आगे आया. पूर्वीय चालुक्य वंशीय राजाओं की सहायता पाकर जैनधर्म की शक्ति तथा उसका प्रभाव काफी बढा. इस वंश का एक शासक विजयादित्य षष्ठ जैनधर्म का महान अनुरागी था. उसके द्वारा जैन मन्दिरों के लिए दिए गए दान का पर्याप्त उल्लेख मिलता है. कटकराज दुर्गराज ने धर्मपुरी गाँव में एक जैनमन्दिर का निर्माण कराया, जिसका नाम कटकाभरण जिनालय रखा गया. वह जिनालय यापनीय संघ, कोटी मडुक और नन्दिगच्छ के जिननन्दि के प्रशिष्य तथा दिवाकर के शिष्य श्री मन्दिरदेव के प्रबन्ध में था. ग्रेव्य गोत्र और त्रिनयन कुल का वंशज नरवाहन प्रथम पूर्वीय चौलुक्य नरेश का अधिकारी था. उसका पुत्र मेलपराज और पुत्रवधू मेण्डाम्बा जैनधर्म के प्रति उत्साही व अनुयायी थे. उनके पुत्र भीम और नरवाहन द्वितीय भी जैनधर्म के अनुरागी थे. उनके गुरु का नाम जयसेन था, जिनकी प्रेरणा से भीम और नरवाहन द्वितीय ने विजय वाटिका (विजयवाडा) में दो जैनमन्दिर बनवाए थे. उन मन्दिरों के संचालन हेतु राजा अम्म द्वितीय ने पेडु गाडिदिपर्रु नामक गाँव दान में दिया था. विजगापट्टम जिले के रामतीर्थ से प्राप्त शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि राजा विमलादित्य के धर्मगुरु सिद्धान्तदेव थे. इससे यह स्पष्ट होता है कि रामतीर्थ जैनधर्म का एक पवित्र स्थान था तथा राजा विमलादित्य ने जैनधर्म को अंगीकार कर जैनगुरु को अपना मार्गदर्शक बनाया था. प्राचीनकाल से ही यह स्थान जैनधर्म का प्रभावशाली केन्द्र तथा उसके अनुयायियों के लिए तीर्थ स्थान था. दानवुलपाडु के एक शिलालेख में सेनापति श्रीविजय के समाधिमरण का वर्णन है. श्रीविजय एक बड़ा योद्धा, महान विद्वान तथा जैनधर्म का अनुयायी था. कुछ शिलालेखों में वैश्य जाति के सद्गृहस्थों के समाधिस्थलों का उल्लेख मिलता है. जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह स्थान पवित्र माना जाता था तथा जैनधर्म के अनुयायी दूर दूर से यहाँ जीवन का अन्तिम काल बिताने के लिए आते थे. कालक्रम से जैनधर्म कर्नाटक का एक प्रभावशाली और स्थायी धर्म बन गया. इसका प्रमुख श्रेय उन जैन गुरुओं का है जिन्होंने जैनधर्म का कोरा उपदेश देना बन्द कर राज्यों के निर्माण में भाग लेना प्रारम्भ किया. जिसके फलस्वरूप 111 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान • महोत्सव विशेषांक कर्नाटक के चार प्रसिद्ध राजवंशों ने जैनधर्म के अभ्युत्थान में सक्रिय सहयोग दिया था. उन राजाओं का अनुकरण उनके मन्त्रियों, सेनापतियों, सामन्तों तथा साहूकारों ने भी किया. गंग राजवंश- दक्षिण भारत का गंग राजवंश अत्यन्त प्राचीन है. उसका सम्बन्ध इक्ष्वाकुवंश से बतलाया जाता है. पहले यह वंश उत्तर-पूर्व में था. परन्तु ईसा की दूसरी शताब्दी के आस पास इस वंश के दो राजकुमार दडिग और माधव दक्षिण में आए. पेरूर नामक स्थान में उनकी मुलाकात जैनाचार्य सिंहनन्दि से हुई. सिंहनन्दि ने उन्हें शासन-कार्य की शिक्षा दी. आचार्य सिंहनन्दि के निर्देशानुसार उन्होंने सम्पूर्ण राज्य पर अपना प्रभुत्व कर लिया. नन्दगिरि पर किला तथा कुवलाल में राजधानी बनायी थी. युद्ध में विजय ही उनका साथी था, जिनेन्द्रदेव उनके देवता थे. जैनमत उनका धर्म था और शान से पृथ्वी पर शासन करते थे. राजा मारसिंह एक धर्मप्रिय राजा था, जिसने ई. ९६१ से ९७४ तक राज्य किया. उसने जिनेन्द्रदेव के सिद्धान्तों को सुनियोजित किया तथा अनेक स्थानों पर वसदियों और मानस्तम्भों का निर्माण कराया. उसने पुलगिरे नामक स्थान पर एक जिनमन्दिर बनवाया जो 'गंग कन्दर्प जिनेन्द्र मन्दिर' के नाम से प्रसिद्ध था. उसने अनेक पुण्यकार्य किए तथा जैनधर्म के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान किया. अन्त में उसने राज्य का परित्याग कर बंकापुर में अजितसेन भट्टारक की उपस्थिति में संल्लेखना धारण की. मारसिंह तथा उसके पुत्र रायमल्ल चतुर्थ का मन्त्री और सेनापति प्रसिद्ध चामुण्डराय था. जिसने श्रवणबेलगोला में बाहुबली की प्रसिद्ध उत्तुंगमूर्ति का निर्माण कराया था. गंगवंश के अन्तिम राजा रक्कस गंग पेर्मानडि रायमल्ल पंचम था तथा नन्नि आदि शान्तर राजकुमारों की अभिभाविका प्रसिद्ध जैन महिला चट्टलदेवी उसकी पत्नी थी. इस प्रकार गंगवंश के राजा प्रारम्भ से ही जैनधर्म के उपासक तथा संरक्षक थे. कदम्बवंश- कदम्बवंश मूलतः ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था. परन्तु उस वंश के कुछ राजा जैनधर्म के भक्त थे तथा उनके सहयोग से कर्नाटक में जैनधर्म की अभ्युन्नति हुई. चौथी शताब्दी के अन्त में इस वंश में एक राजा जैनधर्म का भक्त हुआ, जिसका नाम काकुत्स्थ वर्मा था. उसका सेनापति श्रुतकीर्ति जैन था तथा उसने काकुत्स्थ वर्मा के जीवन की रक्षा की थी. कदम्बवंशीय राजा यद्यपि ब्राह्मणधर्म के अनुयायी थे, परन्तु उनके उदार संरक्षण के अन्तर्गत जैनधर्म की पर्याप्त उन्नति हुई. कुछ कदम्बनरेश जैनधर्म के अत्यन्त निकट थे. काकुत्स्थ वर्मा के पौत्र राजा मृगेश वर्मा ने जिनालय की सफाई के लिए, घृताभिषेक के लिए तथा जीर्णोद्धार आदि के लिए भूमि दान में दिया था. यह दानपत्र महात्मा दामकीर्ति भोजक के द्वारा लिखा गया था तथा जिसमें जैनधर्म के दोनों सम्प्रदायों का उल्लेख करते हुए लिखा था कि अमुक गाँव अर्हन्त भगवान तथा उनके उपासक श्वेतपट महाश्रमणसंघ व निर्गन्थ महाश्रमणसंघ के लिए दिया गया. इसके अतिरिक्त मृगेश वर्मा ने अपने स्वर्गीय पिता की स्मृति में पलासिका नगर में एक जिनालय बनवाया तथा कुछ भूमि यापनियों व कूर्चक सम्प्रदाय के नग्न साधुओं के निमित्त दान में दिया था. मृगेश वर्मा के उत्तराधिकारी राजा रवि वर्मा ने भी अपने पिता का अनुसरण किया तथा जैनधर्म के बढ़ते हुए प्रभाव को अधिक स्पष्टता के साथ अंगीकार किया. उसने यह नियम भी निकाला कि पुरुखेटक गाँव की आय से प्रतिवर्ष कार्त्तिक पूर्णिमा तक अष्टानिका महोत्सव होना चाहिए. वर्षा ऋतु के चार महीनों में साधुओं की सेवा होनी चाहिए. रवि वर्मा की तरह उसका भाई भानु वर्मा भी जैनधर्म का अनुयायी था. उसने प्रत्येक पूर्णमासी के दिन जिनदेव के अभिषेक के निमित्त जैनों को भूमिदान किया था. राजा रवि वर्मा के पुत्र का नाम हरि वर्मा था. जब वह उच्चशृंगी पहाड़ी पर था, तब उसने चाचा शिवरथ के उपदेश से जिनालय के वार्षिक अष्टाह्निका पूजन के निमित्त कूर्चक सम्प्रदाय के वारिषेणाचार्य को वसन्तवाटक गाँव दान में दिया था. कदम्ब वंश का अन्तिम शासक देव वर्मा था, जिसने चैत्यालय की मरम्मत तथा पूजा के लिए यापनीय संघ को सिद्ध केदार में कुछ भूमि प्रदान की थी. कदम्बवंशीय राजाओं ने जब पुनः ब्राह्मणधर्म अंगीकर कर लिया उसके बाद भी वे 112 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक जैनधर्म को संरक्षण प्रदान करते रहे. राष्ट्रकूटवंश- राजा शिवसार द्वितीय के राज्यकाल में राष्ट्रकूटों ने गंगवाडी को कब्जा करके गंगनरेशों को पराजित किया. परन्तु उनके द्वारा जैनधर्म को संरक्षण देने की परम्परा को कायम रखा. राष्टकूटों का राज्य ई. से तक रहा. इनमें से कुछ राजा जैनधर्म के महान् संरक्षक थे. जिनका राज्यकाल जैनों के लिए बहुत समृद्धिकारक था. जैन दिगम्बर परम्परा में अकलंकदेव एक प्रखर वाग्मी तथा ग्रन्थकार के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं. वि. स. में अकलंकदेव का बौद्धों के साथ महान शास्त्रार्थ हुआ था. दिगम्बर जैन कथाकोष के अनुसार अकलंक शुभतुंग राजा के पुत्र थे. राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय जैनधर्म का संरक्षक था. जिसने एलाचार्य गुरु के शिष्य धार्मिक विद्वान वर्धमान गुरु को वदनगुप्पे गाँव दान में दिया था. गोविन्द तृतीय का पुत्र अमोघवर्ष प्रथम भी जैनधर्म का महान उन्नायक, संरक्षक तथा आश्रयदाता था. उसका राज्यकाल ई. से तक रहा. अमोघवर्ष ने लगभग वर्षों तक राज्य किया. अमोघवर्ष ने अपने पुत्र अकालवर्ष या कृष्ण द्वितीय को राज्यकार्य सौप दिया था. कृष्ण द्वितीय के महासामन्त पृथ्वीराय के द्वारा सौन्दति के एक जैन मन्दिर के लिए कुछ भूमि दान किए जाने का वर्णन मिलता है. सभी राष्ट्रकूट राजाओं में अमोघवर्ष जैनधर्म का महान संरक्षक था. राजा अमोघवर्ष का पुत्र कृष्ण द्वितीय भी जैनधर्म का भक्त था. पुष्पदन्त ने 'महापुराण' की उत्थानिका में जैनधर्म के दो आश्रयदाताओं का उल्लेख किया है- एक भरत का और दूसरा उसके पुत्र नन्न का. ये दोनों कृष्णराज तृतीय के महामात्य थे. राष्ट्रकूटवंश की समाप्ति के बाद चालुक्य वंश की स्थापना हुई. इस मध्यकाल में चालुक्यों की अनेक शाखाएँ विद्यमान रहीं. प्रसिद्ध कन्नड़ कवि पम्प का संरक्षक अरिकेसरी भी चालुक्य वंश की एक शाखा से सम्बन्धित था. इस प्रकार प्रारम्भिक चालुक्य वंश के समाप्त हो जाने के बाद भी विभिन्न चालुक्य राजाओं के द्वारा बराबर जैनधर्म को आश्रय दिया जाता रहा है. होयसल वंश- चालुक्यों के पतन के बाद दक्षिण में दो महाशक्तियों का जन्म हुआ था. उनमें से एक तो होयसल थे, जो कर्णाटक देश के वासी थे और दूसरे यादव थे. दोनों ने पश्चिमी चालुक्यों के प्रदेश पर कब्जा कर चालुक्य राजवंश को नष्ट कर दिया. होयसलों ने दक्षिण भाग पर अधिकार कर लिया तथा यादवों ने उत्तरी भाग पर. सागरकट्टे के एक शिलालेख से यह स्पष्ट होता है कि होयसलों के शासन प्रबन्ध में जैनगुरुओं की प्रमुख भूमिका रही है. पार्श्वनाथ वसदि से प्राप्त एक शिलालेख के माध्यम से यह ज्ञात होता है कि राजा विनयादित्य चालुक्य वंश के विक्रमादित्य षष्ठ का सामन्त था. राजा विनयादित्य पोयसल एक बार मत्तावर आए और पहाड़ पर अवस्थित वसदि के दर्शनार्थ गए. उन्होंने लोगों से पूछा कि आपने गाँव में मन्दिर न बनवाकर इस पहाड़ी पर क्यों बनवाया ? माणिक सेट्ठी ने उत्तर दिया- हमलोग गरीब हैं. हम आपसे गाँव में मन्दिर बनवाने की प्रार्थना करते हैं क्योंकि आपके पास लक्ष्मी की कमी नहीं है. यह सुनकर राजा प्रसन्न हुआ तथा उसने माणिक सेट्ठी व अन्य लोगों से मन्दिर के लिए जमीन ली और मन्दिर का निर्माण कराकर उसकी व्यवस्था के लिए नाडली गाँव दान में दी. उसने वसदि के पास ऋषिहल्ली नाम का गाँव तथा कुछ मकान बनाने की भी आज्ञा दी और उस गाँव के बहुत से कर माफ कर दिए. होयसल नरेश विनयादित्य के पुत्र एरेयंग ने कल्बप्पु पर्वत की बस्तियों के जीर्णोद्धार तथा आहारदान आदि के लिए अपने गुरु गोपनन्दि पण्डित को गाँव में दान में दिया था. उन्होंने जैनधर्म की विभूति को पुनः आगे बढ़ाया. एरेयंग के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र बल्लाल प्रथम गद्दी पर बैठा. उसके गुरु चारुकीर्ति मुनि थे. एकबार जब बल्लाल युद्धक्षेत्र के समीप ही मरणासन्न हो गया तो चिकित्सा शास्त्र में निपुन चारुकीर्ति मुनि ने उसे तत्काल स्वस्थ कर दिया. ऐसा कहा जाता था कि चारुकीर्ति मुनि के शरीर को छूकर बहनेवाली वायु भी रोग को शान्त कर देती थी.. राजा बल्लाल के अल्पकालीन शासन के बाद विष्णुवर्द्धन बिट्टिगदेव गद्दी पर बैठा. उसने कर्नाटक को चोल शासन 113 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक से मुक्त किया था. उसे जैन सेनापतियों के कारण अनेक उल्लेखनीय विजय प्राप्त हुआ था. उसका शासन एक ऐसी घटना के कारण बहुत प्रसिद्ध है, जिसने कर्नाटक तथा दक्षिण भारत के समस्त इतिहास को प्रभावित किया था. वह घटना थी आचार्य रामानुज के प्रभाव से उसका जैनधर्म को छोड़कर वैष्णवधर्म को अंगीकार करना. धर्म परिवर्तन करने के फलस्वरूप बिट्टिगदेव ने जैनों को कोल्हू में पिलवा दिया था. बिट्टिगदेव के धर्म परिवर्तन करने पर भी उनकी पत्नी शान्तलदेवी ने धर्म परिवर्तन नहीं किया. वह जैनों को दान देती रही. विष्णुवर्द्धन का मन्त्री और सेनापति गंगराज भी जैनधर्म के उन्नायकों में गिना जाता था. उसने जैन मन्दिरों का निर्माण तथा जीर्णोद्धार कराया और गुरुओं तथा मूर्तियों की सुरक्षा की. विष्णुवर्द्धन के पश्चात् उसका पुत्र नरसिंह प्रथम गद्दी पर बैठा. उसके समय में होयसल साम्राज्य की महत्ता बहुत बढ़ चुकी थी. उसका सेनापति हुल्ल जैनधर्म का अनन्य भक्त था. राजा नरसिंहदेव ने जैनधर्म के प्रति जो उदारता बरती, उसमें हल्ल का विशेष सहयोग था. नरसिंहदेव के पुत्र का नाम बल्लाल द्वितीय था. उसके राज्यकाल में एकबार पुनः तलवारें चमकीं और होयसल नरेश ने स्याद्वाद सिद्धान्त के प्रति अपना पक्षपात व्यक्त किया. नरसिंहदेव के धर्मगुरु बलात्कार गण के माघनन्दि सिद्धान्तदेव थे. जो अभिनव सार चतुष्टय के सिद्धान्तसार, श्रावकाचार सार, पदार्थसार तथा शास्त्रसार समुच्चय के रचयिता थे. __उपर्युक्त विवरणों से यह स्पष्ट होता है कि धार्मिक सिद्धान्तों के पीछे यदि राजनीतिक शक्तियाँ न हों तो उनका समाज पर स्थायी प्रभाव नहीं होता. यही कारण है कि जैनाचार्यों ने केवल मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों का ही निर्माण नहीं किया, बल्कि ऐसे राजाओं, मंत्रियों और सेनापतियों का भी निर्माण किया, जो अहिंसा प्रधान जैन धर्मावलम्बी होते हुए भी शत्रुओं से अपने देश को मुक्त कराने की क्षमता रखते थे. ऐसे महापुरुषों में सर्वप्रथम उल्लेखनीय चामुण्डराय हैं. जिनके समान बहादुर और भक्त जैन दक्षिण में दूसरा नहीं हुआ. भोजन विषयक भोजन आधा पेट कर, दुगुना पानी पी। तीगुना श्रम, चौगुनी हँसी, वर्ष सवासौ जी।। आरोग्य उसी व्यक्ति को ढूँढता है. जो खाली पेट होने पर भोजन करता है। एवं रोग उसी आदमी को खोजता है जो अमर्यादित खाता है।। धनवान होने पर भी अतिथियों का आदर-सत्कार नहीं करता वह नितान्त दरिद्र है। और जो निर्धन होने पर भी अतिथियों का सम्मान करता है वह दरअसल धनवान है।। અમર્યાદિત ભોજન આરોગ્યનાશક બને છે. ભરપેટ ભોજન આરોગ્યપાલક બને છે. પ્રમાણસર ભોજન આરોગ્યવર્ધક બને છે. 'आहार शुद्धौ सत्त्व शुद्धिः શુદ્ધ, શાકાહારી અને સાત્વિક આહાર લેવાથી મન પવિત્ર અને શુદ્ધ બને છે. 114 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक स्त्री-पुरूषों की कलाएँ जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का जन्म, जब दो कोडाकोडी सागर की स्थिति वाले तृतीय आरक के समाप्त होने में ८४ लाख पूर्व, ३ वर्ष, ८ मास और १५ दिन शेष थे, तब १४वें कुलकर पिता नाभिराय एवं माता मरूदेवी के पुत्र रूप में हुआ. श्रीमद् भागवत में भी प्रथम मनु स्वयंभुव के मन्वन्तर में ही उनके वंशज अग्निध्र से नाभि और नाभि से ऋषभदेव का जन्म होना माना गया है. भगवान ऋषभदेव के जन्म काल तक मानव समाज किसी कुल-जाति अथवा वंश के विभाग में विभक्त नहीं था. प्रभु ऋषभ जब एक वर्ष से कुछ कम वय के थे, उस समय एक हाथ में इक्षुदण्ड लिये वज्रपाणि देवराज शक्र उनके समक्ष उपस्थित हुए. देवेन्द्र शक्र के हाथ में इक्षुदण्ड देखकर शिशु-जिन ऋषभदेव ने उसे प्राप्त करने के लिए अपना प्रशस्त लक्षणयुक्त दक्षिण हस्त आगे बढ़ाया. यह देख देवराज शक्र ने सर्वप्रथम प्रभु की इक्षु भक्षण की रूचि जानकर त्रैलोक्य प्रदीप तीर्थंकर प्रभु ऋषभ के वंश का नाम इक्ष्वाकु वंश रखा. उसी प्रकार इक्षु के काटने और छेदन करने के कारण धारा बहने से भगवान का गोत्र 'काश्यप' रखा गया. तीन ज्ञान के धनी कुमार ऋषभदेव ने मनुष्य को खाने योग्य अन्न, फल-फूल और पत्तों का भली भांति परिचय कराया. कच्चे धान को पकाने की कला भी उन्होंने ही सिखायी. कुमार ऋषभ के भरत एवं बाहुबली सहित १०० पुत्र तथा ब्राह्मी और सुन्दरी दो पुत्रियाँ हुई. प्रभु ऋषभदेव ने भरत आदि पुत्रों के माध्यम से उस समय के लोगों को पुरूषों की जिन ७२ कलाओं का प्रशिक्षण दिया, वे इस प्रकार हैं :पुरूषों की ७२ कलाएँ १. लेखन १९. आर्य भाषा में कविता निर्माण ३७. दण्ड लक्षण जानना २. गणित २०. प्रहेलिका ३८. तलवार के लक्षण जानना ३. रुप २१. छन्द बनाना ३९. मणि लक्षण जानना ४. संगीत २२. गाथा निर्माण ४०. चक्रवर्ती के काकिणी रत्नविशेष ५. नृत्य २३. श्लोक निर्माण के लक्षण जानना ६. वाद्यवादन २४. सुगन्धित पदार्थ निर्माण ४१. चर्म लक्षण जानना ७. स्वरज्ञान २५. षट् रस निर्माण ४२. चन्द्र लक्षण जानना ८. मृदंगवादन २६. अलंकार निर्माण व धारण ४३. सूर्य आदि की गति जानना ९. तालदेना २७. स्त्री शिक्षा ४४. राहु की गति जानना १०. चूत कला २८. स्त्री के लक्षण जानना ४५. ग्रहों की गति ज्ञान ११. वार्तालाप २९. पुरुष के लक्षण जानना ४६. सौभाग्य का ज्ञान १२. संरक्षण ३०. घोडे के लक्षण जानना ४७. दुर्भाग्य का ज्ञान १३. पासा खेलना ३१. हाथी के लक्षण जानना ४८. प्रज्ञप्ति आदि विद्या ज्ञान १४. मिट्टी पानी से वस्तु बनाना ३२. गाय व वृषभ के लक्षण जानना ४९. मंत्र साधना १५. अन्न उत्पादन ३३. कुकुट के लक्षण जानना ५०. गुप्त वस्तु ज्ञान १६. पानी शुद्धि ३४. मेढक के लक्षण जानना ५१. वस्तु वृत्त का ज्ञान १७. वस्त्र बनाना ३५. चक्र लक्षण जानना ५२. सैन्य प्रमाण आदि ज्ञान १८. शय्या निर्माण ३६. छत्र लक्षण जानना ५३. प्रति व्यूह निर्माण 115 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक ५४. सैन्य संचालन ६१. नगर निर्माण का ज्ञान ६८. बाहुयुद्ध ५५. व्यूह निर्माण ६२. थोडे को अधिक करना ६९. सुत्ताखेड आदि वस्तु स्वभाव ५६. सेना के पडाव का ज्ञान ६३. शस्त्र निर्माण ज्ञान ५७. नगर प्रमाण ज्ञान ६४. अश्व शिक्षा ७०. पत्र छेदन कला ५८. वस्तु प्रमाण ज्ञान ६५. हस्ति शिक्षा ७१. सजीवन निर्जीवन कला ५९. सैन्य पडाव निर्माण ज्ञान ६६. धनुष विद्या ७२. पक्षी के शब्द से शुभाशुभ ६०. वस्तु स्थापन ज्ञान ६७. सुवर्णादि धातु पाक जानना महिलाओं की ६४ कलाएँ पुरूषों के लिए कला-विज्ञान की शिक्षा देकर प्रभु ने महिलाओं के जीवन को भी उपयोगी व शिक्षा सम्पन्न करना आवश्यक समझा. अपनी पुत्री ब्राह्मी के माध्यम से उन्होंने लिपि-ज्ञान तो दिया ही, इसके साथ ही साथ महिला-गुणो के रूप में ६४ कलाएँ भी सिखलाई. वे ६४ कलाएँ इस प्रकार है :१. नृत्य-कला २३. वर्णिका वृद्धि ४५. कथाकथन २. औचित्य २४. सुवर्ण सिद्धि ४६. पुष्प गुन्थन ३. चित्र-कला २५. सुरभितैल्करण ४७. वक्रोक्तिजल्पन ४. वाद्य-कला २६. लीलासंचरण ४८. काव्यरचना ५. मंत्र २७. गजतुरंग परीक्षण ४९. स्फारवेश ६. तंत्र २८. पुरूष-स्त्री लक्षण ५०. सर्वभाषा ज्ञान ७. ज्ञान २९. सुवर्ण रत्न भेद ५१. अभिधान-ज्ञान ८. विज्ञान ३०. अष्टादशलिपि ज्ञान ५२. भूषण-परिधान ९. दम्भ ३१. तत्काल बुद्धि ५३. भृत्योपचार १०. जलस्तम्भ ३२. वस्तु सिद्धि ५४. गृहाचार ११. गीतमान ३३. कामक्रीडा ५५. पाठ्यकरण १२. तालमान ३४. वैद्यकविद्या ५६. परनिराकरण १३. मेघवृष्टि ३५. घटभ्रम ५७. धान्यरन्धन १४. फलाकृष्टि ३६. सारपरिश्रम ५८. केश बन्धन १५. आराम रोपण ३७. अंजनयोग ५९. वीणादिवादन १६. आकार गोपन ३८. चूर्णयोग ६०. वितण्डावाद १७. धर्म विचार ३९. हस्तलाघव ६१. अंक विचार १८. शकुनविचार ४०. वचन चातुर्य्य ६२. लोक व्यवहार १९. क्रिया कल्पन ४१. भोज्य विधि ६३. अन्त्याक्षरिका २०. संस्कृत जल्पन ४२. वाणिज्य विधि ६४. प्रश्न प्रहेलिका २१. प्रसाद नीति ४३. मुखमण्डन कल्पसूत्र से उद्धृत. २२. धर्म रीति ४४. शालि खण्डन 116 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक ठक्कुर फेरू कृत रत्नपरीक्षा ग्रंथ : एक परिशीलन मनोज र. जैन, कोबा .....बहुरत्ना वसन्धरा' इस पृथ्वी पर कई प्रकार के रत्न भरे पड़े हैं, जो देखने में तो सामान्य पत्थर जैसे लगते हैं, परन्तु मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन को परिवर्तित कर देने की क्षमता रखते है. पृथ्वी पर सबसे अधिक मूल्यवान होने के कारण रत्नों के प्रति लोगों को अधिक आकर्षण होता है तथा संपत्ति के रूप में इसकी लोकप्रतिष्ठा प्राचीन काल से चली आ रही रत्न शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है - 'रमन्ते अस्मिन् जना इति रत्नम्' जिसमें व्यक्ति आसक्त अथवा तल्लीन बन जाता है, उसे रत्न कहते है. रत्नों के कई भेद प्रभेद हैं. परन्तु मुख्यतया मौक्तिक-मोती, मरकत-पन्ना, वज्र-हीरा, प्रवाल-विद्रुम, वैदूर्य-लहसुनिया, नील-नीलम (इन्द्रनीलमणी), माणेक-चुन्नी, गोमेद-पीला हीरा और पुष्पराग-पोखराज इन नवरत्नों का प्रचलन सुविख्यात है. भारतीय मनीषियों का मानना है कि हीरा, माणेक, मोती, विद्रुम, पन्ना, पोखराज, नीलम, गोमेद और वैदूर्य, इन प्रधान रत्नों की उत्पत्ति क्रमशः सूर्यादि नव ग्रहों के कारण हुई है. पृथ्वी के जिन भागों पर ग्रहों की किरणें साक्षात् पड़ती हैं, उन ग्रहों के विशेष तत्वों का संपात होने के कारण पृथ्वीतल में सतत रासायणिक प्रक्रिया होने से इन रत्नों का निर्माण होता है. इसिलिए जिस ग्रह के जैसे रंग का वर्णन ज्योतिषग्रन्थों में पाया जाता है, प्रायः उस ग्रह के रत्नों का रंग भी वैसा ही होता है. इसलिए इन रत्नों में उन ग्रहों की विशेष शक्ति संग्रहित रहती है, जो रत्न धारण करनेवालों के लिए अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव देने में सक्षम बनती है. जैन शास्त्रों में रत्नों का उल्लेख भगवान ऋषभदेव के समय से ही पाया जाता है. उत्तराध्ययनसूत्र, भगवतीसूत्र, राजप्रश्नीयसूत्र जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र व ज्ञाताधर्मकथा के सत्रहवें अध्ययन, में रत्नों के विषय में चर्चा की गई है. प्रत्येक तीर्थंकर की माता चौदह स्वप्नों में एक रत्नराशि भी देखती है. वराहमिहिर, अगस्ति, बुद्धभट्ट आदि रत्नशास्त्रकारों ने रत्नों की उत्पत्ति बल नामक दानव से मानी है. श्रीमाल वंशोद्भव चन्द्र के पुत्र ठक्कुर फेरू ने भी इसी लोकश्रुति का अनुवाद किया है. अन्यमत से दधीचि ऋषि के द्वारा रत्नोत्पत्ति माना गया है. पृथ्वी से स्वाभाविक रूप से ही रत्नों की उत्पत्ति हुई ऐसा मत भी है. रत्नों का व्यवहार कब से प्रारंभ हुआ यह कहना तो कठिन है फिर भी हम कह सकते हैं कि रत्न विषयक सबसे प्राचीन ग्रन्थ हमारे भारत में निर्मित हुए हैं. वराहमिहीर, अगस्ति, बुद्धभट्ट और ठक्कुर फेरू के रत्न परीक्षा ग्रन्थ प्रमाणभूत माने गए हैं. ऋग्वेद और अथर्ववेद में भी रत्नों के उल्लेख हए है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजकीय कोशागार में रखने योग्य रत्नों की परीक्षा का अधिकार आता है. इस प्रकार रत्नों के लिए हमारे पूर्वजों ने काफी अनुभव पूर्ण वर्णन किया है. भारत सदियों से रत्नों का व्यापारी केन्द्र रहा है. अपने अनुभवों के आधार पर भारतीय जौहरियों ने रत्नों की लेन देन व उसकी सच्चाई परखने हेतु रत्न परीक्षा के ग्रन्थ बनाए हों, ऐसा कहा जा सकता है. जिसमें रत्नों की खरीद-बिक्री, नाम, जाति, आकार, घनत्व, रंग, गुण, दोष तथा मुल्य इत्यादि का सांगोपांग निरुपण किया गया होगा. रत्नविदों का मानना है कि जिन दो तत्वों को पृथ्वी के मुख्य तत्व माने जाते हैं, वे अग्नि व सोम (पानी) नामक दोनों तत्व इन रत्नों में भी मुख्य रूप से अपेक्षित होते हैं. इसीलिए आग व पानी से ही रत्नों की पहचान होती है. वराहमिहिर, अगस्ती एवं बुद्धभट्ट से परवर्ती और अल्लाउद्दीन खिलजी (१२९६-१३१६) के शाही खजाने के मन्त्री, धंधकुलोत्पन्न, कन्नाणपुर वास्तव्य श्रेष्ठि श्री चन्द्र फेरू के पुत्र ठक्कुर फेरू का रत्नपरीक्षा ग्रन्थ दूसरे तद्विषयक ग्रन्थों से 117 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक कुछ विशिष्टता पूर्ण है. इसका प्रमुख कारण तो यह है कि यह ग्रन्थ प्राकृत भाषाबद्ध है तथा दूसरी बात कि पूर्वशास्त्रों का अभ्यास कर उसमें अपने प्रत्यक्ष अनुभवों का भी उल्लेख किया गया है. प्राचीन रत्नपरीक्षा संबंधी परंपरा का जतन करते हुए फेरू ने अपने समय के माप-तोल तथा मूल्य बताया है. रत्नों के विषय में सर्वांगपूर्ण जानकारी जैन श्रावक ठक्कुर फेरू ने अपने रत्न परीक्षा में इस प्रकार दी है. वज्र (हीरा)- हेमवन्त, सुर्पारक, कलिंग, मातंग, कौशल, सौराष्ट्र तथा पांडुर प्रदेशों में और वेणुनदी में उत्पन्न होता है. इसमें भी कौशल और कलिंग के वज्र ताम्राभ हेमवन्त और मातंग के श्वेत व पांडू होते हैं. सौराष्ट्र के नील और वेणुनदी तथा सुरिक के हीरे श्यामवर्णी होते हैं. वज्र खदान से प्राप्त होता है, उस अवस्था में षट्कोण, अष्टफलक और बारह धारवाला होता है. श्वेताभ ब्राह्मण, रक्ताभ क्षत्रिय, पीताभ वैश्य और कृष्णाभ शूद्रक जातिय होता है. चारों वर्णोंवाले वज्र में राजा को अरुणाभ हीरा श्रेयस्कर होता है. शेष स्व-स्व वर्णवाले को धारण करने के लिए हितकर है. तीक्ष्ण धारवाला हीरा पुत्रार्थी स्त्रीजनों के लिए हानिकारक होता है. परन्तु चप्पड़िक मलिन और तीकोनाकार हीरा स्त्रीजनों को सुख देनेवाला कहा है. श्रेष्ठ प्रकार का हीरा जहाँ होता है, वहाँ अकाल मृत्यु, सर्प भय, अग्नि भय, व्याधि भय नहीं होते. हाथ में धारण करने से अकाल मृत्यु नहीं होती और ग्रह पीड़ा शान्त होती है. वज्र की एक और विशेषता यह है कि सभी रत्न वज्र से काटे जाते हैं, परन्तु वज्र को वज्र ही काट सकता है. मुक्ता (मोती) - मोती चन्द्र ग्रह का रत्न है. ये आठ प्रकार के होते हैं- मेघमुक्ता, गजमुक्ता, मत्स्यमुक्ता, सर्पमणि, वंशमोती, शंखमुक्ता, सूकरमुक्ता और शुक्तिमुक्ता मोती. वंशमुक्ता और मेघमुक्ता को छोड़कर शेष छ: मोती तिर्यंचों से उत्पन्न होते है. इनमें मात्र शुक्तिमुक्ता मोती सुलभ है, बाकी दुर्लभ माने गये हैं. मेघमुक्ता - रात्रि के अंधकार को दूर करने वाला द्युतिमान मेघमुक्ता, जहाँ होता है, वहाँ अशुभ नहीं होता. गजमुक्ता - हाथी के गंडस्थल से उत्पन्न पाण्डुरवर्णी, गजमुक्ता दुर्लभ और राज्य सुख देनेवाला है. चिन्तामणीरत्न - वर्षा की बूंद धरती पर आने से पहले ही हवा में सूख जाय तो चिन्तामणीरत्न बन जाता है. मत्स्य मोती - मछली के मुँह से उत्पन्न, शत्रुभय, चोरभय, डाकिनी-शाकिनी आदि के भय का नाशक है, वंश मोती - जलीय वनप्रदेश के बांस की गांठ में उत्पन्न हरे वर्णवाला यह मोती अत्यन्त दुर्लभ है. शंखमोती - महासमुद्र में शंख से उत्पन्न अरुणाभ, मांगल्य को देनेवाला, शंखमुक्ता प्रायः दुर्लभ होता है. शूकरमोती - वर्तुलाकार, घृतवर्णी यह मोती जिसके पास होता है, वह इन्द्र से भी पराजित नहीं होता. सर्पमणि - लक्ष्मी का स्वरूप, कान्तियुक्त, नीलवर्णी, जिसके प्रभाव से सर्प उपद्रव आदि दूर होते हैं. शुक्तिमुक्ता- सीप से प्राप्त होने वाला यह मोती वेध्य होता है. माणिक- पद्मराग, सौगंधिक, नीलगंध, कुरुविंद और जामुनियाँ, माणिक की ये पाँच जातियाँ हैं. माणिक की अनेक जातियों में बर्मी सर्वोत्तम होते हैं. यह रत्न वर्तमान में हीरे से भी अधिक मूल्यवान है. उत्तम कोटि का माणिक कबूतर के रक्त जैसे रंगवाला होता है. पद्मराग - सूर्यकिरणों जैसी कान्ति, सुस्निग्ध, कोमल तथा तप्त सुवर्ण की भांति गुणयुक्त होता है. सौगंधिक - पलास के फूल, अनार के दाने, कोयल, सारस तथा चकोर की आंख के रंग जैसा होता है. नीलगंध - कमल, आलता, मूंगा व हिंगूल के समान रंगवाला नील आभायुक्त नीलगंध है. कुरुविंद - पद्मराग और सौगंधिक जैसा ही अनेक रंगी कुरुविंद होता है, जामुनिया - जामूनी और कनेरपुष्प के रंग जैसी रक्तकान्तिवाला होता है. मरकतमणि (पन्ना)- फेरू के मतानुसार पन्ने की उत्पत्ति अलविंद, मलयाचल, बर्बर और समुद्रतट है. गरुड़ के कंठ 118 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक और सीने में भी मरकतमणि होती है. जबकि बुद्धभट्ट ने इसे समुद्रतट, रेगिस्तान और पर्वतस्थानीय बताया है. वही अगस्ति के अनुसार पर्वत समुद्र किनारा और तुरुष्कदेशीय कहा है. इससे यह ठीक से पता चलता है कि रत्नविदों के अभिप्राय से पन्ना समुद्र किनारों और रेगिस्तानवर्ती देशों में पाया जाता होगा. गरुडोदगार, कीडउठी, वासउती, मूगउनी और धूलिमराई ये पांच जातियाँ है, गरुडोद्गार रम्य, नील, अमल, कोमल और विषहर होता है. कीडउठी सुखकर, स्निग्ध और स्वर्ण जैसी कान्तिवाला होता है. वासवती पन्ना सरुक्ष, नीलवर्ण, हरितवर्ण और सूकर के पुच्छ के समान स्निग्ध होता है. मूगउनी काठिन्ययुक्त, कषने पर हरताल की तरह सुस्निग्ध होता है तथा धूलमराई जाति का पन्ना गुरुतायुक्त और कषने पर नीलाभ कान्तिवाला होता है. नीलमणि (नीलम)- फेरू ने इसकी उत्पत्ति सिंहलद्वीप तथा चण्डेश्वरने सिंहलद्वीप के साथ कर्लिंगदेशोदभव भी माना है, जो सिंहल से उतरती श्रेणि का होता है. फेरू के मत से नीलमणि के चार वर्ण, छ अथवा (नौ) दोष, पाँच गुण और नौ छाया होती है. श्वेत नीलाभ ब्राह्मण, नीलारुणाभ क्षत्रिय, पीताभ वैश्य और घननीलाभ शूद्र जाति का होता है. अभ्रक, मंदिस (भद्दापन), कर्कर, सत्रास, जठर, पथरीला, मल, सगार (मिट्टी) और विवर्ण ये नौ दोष होते हैं. अभ्रक दोष से धनक्षय, कर्कर से व्याधि, मंदिस से कुष्ट, पाषाणिक से शस्त्रघात, विभिन्न वर्ण से सिंहादि भय, सत्रास दोष से बंधुवध और समल सगार जठर दोषों से मित्रक्षय होता है. गुरुता, सुरंग, सुस्निग्ध, कोमल और द्युति-कान्ति ये पाँच गुण होते है. __ठक्कुर फेरू कथित पाँच महारत्नों का अन्य सभी विद्वानों के साथ मेल खाता है, परन्तु उपरत्नों के विषय में फेरू का मत भिन्न है. उसने विद्रुम, लहसुनिया, वैदूर्य और स्फटिक उपरत्न गिनाकर इनके साथ पुष्पराग, कर्केतन और भीसम को अभिष्ट मानकर इन सबका संक्षिप्त परिचय दिया है. जबकि बुद्धभट्ट के मत से वैदूर्य, कर्केतन, स्फटिक (पुलक) और विद्रुम ये चार ही उपरत्न है. उसने इन चारों का सारभूत वर्णन कर ग्रन्थ समाप्त किया है. इन दोनों के परवर्ति चण्डेश्वर ने गोमेद, स्फटिक, भस्मांगक मणि, गारुडोदगार, तार्क्ष्यमणि, गरुड़मणि, आस्तिक मणि और सुवर्णरेखा मणि का वर्णन करके वैदूर्य और प्रवाल का वर्णन किया है. _ विद्रुम (मूंगा) - ठक्कुर फेरू के मतानुसार से मूंगे की उत्पत्ति कावेरी, विंध्यपर्वत, चीन, महाचीन, समुद्र किनारा और नेपाल देश है. मूंगा वल्ली के रूप में उत्पन्न होता है और कंदनाल की तरह कोमल और अत्यन्त रक्तवर्णी होता है.. ____ अर्थशास्त्र के अनुसार मूंगा आलकंद और विवर्ण (समुद्र) से आता था. अगस्ति मत के अनुसार इसे हेमकंद पर्वत की खारी में झील से उत्पन्न होना माना गया है. अन्य प्राप्तिस्रोत में सिसली, कोर्सिका, सार्जीनिया, नेपल्स के पास लेगहार्न और जेनेबा अलजीरिया आदि भी थे. मार्कोपोलो के अनुसार तिब्बत में मूंगे की खूब मांग थी. प्लीनी के मत से भारत मूंगे। का अच्छा बाजार था. भूटान और असम भी मूंगे के खरीदार थे. ___लहसुनिया - ठक्कुर फेरू के अनुसार यह नीला, पीला, लाल और श्वेत रंगी होता है, यह सिंहल द्वीप से आता है. लहसुनिया यदि दोषरहित, स्वच्छ तथा बिलाड़ की आँखों जैसा हो तो वह नवग्रह के रत्नतुल्य माना जाता है. इसे पुलकित भी कहते हैं. दरियाई लहसुनिया बाघ की आँख के समान पीतवर्णी होता है. जबकि स्फटिक लहसुनिया भी इसी का एक भेद माना जाता है. वैदूर्य - फेरू ने इसका उत्पत्ति स्थान कुवियंग देश के संनिकट विदूर पर्वत और इसका वर्ण बांस के पत्ते जैसा हरित वर्णवाला माना है. फेरू ने वैदूर्य और लहसुनिया को भिन्न माना है, जबकि बुद्धभट्ट और चण्डेश्वरने उसे एक ही रत्न माना है. बुद्धभट्टने नेत्रदलप्रकाश और चण्डेश्वर ने 'मार्जारनेत्रसंकाशम्' कहकर ऐक्यता दर्शायी है. स्फटिकरत्न - फेरू ने इसका उत्पत्तिस्थल नेपाल, कश्मीर, चीन, कावेरी, यमुनानदी और विंध्यगिरि माना है. रविकान्त और चन्द्रकान्त इसके दो प्रकार हैं. रविकान्त से अग्नि और चन्द्रकान्त से अमृत समान जल का स्राव होता है. बुद्धभट्ट ने इसे पुलकरत्न से संबोधित किया है. उसके मत से यह रत्न पुण्यभागी पर्वतस्थान, पवित्र नदियों में तथा अन्य स्थानों से प्राप्त होता है. गुंजादल, द्राक्ष और कमलदण्ड के समान वर्णवाले स्फटिक चार प्रकार के माने गए हैं- बिल्वफल, 119 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक सूर्याभ, श्वेत तथा कदलीगर्भ के समान. ___पुष्पराग (पोखराज, पुखराज) - फेरू ने इसका उत्पत्ति स्थान हिमालय बताते हुए कहा है कि उत्तम गुणयुक्त और दोषरहित पुखराज जो व्यक्ति धारण करता है, उस पर गुरुग्रह का सदैव अनुग्रह रहता है. यह पीतवर्णी और कनकवर्णी इसमें स्निग्धता का गुण विशेष रूप से होता है. अन्य मत से इसे रुधिर वर्णवाला भी माना गया है. ठक्कुर फेरू के मत से भीसम और चन्द्र दो प्रकार के पुखराज हिमगिरि से प्राप्त होते थे. चण्डेश्वर ने बाणपुष्प के समान कान्तियुक्त कहकर इसके प्रभाव का वर्णन करते हुए इसे पुत्रदायक, धनदायक और पुण्य देनेवाला माना है. कर्केतनमणि- इस रत्न विशेष की उत्पत्ति के विषय में फेरू का कहना है कि यह पवण और उपपठान देश में पैदा होता है. कर्केतन ताम्रवर्ण और पके हुए महुए के फल सदृश होता है. इसे नीलाभ सुदृढ़ और सुस्निग्ध कहा गया है. बुद्धभट्ट के मत से कर्केतन रत्न पूज्यतम है. शायद दुर्लभ होने के कारण ऐसा कहा गया हो. कर्केतन के प्रभाव से कुल, पुत्र, धन, धान्य, और सौख्यवृद्धि होती है. ___भीसमरत्न - इसके बारे में मात्र ठक्कुर फेरू ने ही उल्लेख किया है. यह श्वेतवर्ण होता है. उत्पत्ति हिमालय मानी है. भीसम जिसके पास होता है उसे अग्नि और विद्युत से कभी भय नहीं रहता. गोमेदरत्न - गोमूत्र के समान वर्णवाले गोमेद को फेरूने पीताभ और पंडुर कहा है. इसकी उत्पत्ति के विषय में ठक्कुर फेरू ने सिरिनायकुलपरेवंगदेशे लिखा है. जिसकी विवरणकारों ने ठीक से पहचान नहीं की ऐसा ज्ञात होता है. नायकुल जैन शास्त्रों में प्रसिद्ध है. भगवान महावीर की जन्मस्थली क्षत्रियकुंड या वैशाली का प्रदेश माना जाता है. नायकुल इंगित करके ठक्कुर फेरू ने इस ओर इशारा किया है कि क्षत्रियकुंड ग्राम के आगे बंगदेश है, जो गोमेद का उत्पत्ति स्थान है. दूसरा स्थान नर्मदानदी है. गोमेद क्षय रोग और तेज खांसी में गुणकारी होता है. श्वेत रंगी गोमेद धन-संपत्ति कारक है. उन्होंने कुछ पारसी रत्नों का भी उल्लेख किया है. जैसे लाल - लाल याने अग्नि की तरह लालवर्णीय रत्न बंदखसाण देश में प्राप्त होने वाला. अकीक - पीले रंग का यमन देश अर्थात् अरब देश में प्राप्त होने वाला. फिरोजा - नीलवर्णी नीसावर तथा मुवासीर में प्राप्त होने वाला. आधुनिक व्याखाकार निसावर को फारस का निशापुर और मुवासीर को ईराक का मोसुल या अलमोसिल समझते हैं. लाल, लहसुनिया, इन्द्रनील और फिरोजे की तौल सुवर्ण टंककों मे होती थी. अकीक की कीमत अन्य रत्नों की अपेक्षा बहुत कम होती है. यमन के अकीक मुंबई आदि स्थानों में आज भी प्रसिद्ध है. फेरू ने रत्नों के मूल्य के विषय में कहा है कि किसी भी रत्न का मूल्य बंधा हुआ नहीं है. यह नजर पर आधारित है. अल्लाउद्दीन के समय में रत्नों के जो दाम और तौल प्रचलन में थे, वही अपने ग्रन्थ में उद्धृत किये हैं. उन्होंने हीरा, ा और माणिक का मूल्य सुवर्णमुद्रा में कहा है. रत्नों की सबसे बड़ी तोल एक टांक और सब से छोटी तोल एक गुंजा प्रमाण बताई गई है. फेरू की रत्नपरीक्षा से यह ज्ञात होता है कि सभी रत्नों में हीरे का मूल्य सबसे अधिक था, जो आज भी है. हीरा जैसे-जैसे वजन में भारी होता है, वैसे-वैसे उसका मूल्य बढ़ता जाता है. परन्तु यह बारह रत्ती प्रमाण तक ही माना जाता है. तेरह रत्ती से लेकर एक-एक रत्ती तोल बढ़ने पर कीमत दूगुनी मानी जाती है. हीरे के बाद माणिक का दाम दूसरे स्थान पर, मोती तीसरे और पन्ना चौथे क्रम में आता था. वज्र, मोती, माणिक, मरकत, लाल, लहसुनिया, इन्द्रनील, फिरोजा, गोमेद, स्फटिक, भीसम, कर्केतन, पुंसराय और वैदूर्य, इन रत्नों में से प्रत्येक का मूल्य सुवर्ण या रजत टंककों में पाया जाता है. ___ तौल के विषय में फेरू ने तीन राई का एक सरसों माना है. छः सरसों का एक तंडुल और दो तंडुल का एक यव लिखा है. सोलह यव और छ: गुंजा प्रमाण एक मासा माना है तथा चार मासा का एक टंक बताया है. अन्त में उन्होंने 120 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी प्रशस्ति करते हुए ग्रन्थ का समापन किया है. फेरू जैन श्रावक थे और तत्कालीन दिल्लीपति अल्लाउद्दीन खिलजी के शाही खजाने के मन्त्री पद पर आसीन थे. उन्होंने अपने पुत्र के अभ्यास के लिए यह ग्रन्थ बनाया था. चौरासी रत्नों में से जिन रत्नों का उल्लेख ऊपर नहीं किया गया है, उनका वर्णन इस प्रकार किया जा रहा है. लालडी फीरोजा ऐमनी जवरजद्द तुर्मनी उपल नरम धुनेला सुनहला कटेला संग सितारा गउदन्ता तामडा लुधिया मरीयम मकनातीस सिन्दूरिया लीली बैरुज मरगज पितोनीया दुरेलजफ बांसी सुलेमानी आलेमानी जजेमानी सिवार तुरसावा यह गुलाब के फूल के समान होती है. २५ रत्ती से अधिक होने पर लाल कहा जाता है. आसमानी रंग का होता है और कंकरों के समूह में मिलता है. पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक अधिक लाल थोडा स्याहीपन का होता है, ज्यादातर मुसलमान पहनते है. आनंददायक होता है. सब्ज और स्याही के समान होता है. पुखराज की जाति का यह रत्न पाँच रंगों में उपलब्ध होता है. यह हल्का व नर्म होता है, गलकारी होता है. यह अनेक रंगों में होते है. ऊपर एक तरह का अभ्र पड़ता है. . लाल जरदपन सरीखा होता है. यह सोने के धुएँ के समान होता है. यह भी सोने के धुएँ के समान होता है. बैंगन के रंग के समान होता है. इसमें कई रंग होते हैं, ऊपर सुनहले रंग के दाग होते हैं. गाय के दाँत के समान थोडा जरद व सफेद रंग का होता है. काला व सुर्ख रंग का होता है, इसमें चमक होती है. मजन्टा अथवा चिरमी के समान लाल रंग का होता है. सफेद रंग का होता है. इसकी पालिस अच्छी होती है. थोडा स्याहीपन और सफेद चमकदार होता है. सफेद रंग लिये हुए कुछ गुलाबी रंग का होता है. यह नीलम की जात है, परन्तु नीलम से कुछ नरम और थोडा जर्द होता है. यह हल्का व सब्ज होता है, इसकी खान टोडा में है. यह पन्ने की एक जाति है, इसमें पानी नही होता है. सब्ज के ऊपर सूर्ख छीटेदार होते है. कच्चे धान के समान इसका रंग होता है. इसकी पालिश बहुत अच्छी होती है. हरे रंग का, हल्का तथा नरम होता है. पालिश अच्छी व चमकदार होती है. काले रंग पर सफेद डोरे होते है. भूरे रंग पर उपर सफेद डोरे होते है. यह सुलेमानी जाति की है, इसका रंग पारे के समान होता है. यह हरे रंग का होता है, उसके ऊपर भूरे रंग की रेखा होती है. यह गुलाबीपन लिये हुए जर्द रंग का होता है. इसका पत्थर बहुत नर्म होता है. 121 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक अहवा आवरी लाजवरद कुदरत चित्ती संगेरस लास माखर दाना फिरंग कसौटी दारचना हकीके कुलबहार हालन सिजरी सुवेनजफ कटरवा झरना संगे वसरी दांतला मकड़ी संगीया गुदरी कासला सिफरी हदीद हवास सिंगली इसका रंग गुलाबी तथा ऊपर बड़े-बड़े छींटें होते हैं. कालापन लिये हुए सोने के समान होता है, यह नीले रंग का होता है. यह काले रंग का होता है, ऊपर सफेद व जर्द दाग होते है. काले रंग पर सोने के छींटे और सफेद डोरे दिखते हैं. इसकी दो जातियाँ होती है, अंगूरी एवं सफेद, अंगूरी अच्छा होता है. यह मारवर की एक जाति है. इसका रंग पारे के समान होता है, परन्तु लाल व सफेद मिले होने के कारण यह मकराना भी कहलाता है. पिस्ते के समान थोडा हरा होता है. यह तीन प्रकार का होता है, सोनाकस, लोहाकस, चांदीकस, अंतिम दो तो मिलते हैं, परन्तु पहला नहीं मिलता है. काला रंग, इससे सोने के कस की परीक्षा होती है. चने की दाल के समान पीले तथा लाल टिकिये के समान होता है रंग स्याह होता है तथा यह जमीन पर होता है. हरेपन के साथ जद मिला होता है. मुसलमान इसकी माला बनाकर इससे जाप करते हैं. यह पत्थर जल में होता है. यह गुलाबी रंग का परन्तु मैला होता है, हिलाने से हिलता है. सफेद रंग के ऊपर श्याम दरख्त दिखता है. इसके ऊपर सफेद बाल जैसी रेखाएँ होती है.. पीले रंग का होता है, जिससे बोरखा तथा माला बनाई जाती है. मटिया रंग का, जिसे पानी देने पर सब पानी झर जाता है. इसका रंग काला होता है. आँख के सुरमे के काम आता है, यह पुराने शंख के समान होता है. इसका रंग सफेद जरदपन लिये होता है. यह सादापन लिये हुये काले रंग का होता है, ऊपर मकड़ी के जाल जैसी आकृति होती है. यह शंख के समान सफेद होता है, इसका घड़ी का लाकेट बनता है. यह अनेक प्रकार के रंगों वाला होता है, इसे फकीर पहनते हैं. यह हरापन लिये हुए सफेद होता है. यह हरापन लिये आसमानी रंग का होता है. यह भूरापन लिये स्याह रंग का वजनदार होता है. मुसलमान इसकी माला बनाकर जाप करते हैं. यह सुनहला लिए हुए सब्ज रंग का होता है, औषिधियों में काम आता है, यह शक्तिवर्द्धक दवाएँ बनाने के काम आता है. यह माणक के जाती की होती है, इसका रंग स्याही व सुर्खी मिला होता है. 122 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढेडी हकीक गोरी सीचा सीमाक मुसा पनधन अमलीया डूर तिलमर स्वारा पाय जहर सिरखडी जहर मोहरा रतुबा सोनामाखी हजरतेय हूद सुरमा पारस यह काले रंग का होता है, इसकी खरल व कटोरे बनते है.. यह अनेक रंगों का होता है, इससे घड़ी के मुट्ठे कंधोरे एवं खिलौने बनते है. यह अनेक प्रकार के रंगों वाला, सफेद सूत सरीखा होता है. यह काले रंग का होता है, इससे अनेक प्रकार की मूर्तियाँ बनाई जाती है. यह चिकना और चमकदार होता है. पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक लाल, जरद एवं कुछ शाहमाइल होता है. ऊपर सफेद जरद व गुलाबी छीटा होता है. इससे खरल व कटोरे बनते है. यह सफेद रंग का होता है, इससे खरल और कटोरे बनते है. यह कुछ हरापन लिये काले रंग का होता है. यह कुछ कालापन लिये, गुलाबी रंग का होता है.. कत्थे समान रंग का होता है, हड्डी सड़ जाने पर इसकी दवा काम में आती है. काले के ऊपर सफेद रंग के छींटे होते हैं, इससे खरल बनते है. यह थोड़ा हरापन लिए होता है, भगंदर रोग पर इसका पाउडर काम आता है. यह सफेद पारे जैसा होता है, जहरीले सर्प-बिच्छू के काटने की जगह पर लगाने से यह एक क्षण में विष खींच लेता है. यह मटमैले रंग का होता है, इससे सुन्दर खिलौने बनते हैं. जिसके शरीर पर घाव पड गये हों, वहाँ घिसकर लगाने से घाव जल्दी भर जाते हैं. यह थोड़ा सफेद से हर प्रकार के यह लाल रंग का होता है. जिस व्यक्ति को रात में ज्वर (ताव) आता हो उसके गले में बाँधने से ज्वर नहीं आएगा, एकान्तरा तेरान्तरा बुखार भी नहीं आए. यह नीले रंग का होता है, यह औषधियाँ बनाने के काम आता है.. यह सफेद मिट्टी के समान होता है. यह पेशाब की बीमारी में काम आता है. यह आँखों की प्रत्येक बीमारी में काम आता है. आँखों का जाला काट देता है. काले रंग वाले इस पत्थर को लोहे से स्पर्श कराने से लोहा सोना बन जाता है. यह अरावली पहाड़ (आबू) में है. ये रत्नों के चमत्कारी गुण हैं, जो स्वाभाविक रूप से मनुष्य को लाभ देते हैं. ये एक प्रकार के पत्थर होते हैं. जिन्हें भाग्यशाली मनुष्य ही पहचान सकते हैं. रंग लिये हुए तथा कभी कभी हरे रंग का भी होता है, इसके प्रयोग विष नष्ट हो जाते हैं, स्वयं पंचाचार को प्रकृष्टता से पालते हुए, लोक- अनुग्रह हेतू पंचाचार का अनवरत उपदेश देनेवाले सूरिराज को वंदना ||| 123 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक गौरवमयी तपागच्छ परंपरा में सागर समुदाय मनोज जैन जैन धर्म के चोवीसवें तीर्थकर भगवान महावीर देव की गरिमापूर्ण आचार्य पाट परंपरा उनके शिष्य आर्य श्रीसुधर्मास्वामी से प्रारम्भ होती है. इसमें अनेक समर्थ आचार्य भगवंत हुए जिन्होंने जिनशासन की ज्योति को सदा प्रज्ज्वलित रखा. श्वेताम्बर जैन संघ जिस स्वरूप में आज विद्यमान है, उस स्वरूप के निर्माण में तपागच्छीय आचार्यों, मुनिराजों एवं श्रावक समुदाय का भी बड़ा योगदान रहा है. तपागच्छ का प्रादुर्भाव भगवान महावीर की पाट परम्परा में ४४वीं पाट पर से माना है. भगवान महावीर के ४४वीं पाट पर श्री जगच्चंद्रसूरिजी हुए, यह उग्र तपस्वी के रूप में प्रसिद्ध थे. कहा जाता है कि इन्होंने आजीवन आयंबिल की तपस्या की थी. उनकी तपस्या की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर उदयपुर के महाराजा ने उन्हें तपा की पदवी प्रदान कर सम्मानित किया था. यहीं से तपागच्छ का जन्म हुआ मानते हैं. आपके पाट पर श्री देवेन्द्रसूरि हुए, जिन्होंने कर्मग्रन्थ की रचना की थी. आपके बाद श्री धर्मघोषसूरि, श्री सोमप्रभसूरि, श्री सोमतिलकसूरि, श्री देवसुन्दरसूरि, श्री सोमसुन्दरसूरि आदि अनेक नामाकिंत आचार्य हो गये हैं जिनकी विद्वता, सहृदयता और उपदेशों ने अनेक जैनेत्तरों के हृदय परिवर्तन करने में अद्वितीय सफलतायें प्राप्त की। इसी परम्परा में मुनिसुन्दरसूरिजी ५१वीं पाट पर हुए ये सहस्त्रावधानी थे। आपने ही श्री संतिकरं स्तोत्र की रचना की थी। ५२वीं पाट पर श्री रत्नशेखरसूरिजी हुए आपने श्राद्धविधि नामक ग्रंथ की रचना की। ५३वीं पाट पर श्री लक्ष्मीसागरसूरि, ५४वीं पाट पर श्री सुमतिसाधुसूरि, ५५वीं श्री हेमविमलसूरि ५६वीं श्री आणंदविमलसूरि, ५७वीं श्री विजयदानसूरिजी और ५८वीं पाट पर अकबर प्रतिवोधक जगतगुरु श्री विजयहीरसूरिजी बडे प्रभावशाली आचार्य हुए हैं। जिनकी यशोगाथा इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। श्री हीरविजयसूरिजी का जन्म गुजरात प्रान्त के पालनपुर नगर में विक्रम संवत १५८३ की मार्गशीर्ष शुक्ला नवमी तिथि सोमवार के दिन ओसवाल जाति भूषण कुराशांह की धर्मपत्नी नाथीदेवी के कुक्षि से हुआ था। संवत १५९६ की कार्तिक वदी २ के दिन १३ वर्ष की अल्पायु में ही श्री विजयदानसूरि जी महाराज के पास पाटन में दीक्षा अंगीकार की। संवत १६०७ में आपको पण्डित और १६०८ में वाचक पदवी प्रदान की गयी। संवत १६१० में आपको आचार्य पद से विभूषित किया गया। देश में भ्रमण करते हुए तथा जीवदया का उपदेश देते हुए मुनि महाराज का यश सौरभ दिग्दिगन्तों में फैल गया। भारत के तत्कालीन सम्राट अकबर ने भी उनकी गुणगाथा सुनी और उनको बुलाया। मुनि महाराज की गौरव गाथा किस प्रकार अकबर के कर्ण गोचर हुई इसकी भी एक कहानी 'जगद्गुरु काव्य' में लिखी गयी है। बादशाह अकबर को उन्होनें प्रतिबोध दिया था. उसे अहिंसक बना कर उसके द्वारा हिंदुओं पर लिया जाने वाला जाजिया कर माफ करवाया था. उनके अनेक विद्वान शिष्यों में से एक थे उपाध्याय श्री सहजसागरजी महाराज, उनके शिष्य थे उपाध्याय जयसागरजी महाराज. इस क्रम में श्री जितसागरजी, श्री मानसागरजी, श्री मयगलसागरजी, श्री पद्मसागरजी (प्रथम), श्री स्वरूपसागरजी, श्री ज्ञानसागरजी, श्री मयासागरजी व श्री नेमिसागरजी हुए. श्री ज्ञानसागरजी ने उदयपुर में श्री अजीतनाथ प्रभु की अंजनशलाका और श्री पद्मनाभ प्रभु की प्रतिष्ठा की थी. उनके शिष्य मुनिश्री भावसागरजी के उपदेशों को सुनने उदयपुर के महाराणा श्री भीमसिंहजी भी आते थे. उन्होंने उदयपुर में श्री सहस्त्रफणा पार्श्वनाथ प्रभु की अंजन शलाका भी की थी. १८वी सदी में जब अधिकांश जैनमुनियों के आचार विचार कुछ शिथिल हुए थे तब भी इस परंपरा के सन्त महान तपस्वी और सुसंयमी थे. मुनिश्री नेमिसागरजी के पास रखचंदजी ने वि.सं. १९०८ में दीक्षा ली. वे मुनिश्री रविसागरजी के नाम से जैन जगत में प्रसिद्ध हुए. वे षड्दर्शन के जाने माने विद्वान और त्यागी तपस्वी के रुप में जन मानस में श्रद्धेय बने थे. कठिन तपस्या व त्याग के कारण वचनसिद्धि उन्हें सहज रूप से प्राप्त थी. वि.सं. १९५४ में वे ध्यानस्थ होकर देवलोक हुए. उनकी पाट 124 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक परंपरा में मुनिश्री सुखसागरजी हुए. वे उच्च कोटि के संत पुरुष थे. आपकी पाट पर बीसवीं सदी के महान योगी आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज हुए. जिन्होंने अल्प समय में योग साधना के माध्यम से जैन जैनेत्तर सबों के लिऐ जीवनोपयोगी १०८ से अधिक अमर ग्रन्थों का निर्माण किया. महुडी- गुजरात में आपने श्री घण्टाकर्ण महावीरदेव को प्रगट कर श्रद्धालु जनता के सहायतार्थ वचनबद्ध किया था. आज भी वहाँ लाखो की संख्या में लोग दर्शन करने जाते हैं. जैन शिक्षण संस्थानों एवं ज्ञानमंदिरों के निर्माण हेतु उन्होंने बहुमूल्य योगदान किया है. आज कई जैन बोर्डिंग, जैन गुरुकुल तथा जैन ज्ञानभंडार उनकी कृपा दृष्टि के ही फलस्वरूप हैं. योगनिष्ठ आचार्य श्री बडे विद्वान और प्रतिभा सम्पन्न थे. उनकी वाणी अध्यात्मपूत व अनुभव गम्य होती थी. श्रीमान सरकार सयाजीराव गायकवाड (बडौदा) उनके प्रवचनों को बडी श्रद्धा से सुनते थे. उनकी परंपरा में शान्तमूर्ति आचार्य श्री कीर्तीसागरसूरिजी एवं विद्वान आचार्य श्री अजितसागरसूरीश्वरजी हुए. जिन्होंने भीमसेन चरित्र प्रमुख संस्कृत व गुजराती भाषाबद्ध कई ग्रन्थ बनाये. उनकी पाट पर तपस्वी मुनिश्री जितेन्द्रसागरजी एवं वर्तमान गच्छाधिपति आचार्य श्री सुबोधसागरसूरीश्वरजी महाराज हुए. मुनिश्री जितेन्द्रसागरजी की पाट पर हुए महान जैनाचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज के नाम से जैन जगत में शायद ही कोई अपरिचित होगा, आपकी साधना बडी अनूठी थी. पंजाब आपकी जन्म भूमि थी. आप में एक सच्चे संत के दर्शन होते थे. श्री सीमंधर स्वामी जिन मंदिर - महेसाणा इत्यादि तीर्थधाम आपकी सत्प्रेरणा एवं सान्निध्य में बने हैं. महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा (गांधीनगर-गुजरात) में विश्व का सबसे बडा और अत्याधुनिक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर एवं शिल्पकला में बेजोड समाधि मन्दिर आपकी स्मृति में बने है. जिनशासन में अपूर्व लोकप्रियता और उँची प्रतिष्ठा पाने पर भी आचार्य श्री का जीवन अत्यन्त सादगी पूर्ण था. उग्र विहार और शासन की अनेक प्रवृत्तिओं में संलग्न होते हुए भी आप अपने आत्मचिन्तन, स्वाध्याय और ध्यानादि आत्मसाधना के लिए पूरा समय निकाल लेते थे. जिनशासन के महान प्रभावक के रूप में आचार्य श्री सदियों तक भूलाए नही जा सकेंगें. इनके हाथों हुई शासन प्रभावना का भी एक लम्बा इतिहास है. परन्तु आचार्य श्री की पहचान तो उनके व्यक्तित्व और ज्ञान से होती थी. आचार्य श्री का जीवन अपने आप में अनूठा, अनोखा, अद्वितीय, अनुपम एवं आदर्श था. आपकी पाट पर विद्वान आचार्य श्री कल्याणसागरसूरिजी महाराज वर्तमान में अनेकविध शासन प्रभावना के द्वारा जिन शासन में जाने जाते हैं. आपके पट्टधर राष्ट्रसन्त, प्रखर वक्ता, युगप्रभावक, आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज जो भगवान महावीर की पाट परम्परा में ७७ वीं पाट पर बिराजमान है. आपके व्यक्तित्व से सम्पूर्ण जैन व जैनेतर समुदाय परिचित है. आपका जन्म अजीमगंज (बंगाल) में हुआ. बचपन से ही आप माता-पिता के सुसंस्कारों को ग्रहण करते हुए धार्मिकता की ओर अग्रसर हुए. धार्मिक व व्यावहारिक शिक्षा अजीमगंज और शिवपुरी (म.प्र) में ग्रहण की. आपश्री स्वामी विवेकानन्द के साहित्य को बचपन से ही पढने का शौक रखते थे. युवावस्था के प्रारम्भ से ही भारत भ्रमण करने निकल पड़े. विद्वानों की संगति एवं शास्त्रों के अध्ययन तो शुरु से ही आपकी विशिष्ट अभिरुचि रही है. साणंद (गुजरात) की धन्य धरा पर आप वि.सं. २०११ में महान गच्छाधिपति आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज के वरद हस्तों उन्हीं के शिष्य प्रवर पूज्य आचार्य श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य बने. भागवती दीक्षा ग्रहण करने के बाद मुनिश्री पद्मसागरजी के बहुश्रुत नाम से जैन जगत में प्रसिद्ध हुए. आपश्री की साधना, तप एवं शासन प्रभावना के उत्कृष्ट कार्यों को देखते हुए अहमदाबाद में मार्गशीर्ष सुदि-५, वि.सं. २०३० में महोत्सव पूर्वक गणिपद, जामनगर में वि.सं. २०३२ में पंन्यास पद तथा कुछ समय पश्चात् श्री सीमंधरस्वामी जिन मन्दिर महेसाणा तीर्थ के प्रांगण में दादागुरुदेव आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराज की अध्यक्षता में विशाल साधु साध्वी भगवन्तों की पुनीत उपस्थिति में वि.सं. २०३३ को आचार्य पद से विभूषित किया. आचार्य पदवी के बाद आपने पूरे भारत में पदयात्रा कर मानव कल्याण के जो कार्य किये उनका वर्णन करने पर एक महाकाय ग्रन्थ बन सकता है. 125 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान -महोत्सव विशेषांक जिनशासन की उत्कृष्ट प्रभावना से प्रेरित होकर विविध संघों एवं गणमान्य महानुभावों द्वारा आपश्री को राष्ट्रसन्त, प्रवचन प्रभावक, सम्मेतशिखर तीर्थोद्धारक, प्रखरवक्ता, युगदृष्टा आदि सम्मानजनक पदवियों से अलंकृत किया. श्रुतज्ञान के प्रति आपकी निष्ठा बडी गजब की है. दीक्षा लेने के बाद से आज तक आप निरंतर कार्यरत है. समग्र भारतवर्ष सहित पडोसी देश नेपाल की जैन एवं जैनेतर जनता के मन में अपनी एक अमिट छाप छोडी है, जिसे वह कभी भूला नहीं सकती. आपके कदम जहाँ भी पड़े, वहां की धरा पर निवास करने वालों ने आपको अपने सद्गगुरु के रूप में माना है, जैन समाज के यक्ष प्रश्नों का सुखद समाधान करने में आप लब्धप्रतिष्ठ है. संघों में एकता कायम करना, जैन धर्म के विविध विशेषज्ञों जैन डॉक्टर्स, सी. ए., वकील, युवक और व्यापारी आदि को संगठित करना, तीर्थ भूमियों का संरक्षण एवं समुद्धार, जनसमुदाय को सदाचारमय जीवन जीने के लिए अभिप्रेरित करना आदि सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए ही जीने का आपका दृष्टिकोण एक मानव मसीहा के अवतार को साबित करता है. सभी को साथ में लेकर चलने की भावना के कारण पूज्यश्री समग्रजैन समाज सहित अन्य धर्मावलम्बी सन्तों के बीच भी लोकप्रिय बने हैं। इन्हीं उदात्त गुणों के कारण आपने सभी के हार्दिक सन्मान प्राप्त करने का गौरव हासिल किया है. _ यूं तो आपश्री की निश्रा में जिनशासन की प्रभावना के अनेकानेक उत्कृष्ट कार्य संपादित हुए है. अनेक जिनालयों की प्रतिष्ठाएँ हुई हैं, बहुसंख्यक जिनबिम्बों की अंजनशलाकाएँ सम्पन्न हुई हैं तथा समाजोपयोगी कार्य संपन्न हुए है फिर भी श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ एवं यहाँ विकसित प्राचीन अर्वाचीन ग्रन्थों से समृद्ध ज्ञानतीर्थ रूप आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर पूज्य आचार्य श्री की समाज को अनमोल देन है. जिसे इस कलियुग में जिनशासन की अनुपम सेवा, श्रुतभक्ति और भव्य जीवों के आत्म कल्याण की मिसाल के रूप में युगो-युगों तक आने वाली पीढियाँ संजोकर रखेंगी. वीतराग पथ है वीरों का, कायरों का काम नहीं। शासन है यह महावीर का, बुजदिलों का नाम नहीं। संघर्षों में जो व्यंग बाण सहते हैं, आजीवन पथ पर दृढता से रहते है। जब फलितार्थ होता है अथक परिश्रम, तब वे ही विरोधी बुद्धिमान कहते है। 126 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હસ્તપ્રત : એક પરિચય મુનિરાજ શ્રી અજયસાગરજી પ્રાચીન લેખન-શૈલીના બે પ્રકાર છે : એક શિલાલેખન અને બીજો હસ્તપ્રત-લેખન. પ્રાચીન ભારતીય સાહિત્યને આજે આપણે જે રૂપમાં પ્રાપ્ત કરીએ છીએ તેનો આધાર હસ્તપ્રત છે. શાસ્ત્રોની હાથેથી લખેલ નકલ હોવાને કારણે તેને હસ્તપ્રત કહેવામાં આવે છે, કે જેને પાણ્ડુલિપ પણ કહેવાય છે. કાળાંતરે મૂળ નકલ નષ્ટ થતી જતી હતી તો સામા પક્ષે તેની ઘણી નકલો તૈયાર થતી રહેતી હતી. પ્રતિલિપિ પરથી પ્રત શબ્દ આવ્યો હોય તેમ જણાય છે. પ્રાચીન ધર્મ-દર્શન, સાહિત્ય અને સંસ્કૃતિની જાણકારી માટે હસ્તપ્રતોનું વિશેષ મહત્ત્વ છે. કારણ કે માત્ર પુરાતત્ત્વીય સમર્થનથી ઇતિહાસનું નિર્માણ સર્વાંગપૂર્ણ થતું નથી, ઇતિહાસની સત્યતા માટે સાહિત્યની આવશ્યકતા અનિવાર્ય છે. પ્રાચીન સમયમાં જ્ઞાનભંડારોમાં માત્ર હસ્તલિખિત સાહિત્ય જ ઉપલબ્ધ હતું. દેશમાં હસ્તપ્રત લખવાનાં ઘણાં સ્થાનો હતાં. આવા લેખનસ્થળોના આધાર પરથી અભ્યાસુઓને વિભિન્ન કુળોની પ્રતો અને તેના કુળવિશેની વિશિષ્ટ માહિતી પ્રાપ્ત થાય છે. કૃતિઓની સંશોધિત આવૃત્તિના પ્રકાશનકાર્યમાં વિભિન્ન કુલોની પ્રતોનું ખૂબ જ મહત્ત્વ રહેલું છે. હસ્તપ્રતના પ્રકારો पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान • महोत्सव विशेषांक આંતરિક પ્રકાર : હસ્તલિખિત પ્રતોનો આ રૂપવિધાન પ્રકાર છે, જેમાં પ્રતની લેખનપદ્ધતિની માહિતી મળે છે. આ લેખનપદ્ધતિને એકપાઠી, ક્રિપાઠી, (સામાન્યપણે બન્નેપડખે મૂળ અને ટીકાના પાઠ લખવામાં આવ્યા હોય છે.) ત્રિપાઠી, (વચ્ચે મૂળ અને ઉપર નીચે, ટીકા), પંચપાઠી (વચ્ચે મૂળ અને ઉપર ડાબે, જમણે અને નીચે ટીકા), શુડ (શૂઢ), ઊભી લખાયેલ, ચિત્રપુસ્તક, સ્વર્ણાક્ષરી, રૌપ્યાક્ષરી, સૂક્ષ્માક્ષરી અને સ્થૂલાક્ષરી વગેરેથી ઓળખવામાં આવે છે. ગ્રંથોમાં રહેલા આવા તફાવતો હસ્તપ્રતો કાગળ પર લખવાની પ્રક્રિયા શરૂ થયા બાદ વિશેષ પ્રકારે વિકસ્યા હોય તેમ જ્ઞાન થાય છે. આવી પ્રતોનું બાહ્ય સ્વરૂપ સાદું દેખાવા છતાં અંદરનાં પૃષ્ઠો જોવાની જ તેની વિશેષતાની જાણકારી મળે છે. બાહ્ય પ્રકાર : વિક્રમના ચૌદમા સૈકા સુધીની હસ્તલિખિત પ્રતો ઘણું કરીને લાંબી-પાતળી પટ્ટી જેવા તાડપત્ર પર લખાયેલી મળે છે. તેના મધ્ય ભાગમાં એક છિદ્ર તથા કેટલીક વાર યોગ્ય અંતરે બે છિદ્રો પણ જોવા મળે છે. આ છિદ્રોમાંથી એકમાં દોરી પરોવવામાં આવતી જેથી વાંચતી વખતે પાનાં અસ્ત-વ્યસ્ત ન થાય. તથા બીજા છિદ્રમાં બંધન અવસ્થામાં વાંસની સળી રાખવામાં આવતી જેથી ઘણાં પાનાંવાળી જાડી પ્રત હોય તો તેનાં પાનાં લસ૨ીને આઘાં-પાછાં ન થાય. આ જ દોરી વડે પ્રતને બન્ને બાજુ પાટલીઓ મૂકીને કલાત્મક રીતે બાંધી દેવામાં આવતી. તાડપત્રો પરનું લખાણ સહીથી તથા કોતરીને એમ બે પ્રકારે લખાયેલ મળે છે. કોતરીને લખવાની પ્રણાલી ખાસ કરીને ઓરિસ્સા, આંધ્રપ્રદેશ, તામિલનાડુ, કેરલ તથા કર્ણાટકના પ્રદેશમાં રહેવા પામી અને સહીથી લખવાની પ્રક્રિયા શેષ ભારતમાં રહેવા પામી. કાગળના ઉપયોગની શરૂઆત બાદ આ જ તાડપત્રોને આદર્શ માનીને કાગળની પ્રતો પણ શરૂઆતમાં મોટા-મોટા અને લાંબા પત્રો પર લખવામાં આવતી. પણ પાછળથી આ કદ સુવિધા અનુસારે સંકોચાઈ ગયું. જૈન ભાષ્યકારો, ચૂર્ણિકારો અને ટીકાકારોનામતે આવા તાડપત્રોની લંબાઈ અને પહોળાઈના આધારે પાંચ પ્રકારો કહેવાય છે. છે. ગંડી : પ્રતની લંબાઈ અને પહોળાઈ એક સમાન હોય તેને ગંડી પ્રકાર કહેવાય છે. કચ્છપી : પ્રતની બન્ને કિનારી સંકુચિત તથા વચ્ચે ફેલાયેલ કાચબા જેવા આકારની પ્રતને કચ્છપી પ્રત કહેવામાં આવે 127 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी #777@ @? महोत्सव विशेषांक | મુષ્ટિ : જે પ્રતો મુઠ્ઠીમાં સમાઈ જાય તેટલી નાની હોય તેવી પ્રતોને મુષ્ટિ પ્રકારની પ્રતો કહેવામાં આવે છે. સંપુટ ફલક : લાકડાની પટ્ટીઓ પર લખાયેલ પ્રતોને સંપુટ ફલક પ્રકાર કહેવામાં આવે છે. છેદપાટી (છિવાડી) : 'છેદપાટી' એ પ્રાકૃત શબ્દ 'છિવાડી’નું સંસ્કૃત રૂપ છે. આ પ્રકારની પ્રતોમાં પાનાંની સંખ્યા ઓછી હોવાને કારણે પ્રતની જાડાઈ ઓછી હોય છે પરંતુ લંબાઈ અને પહોળાઈ યોગ્ય પ્રમાણમાં હોય છે. ઉપરોક્ત પાંચ પ્રકારો સિવાય વર્તમાનમાં અન્ય પ્રકારો પણ મળે છે. ગોલ : 'ફરમાન'ની જેમ ગોળ કુંડળી પ્રકારથી કાગળ અને કાપડ પર લખાયેલ ગ્રંથો પણ મળે છે, જેને અંગ્રેજી ભાષામાં રઠદ્ર કહે છે. ૨૦ મીટર જેટલી લંબાઈ હોવા છતાં તેની પહોળાઈ સામાન્ય-સરેરાશ જ હોય છે. જૈનવિજ્ઞપ્તિપત્ર, મહાભારત, શ્રીમદ્ ભાગવતું, જન્મપત્રિકા વગેરે કુંડળી આકારમાં મળતાં રહે છે. ગડી : અનેક પ્રકારે ગડી કરાયેલ લાંબા-પહોળા વસ્ત્ર કે કાગળનો પટ્ટો પણ મળે છે. સામાન્ય રીતે આમાં યંત્ર, કોષ્ટક, આરાધના પટ્ટ, અઢીદ્વીપ વગેરે આલેખાયેલ મળે છે. | ગુટકા : સામાન્ય રીતે હસ્તપ્રતોનાં પાનાં ખુલ્લાં જ હોય છે પરંતુ કેટલીક વાર પાનાં (પત્રો)ની મધ્યમાં સિલાઈ કરીને અથવા બાંધીને પુસ્તકાકારે બે ભાગોમાં વિભાજિત કરી દેવામાં આવે છે. આવા પાનાવાળી પ્રતોને ગુટકા તરીકે ઓળખવામાં આવે છે. તે વહીની જેમ ઉપરની બાજુ તથા સામાન્ય પુસ્તકની જેમ પડખાની બાજુમાંથી ખૂલે તેવા એમ બે પ્રકારથી બાંધેલાં મળે છે. જાડા પૂંઠાના આવરણમાં બંધાયેલ આવા ગુટકા નાનાથી માંડીને બૃહત્કાય સુધીના હોય છે. મોટા ભાગે આવા ગુટકાને લપેટીને બાંધવા માટે સાથે દોરી પણ લાગેલ હોય છે. આ સિવાય તામ્રપત્ર અને શિલાપટ્ટ વિગેરે પણ ગ્રંથો લખાયેલ મળે છે. હસ્તપ્રત આલેખન પાઠ : હસ્તપ્રતનું લખાણ સામાન્યપણે માંગલિક શબ્દો અને સંકેતોથી શરૂ થઈ માંગલિક શબ્દો અને સંકેતોથી પૂર્ણ કરવામાં આવે છે. કાળાંતરે લેખન-શૈલીમાં પરિવર્તન થતું જોવા મળે છે. વિક્રમની ૧૪મી-૧૫મી સદીમાં પ્રતની મધ્યમાં ચતુષ્કોણિય ફુલ્લિકા-ખાલી સ્થાન જોવા મળે છે, જે મૂળ તો તાડપત્રોમાં દોરી પરોવવા માટે ખાલી જગા છોડવાની પ્રણાલીના અનુકરણ રૂપે ગણાય, પછીથી આ આકૃતિ કાળક્રમે વાવનાં પગથિયાં જેવા આકાર ધારણ કરીને ધીરે-ધીરે લુપ્ત થતી ગઈ છે. શૈલીની જેમ લિપિ પણ પરિવર્તનશીલ રહી છે. વિક્રમની ૧૧મી સદી પહેલાં અને પછીની લિપિમાં ઘણો તફાવત જોવા મળે છે. એક વાયકા અનુસાર ટીકાકાર શ્રી અભિયદેવસૂરિ દ્વારા પ્રાચીન પ્રતોના અભ્યાસ દરમ્યાન પડતી મુશ્કેલીઓના નિવારણ માટે જૈન લિપિપાટી પ્રસ્થાપિત કરવામાં આવી અને ત્યારથી તે જ પાટી સદીસુધી મુદ્રણયુગપર્યત સામાન્ય પરિવર્તન સાથે સ્થપાયેલી રહી. પડીમાત્રા-પૃષ્ઠમાત્રાનું શિરોમાત્રામાં પરિવર્તન એ ખાસ તફાવત રહ્યો હોય તેમ જાણવા મળે છે. યોગ્ય અભ્યાસ હોય તો પ્રતના આકાર-પ્રકાર, લેખનશૈલી તથા અક્ષરપરિવર્તનના આધારે કોઈ પણ પ્રત કઈ સદીમાં લખાયેલ છે તેનું સચોટ અનુમાન સરળતાથી લગાવી શકાય છે. પત્રાંક : તાડપત્ર અને તેના પછી કાગળની શરૂઆતના યુગમાં પત્રક્રમાંક બે પ્રકારે લખાયેલા જોવા મળે છે. ડાબી બાજુ સામાન્ય રીતે સંસ્કૃત ભાષામાં ક્યારેક જ બને તેવા વિશિષ્ટ અક્ષરયુક્ત સંકેતો જે રોમન અંકોની જેમ શતક, દેશમ અને એકમ માટે જુદા-જુદા હતા અને ઉપરથી નીચેની તરફ લખવામાં આવતા હતા. આવા અક્ષરાંકોનો ઉપયોગ પ્રાયશ્ચિત્ત ગ્રંથોમાં હ્રસ્વ-દીર્ઘ 'ઈ'ની માત્રા સાથે ચતુર્ગુરુ, પલઘુ વગેરેના ઉપયોગ માટે પણ થયેલો જોવાય છે. પૃષ્ઠની જમણી બાજુ સામાન્ય અંકોમાં પૃષ્ઠક લખાયેલ જોવા મળે છે. અમુક વખતે ગ્રંથાવલીરૂપે લખાવાયેલ એકથી વધુ ગ્રંથોને સળંગ ક્રમાંક અપાયેલો જોવા મળે છે. આવા ગ્રંથો ઉપર ક્વચિત્ એક ખૂણામાં ઝીણા અક્ષરે લખાયેલ ચોર અંક પણ જોવા મળે છે. 128 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृलसागरजी महोत्सव विशेषांक પ્રત શુદ્ધિકરણ : પ્રત લખતી વખતે ભૂલ ન રહી જાય તે માટે જરૂરી સતર્કતા રાખવામાં આવતી હતી. એક વખત લખાઈ ગયા પછી વિદ્વાન સાધુ વગેરે તે પ્રતને પૂર્ણરૂપે વાંચીને અશુદ્ધ પાઠને ભૂંસીને, સુંદર રીતે છેકીને કે છૂટી ગયેલ પાઠોને હંસપાદ' વગેરે જરૂરી નિશાની સાથે પંક્તિની વચ્ચે અથવા બાજુના હાંસિયા વગેરે જગામાં જરૂ૨ ૫ત્રે ઓલી-પંક્તિ ક્રમાંક સાથે લખી દેતા હતા. પાઠ ભૂંસવા માટે પીંછી, તુલિકા, હરતાલ, સફેદો, ગેરૂ વગેરેનો ઉપયોગ થતો હતો. વાંચન ઉપયોગી સંકેતો : હસ્તપ્રતોના લખાણમાં શબ્દોની વચ્ચે-વચ્ચે અત્યારની જેમ ખાલી જગ્યા મુકાતી ન હતી પણ સળંગ લખાણ લખવામાં આવતું હતું. અમુક પ્રતો ઉપર વિદ્વાનો પાછળથી વાચકોની સરળતા ખાતર પદો ઉપર નાની-નાની ઊભી રેખા કરીને પદચ્છેદ દર્શાવતા હતા. અમુક પ્રતોમાં ક્રિયાપદો ઉપર અલગ નિશાની કરાયેલી મળે છે. વિશેષ્ય-વિશેષણ વગેરે સંબંધ દર્શાવવા માટે શબ્દો ઉપર પરસ્પર સમાન સૂક્ષ્મનિશાનીઓ કરતા હતા. શબ્દોનાં વચન-વિભક્તિ દર્શાવવા માટે ૧૧, ૧૨, ૧૩, ૨૧, ૨૨, ૨૩... (૧૧ એટલે પ્રથમ એક વચન) વગેરે અંકે પણ લખાતા હતા, તો સંબોધન માટે 'હે' લખાયેલ મળે છે. જો ચતુર્થી થઈ હોય તો તે જણાવવા માટે 'હેતૌ' આ રીતે લખવા પૂર્વક હેત્વર્થે ચતુર્થી જેવા સંકેતો પણ ક્યારેક આપવામાં આવતા. સંધિવિચ્છેદ દર્શાવવા માટે સંધિદર્શક સ્વર પણ શબ્દો ઉપર સંધિસ્થાનમાં સૂક્ષ્માક્ષરે લખાતા હતા. શ્લોકો પર અન્વયદર્શક અંક પણ ક્રમાનુસાર લખવામાં આવતા હતા. દાર્શનિક ગ્રંથોમાં પક્ષ-પ્રતિપક્ષના અનેક સ્તરો સુધી નિરંતર ચર્ચાઓ આવે છે. આવી ચર્ચાઓનો આરંભ અને અંત દર્શાવવા માટે બન્ને જગ્યાએ દરેક ચર્ચા માટે અલગ-અલગ પ્રકારના સંકેતો મળે છે. પ્રતવાંચનની સરળતા માટે કરાયેલી આ નિશાનીઓ ઘણા જ ઝીણા અક્ષરોથી લખાયેલી હોય છે. અક્ષર : સામાન્યપણે વાંચવામાં સુગમતા રહે એ રીતે મધ્યમ કદના અક્ષરોમાં પ્રતો લખાતી હતી, પણ પ્રતના અવસૂરિ, ટીકા વગેરે ભાગો તથા ક્યારેક આખેઆખી પ્રતો પણ ઝીણો-સૂક્ષ્મ અક્ષરોથી લખાયેલ મળે છે કે જેનું વાંચન પણ આજે સુગમ નથી. આશ્ચર્ય પમાડે તેવી વાત છે કે જેને વાંચવામાં પણ આંખોને કષ્ટ પડે છે તેવી પ્રતો વિદ્વાનોએ લખી કેવી રીતે હશે? તો પણ હકીકત એ છે કે આવી પ્રતો લખાઈ છે અને હજારોની સંખ્યામાં લખાઈ છે, વિહાર દરમ્યાન સગવડતાથી વધુ પ્રમાણમાં પ્રતો સાથે રાખી શકાય તેવી એક માત્ર પરોપકારની ભાવનાથી જ. વૃદ્ધાવસ્થામાં વાંચનમાં અનુકૂળતા રહે એ માટે બારસાસૂત્ર જેવી પ્રતો મોટા-સ્થૂલાક્ષરોમાં લખાયેલી જોવા મળે છે. ચિત્રમય લેખન : કેટલાક લેખકો લખાણની વચ્ચે સાવધાનીપૂર્વક એવી જગા છોડી દેતા હોય છે કે જેનાથી અનેક પ્રકારના ચોરસ, ત્રિકોણ, ષટ્કોણ, છત્ર, સ્વસ્તિક, અગ્નિશિખા, વજ, ડમરું, ગોમૂત્રિકા, ૐ હ્રીં વગેરે આકૃતિ ચિત્રો તથા લેખક દ્વારા ઇચ્છિત ગ્રંથનામ, ગુરુનામ અથવા જે-તે વ્યક્તિનું નામ કે શ્લોક-ગાથા વગેરે દેખી કે વાંચી શકાય છે. એટલે જ આવા પ્રકારનાં ચિત્રોને મુનિ શ્રી પુણ્યવિજયજીએ ' રિક્તલિપિચિત્ર' ના નામથી પણ ઓળખવા જણાવેલ છે. આવી જ રીતે લખાણની વચ્ચે ખાલી જગા ન છોડતાં કાળી સહીથી લખાયેલ લખાણની વચ્ચે કેટલાક અક્ષરો ચીવટ અને ખૂબીપૂર્વક લાલ સહીથી એવી રીતે લખતા કે જેનાથી લેખનમાં અનેક ચિત્રાકૃતિઓ નામ અથવા શ્લોક વગેરે દેખી-વાંચી શકાય છે. આવા પ્રકારનાં ચિત્રોને 'લિપિચિત્ર' તરીકે ઓળખવામાં આવે છે. આ ઉપરાંત ચિત્રમયલેખનનો એક પ્રકાર 'અંકસ્થાનચિત્ર' પણ છે. જેમાં, પત્ર ક્રમાંકની સાથે વિવિધ પ્રાણી, વૃક્ષ, મંદિર વગેરેની આકૃતિઓ બનાવી તેની વચ્ચે પત્રક્રમાંક લખવામાં આવે અમુક પ્રતોમાં મધ્ય અને પાર્શ્વફુલ્લિકાઓનું ખૂબ જ કલાત્મક રીતે ચિત્રણ કરાયેલું જોવા મળે છે. કેટલીક વખત આવી પ્રતો સોના-ચાંદીના વરખ અને અભ્રકથી સુશોભિત જોવા મળે છે. આવી પ્રતો ખાસ કરીને વિક્રમ સંવત ૧૫મીથી ૧૭મી સદી દરમ્યાનની જોવા મળે છે. અમુક પ્રતોનાં પ્રથમ તથા અંતિમ પૃષ્ઠો ઉપર પણ ખૂબ જ સુંદર રંગીન રેખાચિત્રો દોરાયેલાં 129 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक જોવા મળે છે, જેને 'ચિત્રસૃષ્ઠિકા'ના નામથી ઓળખવામાં આવે છે. ઘણી પ્રતોમાં પાર્શ્વરેખાઓ પણ ખૂબ જ કલાત્મક રીતે બનાવવામાં આવતી હતી. સચિત્ર પ્રત : ચિત્રિત પ્રતોની પણ પોતાની અલગ જ વિસ્તૃતકથા છે. પ્રતોમાં મંગલસ્થાનીય એકાદ-બેથી માંડીને મોટા પ્રમાણમાં સુવર્ણ સહી તથા અન્ય વિવિધ રંગોથી બનાવેલ સામાન્યથી માંડી ખૂબ જ સુંદર અને સુરેખ ચિત્રો દોરાયેલા મળે છે. આલેખનની ચારે બાજુની ખાલી જગામાં વિવિધ પ્રકારની સુંદર વેલ-લતા-મંજરી તથા અન્ય કલાત્મક ચિત્રો પણ દોરાયેલ જોવા મળે છે. જૈન ચિત્રશૈલી, કોટા, મેવાડી, જયપુરી, બૂંદી વગેરે અનેક ચિત્રશૈલીઓમાં ચિત્રિત પ્રતો મળે છે. ચિત્રશૈલી અને એમાં વપરાયેલ રંગો વગેરેના આધારે પણ પ્રતની પ્રાચીનતા નક્કી થઈ શકે છે. લેખન કાર્ય : સાધુઓ અને શ્રાવકો ભક્તિભાવથી વ્યાપક પ્રમાણમાં ઉત્તમ ગ્રંથલેખનનું કાર્ય કરતા હતા. ઘણા શ્રાવકો લહિયાઓ પાસે પણ ગ્રંથો લખાવતા હતા. કાયસ્થ, બ્રાહ્મણ, નાગર, મહાત્મા, ભોજક વગેરે જાતિના લોકેએ લહિયા તરીકે પ્રતો લખવાનું કાર્ય કર્યું છે. પ્રત લખનારને લહિયા કહેવાય છે. તેમને પ્રતમાં લખેલા અક્ષરો અંદાજે ગણીને મહેનતાણું ચૂકવવામાં આવતું હતું. લેખન સામગ્રી : પત્ર, કંબિકા, દોરો, ગાંઠ (ગ્રંથિ), લિપ્સાસન (તાડપત્ર, કાગળ, કાપડ, ભોજપત્ર, અગરપત્ર વગેરે લિપિના આસન), છંદણ, સાંકળ, સહી (મશી, મેસ, કાજળ), કલમ, ઓલિયા (કાગળ પર ઓળી-લીટી ઉપસાવવા માટે સરખા અંતરે ખાસ ઢબથી બાંધેલા દોરાવાળું ફાંટિયું), ઘૂંટો, જૂજવળ, પ્રાકાર વગેરે લેખન સામગ્રીનો ઉપયોગ થતો હતો. ગ્રંથ સંરક્ષણ : જૈન પ્રતલેખન અને સજાવટ પર એટલું ધ્યાન આપવામાં આવતું હતું કે એક વાર જોવા માત્રથી એવી સુઘડતા, સુંદરતાના આધારે જ ખબર પડી જાય કે આ જૈનપ્રત છે કે અન્ય. પૂર્વાચાર્યોએ જેટલું ધ્યાન લેખન પર આપ્યું તેટલું જ ધ્યાન સંરક્ષણ પર પણ આપ્યું. ગ્રંથોને રેશમી અથવા લાલ મોટા કપડામાં લપેટીને ખૂબ મજબૂતીથી બાંધીને લાકડા અથવા કાગળની બનેલ પેટીઓમાં સુરક્ષિત રાખવામાં આવતા હતા. જ્ઞાનને જ સમર્પિત જ્ઞાનપંચમી જેવા તહેવારો પ૨ તે ગ્રંથોનું પ્રતિલેખન-પડિલેહન-પ્રમાર્જન કરવામાં આવતું હતું. ઢીલુંબંધન એ અપરાધ તરીકે સમજવામાં આવતું હતું. પ્રતોના અંતમાં પ્રતિલેખન સંલગ્ન મળતા વિવિધ શ્લોકમાંથી એક અતિ પ્રચલિત શ્લોકમાં ખાસ ચેતવણી આપવામાં આવેલ છે કે 'રક્ષેત્ શિથિલબંધનાતુ'. આ જ રીતે પાણી, ખનિજ, અગ્નિ, ઉંદર, ચોર, મૂર્ખ તથા પર-હસ્તથી પ્રતની રક્ષા કરવાની ચેતવણીઓ પણ મળે છે. ક્યારેક પોતાના હાથે ખૂબ જ મહેનતથી લખાયેલ પ્રત પ્રત્યેની લાગણીઓ પ્રતિલેખક આ શ્લોકો-પદ્યો દ્વારા પ્રગટ થતી જોવા મળે છે. પ્રત વાંચતી વખતે એને પૂંઠામાં સાચવીને રાખવામાં આવતી તેમ જ વાંસની ઝીણી પટ્ટીઓથી બનાવેલ સાદડી જેવી કવળીમાં ગ્રંથને સુરક્ષિત લપેટીને રાખવામાં આવતો. કહેવાય છે કે મુદ્રણયુગ આવવાથી ગ્રંથોના અભ્યાસુઓ માટે ખૂબ સવલતો ઊભી થઈ છે. જેમાં ગ્રંથ ઉપલબ્ધતા, શ્રેષ્ઠ સંપાદન વગેરે પાસાંઓ એક મહત્ત્વપૂર્ણ તથ્ય છે પરંતુ વાચકો માટે અત્યંત ઉપયોગી એવી વિભક્તિ-વચન સંકેત જેવી ઉપરોક્ત સવલતો સાથે એક પણ પ્રકાશન થયેલ જોવા મળતું નથી. મુદ્રણકળાએ ગ્રંથોની સુલભતા અવશ્ય કરેલ છે પરંતુ ક્યાંક એ ભુલાઈ જાય છે કે સુલભતાનો મતલબ સુગમતા એટલે કે-મહાપુરુષોના ગ્રંથગત કથનના એકાંત કલ્યાણકારી યથાર્થ હાર્દ સુધી પહોંચવું-નથી થતો; સુગમતા તો એકાગ્રતા, પુરુષાર્થ અને સમર્પણથી પ્રાપ્ત ગુરુકૃપાનું જ પરિણામ હોઈ શકે છે... (આંશિક-આધાર- ભારતીય જૈનશ્રમણસંસ્કૃતિ અને લેખનકળા.) 130 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक ओसवालों के गोत्र व ज्ञातियाँ भारतवर्ष के इतिहास की सामग्री अभी भी गहन अन्धकार में डूबी हुई है. पुरातत्त्ववेत्ताओं के सैकड़ों वर्षों की खोज के बाद भी इसका बहुत बड़ा भाग अधूरा पड़ा है. आधुनिक अन्वेषणों से तथा पुरातत्त्ववेत्ताओं के सतत प्रयत्नों से कुछ टूटेफूटे शिलालेख, ताम्रपत्र, प्रशस्तियाँ आदि प्राप्त हुई हैं, जिनके आधार पर भारत वर्ष के राजनैतिक इतिहास पर काफी प्रकाश पड़ने लगा है. ओसवाल जाति के द्वारा किए गए महान कार्यों से राजपूताने का मध्यकालीन इतिहास देदीप्यमान हो रहा है तथा उस जाति में जन्म लेनेवाले महापुरुषों के नाम उस समय के इतिहास में स्थान-स्थान पर दृष्टिगोचर हो रहा है. ओसवाल जाति की उत्पत्ति के विषय में अनेक दन्तकथाएँ, अनेक किंवदन्तियाँ तथा अनेक काव्य प्राप्त होते हैं, परन्तु उनके आधार पर इस जाति की उत्पत्ति का समय निर्धारण करना अत्यन्त कठिन व दुरूह है. ओसवाल जाति की उत्पत्ति के विषय में वर्तमान में तीन मत विशेष रूप से प्रचलित हैं पहला मत जैन ग्रन्थों तथा जैनाचार्यों का है, जिसके अनुसार वीर निर्वाण सं. में अर्थात् विक्रम संवत् से लगभग वर्षों पूर्व भीनमाल के राजा भीमसेन के पुत्र उपलदेव ने ओसिया नगरी की स्थापना की. भगवान पार्श्वनाथ के सातवें पट्टधर उपकेशगच्छीय आचार्य श्री रत्नप्रभसूरिजी उस राजा को प्रतिबोध देकर उसे जैनधर्म की दीक्षा दी और उसी समय ओसवाल जाति की स्थापना की. दूसरा मत भाटों, भोजकों तथा सेवकों का है, जिनकी वंशावलियों से यह स्पष्ट होता है कि वि. सं. में उपलदेव राजा के समय ओसिया (उपकेश) नगरी में आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि के उपदेश से ओसवाल जाति के अठारह मूल गोत्रों की स्थापना की गई. तीसरा मत आधुनिक इतिहासकारों का है, जिन्होंने सिद्ध किया है कि वि. स. के पूर्व ओसिया नगरी तथा ओसवाल जाति का अस्तित्व नहीं था. उसके बाद भीनमाल के राजा उपलदेव ने मंडोर के पड़िहार राजा के पास जाकर आश्रय ग्रहण किया तथा उसी की सहायता से ओसिया नगरी बसाई. सम्भवतः उसी समय से ओसवाल जाति की उत्पत्ति हुई हो. वि. स. का लिखा हुआ एक उपकेशगच्छ चरित्र नामक हस्तलिखित ग्रन्थ मिलता है, उसमें तथा अन्य ग्रन्थों में ओसवास जाति के उत्पत्ति के विषय में जो कथा मिलती है, वह इस प्रकार है वि. स. लगभग वर्ष पूर्व भीनमाल नगरी में भीमसेन नामक राजा राज्य करता था. उसके दो पुत्र थे- श्रीपुंज तथा उपलदेव. एक समय उन दोनों भाईयों के बीच कुछ विवाद हो गया तथा श्रीपुंज ने कहा- इसतरह का आदेश तो वही चला सकता है, जो भुजाओं के बल पर राज्य की स्थापना करे. यह ताना उससे सहन नहीं हुआ और वह उसी समय नए राज्य की स्थापना के उद्देश्य से अपने मन्त्रियों को साथ लेकर वहाँ से चल पड़ा. उसने डेलीपुरी (दिल्ली) के राजा साधु की आज्ञा लेकर मंडोवर के पास उपकेशपुर या ओसिया पट्टण नामक नगर बसाकर अपना राज्य स्थापित किया. उस समय ओसिया नगरी का क्षेत्रफल बहुत बड़ा था. कहा जाता है कि वर्तमान ओसिया नगरी से मील की दूरी पर जो तिवरी गाँव है, वह उस समय ओसिया का तेलीवाडा था तथा जो इस समय खेतार नामक गाँव है, वह पहले यहाँ का क्षत्रियपुरा था. राजा उपलदेव वाममार्गी था तथा उसकी कुलदेवी चामुंडा माता थी. उसी समय आचार्य श्री रत्नप्रभसूरिजी मुनियों के साथ उपकेशपट्टण पधारे तथा लूणाद्रि पर्वत पर तपश्चर्या करने लगे. कई दिनों तक जब मुनियों के लिए उस स्थान पर शुद्ध भिक्षा की व्यवस्था नहीं हो सकी तो उन्होंने वहाँ से प्रस्थान करने का निश्चय किया. परन्तु उसी समय चामुंडा माता ने प्रगट होकर आचार्य भगवंत से विनती की कि आपका यहाँ से चला जाना अच्छा नहीं होगा. यदि आप यहाँ पर अपना चातुर्मास करें तो संघ और शासन का बड़ा लाभ होगा. आचार्य भगवंत ने अपने शिष्यों से कहा कि जो साधु विकट तपस्या करनेवाले हों वे यहाँ ठहरें तथा शेष साधु यहाँ से प्रस्थान कर जाएँ. यह सुनकर साधु वहाँ से विहार कर गए 131 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक तथा मात्र मुनि आचार्य भगवंत के साथ वहाँ विकट तपस्या करने लगे. एक दिन दैवयोग से राजा के जामाता (कहीं कहीं राजा के पुत्र का भी उल्लेख मिलता है.) त्रिलोकसिंह को सोते समय सर्प ने डस लिया. इस समाचार से सारे शहर में हाहाकार मच गया. जब उसे श्मशान यात्रा के लिए ले जाया जाने लगा तो आचार्यश्री के शिष्य वीर धवन ने गुरु महाराज के चरणों का प्रक्षाल कर उसके ऊपर छिड़क दिया. ऐसा करते ही वह जीवित हो उठा. इससे सब लोग प्रसन्न हो गए तथा राजा ने प्रसन्न होकर बहुमूल्य स्वर्णमुद्राओं से भरा हुआ थाल आचार्य श्री के चरणों में समर्पित किया. आचार्य श्री ने कहा- राजन, इस द्रव्य और वैभव से हमें कोई प्रयोजन नहीं, हम तो यही चाहते हैं कि आप मिथ्यात्व को छोड़कर परम पवित्र जैन धर्म को श्रद्धा सहित स्वीकार करें. सबने आचार्य श्री के उपदेशों का श्रवण किया तथा श्रावक के बारह व्रतों का ग्रहण कर जैन धर्म को अंगीकार किया. तभी से ओसिया नगरी के नाम से इन लोगों की गणना ओसवाल वंश में की गई. उस समय निम्नलिखित १८ गोत्रों की स्थापना की गई. दक्षिणबाहुगोत्र (9) तातहडगोत्र (२) वाफणागोत्र (३) कर्णाटगोत्र (४) बलहागोत्र (५) मोरक्षगोत्र (६) कुलहटगोत्र (७) वीरहटगोत्र (८) श्रीमालगोत्र (९) श्रेष्ठिगोत्र वामबाहुगोत्र (१) सुचंतिगोत्र (२) आदित्यनागगोत्र (३) भूरिगोत्र (४) भाद्रगोत्र (५) चिंचटगोत्र (६) कुंभटगोत्र (७) कन्नोजियेगोत्र (८) डिडूगोत्र (९) लघुश्रेष्टिगोत्र. इन अठारह गोत्रों का विस्तार पूर्वक अध्ययन करने पर एक-एक गोत्र से कितनी-कितनी शाखाएँ रूप ज्ञातियाँ निकले हैं, उनके नाम निम्नलिखित हैं. १. मूलगोत्र तातेड- तातेड, तोडियाणि, चौमोला, कौसीया, धावडा, चैनावत, तलोवडा, नरवरा, संघवी, डुंगरीया, चौधरी, रावत, मालावत, सुरती, जोखेला, पांचावत, बिनायका, साढेरावा, नागडा, पाका, हरसोता, केलाणी इस तरह २२ जातियाँ तातेडों से निकली हैं ये सब भाई हैं. २. मूलगोत्र बाफणा - बाफणा (बहुफूणा), नहटा (नहटा/नावटा), भोपाला, भूतिया, भाभू, नावसरा, मुंगडिया, डागरेचा, चमकीया, जांघडा, कोटेचा, बाला, धातुरिया, तियणा, कुरा, बेताला, सलगणा, बुचाणि, सावलिया, तोसटिया, गांधी, कोटारी, खोखरा, पटवा, दफ्तरी, गोडावत, कूचेरीया, बालीया, संघवी, सोनावत, सेलोत, भावडा, लघुनाहटा, पंचवया, हूडिया, टाटीया, ठगा, लघुचमकीया, बोहरा, मीठाडीया, मारु, रणधीरा, ब्रह्योचा, पाटलीया, वानुणा, ताकलीया, योद्धा, धारोया, दुद्धिया, बादोला, शुकनीया इस तरह ५२ जातियाँ बाफणा से निकली हुई आपस में भाई हैं. ३. मूलगोत्र करणावट- करणावट, वागडिया, संघवी, रणसोत, आच्छा, दादलिया, हुना, काकेचा, थंभोरा, गुंदेचा, जीतोत, लांभाणी, संखला एवं भीनमाला इस तरह १४ शाखाएँ निकलीं ,वे सभी आपस में भाई हैं. ४. मूलगोत्र बलाहा- बलाहा, रांका, वांका, सेठ, शेठीया, छावत, चोधरी, लाला, बोहरा, भूतेडा, कोटारी, लघुरांका, देपारा, नेरा, सुखिया, पाटोत, पेपसरा, जडिया, सालीपुरा, चितोडा, हाका, संघवी, कागडा, कुशलोत, फलोदीया इस तरह २६ शाखाएँ बलाहा गोत्र से निकली हैं, वे सभी भाई हैं. ५. मूलगोत्र मोरख- मोरख, पोकरणा, संघवी, तेजारा, लघुपोकरणा, वांदोलीया, चुंगा, लघुचंगा, राजा, चोधरि, गोरीवाल, केदारा, वातोकडा, करचु, कोलोरा, शीगाला, कोटारी इस तरह १७ शाखाएँ मोरखगोत्र से निकली हैं, वे सभी भाई हैं. ६. मूलगोत्र कुलहट- कुलहट, सुरचा, सुसाणी, पुकारा, मंसाणीया, खोडीया, संघवी, लघुसुखा, बोरडा, चोधरी सुराणीया, साखेचा, कटारा, हाकडा, जालोरी, मन्त्री, पालखीया, खूमाणा इस तरह १८ शाखाएँ कुलहट गोत्र से निकली हैं, वे सभी भाई हैं. ७. मूलगोत्र विरहट- विरहट, भुरंट, तुहाणा, ओसवाला, लघुभुरंट, गागा, नोपत्ता, संघवी, निबोलीया, हांसा, धारीया, 132 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक राजसरा, मोतीया, चोधरी, पुनमिया, सरा, उजोत इस तरह १७ शाखाएँ विरहट गोत्र से निकली हैं, वे सभी भाई हैं. ८. मूलगोत्र श्री श्रीमाल- श्री श्रीमाल, संघवी लघुसंघवी, निलडिया, कोटडिया, झाबांणी, नाहरलांणी, केसरिया, सोनी, खोपर, खजानची, दानेसरा, उद्घावत, अटकलीया, धाकडिया, भीन्नमाजा, देवड, माडलीया, कोटी, चंडालेचा, साचोरा, करवा इस तरह २२ शाखाएँ श्रीमाल गोत्र से निकली हैं, वे सभी भाई हैं. ९. मूलगोत्र श्रेष्ठि- श्रेष्ठि, सिंहावत, भाला, रावत, वैद, मुत्ता, पटवा, सेवडिया, चोधरी, थानावट, चीतोडा, जोधावत, कोटारी, बोत्थाणी, संघवी, पोपावत, ठाकुरोत, बाखेटा, विजोत, देवराजोत, गुंदीया, बालोटा, नागोरी, सेखांणी, लाखांणी, भुरा, गांधी, मेडतिया, पातावत्, शूरमा इस तरह ३० शाखाएँ श्रेष्ठि गोत्र से निकली हैं वे सभी भाई हैं. १०. मूलगोत्र संचेति- संचेति (सुचति/ साचेती), ढेलडिया, धमाणि, मोतिया, बिंबा, मालोत्, लालोत्, चौधरी, पालाणि लघुसंचेति, मंत्रि, हुकमिया, कजारा, हीपा, गांधी, बेगणिया, कोठारी, मालखा, छाछा, चितोडिया, इसराणि, सोनी, मरुवा, घरघटा, उचेता, लघुचोधरी, चोसरीया, बापावत्, संघवी, मुरगीपाल, कीलोला, खरभंडारी, भोजावत्, काटी जाटा, तेजाणी, सहजाणि, सेणा मंदिरवाला, मालतिया, भोपावत्, गुणीया इस तरह ४४ शाखाएँ संचेति गोत्र से निकली हैं, वे सभी भाई हैं. ११. मूलगोत्र आदित्यनाग- आदित्यनाग, चोरडिया, सोढाणि, संघवी, उडक मसाणिया, मिणियार, कोटारी, पारख, पारखों से भावसरा, संघवी ढेलडिया, जसाणि, मोल्हाणि, नन्नडक, तेजाणि, रुपावत्, चौधरी, गुलेच्छा, गुलेच्छों से दौलताणी, नागाणी, संघवी, नापडा, काजाणि हुला, सेहजावत, नागडा, चित्तोडा, दातारा, मीनागरा, सावसुखा सावसुखों से मीनारा लोला, बाजाणि, केसरिया, बला, कोटारी, और नांदेचा ये सभी आपस में भाई हैं. १२. मूलगोत्र भटनेराचोधरी- भटनेराचोधरियों से कुंपावत्, भंडारी, जीमणिया, चंदावत्, सांभरीया, कानुंगा, गदईया गवइयों से गेहलोत, लुगावत, रणशोभा, बालोत्, संघवी, नोपत्ता बुचा बुचों से सोनारा, भंडलीया, करमोत्, दालीया, रत्नपुरा, फिर चोरडियों से नाबरिया, सराफ, कामाणि, दुद्धोणि, सीपांणि, आसाणि, सहलोत्, लघु सोढाणी, देदाणि, रामपुरिया, लघुपारख, नागोरी, पाटणीया, छाडोत्, ममइया, बोहरा, खजानची, सोनी, हाडेरा, दफ्तरी, चोधरी, तोलावत्, राब, जौहरी, गलाणि इस तरह ८५ शाखाएँ इस गोत्र से निकली हैं, वे सभी भाई हैं. १३. मूलगोत्र भूरि-भूरि, भटेवरा, उडक, सिंधी, चोधरी, हिरणा, मच्छा, बोकडिया, बलोटा, बोसूदीया, पीतलीया, सिंहावत्, जालोत्, दोसाखा, लाडवा, हलदीया, नांचाणि, मुरदा, कोठारी, पाटोतीया इस तरह २० शाखाएँ भूरि गोत्र से निकलीं वह सभी भाई हैं. १४. मूलगोत्र भद्र- भद्र, समदडिया, हिंगल, जोगड, गिंम, खपाटीया चवहेरा, बालडा, नामाणि, भमराणि, देलडिया, संघी, सादावत्, भांडावत्, चतुर, कोटारी, लघु समदडिया, लघु हिंगड, सांढा, चोधरी, भाटी, सुरपुरीया, पाटणिया, नांनेचा, गोगड, कुलधरा, रामाणि नाथाणि, नाथवत, फूलगरा इस तरह २६ शाखाएँ भद्रगोत्र से निकली हैं, वे सब भाई हैं. १५. मूलगोत्र चिंचट- चिंचट, देसरडा, संघवी, ठाकुरा, गोसलांणि, खीमसरा, लघुचिंचट, पाचोरा, पुर्विया, निसाणिया, नौपोला, कोठारी, तारावाल, लाडलखा, शाहा, आकतरा, पोसालिया, पूजारा, वनावत् इस तरह १९ शाखाएँ चिंचटगोत्र से निकली हैं, अतः वे सभी भाई हैं. १६. मूल गोत्र कुमट- कुमट काजलीया, धनंतरि, सुधा, जगावत, संघवी, पुलगीया, कठोरीया, कापुरीत, संभरिया, चोक्खा, सोनीगरा, लाहोर, लाखाणी, मरवाणि, मोरचीया, छालीया, मालोत्, लघुकुंमट, नागोरी इस तरह १६ शाखाएँ कुमटगोत्र से निकली हैं, अतः वे सभी भाई हैं. १७. मूलगोत्र डिंडू- डिंडू, राजोत्, सोसलाणि, धापा धीरोत, खंडिया, योद्धा, भाटिया, भंडारी समदरिया, सिंधुडा, जालन, कोचर, दाखा, भीमावत्, पालणिया, सिखरिया, वांका, वडवडा बादलीया, कुंगा इस तरह २१ शाखाएँ डिंडूगोत्र से निकली हैं, वे सब भाई हैं. 133 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक १८. मूलगोत्र कन्नोजिया- कन्नोजिया, वडभटा, राकावाल, तोलीया, धाधलिया, घेवरीया, गुंगलेचा, करवा, गढवाणि, करेलीया, राडा, मीठा, भोपावत्, जालोरा, जमघोटा, पटवा, मुशलीया इस तरह १७ शाखाएँ कन्नोजिया गोत्र से निकली हैं, वे सब भाई हैं. १९. मूलगोत्र संचेति- लघुश्रेष्टि, वर्धमान भोभलीया, लुणोचा, बोहरा, पटवा, सिंधी, चिंतोडा, खजानची, पुनोत्गोधरा, हाडा, कुबडिया, लुणा, नालेरीया, गोरेचा एवं १६ शाखाएँ लघु श्रेष्ठिगोत्र से निकली हैं, वे सभी भाई हैं. २२-५२१४-२६-१७-१८-१७-२२-३०-४४-८५-२०-२९-१९-१६-२१-१६-१६ कुल संख्या ४९८. इस प्रकार मूल अठारह गोत्र में से ४९८ शाखाएँ निकलीं, इससे यह स्पष्ट होता है कि एक समय ओसवालों का कैसा उदय था और कैसे वटवृक्ष की भांति उनकी वंशवृद्धि हुई थी. इनके सिवाय उपकेशगच्छाचार्य व अन्य आचार्यों ने राजपूतों को प्रतिबोध देकर जैन जातियों में मिलाया, अर्थात् विक्रम पूर्व ४०० वर्ष से लेकर विक्रम की सोलहवीं सदी तक जैनाचार्य ओसवाल बनाते गये. ओसवालों की ज्ञातियाँ विशाल संख्या में होने के कारण कुछ तो व्यापार करने के कारण, कुछ एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाने के कारण, कुछ पूर्व ग्राम के नाम से तथा कुछ लोग देशसेवा, धर्मसेवा या बडे-बड़े कार्य करने के कारण तथा इसके अतिरिक्त कुछ लोग हँसी-मजाक के कारण उपनाम पड़ते-पड़ते उस जाति के रुप में प्रसिद्ध हो गये. एक याचक ने ओसवालों की जातियों की गिनती करनी प्रारंभ की, जिसमें उसे १४४४ गोत्रों के नाम मिले. ओसवाल जाति तो एक रत्नागार है, जिसकी गिनती मुश्किल है. इस समय कई जातियाँ बिलकुल नाबूद हो गयी हैं, परन्तु इन दानवीरों के द्वारा बनवाये गए मंदिर व मूर्तियाँ, जिनके शिलालेखों से पता चलता है कि पूर्वोक्त जातियाँ भी एक समय अच्छी उन्नति पर थी। इतना ही नहीं प्राचीन कवियों ने उन जाति के दानवीरों, धर्मवीरों और शूरवीर नर रत्नों की कविता बनाकर उनकी उज्ज्वल कीर्ति को अमर बना दिया है. खामेमि सव्वजीवे सब्वे जीवा खमंतु मे। मिति मे सव्वभूएसु वेरं मज्झ न केणइ।। હું દરેક જીવોને ખમાવું છું, સર્વે જીવો પણ મને ક્ષમા પ્રદાન કરે, સમeત પ્રાણિઓની સાથે મારે nિતા છે, કોઈની સાથે પણ મારે વેરભાવ નથી. 134 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભગવતી પદ્માવતી માતાનાં પ્રસિદ્ધ તીર્થધામો ૧. નરોડા-અમદાવાદ ભગવતી પદ્માવતીમાતાનું પ્રાચીન અને જાગતું ધામ. * લાલ વર્ણનાં માતાજીનાં દર્શન કરતાં જ મનને અપૂર્વ શાંતિ મળે છે. * આ પ્રાચીન મૂર્તિનો મહિમા ખરેખર અપરંપાર છે. ૨. નિશાપોળ-અમદાવાદ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक * શ્રી જગવલ્લભ પાર્શ્વનાથના જિનાલયમાં ભગવતી પદ્માવતી માતાજી બિરાજમાન છે. * અપૂર્વ પ્રતિમા હોવાના કારણે દર્શનાતુર ભક્તોનો પ્રવાહ સતત ચાલુ જ હોય છે. * પાંચ તીર્થંકરો મૂર્તિની ઉપર સ્થાપવામાં આવ્યા છે તે આ મૂર્તિની આગવી વિશેષતા છે. ૩. સમ્મેતશિખર પોળ-અમદાવાદ દિલાવરસિંહ વિહોલ * જિનાલયમાં ભગવતી પદ્માવતી માતાની લાલશ પડતા પીળા રંગની મૂર્તિ બિરાજમાન છે. * અપૂર્વ અને મનોરમ્ય આ મૂર્તિના દર્શન કરવા ભક્તોનો પ્રવાહ ચાલુ જ હોય છે. ૪. રતનપોળ-અમદાવાદ * જિનાલયમાં પ્રસ્થાપિત પદ્માવતી માતાજીની આ મૂર્તિ બેઠકની રીતે અંબિકાનું સ્મરણ કરાવે તેવી અદ્ભુત પ્રતિમા છે. ૫. ધના સુથાર પોળ-અમદાવાદ * જિનાલયમાં બિરાજમાન આ ભગવતી પદ્માવતી માતાજીના પ્રભાવ વિશે કહેવાય છે કે તેમના પ્રભાવથી રાત્રિના સમયે જિનમંદિરમાં વાજિંત્રોના નાદ થાય છે ૬. શેખનો પાડા-અમદાવાદ * આ જિનાલયમાં ભગવતી માતા પદ્માવતીની મનોહર અને ચમત્કારી મૂર્તિ બિરાજમાન છે. ૭. વટવા-અમદાવાદ * જૈન આશ્રમ ખાતે સ્વર્ગીય આચાર્યશ્રી કીર્તિસાગરસૂરીશ્વરજી મહારાજ દ્વારા પદ્માવતી માતાની સુંદર મૂર્તિની પ્રતિષ્ઠા કરવામાં આવી છે. ૮. દેવકીનંદન સોસાયટી-અમદાવાદ * આચાર્ય શ્રી કૈલાસસાગરસૂરિજી મહારાજશ્રીના વરદ હસ્તે પુરૂષાદાનીય પાર્શ્વનાથના જિનાલયમાં ભગવતી પદ્માવતીમાતાની સ્થાપના થયેલી છે. ૯. ચાંદખેડા-અમદાવાદ * આચાર્ય પૂજ્યપાદ શ્રી દુર્લભસાગરસૂરિજી મહરાજજીએ બુદ્ધિસાગરનગરમાં સ્થાપાયેલી ભગવતી પદ્માવતી માતાજીની મૂર્તિ પણ અપૂર્વ સૌદર્ય ધરાવે છે. 135 ૧૦. વાસણા-અમદાવાદ * સુવિખ્યાત ધરણીધર દેરાસરમાં અલખના અવધૂત આચાર્યશ્રી સુબોધસાગરસૂરિજી મહારાજ દ્વારા પ્રતિષ્ઠિત શ્રી પદ્માવતી માતાજીના પરચાઓનો કોઈ પાર નથી. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक ૧૧. સેટેલાઈટ-અમદાવાદ પ્રેરણાતીર્થ ખાતે બિરાજમાન ભગવતી પદ્માવતી માતાએ પણ ભક્તોમાં અનેરૂં આકર્ષણ જગાવ્યું છે. અમદાવાદમાં નીચેના સ્થાનોમાં પણ ભગવતી પદ્માવતી માતાજી જુદા જુદા સ્વરૂપે બિરાજ્યાં છે. * ઝવેરી પાર્ક, કેશવનગર, સાવથીનગરી, નવરંગપુરા, બાપુનગર, સરખેજ, વાસણા, કૃષ્ણનગર, આનંદધામ, મુક્તિધામ ગુજરાતનાં નાના મોટાં નગરો, ગામો અને કસ્બાઓમાં ઠેકઠેકાણે ભગવતી પદ્માવતી માતાજી બિરાજમાન છે. દરેક સ્થળનો પરિચય આપવો તો શક્ય નથી પરતું કેટલાક મહત્ત્વનાં સ્થાનોનાં નિર્દેશ નીચે પ્રમાણે છે. * જૈનોના શિરમોર જેવા તીર્થ પાલિતાણામાં ગિરિરાજ ઉપર પદ્માવતીની ટૂંક (શ્રીપૂજ્યની ટૂંક) પર ભગવતી પદ્માવતીમાતાજી બિરાજેલા છે. * પાલિતાણામાં સાહિત્ય મંદિર, જસકુંવરની ધર્મશાળા, શત્રુંજય ડેમ વગેરે સ્થળોએ માતાજીની સ્થાપના છે. * પાલિતાણાથી અમદાવાદ આવતાં પીપરલા ગામે બનેલા જિનમંદિરમાં પદ્માવતી માતાની આકર્ષક પ્રતિમા છે. * ઘોઘા બંદરે અને ઉત્તર ગુજરાતમાં મહેસાણા ખાતે મનમોહન પાર્શ્વનાથના દેરાસરમાં પ્રાચીન પ્રતિમા છે. * વિજાપુરમાં પ્રાચીન દેરાસરમાં સૈકાઓ જૂની પ્રતિમા છે તથા નૂતન સ્ફુર્લિંગ પાર્શ્વનાથ તીર્થમાં પણ માતાજીની સ્થાપના કરવામાં આવી છે. * ખંભાતમાં મુખ્ય જિનાલય શ્રી સ્તંભણ પાર્શ્વનાથના દેરાસર ઉપરાંત સંઘવી પાડામાં સોમચિંતામણિ પાર્શ્વનાથ જિનાલયમાં બિરાજમાન પદ્માવતીમાતાજીની મૂર્તિ ૧૪૦૦ વરસ પ્રાચીન છે તથા ત્યાં ૧૪૦૦ વરસથી અખંડ દીપક ચાલુ છે. * ખંભાતના માણેકચોકમાં શંખેશ્વર પાર્શ્વનાથના દેરાસરમાં, સુમતિનાથના દેરાસરમાં માતાજીની સ્થાપના છે. * ઉત્તર ગુજરાતના મુખ્ય શહેર પાટણના ભોંયરા પાડામાં, શીતલનાથના દેરાસરમાં માતાજી બિરાજમાન છે. * સુપ્રસિદ્ધ જૈન તીર્થ શંખેશ્વરમાં ભક્તિવિહારમાં તથા પદ્માવતી શક્તિપીઠમાં પદ્માવતી માતાજીની ૨૪ હાથ વાળી ભવ્ય મૂર્તિ છે. * ભરૂચની શ્રીમાળી પોળના મુખ્ય દેરાસર તથા ભરૂચ નજીક ભાડભૂત ગામમાં પણ ચમત્કારી પદ્માવતી માતાજી બિરાજમાન છે. * મધ્ય ગુજરાતમાં શિનોર ખાતે માતાજીની પ્રભાવશાળી મૂર્તિ છે. * વડોદરાના શાંતિનાથનું દેરાસર, લાલબાગ દેરાસર, પ્રતાપનગર ચિંતામણિ પાર્શ્વનાથ દેરાસર, મોતીબાગ દેરાસર વગેરે સ્થળોએ ભગવતી પદ્માવતી માતાજી જુદા જુદા સ્વરૂપે બિરાજમાન છે. * શ્રી મહાવીર જૈન આરાધના કેન્દ્ર, કોબા ખાતે ભગવતી પદ્માવતી માતાજીની મનોરમ્ય મૂર્તિ બિરાજમાન છે. * ગોધરા, વક્તાપુર વગેરે નામાં મોટાં સ્થાનોમાં પણ માતાજી જુદા જુદા સ્વરૂપે બિરાજમાન છે. ૧૨. મુંબઈ * વાલકેશ્વરમાં બાબુ અમીચંદ પનાલાલ જૈન દેરાસર, પાયધુનીમાં ગોડીજી અને મહાવીરસ્વામી દેરાસર, પાર્લા વેસ્ટમાં ઘેલાભાઈ કરમચંદ સેનેટોરિયમ ઉપરાંત માટુંગા, ચેમ્બુર, અગાસી, ગોરેગાંવ, ગોવાલિયા ટેંક વગેરે સ્થાનોમાં માતાજીની સ્થાપના છે. ૧૩. મહારાષ્ટ્રમાં વલવન(લોનાવાલા), નાગપુર, સંગમનેર, નિપાણી, અમલનેર, ખામગાંવ, બાલાપુર વગેરે સ્થળોએ ભગવતી પદ્માવતી માતાજી જુદા જુદા સ્વરૂપોમાં બિરાજમાન છે. ૧૪. દક્ષિણ ભારતમાં કુંભોજગિરિ, ભાંડુકજી, કુલપાકજી, હુંબજ(દિંગબર મંદિર), તિરૂપતિ, સિકંદરાબાદ, બેંગ્લોર, 136 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी રરરરર€ €79 . महोत्सव विशेषांक કૃષ્ણાગિરિ સ્થળોએ પદ્માવતી માતાજીના નાના મોટા તીર્થો આવેલ છે. ૧૫. બિહારમાં સમેતશિખરજી, બંગાળમાં કલકત્તા, ભવાનીપુરમાં ભગવતી પદ્માવતી માતાજી બિરાજમાન છે. ૧૬. દિલ્હીમાં આત્મવલ્લભ સ્મારકમાં, મધ્યપ્રદેશમાં અમીઝરાતીર્થમાં, નાગેશ્વરમાં અને મોહનખેડામાં, રાજસ્થાનમાં જયપુર અને ડુંગરપુર, બનારસમાં અહિચ્છત્રી તીર્થ વગેરે સ્થળોએ પણ માતાજીની વિભિન્ન સ્વરૂપોવાળી મૂર્તિઓ બિરાજમાન છે. बहुदोषो दोषहीनात्त्वत्तः कलिरशोभत । विषयुक्तो विषहरात्फणीन्द्र इव रत्नतः ।। હે પ્રભુ! વિષયુક્ત એવો વિષઘર (સર્પ) પણ જેમ વિષહર એવા મણિeoળથી શોભે છે. તેમ બહુદોષવાળો આ લિઝાળ પણ સર્વદોષરહિત એવા આપનીથી શોભી રહ્યો છે. उपसर्गाः क्षयं यान्ति छिद्यन्ते विध्नवल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति पूज्यमाने जिनेश्वरे।। परमात्मा की पूजा करने से (૧) વેbષ્ટ નષ્ટ હોતે હૈ (२) विघ्न विलिन होते है (3) સવ માનસિવ પ્રસન્નતા પ્રાપ્ત હોતી હૈા. 137 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक श्री शत्रुंजय महातीर्थ पालीताणा - तलेटी से शहर तक आई हुई धर्मशालाओं के फोन नंबर पालीताणा एस. टी. डी. कोड (०२८४८) आणंदजी कल्याणजीनी पेढी पांचबंगला (आ.क. पेढी) १०८ जैन तीर्थ दर्शन हरिविहार जैन धर्मशाला आगममंदिर सौधर्म निवास जैन धर्मशाला अंकीबाइ चेरीटेबल ट्रष्ट सोना-रूपा जैन धर्मशाला अमृततीर्थ आराधना भवन सूर्यकमल जैन धर्मशाला आनंदभुवन जैन धर्मशाला सुराणी भुवन जैन धर्मशाला आयंबील भुवन जैन धर्मसाला सिमंधर स्वामी जैन देरासर ओसवल यात्रीक भवन सिद्धाचल जैन श्राविकाश्रम ओमशांति ट्रष्ट साबरमती जैन यात्रिक भवन आत्मवल्लभ सादडी भवन सिद्धक्षेत्र जैन श्राविकाश्रम मंडार भुवन (गिरि. सोसा.) शत्रुजय विहार जैन धर्मशाला राजेन्द्र जैन भवन नवल संदेश घंटाकर्ण महावीर जैन ट्रस्ट गिरिविहार २५२१४८ २५२४७६ २५२४९२, २४२७९७ २५२६५३ २५२१९५ २५२३३३ २५२६०३ २५२३७६ २४२४०७ २४२३४९ २५२५६५ २५२६३१ २५२८३० २४३०१८ २५२२४०-२५१००१ २५२१९६ २४२९२१ २५२७०९ २५२३६८-२४२२५९ २५२१९६ २५२१३५ २४२१२९ २५२२०६-२५२७४६ २४३०६८ २५२२३४-२५२४१३ २५२२५८ 138 गिरिराज ज्ञानमंदिर ट्रस्ट धनसुख विहार जैन धर्मशाला पुरबाइ जैन धर्मशाला पंजाबी जैन धर्मशाला मुक्तिनिलय धर्मशाला दादावाडी राजेन्द्र विहार दीगंबर जैन धर्मशाला. दीपावली जैन दर्शन ट्रस्ट लुक्कड मंगल भुवन ट्रस्ट के. एन. शाह चेरीटेबल ट्रस्ट नरशी नाथा जैन धर्मशाला नंदा भुवन जैतावाडा धर्मशाला. विद्या विहार बाली भुवन. धानेरा भवन. पींडवाडा भवन (प्रेम विहार) तखतगढमंगल भुवन. डीसावाली जैन धर्मशाला. मगन मुलचंद. वाव पथक. लावण्य विहार. चांद भवन. २५२३३० २५२२६१,२५२१६६ २५२१४५ २५२१४१ २५२१६५ २५२२४८ २५२२४७ २४२३४१ २५२३१६ २४३०८९ २५२१८६ २५२३५६, २५२३८५ २४३०६७ २५२४९८ २४२१७४ नित्यचंद्र दर्शन. शत्रुंजय दर्शन. २५२९३० २५२१६७ २५२५६९ २५२२७६ २५३२५३ २५२५७८ २४२१३७ २४२२४८ २५२२७५ ब्रह्मचारी आश्रम. वर्धमान जैन मंदिर ट्रस्ट. यशोविजयजी जैन आराधना ट्रस्ट. २४२४३३ २५२१८१ २५२५१२ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक यतिन्द्र भवन. २५२२३७ वर्धमान महावीर जैन रीलीजीयस.२४२२७५ जंबुद्वीप. २४२०२२, २५२३०७ मंडार भवन (१०८) जैन आराधना. २५२५६१ भेरू विहार. २४२९८४, २५२७८४ खुशाल भवन जैन धर्मशाला. २५२८७३ खीमइबाइचेरीटेबल ट्रस्ट. २५३२३७,२४२५७३ खिवान्द्री भवन धर्मशाला. २५२८१० उमाजी भवन धर्मशाला. २५२६२५ कंकुभाइ जैन धर्मशाला (धर्मशांती) २५२५९८ कोटवाळी जैन धर्मशाला. २५२६६२ केशरीयाजी जैन धर्मशाला. २५२२१३ केशवजी नायक चेरीटी ट्रस्ट, २४२५७८, २५२६४७, कनकबेन २५३३३९, २४२५७८ कच्छी विशा ओसवाल भवन. २५२१३७ बनासकांठा जैन धर्मशाला. २५२३९५ एस. पी. शाह जैन धर्मशाला. २४२१९० प्रभवहेम गौशाला. २५१००३ प्रभागीरी भवन. २५१२१३, २४३०२० हाडेचा भवन. २४२५९१ परमार भवन. २५२८९९ कनक रतन विहार. २५१०४६, २५२८६९ पालनपुर यात्रिक भवन. २४२६६६ हाडेचानगर जैन धर्मशाला. २४२५९१, २४२५९० हिंमतनगर जैन धर्मशाला. २५२५४९ हिराशांता जैन यात्रिक गृह. २५३२५६ सांडेराव जैन धर्मशाला. २५२३४४ खीम्मत यात्रिक भवन. २४२९५७, २४२१०८ खेतलावीर जैन धर्मशाला. २५२८८४ के.पी.संघवी जैन धर्मशाला. २५२४९३ पादरली भवन. २५२४८६ भक्ति विहार. २५२५१५ विशाल जैन म्युझीयम. २५२८३२ यतिन्द्रभुवन. २५२२३७ वीसा नीमा. २५२२७९ महाराष्ट्र भवन. २५२१९३ बेंग्लोर भवन. २५२३८९ पन्ना-रूपा. २५२३९१ चंद्र दिपक जैन धर्मशाला. २५२२३५ मोक्षधाम सिद्ध शीला. २४३०२७, २४३२१४ बाबु साहेब जैन देरासर. २४२९७३ जीवन निवास. २५२१९७ रणशी देवराज. २५२२११ सादडी भवन. २५३२६८, २४२२५९ बाबु पन्नालाल. २५२५१२, २५२९७७ प्रकाश भवन. २५२३४८ धनापुरा धर्मशाला, २५२२०९ राकोटवाळी धर्मशाला. २५३१७८ सांचोरी भवन. २४२३७६ ढढा भुवन. २५२४५३ वापीवाला काशी केशर. २५२२९३ आनंद भुवन (अन्नक्षेत्र). २४२९६४ देवगीरी आराधना. २४३०८३ विमल भवन. २४३०५८ १०८ मंत्रेश्वर पार्श्वधाम. २४३३६७ मुतीसुखीया धर्मशाला. २५२१७७ कैलासस्मृति धर्मशाला. २५२७९९ २७ एकडा जैन यात्रिक भवन . २५३३८८, २५३३९९ 139 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक बडौदा जिला. तीर्थ श्री शंखेश्वर तीर्थ (अणस्तु) श्री सुमेरू नवकार तीर्थ श्री वरणामा तीर्थ श्री वणछरा तीर्थ श्री बडौदा श्री ओमकार तीर्थ श्री डभोई तीर्थ श्री बोडेली तीर्थ श्री भायली तीर्थ पंचमहाल जिला. श्री पावागढ तीर्थ श्री पारोली तीर्थ श्री नवग्रह आराधना तीर्थ (गोधरा ) भरुच जिला श्री भरूच तीर्थ श्री झगडीयाजी तीर्थ श्री गंधार तीर्थ श्री कावी तीर्थ भारत के जैन तीर्थों के फोन नंबर गुजरात सुरत जिला. श्री सूर्यपुर (सुरत) तीर्थ श्री नवसारी तीर्थ श्री तपोवन संस्कारधाम वलसाड जिला. श्री तीथल तीर्थ (शांतिनीकेतन) श्री अलीपोर तीर्थ श्री बगावडा तीर्थ श्री नंदीग्राम तीर्थ मूलनायक प्रभु श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथ भगवान श्री वासुपूज्य स्वामी श्री निलकमल पार्श्वनाथ भगवान श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान श्री अचलगच्छ जैन भवन श्री आदिनाथ भगवान श्री लोढणपार्श्वनाथ भगवान श्री महावीर स्वामी भगवान श्री धर्ममंगल पार्श्वनाथ भगवान श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान श्री नेमीनाथ भगवान श्री वासुपूज्य स्वामी भगवान श्री मुनीसुव्रत स्वामी भगवान श्री आदिश्वर भगवान श्री अमीझरा पार्श्वनाथ भगवान श्री आदिश्वर तथा धर्मनाथ भगवान श्री सुरत जैन यात्रिक भवन श्री चिंतामणीपार्श्वनाथ प्रभु श्री शांतिनाथ प्रभुजी श्री गोडीपार्श्वनाथ भगवान श्री अजीतनाथ भगवान श्री सीमंधरस्वामी भगवान 140 फोन नं. ०२६६६-२३२२२५, २३४०४९ ०२६६६-२३१०१० ०२६५-२८३०९५१ ०२६६२-२४२५११ ०२६५-२४३२८५८, २४२३८०९ ०२६५-२२४२७९२ ०२६६३-२५८१५० ०२६६५-२२२०६७ ०२६५-२६८००३४, २४८७७८७. •०२६७६-२४५६०६ ०२६७६-२३४५३९,२३४५१० ०२६७२-२४४५६३, २६५०३५ ०२६४२-२६२५८६, २२१७५० ०२६४५-२२०८८३ ०२६४१-२३२३४५ ०२६४४-२३०२२९ ०२६१-२४१८२८७ ०२६३७-२५८८८२ ०२६३७-२५८९५९,२५८९२४ ०२६३२-२४८०७४ ०२६३४-२३२९७३ ०२६०-२३४२३१३ ०२६०-२७८६१८९ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक श्री चंद्रप्रभ स्वामी प्रभु श्री स्तंभन पार्श्वनाथ भगवान ०२६९६-२८८१५८ ०२६९८-२२३६९६ ०२७१४-२७२३०८.२७२२३६ श्री साचादेवश्रीसुमतिनाथ भगवान ०२६९४-२८५५३० आणंद जिला. श्री वालवोड तीर्थ श्री खंभात तीर्थ वटामण चोकडी खेडा जिला. श्री मातर तीर्थ अहमदाबाद जिला. श्री कलिकुंड तीर्थ श्री भोयणी तीर्थ श्रीसावस्थी तीर्थ-बावला गांधीनगर जिला. श्री मेरूधाम तीर्थ श्री कोबा तीर्थ श्री कलिकुंड पार्श्वनाथ श्री मल्लिनाथ भगवान श्री संभवनाथ भगवान ०२७१४-२२५७३९,२२५२१८ ०२७१५-२५०२०४ ०२७१४-२३२६१२,२३२०८१ श्री नागेश्वरपार्श्वनाथ भगवान ( श्यामवर्ण) ०७९-२३२७६०७७ श्री महावीरस्वामी भगवान ०७९-२३२७६२५२, २३२७६२०४-२०५ श्री चंद्रप्रभस्वामी ०७९-२३२७२००९ श्री महावीरस्वामी भगवान ०७९-३२२६३८०,३२४३१८० श्री आदीनाथ भगवान श्री पद्मप्रभु स्वामी ०२७६३-२८४६२६,२८४६२७ श्री पार्श्वनाथ भगवान (श्यामवर्ण) ०२७६४-२५०१२६ श्री महावीरस्वामी भगवान (श्वेतवर्ण) ०२७६४-२८८२४०,२८८४०२ श्री चंद्रप्रभलब्धिधाम तीर्थ श्री बोरीज तीर्थ श्री वामज तीर्थ श्री महुडी तीर्थ श्री शेरीसा तीर्थ श्री पानसर तीर्थ महेसाणा जिला. श्री महेसाणा तीर्थ श्री नंदासण तीर्थ श्री रांतेज तीर्थ श्री विजापुर तीर्थ श्री आगलोड तीर्थ श्री आनंदपुर तीर्थ श्री शंखलपुर तीर्थ श्री मोढेरा तीर्थ श्री वालम तीर्थ श्री तारंगा तीर्थ श्री गांभु तीर्थ श्री कंबोइ तीर्थ श्री सीमंधरस्वामी भगवान श्री मनमोहन पार्श्वनाथ श्री नेमनाथ भगवान श्री स्फूर्लिंग पार्श्वनाथ श्री वासुपूज्य स्वामी श्री आदिनाथ भगवान श्री शांतिनाथ भगवान श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान श्री नेमिनाथ भगवान श्री अजीतनाथ भगवान श्री गंभीरा पार्श्वनाथ श्री मनमोहन पार्श्वनाथ भगवान ०२७६२-२५१६७४,२५१०८७ ०२७६४-२७३२६५,२६७२०५ ०२७३४-२६७३२० ०२७६३-२२०२०९ ०२७६३-२८३६१५,२८३७३४ ०२७३४-२८१३१५ ०२७३४-२८६४०८ ०२७३४-२८४३९० ०२७६५-२८५०४३ ०२७६१-२५३४११ ०२७३४-२८२३२५ ०२७३४-२८१३१५ 141 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक श्री शांतिनाथ भगवान श्री आदिश्वर भगवान ०२७५३-२५१५५० ०२७५७-२२६८२६ श्री पंचासरा पार्श्वनाथ भगवान श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री भटेवा पार्श्वनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान श्री चंद्रप्रभस्वामी श्री शांतिनाथ भगवान ०२७६६-२२२२७८,२२०२५९ ०२८६६-२७७५६२ ०२७३४-२२३२९६ ०२७६७-२८१२४२ ०२७३३-२७३५१४,२७३३२४ ०२७३३-२८१३४३,२८१३४४ सुरेन्द्रनगर जिला. श्री शियाणी तीर्थ श्री उपरीयाजी तीर्थ पाटण जिला. श्री पाटण तीर्थ श्री चारूप तीर्थ श्री चाणसमा तीर्थ श्री मेत्राणा तीर्थ श्री शंखेश्वरजी तीर्थ श्री जमणपुर तीर्थ श्री मुजपुर तीर्थ बनासकांठा जिला. श्री कुंभारीयाजी तीर्थ श्री पालनपुर तीर्थ श्री थराद तीर्थ श्री भीलडीयाजी तीर्थ श्री भोरोल तीर्थ श्री डूआ तीर्थ कच्छ जिला. श्री भद्रेश्वर तीर्थ श्री कटारीया तीर्थ श्री वांकी तीर्थ श्री बोतेर जिनालय तीर्थ श्री भगवान श्री पल्लावीया पार्श्वनाथ प्रभु श्री आदीश्वर भगवान श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री नेमिनाथ भगवान श्री अमीझरा पार्श्वनाथ भगवान ०२७४९-२६२१७८ ०२७४२-२५३७३१ ०२७३७-२२२०३६ ०२७४४-२३३१३० ०२७३७-२२६३२१ ०२६३७-२४७५०७ श्री महावीरस्वामी भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान श्री आदिश्वर भगवान श्री कोठारा तार्थ श्री सुथरी तीर्थ श्री तेरा तीर्थ श्री नलिया तीर्थ श्री मांडवी तीर्थ श्री जखौ तीर्थ साबरकांठा जिला. श्री इडर तीर्थ श्री शांतिनाथभगवान श्री धृतकलोल पार्श्वनाथ प्रभु श्री जीरावाला पार्श्वनाथ भगवान श्री चंद्रप्रभु स्वामी श्री शांतिनाथ भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान ०२८३८-२८२३६१,२८२३६२ ०२८३७-२७३३४१ ०२८३८-२७८२४० ०२८३४ २४४१५९,२७५४५१,२२०४२६ ०२८३१-२८२२३५ ०२८३१-२८४२२३,२८४२५५ ०२८३१-२८९२२३,२८९२२४ ०२८३१-२२२३२७ ०२८३४-२२०८८०,२२००४६ ०२८३१-२८७२२४ श्री शांतिनाथ भगवान ०२७७८-२५००८०, पहाडपर २५०४४२ 142 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वडाली तीर्थ श्री मोटा पोसीना तीर्थ श्री नाना पोसीना तीर्थ भावनगर जिला. श्री शत्रुंजय ( पालीताणा) तीर्थ श्री हस्तगिरि तीर्थ श्री घेटीनीपाग श्री शत्रुंजीडेम तीर्थ श्री तळाजा तीर्थ श्री दाठा तीर्थ श्री महुवा तीर्थ श्री घोघा तीर्थ श्री कदम्बगिरि तीर्थ श्री वल्लभीपुर तीर्थ श्री अयोध्यापुरम तीर्थ श्री भावनगर तीर्थ जूनागढ जिला. श्री गिरनारजी तीर्थ श्री चोरवाड तीर्थ श्री वंथली तीर्थ श्री अजाहराजी तीर्थ श्री उना तीर्थ श्री देलवाडा तीर्थ श्री प्रभासपाटण तीर्थ श्री वेरावळ तीर्थ श्री दीव तीर्थ जामनगर जिला. श्री जामनगर तीर्थ श्री हालारधाम तीर्थ श्री अमीझरा पार्श्वनाथ भगवान श्री विघ्नहरा पार्श्वनाथ पार्श्वनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री आदिश्वर भगवान श्री आदिश्वर प्रभु श्री शत्रुंजय पार्श्वनाथ भगवान श्री सुमतिनाथ भगवान श्री शांतिनाथ भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान श्री नवखंडा पार्श्वनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री आदिश्वर भगवान श्री आदिश्वर भगवान श्री आदिश्वर भगवान श्री नेमिनाथ भगवान श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान श्री शीतलनाथ भगवान श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान श्री चंद्रप्रभस्वामी भगवान श्री सुमतिनाथ भगवान श्री चंद्रप्रभस्वामी भगवान श्री आदिश्वर भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान 143 पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक ०२७७८-२२०३१९,२२०४१९ ०२७७५-२८३४७१,२८३३३० ०२७७८-२६६३६७ ०२८४८-२५२१४८, २५२३१२ ०२८४८-२८४१०१ ०२८४८-२५२३१६ ०२८४८-२५२२१५ ०२८४२-२२२०३० (पहाडपर) २२२२५९ ०२८४२-२८३३२४ ०२८४४-२२२५७१ ०२७८-२८८२३३५ ०२८४८-२८२१०१ ०२८४१-२२२४३३,२२२०७४ ०२८४१ २८१३८८, फेक्स:२८१५१६ ०२७८-२४२७३८४ ०२८५२-६५०१७९ (तलेटी) २२२००५९ ०२७३४-२६७३२० ०२८७२-२२२२६४ ०२८७५-२२२२३३ ०२८५-२२२२३३ ०२८७५-२२२२३३ ०२८७६-२३१६३८ ०२८७-२२१३८१ ०२८७५-२२२२३३ ०२८८-२६७८९२३(पेढी) ०२८३३-२५४०६३, २५४१५६. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक तीर्थ श्री कोंकण शत्रुजय तीर्थ श्री अगासी तीर्थ श्री पीयुषपाणी तीर्थ महाराष्ट्र मूलनायक प्रभु श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री भुवनभानु मंदिरम् तीर्थ श्री शंखेश्वरधाम तीर्थ श्री तलासरी जैन विहारधाम तीर्थ श्री सुयश शांती धामतीर्थ श्री कोसबाड जैन तीर्थ श्री पार्श्वपदमालय तीर्थ श्री शत्रुजय भक्तामर तीर्थ श्री कात्रज तीर्थ श्री बलसाणा तीर्थ श्री आदिनाथ भगवान श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान श्री मल्लीनाथ भगवान श्री सीमंधरस्वामी भगवान श्री मल्लीनाथ भगवान श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान श्री विमलनाथ भगवान फोन नं. ०२२-२५४७२३८९ ०२५२-२५८७१८३ ०२५१ २८४५७४१५,२८४५४८११ ०२५२७-२७२३९८,२७०३७१ ०२५०-२२१०२७७,२२१०४४७ ०२५२१-२२०३८३ ०२५२८-२२२६१६ ०२५२८-२४१००४ ०२११४-२२४१७७ ०२१२-२४३७०९४४ ०२५६८-२७८२१४,०२५६२ २३८०९१ ०२५६१-२३८०९१,२३०२८० श्री नेर तीर्थ श्री धुलिया तीर्थ श्री शीरडी तीर्थ श्री अमलनेर तीर्थ श्री धर्मचक्रप्रभाव तीर्थ श्री भद्रावती तीर्थ श्री कुंभोजगीरी तीर्थ श्री पार्श्वप्रज्ञालय तीर्थ श्री अंतरीक्षजी तीर्थ श्री आकोलाजी तीर्थ श्री कराड तीर्थ श्री तालनपुर तीर्थ श्री मांडवगढ तीर्थ श्री मनोवांछित पार्श्वनाथ भगवान श्री शांतिनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री गिरूआ पार्श्वनाथ भगवान श्री मंत्राधिराज पार्श्वनाथ भगवान श्री केसरीयाजी पार्श्वनाथ भगवान श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ भगवान श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री अंतरीक्ष पार्श्वनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री संभवनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री सुपार्श्वनाथ भगवान राजस्थान श्री आदिनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान ०२५३-२३३६०४१,२३३६१७६ ०७१७५-२६६०३० ०२३०-२५८४४५६ ०२११४-२२४१७७,२२८०४४ ०७२५४-२३४००५ ०७२४-२४३३०५९ ०२१६४-२२३३४८ ०७२९७-२३३३०६ ०७२९२-२६३२२९ श्री आबु देलवाडा तीर्थ श्री अचलगढ तीर्थ श्री पावापुरी तीर्थ ०२९७४-२३८४२४,२३७३२४ ०२९७४-२२४१२२ ०२९७२-२८६८६६ 144 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक ०२९७५-२२४४३८ ०२९७५-२३६१३१ ०२९७५-२४४१६५.२४४१८३ ०२९७५-२२७७२१ ०२९७५-२६४०३२ ०२९७१-२३७१३८ ०२९७१-२३७२३७० ०२९७१-२३३४१६ ०२९७१-२२०११५ ०२९७१-२२००२८ ०२९७१-२२००२८ श्री जीरावलाजी तीर्थ श्री दांतराई तीर्थ श्री मंडारतीर्थ श्री भेरूतारकधाम तीर्थ श्री निंबज तीर्थ श्री वरमाण तीर्थ श्री वीरवाडा तीर्थ श्री बामणवाडाजी तीर्थ श्री नांदीया तीर्थ श्री लोटाणा तीर्थ श्री पिंडवाडा तीर्थ श्री अजारी तीर्थ श्री ओरतीर्थ श्री मुंडस्थळ तीर्थ श्री मीरपुर तीर्थ श्री दियाणा तीर्थ श्री झाडोली तीर्थ श्री शिरोही तीर्थ श्री लुणावा तीर्थ श्री रातामहावीर तीर्थ श्री राणकपुर तीर्थ श्री सादडी तीर्थ श्री नाडलाइ तीर्थ श्री मुछाळा महावीर तीर्थ श्री धाणेराव तीर्थ श्री वरकाणा तीर्थ श्री नाडोल तीर्थ श्री खुडाला तीर्थ श्री सांडेराव तीर्थ श्री खीमेल तीर्थ श्री जालोर तीर्थ श्री मांडवला तीर्थ श्री सेवाडी तीर्थ श्री आहोर तीर्थ श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान श्री मुनि सुव्रतस्वामी भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान श्री सहस्त्रफणा पार्श्वनाथ भगवान श्री मुनि सुव्रतस्वामी भगवान श्री महावीर स्वामी भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान श्री जीवत महावीरस्वामी भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान श्री भीडभंजन पार्श्वनाथ भगवान श्री जीवीत महावीरस्वामी भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री नेमिनाथ भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री पद्मप्रभस्वामी भगवान श्री धर्मनाथ भगवान श्री शांतिनाथ भगवान श्री शांतिनाथ भगवान श्री महावीरस्वामी भगवान श्री शांतिनाथ भगवान श्री शांतिनाथ भगवान श्री गोडी पार्श्वनाथ भगवान ०२९७२-२८६७३७ ०२९७१-२४२५७४ ०२९७१-२२०१७० ०२९७२-२३०६३१ ०२९३८-२५२२२८ ०२९३३-२४०१३९ ०२९३४-२८५०१९,२८५०२१ ०२९३४-२८५०१७ ०२९३४-२८२४२४ ०२९३४-२८४०५६ ०२९३४-२८४०२२ ०२९३४-२२२२५७ ०२९३४-२४००४४ ०२९३८-२३३३००,२३३१०९ ०२९३८-२४४१५६ ०२९३४-२२२०५२ ०२९७३-२३३८८६,२३२३८६ ०२९७३-२५६१०७.२५६२८४ ०२९३८-२४८१२२ ०२९७८-२२०४०९,२२२४११ 145 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक श्री सांचोर तीर्थ श्री भीनमाल तीर्थ श्री नाकोडाजी तीर्थ श्री जेसलमेर तीर्थ श्री बाडमेर तीर्थ श्री ब्रमसर तीर्थ श्री अमरसागर तीर्थ श्री लोद्रवा तीर्थ श्री पोकरण तीर्थ श्री जोधपुर तीर्थ श्री ओशियाजी तीर्थ श्री गंगाणी तीर्थ श्री कापराडाजी तीर्थ श्री फलौधी तीर्थ श्री उमेदपूर तीर्थ श्री बीकानेर तीर्थ श्री नाणा तीर्थ श्री डुंगरपुर तीर्थ श्री उदयपुर तीर्थ श्री आयड तीर्थ श्री देलवाडा-उदयपुर तीर्थ श्री पाली तीर्थ श्री चितोडगढ तीर्थ श्री नागहद तीर्थ श्री करेडा तीर्थ श्री राजनगर-कांकरेली तीर्थ श्री नागौर तीर्थ श्री मेडता तीर्थ श्री केशरीयाजी तीर्थ श्री नागेश्वरजी तीर्थ श्री महावीरस्वामी भगवान ०२९७९-२२२०२८ श्री पार्श्वनाथ भगवान ०२९६९-२२११९० श्री पार्श्वनाथ भगवान ०२९८८-२४०७६२,२४०००५ श्री चिंतामणीपार्श्वनाथ भगवान ०२९९२-२५२४०४ श्री चिंतामणीपार्श्वनाथ भगवान ०२९८२-२२१८७२,२२०४१३ श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ भगवान ०२९९२-२५२४०४ श्री आदिनाथ भगवान ०२९९२-२५२४०५ श्री सहस्त्रफणा चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान ०२९९२-२५०१६५ श्री पार्श्वनाथ भगवान ०२९९२-२५२४०४ श्री पार्श्वनाथ भगवान ०२९३१-२७३००८६,२४३०३८६ श्री महावीर स्वामी भगवान ०२९९२-२७४२३२ श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान ०२९२६-२२८१०४ श्री स्वयंभु पार्श्वनाथ भगवान ०२९३०-२६३९०९,२६३९४७ श्री गोडीजी पार्श्वनाथ भगवान ०२९२५-२२३३३४ श्री भीडभंजन पार्श्वनाथ भगवान ०२९७८-२३०२३० श्री चिंतामणी आदिश्वर भगवान श्री जीवीत महावीरस्वामी भगवान ०२९९३-२४५४९९ श्री आदिनाथ भगवान ०२९६४-२३३१८६,२३३२५९ श्री पद्मनाभ स्वामी भगवान ०२९४-२४२०४६२ श्री आदिनाथ भगवान ०२९४-२४२१६३७ श्री आदिनाथ नेमनाथ भगवान ०२९४-२२८९३४०,२४२०४६२ श्री नवलखा पार्श्वनाथ भगवान ०२९३२-२२१९२९,२२१७४७ श्री आदिनाथ भगवान ०१४७२-२४१९७१,२४२१६२ श्री शांतिनाथ भगवान ०२९४-२७७२२८१ श्री पार्श्वनाथ भगवान ०१४७६-२८४२३३ श्री आदिनाथ भगवान ०२९५२-२२०१४९,२२०८४६ श्री आदिनाथ भगवान ०१५८२-२४१३१८,२४२२८१ श्री फलवृद्धि पार्श्वनाथ भगवान ०१५९१-२५२४२६,२७६२२६ श्री आदिनाथ भगवान ०२९०७-२३००२३,२३००२५ श्री नागेश्वर पार्श्वनाथ भगवान ०७४१०-२४०७११,२४०७१५ - मध्यप्रदेश श्री आदिनाथ भगवान ०७२९६-२३२२२५,२३४३६९ श्री शांतिनाथ भगवान ०७२९६-२६६८६१,२६६८३० श्री मोहनखेडा तीर्थ श्री भोंपावर तीर्थ 146 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक श्री अमीझरा तीर्थ श्री बदनावर तीर्थ श्री राजगढ तीर्थ श्री बीम्बदोड तीर्थ श्री सेमालीया तीर्थ श्री रतलाम शहर श्री करमदी तीर्थ श्री सागोदीया तीर्थ श्री अलोकीक पार्श्वनाथ तीर्थ श्री उन्हेल तीर्थ श्री उजैन तीर्थ श्री परासली तीर्थ श्री इंदौर शहेर श्री लक्ष्मणी तीर्थ श्री अलीराजपुर तीर्थ श्री धारानगरी तीर्थ श्री वही तीर्थ श्री कुर्कटेश्वर तीर्थ श्री इंगलपथ तीर्थ श्री मक्षी तीर्थ श्री देवास तीर्थ श्री उवसग्गहर तीर्थ श्री भलवाडा तीर्थ श्री नई दिल्ली (इन्द्रप्रस्थ तीर्थ) श्री नई दिल्ली(विजयवल्लभ स्मारक) श्री अमीझरा पार्श्वनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री शितलनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री शांतिनाथ भगवान श्री अजितनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री ऋषभदेव भगवान श्री अलोकीक पार्श्वनाथ भगवान श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान श्री अवंती पार्श्वनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री पद्मप्रभस्वामी भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री नेमनाथ भगवान श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री भलवाडा पार्श्वनाथ भगवान श्री सुमतीनाथ भगवान श्री वासुपुज्यस्वामी भगवान पंजाब श्री अरनाथ भगवान श्री कलिकुंड पार्श्वनाथ भगवान श्री गोडी पार्श्वनाथ भगवान श्री वासुपुज्यस्वामी भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान ०७२९२-२६१४४४,२३२४०१ ०७२९५-२३३८१४.२३३७३६ ०७२९६-२३४१४५.२३५१४८ ०७४१२-२३६२७७,२२२४०० ०७४१२-२८१२१० ०७४१२-२३०८२८,२३२३५५ ०७४१२-२८३३७९ ०७४१२-२३९००७ ०७३४-२६१०२०५,२६१०२४६ ०७३६६-२२०२५८,२२०२३७ ०७३४-५५५५५३ ०७४२५-२३२८५५ ०७३१-२५४२२५३ ०७३८४-२३३८८७४,२३३५४५ ०७३९४-२३३२६१ ०७२९२-२३२२४५,२३२५६३ ०७४२४-२४१४३० ०७४२१-२३१४२१,२३१३४३ ०७४१४-२६४२३४,२६४३२० ०७३६३-२३२०३७ ०७२७२-२५२६७७ ०७८८-२७१०१०२ ०२४२७-२३६३१७,२३६२५१ ०११-२३२७०४८९ ०११-२७२०२२२५ श्री अमृतसर तीर्थ श्री लुधियाणा तीर्थ श्री जलंधर तीर्थ श्री होशियार पुर तीर्थ श्री सरहिन्द तीर्थ श्री कांगडाजी तीर्थ ०१८१-२४०५६७४ ०१८८२-२२३३२५ ०१७६३-२३२२४६ ०१८९२-२६५१८७ 147 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचायेपद प्रदान महोत्सव विशेषांक श्री राजगृही तीर्थ श्री कुंडलपुर तीर्थ श्री क्षत्रियकुंड तीर्थ श्री पाटलीपुत्र तीर्थ श्री गुणीयाजी तीर्थ श्री काकंदी तीर्थ श्री चंपापुरी तीर्थ श्री ऋजुबालीका तीर्थ श्री समेतशीखरजी तीर्थ श्री पावापुरी तीर्थ श्री कलकत्ता तीर्थ श्री जीयागंज तीर्थ श्री अजीमगंज तीर्थ श्री कठगोला तीर्थ बिहार श्री मुनि सुव्रतस्वामी भगवान ०६११२-२५५२२० श्री ऋषभदेव भगवान ०६११२-२८१६२४ श्री महावीरस्वामी भगवान ०६३४५-२२२३६१ श्री विमलनाथ भगवान ०६१२-२६४५७७७ श्री महावीर स्वामी भगवान ०६३२४-२४४०४५ श्री सुविधिनाथ भगवान श्री वासुपूज्यस्वामी भगवान ०६४१-२५००२०५ श्री महावीरस्वामी भगवान ०६७३६-२२४३५१ श्री शामळीयापार्श्वनाथ भगवान ०६५३२-२३२२२६,२३२२६० श्री महावीरस्वामी भगवान ०६११२-२७४७३६ पश्चिम बंगाल श्री शीतलनाथ भगवान ०३३-२५५५४१८७ श्री संभवनाथ भगवान ०३४८३-२५५७१५ श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान ०३४८३-२५३३१२ श्री आदिनाथ भगवान ०३४८३-२५५७१५ कर्णाटक श्री आदिनाथ भगवान ०८०-२८७३६७८ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथ भगवान ०८०-२२०००३६ श्री सुमतिनाथ भगवान ०८२१-२४३१२४२ श्री आदिनाथ भगवान ०८११९-२८२८८६ श्री अवन्ती पार्श्वनाथ भगवान ०८११९-२८२३३६ तामिलनाडु श्री चंद्रप्रभस्वामी भगवान ०४४-२५८२६२८ श्री आदिनाथ भगवान ०४४-६४१८५७७,६४१८२९२ श्री कलिकुंड पार्श्वनाथ भगवान ०४९५-७०४२९३ आन्ध्रप्रदेश श्री आदिनाथ भगवान ०८६८५-२२८१६९६ श्री कल्पतरू चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान ०८६३-२२९३२१३ श्री विमलनाथ भगवान ०८८१६-२२३६३२ श्री पार्श्वनाथ भगवान ०८६७४-२४४२९१,२४४२६६ श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान ०८६३-२२१४८३४ श्री बेंग्लोर (चीकपेट) तीर्थ श्री बेंग्लोर (गांधीनगर) तीर्थ श्री मैसुर तीर्थ श्री सिध्धाचल तीर्थ श्री देवहल्ली तीर्थ श्री चेन्नाई तीर्थ श्री पुडल तीर्थ श्री कलिकुंड तीर्थ (केरल) श्री कुलपाकजी तीर्थ श्री ह्रींकार तीर्थ श्री पेदमीरम तीर्थ श्री गुडीवाडा तीर्थ श्री अमरावती तीर्थ 148 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक श्री काकटुर तीर्थ श्री गुम्मिलेरू तीर्थ ०८६१-२३८३४१ ०८८५-२३४०३७ श्री मयुरस्वामी भगवान श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान उत्तरप्रदेश श्री शांतिनाथ भगवान श्री विमलनाथ भगवान श्री संभवनाथ भगवान श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान श्री नेमीनाथ भगवान श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री धर्मनाथ भगवान श्री पद्मप्रभस्वामी भगवान श्री अजितनाथ भगवान श्री आदिनाथ भगवान श्री पार्श्वनाथ भगवान श्री सुपार्श्वनाथ भगवान श्री श्रेयांसनाथ भगवान श्री चंद्रप्रभस्वामी भगवान श्री हस्तिनापुर तीर्थ श्री कम्पिलाजी तीर्थ श्री श्रावस्ति तीर्थ श्री आग्रा तीर्थ श्री सौरीपुर तीर्थ श्री हरिद्वार तीर्थ श्री अहिरछत्रा तीर्थ श्री रत्नपुरी तीर्थ श्री कौसम्बि तीर्थ श्री अयोध्या तीर्थ श्री परिमताल तीर्थ श्री भेलुपुर तीर्थ श्री भदैनी तीर्थ श्री सिंहपुरी तीर्थ श्री चंद्रपुरी तीर्थ ०१२३३-२८०१४० ०५६९०-२७१२८९ ०५२५२-२६५२१५ ०५६२-२५४५५९ ०५६१४-२३४७१७ ०१३३-२४२५२६३ ०५२७८-२३२११३ ०५३२-२४००२६३ ०५४२-२७५४०७,२२१०१० ०५४२-२७५४०७ ०५४२-२५८५०१७ ०५४२-२६१५३१६ साभार - 'जैन रोड एटलस' तो४ वन सण अने सार्थ बने... જો દેહ રોગ રહિત બને અને વચન ક્રોધ રહિત ન બને વ્યવહાર માયા રહિત બને અને જીવન હિંસા રહિત બને ઇન્દ્રિયો વાસના રહિત બને અને ____५रिति भय २डित बने. 149 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी महोत्सव विशेषांक શાકાહાર સર્વશ્રેષ્ઠ આહાર ડૉ. હુકમચંદ ભારિલ્લ ભલે પ્રત્યક્ષ રીતે માંસાહારનો ઉપયોગ આપણા સમાજમાં પ્રચલીત ન હોય તો પણ ઘણા જ ત્રસ જીવોનો ઘાત જાણતા અજાણતા આપણા સૌથી થાય છે. એટલે માંસાહાર અને મદ્યપાનના નિષેધની ચર્ચા આવશ્યક જ નહી, અનિવાર્ય છે. જૈન દર્શનની પરિભાષા અનુસાર ત્રસ જીવોના શરીરનું નામ જ માંસ છે. બે ઇન્દ્રિયથી લઈ પંચેન્દ્રિય સુધીના જીવ ત્રસજીવ કહેવાય છે, માંસની ઉત્પત્તિ ત્રસ જીવોના ઘાતથી તો થાય જ છે. એટલે માંસ સેવનમાં એક ત્રસ જીવની હિંસાના દોષ સાથે અનંતા ત્રસ જીવોની હિંસાના દોષી પણ થવાય છે. અનેક બિમારીઓનું ઘર માંસાહાર જ છે. અમુક લોકો કહે કે શારિરીક શક્તિ પ્રાપ્ત કરવી હોય તો માંસાહાર આવશ્યક છે. કેમ કે માંસ શક્તિનો ભંડાર છે, શાકભાજી ખાવાવાળામાં શક્તિ ક્યાંથી હોય? એવા અજ્ઞાની લોકોને એ કહેવા માગીએ છીએ કે માંસાહારી લોકો શાકાહારી પ્રાણીઓનું જ માંસ ખાય છે, નહીં કે માંસાહારી પશુઓનું. કુતરા અને સિંહનું માંસ કોણ ખાય છે ! કપાય છે તો બિચારી શુદ્ધ શાકાહારી ગાય કે બકરી જ. જે પ્રાણીઓના માંસને આપણે શક્તિનો ભંડાર કહીએ છીએ એમનામાં એ શક્તિ ક્યાંથી આવી? એ વિચાર આપણે કદી કર્યો છે? | બંધુઓ, શાકાહારી પશુ જેટલા શક્તિશાળી હોય છે એટલા માંસાહારી નથી. શાકાહારી હાથી જેટલી શક્તિ બીજા ક્યા પ્રાણીમાં છે? ભલે સિંહ છળ કપટથી હાથી ને મારી નાખે, પરંતુ હાથી જેટલી શક્તિ તેનામાં ક્યારેય ન આવી શકે. હાથીનો એક માત્ર પગ જો સિંહ પર પડી જાય તો એના ભુક્કા બોલી જાય. પણ જો સિંહ હાથી પર સવારી કરે તો હાથીને કંઈ થવાનું નથી. - શાકાહારી ઘોડાને આજે પણ શક્તિનું પ્રતીક માનવામાં આવે છે. મોટા મોટા મશીનોની ક્ષમતાને આજે પણ આપણે હોર્સ પાવર (ક.દ.) થી માપીએ છીએ. - શાકાહારી પશુ સામાજિક પ્રાણી છે. હળીમળીને સમૂહમાં રહે છે. માંસાહારી પ્રાણી ક્યારેય સમુહમાં રહેતાં નથી. એક કૂતરાને જોઈને બીજો અવશ્ય ભસે છે. શાકાહારી પશુઓની જેમ જ મનુષ્ય પણ સામાજીક પ્રાણી છે. હળીમળીને જ રહેવાનું છે અને એ રીતે રહેવામાં સમગ્ર માનવ જાતિની ભલાઈ છે. માંસાહારી સિંહોની સંખ્યા ઓછી થતી જાય છે. એમની રક્ષા કરવાના ઉપાયો થઈ રહ્યાં છે. પરંતુ શાકાહારી પશુઓની હજારોની સંખ્યામાં રોજબરોજ કતલો થવા છતાં પણ સમાપ્ત કે ઓછી થતી નથી. શાકાહારીઓમાં અજબ ગજબની જીવન શક્તિ હોય છે. મનુષ્યનાં દાંત અને આંતરડાની રચના શાકાહારી પ્રાણીઓ જેવી છે. માંસાહારી પ્રાણીઓ જેવી નહીં, મનુષ્ય સ્વભાવથી જ શાકાહારી છે. સ્વભાવથી જ એની દયાળુ પ્રકૃતિ છે. કદાચ મનુષ્યને મારીને જ એનું માંસ ખાવાનું કહેવામાં આવેતો ૧૦૭ લોકો પણ માંસાહારી નહી રહે. જે માંસાહારીઓ છે એમને જો એકવાર કતલખાને લઈ જઈ દેખાડવામાં આવે કે કેટલી નિર્દયતાથી પશુઓની કતલ થાય છે અને પશુઓ જે ચિચિયારી પાડે છે. એ દારૂણ દશ્ય જોઈ લીધા પછી માણસ ક્યારેય માંસાહર કરી શકે નહીં, ટી.વી. પર જો કતલખાનાના દેશ્ય દેખાડવામાં આવે તો માંસનું વેચાણ અર્થે પણ ન રહે. | માંસાહારી પશુઓ દિવસ દરમ્યાન આરામ કરે છે અને રાત્રે ભક્ષ્ય શોધવા શિકાર માટે નિકળે છે. પરંતુ શાકાહારી પશુઓ દિવસે ખાય છે અને રાત્રિ દરમ્યાન આરામ કરે છે. જો શાકાહારી પશુઓ દ્વારા સહજતાથી રાત્રિભોજનનો ત્યાગ થાય છે તો મનુષ્ય રાત્રિભોજન કરવું ક્યાં સુધી ઉચિત છે ? પ્રશ્નઃ આજ કાલ શાકાહારી પશુ રાત્રે ખાવા લાગ્યા છે, અમે અનેક ગાયોને રાત્રે ખાતા જોઈ છે. ઉત્તર: હા ખાય છે એ ખરું છે. અવશ્ય ખાય છે, કારણ કે એમના માલિક મનુષ્યો પણ રાત્રે ખાય છે ! માનવોએ પશુઓને પણ વિકૃત કરી દીધાં છે. જ્યારે કોઈ પાળેલા પ્રાણીને તમે દિવસ દરમ્યાન ભોજ 150. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी महोत्सव विशेषांक તો બિચારું અબુધ પ્રાણી શું કરે ? કોઈ વન વિહારી શાકાહારી પશુને રાત્રે ભોજન કરતાં જોયું હોય તો કહો ? બંધુઓ ! મનુષ્ય અને શાકાહારી પશુ સ્વભાવથી જ દિવસ દરમ્યાન ભોજન લેવાવાળા છે એટલે જ જૈન ધર્મમાં રાત્રિ ભોજનના ત્યાગનો ઉપદેશ, સ્વભાવને અનુકૂળ અને પૂર્ણતઃ વૈજ્ઞાનિક છે. રાત્રિભોજનના ત્યાગના વિરોધમાં એક તર્ક એ પણ કરવામાં આવે છે કે બે ભોજનનાં સમયમાં જેટલું અંતર જોઈએ તેટલું દિવસ દરમ્યાન રહી નથી શકતું. કારણ કે સવાર સુધીમાં લગભગ ૧૬ થી ૧૭ કલાકનું અંતર થઈ જાય છે. આ તર્કના પ્રત્યુત્તર રૂપે અમે આપને જ પૂછીએ 'તમારી મોટર રાત્રિ દરમ્યાન કેટલું પેટ્રોલ વાપરે છે?” 'જરા પણ નહિ' શા માટે ? 'કારણ કે મોટર રાત્રિમાં ચલાવતા નથી. એતો ગેરેજમાં હોય છે. ગેરેજમાં પડેલી મોટરને પેટ્રોલની જરૂર જ નથી' | આત્મ બંધુઓ ! આજ સરળ વાત અમે કહેવા માગીએ છીએ કે જ્યારે માણસ ચાલે છે. શ્રમ કરે છે તો એને ભોજન રામ કરે છે ત્યારે તેને એટલા ભોજનની જરૂ૨ પડતી નથી. આપણને જેમ આરામ જોઈએ છે. તેમને આપણા શરીરને, આંખોને, આંતરડાને બધાને આરામની જરૂર પડે છે. જો બરાબર આરામ ન મળે તો ક્યાં સુધી એની કાર્યશક્તિ ટકી શકે ? મશીનોને પણ આરામની જરૂર પડે છે. એટલે રાત્રિભોજન આપણી પ્રકૃતિની વિરૂદ્ધ છે. ડૉક્ટરોનું કહેવું છે સુવાના સમય પહેલા ચાર કલાક વહેલું જમી લેવું જોઈએ. જો આપણે રાત્રે ૧૦ વાગે જમીએ તો સુઈએ ક્યારે ? - રાત્રિભોજન ત્યાગની જેમ જ પાણી ગાળીને પીવાનું વૈજ્ઞાનિક રીતે યોગ્ય છે. પાણીની શુદ્ધતા વિષે આજે જેટલું ધ્યાન કેન્દ્રિત કરવામાં આવે છે તેવું પહેલા ક્યારેય નહોતું કરવામાં આવ્યું. માટે આજનો યુગ તો આપણા જૈન સિદ્ધાંતને માટે પૂર્ણ અનુકૂળ છે. સ્વસ્થ જીવન જીવવા માટે સ્વચ્છ શુદ્ધ પાણી આવશ્યક છે. આ રીતે આપણે સ્પષ્ટ કરીએ કે જૈનાચાર અને જૈન વિચાર પ્રકૃતિ ને અનુરૂપ છે અને પૂર્ણતઃ વૈજ્ઞાનિક છે. જરૂરત માત્ર એટલી છે કે આપણે યોગ્ય અને સચોટ રીતે એને લોકો સમક્ષ રજુઆત કરવી. આજ કાલ ઈંડાને શાકાહાર ગણાવી લોકોના માનસને ભષ્ટ કરવામાં આવી રહ્યું છે. આ ખોટા પ્રચારનો શિકાર આપણા જૈન યુવકો પણ થઈ રહ્યાં છે. માટે આપણા સહુનું સામુહિક કર્તવ્ય છે કે આ સન્દર્ભે સમાજને જાગૃત કરવો.. શાકાહાર તો વનસ્પતિ દ્વારા ઉત્પાદિત ખાદ્યને જ કહેવામાં આવે છે. વનસ્પત્યાહારને જ આપણે શાકાહારમાં મૂકી શકીએ. એ રીતે ઈંડા ન તો અનાજ ની જેમ કોઈ ખેતરની પેદાશ છે, કે નથી કોઈ શાકભાજી ફળની જેમ વેલ યા વૃક્ષ પર ઉગતા. ઈંડા તો સ્પષ્ટ રીતે તિર્યંચ પંચેન્દ્રિય કુકડીનું જ સંતાન છે. આ વાત તો સર્વવિદિત છે. બે ઇન્દ્રિયથી લઈ પંચેન્દ્રિય સુધીના સર્વે જીવોના શરીરનો અંશ માંસ જ છે માટે ઈંડા એ સંપૂર્ણ રીતે માંસાહાર જ છે. આ સંદર્ભે ઘણી વ્યક્તિઓ કહે છે દૂધ પણ ગાય-બકરીના શરીરનું અંશ છે. પરંતુ દૂધ અને ઈંડામાં જમીન આસમાનનું અંતર છે. દૂધ દોહવાથી ગાય બકરીના શરીરને કે જીવને હાની થતી નથી. જ્યારે ઈંડાના સેવનથી તો તેનામાં રહેલા જીવનો જ સર્વનાશ થઈ જાય છે. ગાય-બકરીનું દૂધ સમયસર દોહીએ નહી તો એને તકલીફ થાય છે. બાળકને ધવરાવતી માતા પોતાના બાળક ને સમયસર દૂધ પીવરાવે છે. જો એમ ન કરે તો માતાને તકલીફ થાય છે અને તેણીને ધાવણ હાથેથી કાઢી લેવું પડે છે. આ વસ્તુને ધ્યાનમાં લઈ કોઈ કહે કે દૂધ દોહવાથી ગાયને ભલે તકલીફ ન થાય. પરંતુ તેના દૂધ પર તો વાછરડાનો જ અધિકાર છે ને ? આપણે એ કેમ લઈ શકીએ ? શું આ ગાય અને વાછરડા સાથે અન્યાય નથી ? હા, એક દૃષ્ટિકોણથી તપાસીએ તો અન્યાય તો થાય છે. પણ આમા એવી કોઈ ભયંકર હિંસા નથી જે માંસાહારમાં થાય છે. ઉંડાણથી વિંચાર કરીએ તો આને અન્યાય કહેવો પણ ઉચિત નથી. કારણ ગાયનું દૂધ લેવાની સાથે આપણે ગાયના 151 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक ઘાસ ચારાની અને અન્ય પ્રકારની સર્વ સુવિધા સુરક્ષા પૂરી પાડીએ છીએ. જો ગાય દ્વારા આપણને દૂધ પ્રાપ્ત થાય નહી તો તેના ભોજન પાણીની વ્યવસ્થા કોણ કરે ? એટલે ઈંડાની તુલના દૂધની સાથે તદ્ન અસંગત તો છે જ, સાથે અજ્ઞાનતાની સૂચક પણ છે. આ વિશે જો કોઈ તર્ક કરે કે દૂધ ન દોહવાથી ગાયને તકલીફ થાય અથવા દૂધના બદલે ગાયને ઘાસચારો નાખીએ છીએ. એવી જ રીતે મરઘીએ ઈંડા આપવા કુદરતી છે અને ઈંડાને બદલે અમે એનું ભરણ પોષણ (લાલન પાલન) કરીએ છીએ. માટે દૂધ અને ઈંડા સરખા જ કહેવાય. આ કથન પણ અયોગ્ય છે. કારણ કે જેમ ઈંડા એ કુકડીના સંતાન છે, એમ દૂધ એ કઈ ગાયનું સંતાન નથી. સત્ય હકીકતતો એ છે કે ઈંડા દૂધની સમાન નહી પણ વાછરડા સમાન છે. માટે ઈંડા ખાવા એ વાછરડું ખાવા બરાબર છે. ઇંડાના સમર્થકો કહે છે કે શાકાહારી ઈંડામાં બચ્ચાઓનો જન્મ ન થાય. માટે એ દૂધની જેમ અજીવ છે. આ વાત તદ્ન તથ્યહીન છે. કેમ કે ઈંડુ એ મરઘીના પ્રજનન અંગનું ઉત્પાદન છે. એટલે અશુચિ તો છે જ. સાથે-સાથે ઉત્પન્ન થયા પછી જ એની વૃદ્ધિ થાય છે. સડતું નથી માટે સજીવ જ છે. ભલે મરઘીના સેવન વગર પૂર્ણતા પ્રાપ્ત કરવાની ક્ષમતા એનામાં ન હોય. છતાં પણ ઈંડાને અજીવ તો કોઈ પણ કારણે કહી શકાય જ નહી. આપણા જૈન દર્શનમાં તો તમે માટી કે લોટનું કોઈ પશુ-પ્રાણીનું પુતળુ બનાવીને તેનો વધ કરો તો પણ ભાવની અપેક્ષાએ નરક નિગોદના ફળ ભાખવામાં આવ્યા છે. તો સાક્ષાત ઈંડાનું સેવન કઈ રીતે સંભવ છે ? ઈંડા ખાવા વિશે જે સંકોચ અમારા માનસમાં છે તે જો એકવાર અજીવ શાકાહારી ઇંડાને નામે આ સંકોચ સમાપ્ત થઈ જાય તો પછી એ કોણ ધ્યાનમાં લે છે કે જે ઈંડાનું સેવન તેઓ કરી રહ્યા છે તે સજીવ છે કે અજીવ. સજીવ-અજીવની રજુઆત કરી લોકોની તિભ્રમ કરવામાં આવે છે. ઈંડાને શાકાહારી બનાવી તેનું વેચાણ વધારવાનો ઈંડાના વ્યાપા૨ીઓનું મોંટુ ષડયંત્ર છે. જેનો શિકાર શાકાહારી લોકો બની રહ્યા છે. ઈંડાના વેપારીઓએ જોયું કે ઈંડા માંસાહારી તો ખાવા જ માંડયા છે. તો એનું વેચાણ કેમ વધારવું ? આના ઉપાય રૂપે તેમણે શાકાહારીઓમાં શાકાહારી ઈંડાના અંચળા હેઠળ ઘુસીને તેનું વેચાણ શરૂ કરી દીધું. આ શાણા વેપારીઓ સારી રીતે જાણતા હતા કે શાકાહારીઓ પોતાના ખાન-પાન,વ્રત નિયમોના પાલનમાં ઘણાં જ કટ્ટર છે એટલે ઈંડાનાં લાભ બતાવીને તેમને ભોળવી નહી શક્યા. પરંતુ જો ઈંડાને શાકાહાર બતાવી પ્રચાર-પ્રસાર કરવામાં આવે તો જરૂર સફળ થવાય. શાકાહારીઓના ઘરમાં ઈંડા આવી જ રીતે ઘુસાડી શક્યા, બસ આવી જ રીતે તેમણે જોર શોરથી પ્રચાર શરૂ કરી દીધો કે ઈંડા બે પ્રકારના છે શાકાહારી અને માંસાહારી. આ તેમની હોંશિયારી કહો કે ચાલાકી. તેઓ પોતાની ચાલમાં સફળ થયાં લાગે છે. કારણ કે ઘણાં શાકાહારીઓ આ દુષ્પ્રચારનો ભોગ બની રહ્યાં છે. હજુ પણ સ્થિતિ એટલી ભયંકર નથી થઈ કે કંઈ પગલા જ ન લઈ શકાય, જો આપણે હજી પણ સાવધાન નહી થઈએ તો થોડા દિવસોમાં એવી જટિલ સમસ્યામાં પહોંચી જઈશું કે જેનો ઉકેલ શોધવો મુશ્કેલ થઈ જશે. માટે જ શાકાહારી ઈંડાના દુષ્પ્રચારથી શાકાહારીઓને બચાવવાનું આપણાં સૌનું નૈતિક કર્તવ્ય છે. એમ ન થાય કે નાની બાબતોને લઈને અમે ઝગડતા રહીએ અને અમારી ભવિષ્યની પેઢી, અમારા નાના ભૂલકાઓ પૂર્ણતઃ સંસ્કારહીન, તત્ત્વજ્ઞાનહીન અને સદાચારહીન બની જાય. જો આવું પરિણામ આવે તો ઇતિહાસ અને આપણી ભાવિ પેઢી આપણને કદી માફ નહી કરે. માંસની સાથે જૈન દર્શનમાં મધના ત્યાગનો પણ ઉપદેશ આપવામાં આવ્યો છે. મધ એ મધમાખીનું મળ છે. અને એ વિનાશ દ્વારા જ ઉત્પન્ન થાય છે. એમાં નિરંતર અસંખ્ય જીવોની ઉત્પત્તિ થતી રહે છે. માટે એ પણ અભક્ષ્ય છે. ખાવા માટે યોગ્ય નથી. જૈનાહાર વિજ્ઞાનનો મૂળ આધાર અહિંસા છે. સર્વ પ્રથમ તો આપણે એવો જ આહાર ગ્રહણ કરવો જોઈએ જે પૂર્ણતઃ 152 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी રાચાર્યપદ વાન महोत्सव विशेषांक અહિંસક હોય. જો પૂર્ણતઃ અહિંસક આહારથી જીવન સંભવ ન હોય અથવા અમે એનું પાલન કરી ન શકીએ. તો જેમાં ઓછામાં ઓછી હિંસા થાય એવા નિરામિષ આહારનું જીવન-ધોરણ અપનાવવું જોઈએ. આહાર માટે પંચેન્દ્રિય જીવોના ઘાતનો પ્રશ્ન જ ઉપસ્થિત થતો નથી. પ્રત્યેક ત્રસજીવોની હિંસાથી (યેન કેન પ્રકારેણ) દરેક ઉપાયે બચવું જોઈએ. આ દરેક તત્વોને લક્ષમાં રાખીને જ જૈન આહારને સુનિશ્ચિત ક૨વામાં આવ્યો છે. બીજું કે ઝાડ છોડવાના મૂળ જેને કંદમૂળ કહેવામાં આવે છે. એનો આહાર તરીકે ખાવામાં સંપૂર્ણ નિષેધ છે. કારણ કે જડ મૂળ સમાપ્ત થઈ જવાથી છોડવાનો સંપૂર્ણ નાશ થાય છે. કંદમૂળ સાધારણ વનસ્પતિ હોવાથી એમાં અનંત જીવો રહે છે. આ કારણથી પણ એના ઉપયોગનો નિષેધ છે. જૈનાચારમાં શ્રાવકાચારના સંદર્ભે પાંચ પ્રકારનાં અભક્ષ્ય બતાવવામાં આવ્યા છે.(૧) ત્રસઘાત મૂલક (૨) બહુઘાત મૂલક (૩) નશાકારક (૪) અનૂપસેવ્ય અને (૫) અનિષ્ટ. જેમાં ત્રસજીવોનો ઘાત થાય છે એવા માંસાદિ ત્રસઘાત મૂલક છે. જેમાં અસંખ્ય સ્થાવર જીવોનો ઘાત થાય છે એવા કંદમૂળ, જમીકંદ આદિ બહુઘાત મૂલક અભક્ષ્ય છે. જે નશો ઉત્પન્ન કરે છે એવા મઘ(મદિરા), નશીલી દવાઓ(ડ્રગ્ઝ, બ્રાઉનસ્યુગર) વિગેરે અભક્ષ્ય છે. જેના સેવનથી લોકનિંદા થાય. જે સજજન વ્યક્તિઓને સેવવા યોગ્ય ન હોય એવી લાળ,મળ, મૂત્રાદિ અનુપસેવ્ય અભક્ષ્ય છે. જે સ્વાસ્થ્ય માટે હાનિકારક હોય એ અનિષ્ટ અભક્ષ્ય છે જેવી રીતે ડાયાબીટીશ (મધુમેહ) ના દર્દીઓ માટે સાકર વિગેરે ગળ્યા પદાર્થો. ઉપરોક્ત અભક્ષ્યના વર્ગીકરણથી જૈન આહારની વાસ્તવિકતા સ્પષ્ટ થાય છે. સાથોસાથ એ પણ સ્પષ્ટ થાય છે કે જૈન આહાર અહિંસા મૂલક છે. શાકાહારના પ્રચાર પ્રસારના સંદર્ભે એક વાત વિચારણીય છે. શાકાહાર પક્ષે પ્રચાર કરતી વખતે અમૂક વ્યક્તિઓ માત્ર એજ રજુઆત કરે છે કે શાકાહાર સ્વાસ્થ્યને અનુકૂળ છે. જ્યારે માંસાહાર અનેક બિમારીઓનું ઘર છે અને શાકાહારની અપેક્ષાએ ઘણો મોંઘા છે. પરંતુ તેઓ એ વાતની ઉપેક્ષા સેવે છે કે માંસાહાર અપવિત્ર છે, અનૈતિક છે, હિંસક છે. અને અનંત દુઃખોનું કારણ છે. આવી જ રીતે અન્ય વર્ગ માંસાહારની અપવિત્રતા અને અનૈતિકતાનો પ્રચાર જરૂ૨ કરે છે પરંતુ તેનાથી થતી લૌકિક હાનિઓ ( નુકશાન) વિશે પ્રકાશ નથી પાડતા. માનવ સમાજમાં દરેક પ્રકારના લોકો વસે છે. થોડા લોકો તો ધર્મભીરૂ અને અહિંસક વૃત્તિના હોય છે. જેઓ અપવિત્ર અને હિંસાથી ઉત્પન્ન પદાર્થોને ભાવનાના સ્તરે જ અસ્વીકાર કરી દે છે. આવી વૃત્તિવાળા લોકો તેનાથી થતી લૌકિક લાભહાનિની ગડમથલમાં પડતા નથી. પરંતુ અમુક વર્ગ એવો છે કે જેનો દૃષ્ટિકોણ ભૌતિક હોય છે. દરેક વાતને લૌકિક અને આર્થિક લાભાલાભથી મૂલવે છે અને એના જ આધારે નિર્ણયો લે છે. આવા વર્ગને જ્યાં સુધી સ્વાસ્થ્ય સંબંધી લાભ હાનિ અને આર્થિક નફો-નુકશાન ન બતાવીએ ત્યાં સુધી તેઓ કોઈ પણ નિર્ણય લઈ શકતા નથી. જ્યારે આપણે આવા બહુજન સમુદાય સમાજમાં શાકાહારનો પ્રચાર કરવો હોય તો સમતોલપણું જાળવીને બન્ને દૃષ્ટિએ પ્રચાર-પ્રસાર કરવો પડશે. માંસાહાર દ્વારા આર્થિક અને સ્વાસ્થ્ય સંબંધી થતી નુકશાની અને તેના ત્યાગ દ્વારા થતાં દરેક પ્રકારના લાભોનું વિવરણ આપવું અનિવાર્ય છે. એટલી જ અનિવાર્યતા નૈતિકતા અને અહિંસાના આધારે ભાવનાત્મક સ્તરે માંસાહારના પ્રત્યે અરુચિ કરાવવાની પણ છે. બન્ને પક્ષે કરેલા પ્રચાર-પ્રસારથી ધારી સફળતા અવશ્ય મળી શકે. શાકાહાર અને શ્રાવકાચારના સ્વરૂપ, ઉપયોગિતા અને આવશ્યકતા પર વિચાર કરવા ઉપરાંત હવે એ પરિસ્થિતિનો પણ વિચાર અપેક્ષિત છે કે જેના કારણે માંસાહારને પ્રોત્સાહન મળી રહ્યું છે અને શાકાહાર શ્રાવકાચારની નિરંતર હાનિ થઈ રહી છે. એ ઉપાયો ઉપર પણ ધ્યાન કેન્દ્રિત કરવું જરૂરી છે. જે શાકાહાર અને શ્રાવકાચારના પ્રચાર પ્રસારનો માર્ગ પ્રશસ્ત કરતા હોય. આજે બજા૨ોમાંથી તૈયાર સામગ્રી લાવી ખાવા પીવાની પ્રવૃત્તિ નિરંતર વધી રહી છે. મહિલાઓ ઘર બહારના ક્ષેત્રોમાં આવી જવાથી આ પ્રવૃત્તિઓને વધુ પ્રોત્સાહન મળ્યું છે. હવે કોઈ ઘરના રસોડે ભોજન બનાવી જમવા માગતું નથી. બધા તૈયાર ભોજન માટે હોટલો કે બજા૨ો ભણી દોડે છે. આજે તો કેવળ કંદોઈ કે ફરસાણની દુકાનો ત૨ફ અથવા હોટલો અને 153 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी महोत्सव विशेषांक ભોજનાલયો તરફ લોકો દોડતાં થઈ ગયા છે પરંતુ હવે તો ભોજ્ય સામાગ્રી (ફૂડ પ્રોસેસીંગ) ના મોટા પાયે ઉદ્યોગો સ્થપાઈ ચૂક્યા છે. આ બધુ પશ્ચિમનું અનુકરણ છે. આ પ્રકારની બજારૂ વસ્તુઓના સેવનથી જાણ્યે-અજાણ્યે મધ-માંસનું સેવન થતું રહે છે. આવી જ રીતે બજારોમાં તૈયાર સૌંદર્ય પ્રસાધનોમાં પણ એવા પદાર્થો સામેલ હોય છે જેના ઉત્પાદનમાં હિંસા તો થાય જ છે, તે પણ ક્રૂરતાથી. - જો શાકાહારી સમાજને આ પ્રકારના માંસાહાર મદ્યપાન અને હિંસક સૌંદર્ય પ્રસાધનોના ઉપયોગથી બચાવવો હોય તો આપણે બજારોંમાં એવા ઉત્પાદન ઉપલબ્ધ કરાવવા જોઇએ જેમાં માંસ, ચરબી, ઈંડાનો ઉપયોગ ન થયો હોય જે અહિંસક હોય જેની બનાવટમાં કોઈપણ જાતની હિંસા ન થઈ હોય. સાથે જેમાં માંસ કે મઘનો ઉપયોગ ન થયો હોય. કારણ કે હવે બજારોમાં ઉપલબ્ધ ખાદ્ય સામગ્રી અને સૌંદર્ય પ્રસાધનોંનાં ઉપયોગને આપણે રોકી શકીએ તેમ નથી. માટે ઉપરોક્ત સાવચેતીના પગલા લેવા જરૂરી છે. જે આપણે હિંસક પદાર્થોની સામે અહિંસક પદાર્થો એ જ કિમંતે ગુણવત્તાનું ધોરણ જાળવીને અથવા ઓછી કિંમતે બજારમાં ઉપલબ્ધ કરાવી શકીએ તો ધારેલી સફળતા અવશ્ય મળી શકે. આવા કલ્યાણકારી કાર્ય માટે મોટા ઉદ્યોગપતિઓએ આગળ આવવું પડશે. આ લડાઈનો સામનો અનેક મોરચે કરવો પડશે. ઉદ્યોગપતિ અહિંસક ખાદ્ય સામગ્રી અને સૌંદર્ય પ્રસાધનો તૈયાર કરે, સાધુ-સંતો અને પ્રભાવશાળી ચિંતકો, સર્જકો, વક્તાઓ અને વિદ્વાનો આ માટે સમાજના માનસનું ઘડતર કરે. તબીબો અને ચિકિત્સકો પણ એ સાબીત કરી બતાવે કે સ્વાથ્યને માટે શાકાહાર જ શ્રેષ્ઠ આહાર છે. જેટલો પ્રભાવ એક ચિકિત્સક(ડૉક્ટર) પાડી શકે એટલો કોઈ સાધુ, સંત પ્રવક્તા કે વિદ્વાન તો ન જ પાડી શકે. કારણ કે લોકોને જીવન અને સ્વાથ્યની જેટલી ચિંતા છે તેટલી ચિંતા ધર્મ કર્મની નથી, નૈતિકતાની પણ નથી. - આ ભગીરથ કાર્ય કોઇ એકલ-દોકલ વ્યક્તિથી પાર પડી શકે નહિ, આ તો સમગ્ર સમાજનું કાર્ય છે. પ્રસન્નતા એ છે કે સંપૂર્ણ સમાજે આ કાર્યને પોતાના હાથમાં લીધું છે. કહેવાય છે ને કે ઝાઝા હાથ રળિયામણા ! આ કાર્યને માટે એક વર્ષનો સમય સુનિશ્ચિત કરવામાં આવ્યો છે. પરંતુ આ સમય ઘણો અલ્પ છે. આ મહાન કાર્ય પાર પાડવા માટે તન-મન-ધનથી જીવન અર્પણ કરવામાં આવે ત્યારે જ ધાર્યું કાર્ય સફળ થઈ શકશે. આ સંદર્ભે સમાજ 'શું કરશે અને શું કરી શકશે ?' એ તો ભવિષ્ય જ કહેશે. પણ આપણું વ્યક્તિગત નૈતિક કર્તવ્ય એ છે કે આપણે સ્વયં પૂર્ણતઃ શુદ્ધ શાકાહારી બનીએ, આપણા પરિવારને શાકાહારી બનાવી. જે કોઈ વ્યક્તિ આપણા સંપર્કમાં આવે તેને શાકાહારી બનાવવાનો વિનમ્ર પ્રયાસ કરીએ. એ વાત સર્વવિદિત છે કે સાત્વિક સદાચારી જીવન સિવાય સુખ શાંતિ મળવા તો દૂર રહ્યાં, પરંતુ સુખ શાંતિ મેળવવાનો ઉપાય સુઝવાની પાત્રતા પણ આવતી નથી. એટલે જે વ્યક્તિ આત્મિક શાંતિ પ્રાપ્ત કરવા માગે છે. આધ્યાત્મિક શાંતિ મેળવવા માગે છે, સમ્યક જ્ઞાન દર્શન ચારિત્ર્યની પ્રાપ્તિ કરવાની ઝંખના સેવે છે. આત્માનુભૂતિની પ્રાપ્તિ કરવી છે. એમણે આ તરફ પુરેપુરું લક્ષ આપવું જોઈશે. એમનું જીવન શુદ્ધ સાત્વિક હોવું જોઈએ. સદાચારી વ્યક્તિ તથા તેમનું વર્તુળ પણ શુદ્ધ સદાચારી અને સાત્વિક હોવું જોઈએ. આ તો જડની ક્રિયા છે. એમ કહીને ઉપેક્ષા કરવી ઉચિત નથી. - લૌકિક સુખ શાંતિનાં અભિલાષીઓને પણ શાકાહારી તો થવું જ પડશે. અન્યથા એમનું જીવન અને વાતાવરણ પણ વિકૃત થયા વિના રહેશે નહિ. માટે જ એ સુનિશ્ચિત જે છે કે લૌકિક અને પારલૌકિક બન્ને દૃષ્ટિએ શાકાહારી-શ્રાવકાચારી હોવું આવશ્યક જ નહિ, અનિવાર્ય પણ છે. 154 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी રરરરે€ €77 महोत्सव विशेषांक શ્રાવક સંઘ પ્રગતિ વિચાર આચાર્ય શ્રી બુદ્ધિસાગરસૂરીશ્વરજી ૧. ભિન્ન ભિન્ન ગચ્છ સંઘાડામાં વહેંચાયેલા શ્રાવક-શ્રાવિકાઓ, સ્વગચ્છીય સાધુ-સાધ્વીઓની પ્રગતિ થાય એવા ગચ્છનાયક-આચાર્યાદિ જે ઉપાયો બતાવે, તે ઉપાયો પ્રમાણે પ્રવર્તવા પ્રયત્નશીલ રહેવું. ૨. શ્રાવકો અને શ્રાવિકાઓએ સ્વધર્મીઓની સંખ્યા વધે એવા ઉપાયોને આચાર્યાદિની અનુજ્ઞાપૂર્વક ગ્રહણ કરવા. જૈન કોમની સંખ્યાવૃદ્ધિમાં પ્રતિબંધક એવી પ્રવૃતિઓને હટાવવી અને જૈન કોમની સંખ્યા વધે તથા જૈનોમાં પરસ્પર સંપ, વિશાળ દૃષ્ટિ અને સહાય મળે એવા વિચારો ફેલાવવા પ્રયત્ન કરવો. ૩. ગુરૂ કુળો વગેરેની સ્થાપના કરીને જૈન બાળકોને ધર્મસંસ્કારપૂર્વક ઉત્તમ કેળવણી આપવા પ્રયત્ન કરવો. ૪. સ્વગચ્છ આચાર્યાદિની તથા મહાસંઘના ગૃહસ્થ નેતાઓની સાથે ઐક્યભાવ ધારણ કરીને શ્રાવક- શ્રાવિકાઓએ | જૈનધર્મની સેવામાં અપ્રમત્તપણે આત્મભોગ આપવા તત્પર થવું. ૫. સ્વગચ્છના આચાર્યના પ્રમુખપણા નીચે સાધુ-સાધ્વીઓ. શ્રાવક-શ્રાવિકાઓ, ગચ્છ અને સંઘો ભેગો મળી પરસ્પર પ્રગતિના વિચારો કરે તેવી વ્યવસ્થા શ્રાવક-શ્રાવિકાઓએ કરવા યોગ્ય છે. તે માટે આચાર્ય- સાધુઓને વિજ્ઞપ્તિ કરી વાર્ષિક ગચ્છપરિષદ્ કરવી. ૯. જૈનોનાં બાળકો ભણે એવી જૈન કોલેજો ઉઘાડવી જોઇએ અને સર્વ જૈનોનું એક્ય થાય તથા તેઓની પ્રગતિ થાય, એવું તેમાં ધાર્મિક શિક્ષણ આપવું જોઇએ કે જેથી મહાસંઘના પ્રત્યેક અંગની ભવિષ્યમાં પુષ્ટિ તથા પ્રગતિ બની રહે. ૭. સર્વ ગચ્છમતાદિભેદ વિશિષ્ટ શ્રાવકો-શ્રાવિકાઓએ વર્ષે વર્ષે અમુક તીર્થસ્થળે એક મહાસંઘ મેળવવો જોઇએ. સર્વ ગચ્છના આચાર્યો-ઉપાધ્યાયો, સાધુ-સાધ્વીઓને તેમાં બેસવાની યથાયોગ્ય વ્યવસ્થા કરવી અને સર્વ સાધુ-સાધ્વીઓને એકઠા થવા વિજ્ઞપ્તિ કરવી. જેઓ ભેગા થાય તેઓમાં ઐક્ય વધે એવા તાત્કાલિક જે ઉપાયો કરવા યોગ્ય હોય તે કરવા તથા ચતુર્વિધ મહાસંઘ વર્ષોવર્ષ અગર વર્ષે બે વર્ષે મળી પ્રગતિ માટે પ્રયત્ન કરે એવા ઉપાયો કરવા. ધ ભરવામાં આવે તેમાં ભેદત્તડ વગેરે પડ્યા હોય તેને શમાવવા જૈનોની અગ્રગણ્ય કમિટી નીમવી જૈનોની સંખ્યા શાથી ઘટે છે. તેના ઉપાયો શોધી જૈનોની પ્રગતિ થાય એવા ઠરાવો પસાર કરાવી તે પ્રમાણે વર્તવું. ૯. શ્રાવક-શ્રાવિકાઓએ સાંસારિક કેળવણીની અભિવૃદ્ધિ થાય, એવી સ્કોલરશીપોની વ્યવસ્થા કરવી. ૧૦. જૈન વ્યાપારની વૃદ્ધિ થાય, એવા ઉદ્દેશથી વ્યાપારિક કોન્ફરન્સો ભરવી. ૧૧. શ્રાવક-શ્રાવિકાઓએ પરસ્પર એક બીજાને સહાય કરવી. આ માટે પારસીઓની પેઠે મોટા ફંડની સ્થાપના કરવી. આ | ફંડમાંથી જેને જેટલી ધનસહાયતાનો ખપ હોય, તેટલી તેને નિયમપૂર્વક આપવી. ૧૨. જૈનોના ઝઘડા જૈનો શાન્ત કરે, એવી મહાસંઘના અગ્રગણ્યો દ્વારા વ્યવસ્થા કરાવવી. ૧૩. જમાનાને અનુસાર જૈનોની વ્યાવહારિક અને ધાર્મિક પ્રગતિ થાય એવા માર્ગે જૈનોની લક્ષ્મી ખર્ચાય એવી વ્યવસ્થા કરવી. વર્તમાન સમયમાં લક્ષ્મીનો જે માર્ગ વ્યય ન કરવા જેવો હોય તે માર્ગે વ્યય થતો અટકાવવો. ૧૪. દેવદ્રવ્ય, જ્ઞાનદ્રવ્ય, સાધારણ દ્રવ્ય વગેરે જે ખાતાંઓ ભારતવર્ષમાં ગામો, શહેરો અને તીર્થસ્થળોમાં ચાલતાં હોય તેઓને પરસ્પર અમુક વ્યવસ્થિત નિયમોથી જોડી તેઓને એક મહાસત્તા તળે રાખવાં અને તે ખાતાઓની વ્યવસ્થા ચલાવીને સર્વ ખાતાઓ સુધારવા. ૧૫. આચાર્યો, ઉપાધ્યાયો, પંન્યાસો, સાધુઓ-સાધ્વીઓને વિહારની સગવડતા કરી આપવી અને તેઓની સેવા ભક્તિમાં સર્વત્ર સર્વ શ્રાવકો ઉપયોગી રહે એવો બંદોબસ્ત કરવો. ૧૬. હાનિકારક રિવાજોને અટકાવી, કુરિવાજોનો ત્યાગ કરવો. સર્વત્ર જૈનોની પ્રગતિ થાય એવા ઠરાવો કરાવવાં તે પ્રમાણે વર્તવાના પ્રયત્નો કરવાં. ૧૭. જૈન સાધુઓ-સાધ્વીઓની અવહેલના, નિંદા કરનારાઓને અટકાવવા પ્રયત્ન કરવો. ૧૮. ગરીબ જૈનોને વ્યાપારાદિક વડે ખાનગીમાં સહાય કરવી અને જૈન ગણાતો મનુષ્ય કોઇપણ સ્થાને ભીખ માગતો ન ફરે એવાં જૈનાશ્રમો સ્થાપવાં. 155 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक जैन की दिनचर्या महान पुण्योदय से जीव को जिन शासन की प्राप्ति होती है. जैन वह बन सकता है जिसका जीवन जिनाज्ञा के अनुरूप हो. जीने की उत्कृष्ट कला है श्रावक जीवन. जिनेश्वरों ने मोक्ष पाने के लिये दो धर्म बताएँ हैं, प्रथम है साधु धर्म और दूसरा है श्रावक धर्म. श्रावक को सुबह से शाम तक किस तरह की प्रवृत्ति करनी चाहिए, उसका साद्योपान्त वर्णन धर्मग्रंथों में किया गया है. यहाँ पर संक्षिप्त में श्रावक को करने योग्य उचित कर्त्तव्यों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है. जिन्हें विस्तार पूर्वक जानने की जिज्ञासा हो, उन्हें श्राद्धविधि प्रकरण और धर्म बिन्दु ग्रंथ मननीय है. ऐसे कई ग्रंथों में सुन्दर मार्ग दर्शन दिया है, जिसे पाकर व्यक्ति स्व-पर का अवश्यमेव कल्याण कर सकता है. व्यक्ति को सुबह कब उठना चाहिए और उठते ही क्या करना चाहिए इसका मार्गदर्शन करते हुए कहा है कि रात्रि के चौथे प्रहर में अर्थात् ब्राह्ममुहूर्त (१) में पंचपरमेष्ठि (अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु) का स्मरण करते हुए जागृत होना चाहिये. नाक की नाडी (स्वर) देखना जिस तरफ की नाडी चलती हो उस तरफ का पैर पहिले नीचे रखना फिर बिस्तर का त्याग करना. रात्रि के पहने हुए कपडे बदल डालना और शुद्ध वस्त्र पहनना. शरीर की अशुद्धि को भी त्यागना यानी शौचादि क्रिया से भी निवृत होना चाहिये. जाप करना शरीर और वस्त्र की शुद्धि हो जाने के बाद मंदिर जी उपाश्रय या घर के एकान्त स्थान में जाकर एकाग्र चित्त से नवकार का जाप करना चाहिये, जाप करते समय मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखें. पद्मासन में बैठकर माला को ऊँगलियों का सहारा न देकर जाप करना यही उत्कृष्ट विधि है. यदि ऐसा न हो सके तो माला हाथ में लेकर जाप करे परंतु स्मरण रहे कि मेरु का उल्लंघन न होना चाहिये. यह मध्यम विधि है. चलते फिरते बिना संख्या का जाप करते रहना चाहिये. प्रतिक्रमणा या सामायिक इच्छानुसार जाप करने के बाद उपाश्रय या घर के एकान्त स्थान में बैठकर श्रावक को रात्रि प्रतिक्रमण करना चाहिए. प्रतिक्रमण न आता हो या ऐसा ही कुछ कारण हो तो सामायिक करे. बारह व्रतधारी श्रावक ब्राह्ममुहूर्त में अवश्य प्रतिक्रमण करें या नवकार महामंत्र का जाप करें. सूर्योदय होने में ९६ मिनट बाकी रहे, उस समय को ब्राह्यमुहूर्त कहते है. देवदर्शन प्रतिक्रमण के बाद देवदर्शन करने श्री मंदिरजी में जाए. घर से निकलते ही एक निसीहि कहे, इसमें श्रावक के लिए घर और व्यापार सम्बन्धी तमाम बातों का त्याग करना कहा गया है. दूसरी निसीहि मंदिर जी की सीढी चढते समय कहे, इसमें मंदिर सम्बन्धी ८४ आशातना को दूर करने को कहा है. और तीसरी निसीहि मूल गंभारे के पास में आकर कहे. इस तरह से कह कर भगवान की स्तुति करें. याद रखें कि पुरुष वर्ग प्रभु की दाहिनी ओर और स्त्री वर्ग बाँयी ओर खडे होकर दर्शन तथा स्तुति करें. इस समय भगवान को बिना छुए, मात्र वासछेप से पूजा करनी चाहिये. प्रभु मूर्ति के समाने रह कर प्रभु की स्तुति या दर्शन करना चाहिए. बाद में उत्तरासंग पूर्वक योग मुद्रा सहित मधुर वाणी से चैत्य वंदन करे. योग मुद्रा इसे कहते है : दोनों हाथों की कुहनी (कोणी) को उदर पर रखे, दोनों हाथ कोषवृत्ति पर रखे, दोनों हाथों की ऊँगलियाँ परस्पर संश्लेषित (एक दूसरे से मिली हुई) रखें इसका नाम योग मुद्रा है. मंदिरजी से बाहर निकलते समय आवस्सिहि जरुर कहें. 156 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक गृह व्यवस्था बाद में घर पर जाकर घर संबन्धी जैसे भोजन आदि की जो व्यवस्था करनी हो सो करे, करावे, बन्धुओं तथा नौकरों को भी अपने अपने काम पर नियुक्त करें, इसके बाद उपाश्रय में जाकर व्याख्यान का श्रवण करे. व्याख्यान श्रवण श्रावक बुद्धि के आठगुणों से युक्त होकर व्याख्यान श्रवण करें, गुरु को पंचांग प्रणिपात कर गुरु की आशातना न हो ऐसे स्थान में जाकर बैठे सुनने की इच्छा, सुनना, ग्रहण करना, धारण करना, उहा, अपोह, अर्थविज्ञान, तत्वविज्ञान यह बुद्धि के आठ गुण है. दो पैर, दो हाथ और एक मस्तक इन पाँचों को जमीन के साथ स्पर्श कर वंदन करना उसका नाम है- पंचांग प्रणिपात. गुरु के सामने बैठकर व्याख्यान सुनते समय इन बातों का अवश्य ध्यान रखा जाय पैरों को कमर के साथ बांधकर नहीं बैठना. पैर लम्बे नहीं करना चाहिए. पैर पर पैर नहीं चढाना चाहिए. हाथ ऊँचे नहीं करना चाहिए, जिससे बगल दिखाई दे. बहुत पीछे भी नहीं बैठना चाहिए, एकदम नजदीक भी नहीं बैठना चाहिए, लेकिन ऐसी जगह और इस तरह बैठें कि गुरु का मुख भी दिखाई दे और आने जाने वालों को भी विघ्न न हो. इन बातों का ध्यान रखते हुए व्याख्यान श्रवण करना चाहिये. व्याख्यान में होने वाली शंकाओं का गुरु के समीप विनय पूर्वक समाधान भी कर लेना चाहिए. जिसने सुबह प्रतिक्रमण न किया हो, गुरु को द्वादशावर्त्त वंदन करते समय उसे यथाशक्ति पच्चक्खाण ले लेना चाहिए. स्नान विधि अब प्रभुपूजा के लिये श्रावक पूर्व दिशा में मुख रखकर स्नान करना चाहिए. जिस पट्टे पर बैठकर स्नान किया जाय, वह जमीन से ऊँचा होना चाहिये जिससे पानी बहकर निकल जाये किसी भी जीव को बाधा न पहुंचे. रजस्वला या किसी अत्यन्त मलिन चीज से स्पर्श हुआ हो या सूतक हो या स्वजन की मृत्यु हुई हो तो गृहस्थ को सर्व स्नान अवश्य करना चाहिए. बिना छाना हुआ पानी काम में न लाना चाहिये. स्नान करने के बाद स्वच्छ वस्त्र से शरीर को पोंछकर कंवली पहन कर जब तक पैर न सूख जाय तब तक खडे होकर मन में जिनेश्वर प्रभु का स्मरण करना चाहिये.. देवपूजा जिस गृहस्थ के घर में देरासर (मंदिर) हो वह घर में जाकर पूजा के वस्त्र पहने और मुख कोष बाँधे घरमंदिर में प्रवेश करते हुए बाँई ओर में होना चाहिये. भगवान की मूर्ति जमीन से कम से कम डेढ हाथ ऊँची होनी चाहिये.. पूजा के समय सात प्रकार की शुद्धि होनी चाहिये. मन, वचन, काया, वस्त्र, भूमि, पूजा के उपकरण और स्थान उसके बाद शुद्ध जल या पंचामृत कलश में लेकर प्रभु को प्रक्षाल आदि कराया जाय. बाद में अष्टद्रव्य से पूजा करनी चाहिये. आठ द्रव्य के नाम है- जल, चंदन, पुष्प, धूप, दीपक, अक्षत, नैवेद्य, फल आदि. घरमंदिर में पूजा करते समय जहाँ तक हो सके पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख रखना चाहिए. फिर नौ अंग की पूजा इस प्रकार करे चरण, जंघा, हाथ, कन्धा, मस्तक, ललाट, कण्ठ, हृदय और नाभि, यह पूजा करने के स्थान है. इस प्रकार घर देरासर की पूजा कर लेने के बाद मार्ग की अशुद्धियों को दूर करता हुआ गाँव के मंदिरजी में पूजा करने जाए. पहले मूलनायकजी की पूजा करने के बाद फिर दूसरी प्रतिमाजी की पूजा करनी चाहिये सभी अरिहंतों की मूर्तियों की पूजा कर लेने के बाद सिद्ध भगवान् की पूजा करनी चाहिए. इसके बाद यक्ष यक्षिणी की पूजा करनी चाहिये. अवग्रह से गंभारा के बाहर जाकर भावपूर्वक चैत्यवंदन करना चाहिए. बाद मे आवस्सिहि करके मंदिर जी से निकल कर घर जावे. 157 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक पुष्प पूजा विधि भगवान को जो पुष्प चढाए, वह शुद्ध, साफ, सुगन्धित, खिले हुए तथा अखंडित होने चाहिए. पुष्प की पत्तियाँ अलग अलग करके न चढाएँ. जो पुष्प जमीन पर पड़ा हुआ हो, पैर लगा हुआ या नीचे गिरा हुआ हो ऐसे पुष्प भगवान को नहीं चढाना चाहिए पूजा समाप्त कर संसारिक कार्यों में लगे. भोजनविधि भोजन अपने कुटुम्बी जनों के साथ बैठकर करना चाहिए. भोजन में भक्ष्याभक्ष्य का विचार जरुर रखें यानि अभक्ष्य वस्तुओं का सर्वथा त्याग कना चाहिए. उत्पातपूर्वक क्रोधान्ध होकर, खराब वचनों को कहते हुए या दक्षिण दिशा में मुख कर किए जानेवाले भोजन को राक्षसी भोजन कहा जाता है. संध्याकाल, रात्रिकाल, स्वजन का मुर्दा पडा हुआ हो ऐसे समय भोजन नहीं करना चाहिए. जाति भ्रष्ट के घर भी भोजन नहीं करना चाहिये. अज्ञात भोजन या अज्ञात फल भी नहीं खाना चाहिये. बाल हत्या, स्त्री हत्या, भ्रूण हत्या, गौहत्या करने वाले नीच मनुष्यों के साथ बैठकर भी भोजन नहीं करे. भोजन के पहिले यदि पानी पीए तो वह विष के समान होता है, भोजन के मध्य में पत्थर के समान और अंत में अमृत के समान होता है. अतिथि, नौकर, पशु, आदि के भोजन कर लेने के बाद ही गृहस्थ को भोजन करना चाहिए. भोजन करने के बाद दो घडी आराम लेकर सम्बन्धियों से वार्तालाप करना चाहिये जिससे हर एक से प्रेम बना रहे और घर में शान्ति रह सके. इसके बाद व्यापार के लिये बाजार आदि जाये. द्रव्योपार्जन . गृहस्थ को चाहिए की न्यायपूर्वक द्रव्योपार्जन करे. द्रव्य साध्य नहीं वरन् साधन है. इस बात का ख्याल रख कर ही व्यापार करे. परोपकार, धर्म कार्य, कुटुम्ब पोषण, भाईयों का उद्धार, मित्रों का उपकार, देशसेवा समाज सेवा इत्यादि कामों में द्रव्य की आवश्यकता होती है, इसलिये नीतिपूर्वक द्रव्योपार्जन करना चाहिये जिस कार्य से पापारम्भ अधिक हो या लोकनिंदा होती हो अथवा जिस कार्य को करने से यह भव और परभव बिगडता हो ऐसे कार्य नहीं करना चाहिये और न ही उसके द्वारा द्रव्योपार्जन करना चाहिए. अर्थोपार्जन में अतिक्लेश, धर्म का उल्लंघन, नीच की संगति अथवा विश्वासघात नहीं करना चाहिये. लेनदेन में वचन का घात न किया जाए, इसका खास ध्यान रखना चाहिए. व्यापार में एक तोल, एक बोल रखना उन्नति का मार्ग है. आमदनी का कम से कम चौथाई हिस्सा पुण्य कार्य में खर्च करना चाहिए. व्यालु दिन के आठवें भाग में व्यालु (शाम का भोजन कर लेना चाहिए. संध्या के समय चार काम बिल्कुल न करे. जैसेआहार, मैथुन, निद्रा और स्वाध्याय रात्रि भोजन का नियमित रूप से त्याग करने से एक महीने में पंद्रह उपवास का फल होता है. संध्या पूजन एवं प्रतिक्रमण थोड़ा सा जल लेकर हाथ, पैर, मुख आदि साफ करके सायंकाल की पूजा के लिये मंदिर मे जाना चाहिए और आरती तथा मंगल दीपक उतारकर प्रभु का पूजन करना चाहिए. बाद में प्रतिक्रमण करने के लिये उपाश्रय में जाए, अगर गुरु का अभाव हो तो घर में आकर विधिपूर्वक प्रतिक्रमण करे और काउसग्ग के वक्त ध्यान रखे कि काउसग्ग मे न्यून या अधिक न गिना जाय. गुरुभक्ति प्रतिक्रमण के बाद गुरु की शारिरिक भक्ति वैयावच्च करे. गुरु की सेवा के समय गुख के वस्त्र से ढँकना चाहिये. जिससे थूक आदि से उनकी आशातना न हो जाए. गुरु को पाद स्पर्श न हो तथा और भी तैंतीस आशातनाओं में से कोई 158 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशातना न हो जाए, इस हेतु पूर्ण सावधानी रखनी चाहिये. इस प्रकारगुरु की भक्ति करनी चाहिए. शयन रात्रि के दूसरे प्रहर में सोना चाहिये. देर रात तक जागना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है. सोने का उचित समय रात १० बजे तक का माना गया है. सोते समय चित्त को स्थिर कर सात बार नमस्कार महामंत्र का स्मरण करना चाहिए तथा उसके बाद जब तक नींद न आये तब तक धर्म चिन्तन या पंच परमेष्ठियों का स्मरण करना चाहिए अथवा निम्नलिखित श्लोक का स्मरण करते रहना चाहिए अर्हन्तः शरणं संतु जिनधर्मो मे साधवः पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक सिद्धाश्च शरणं मम शरणं सदा । खामि सव्व जीवे सव्वे जीवा खमंतु मे मित्ति मे सव्य भूएस वेरं मज्झं न केणई । पश्चात् निम्नलिखित भावना को मन में धारण कर अपने दिनचर्या को समाप्त करनी चाहिये. यदि इस रात्रि में मेरा आयुष्य पूर्ण हो जाये, तो आहार, वस्त्र आदि उपाधि और यह शरीर सबका मन, वचन, काया से त्याग करता हूँ. मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, मैं भी किसी का नहीं हूँ, इस प्रकार दीनता के भाव छोड़कर मैं आत्मा का अनुशासन करता हूँ. ज्ञान-दर्शन से युक्त शाश्वत ऐसी मेरी आत्मा एक ही है. इसके अलावा पुत्र, पैसा आदि सभी भाव बाह्य है और वह सब कर्म के संयोग से लगे हुए है. कर्म के संयोग से जीव को दुःखों की परंपरा प्राप्त होती है. इसलिए सर्वप्रकार के संयोग संबंध का मैं मन, वचन, काया से त्याग करता हूँ. अरिहंत और सिद्ध मेरे देव हैं, साध्वाचार के पालक और धर्म के उपदेशक ऐसे सुसाधु मेरे गुरु हैं, जिनेन्द्रों की कही बातें तत्त्व हैं. इस प्रकार शुद्ध सम्यक्त्व को मैं जीवन के अंत तक धारण करता हूँ. मैं सभी जीवों को क्षमा प्रदान करता हूँ और मुझे सभी जीव क्षमा प्रदान करें. सिद्ध को साक्षी रखकर मैं अपने पापों की आलोचना करता हूँ. मुझे किसी भी व्यक्ति के साथ वैर नहीं है. कर्म से परवश सभी जीव चौदह राजलोक में भटकते हैं. उन सभी को मैंने क्षमापना दी है, वे भी मुझे क्षमा प्रदान करें. जिन-जिन पापों को मैंने मन से बांध लिया है, जिन-जिन पापों को मैंने वचन से बांध लिए हैं और जिन-जिन पापों को मैंने काया से बांध लिए हैं, वे सभी पाप मिथ्या हो.. 159 अंश 'भद्रबाहु संहिता Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी महोत्सव विशेषांक જિનપૂજા ૧. જિન પૂજન શુ છે ? ૨. જિન પૂજા એટલે પૂજકમાંથી પૂજ્ય બનવાનો ઉપાય. ૩. જિન પૂજા એટલે વિવિધ સત્કાર્યોની પ્રેરણા લેવાની પરબ. ૪. જિન પૂજા એટલે મારે પણ જિન થયું છે એવી અભિલાષાની પ્રતીતિ. ૫. જિન પૂજા એટલે શુદ્ધ આત્મ સ્વરૂપનું ઉદ્ઘાટન કરવાની ચાવી. ૯. જિન પૂજા એટલે ધનનો સદ્ઉપયોગ કરવાનું પુણ્ય ક્ષેત્ર. ૭. જિન પૂજા એટલે સદ્ગતિની ચાવી. ૮. જિન પૂજા એટલે સુખ સૌભાગ્યની જનેતા. ૯. જિન પૂજા એટલે શ્રાવકનું નિત્ય કર્તવ્ય. ૧૦. જિન પૂજા એટલે દુર્ગતિના દ્વાર બંધ કરવાનું સ્પેશ્યલ તાળું. ૧૧. જિન પૂજા એટલે દુઃખ, દારિદ્રય, દૌભાગ્યરૂપી ઘડાનો ચુરો કરનાર મુદ્ગર. ૧૨. જિન પૂજા એટલે કે શીવસુંદરીનો હસ્તમેળાપ કરવાની ક્રિયા. ૧૩. જિન પૂજા એટલે ભગવાનની વીતરાગતાનું અનુમોદન. ૧૪. જિન પૂજા એટલે ભગવાનના અનંત ઉપકારો પ્રત્યે કૃતજ્ઞતા બતાવવાનું સાધન. ૨. જિનભક્તિ અને આઠ કર્મઃ૧. ચૈત્યવંદનથી જ્ઞાનાવરણીય કર્મનો નાશ થાય. ૨. પ્રભુ દર્શનથી દર્શનાવરણીય કર્મનો નાશ થાય. ૩. જયણા પાળવાથી (અશાતા) વેદનીય કર્મનો નાશ થાય. ૪. પ્રભુના ગુણ ગાવાથી મોહનીય કર્મનો નાશ થાય. ૫. શુભ અધ્યવસાયથી (નીચ)આયુષ્ય કર્મનો નાશ થાય. . પ્રભુના નામ સ્મરણથી (અશુભ) નામ કર્મનો નાશ થાય. ૭. વંદન-પૂજનથી (નીચ) ગોત્ર કર્મનો નાશ થાય. ૮. યથાશક્તિ દ્રવ્ય વાપરવાથી અંતરાય કર્મનો નાશ થાય. ૯. દેરાસર જવાથી દાનાદિ ચારે પ્રકારના ધર્મનું પાલન થાય. ૩. તિલક- ચાંદલો કેવો કરવો ? દીપ શિખા જેવો આકારનો – પ્રભુની આજ્ઞા પાળી મોક્ષે જવાને અર્થે. ૪. જિનપૂજા કેટલા પ્રકારની ? બે પ્રકારની છે. દ્રવ્યપૂજા (૧) અંગપૂજા, જળપૂજા, ચંદનપૂજા, પુષ્પપૂજા. ભાવપૂજા (૨) અગ્ર પૂજા, ધૂપ પૂજા, દીપકપૂજા, અક્ષત પૂજા, નવઘ પૂજા, ફળ પૂજા. ૫. દ્રવ્ય પૂજા કોને કહેવાય ? ઉત્તમ દ્રવ્યોથી કરવામાં આવતી પરમાત્માની પૂજા. 160 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬. ભાવપૂજા કોને કહેવાય ? પરમાત્માની સામે કરાતા - સ્તુતિ, ચૈત્યવંદન, સ્તવન, ગીત ગાન,. સ્તોત્રપાઠ વગેરે. ૭. જળપૂજા શા માટે ? पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान • महोत्सव विशेषांक હૈ ! દેવાધિદેવ ! આપના દ્રવ્યમેલ - ભાવ મેલ બંન્ને ધોવાઇ ગયા. પરન્તુ કે, મારા નાથ ! તને નવડાવીને હું મારા કર્મમેલને ધોઈને નિર્મળ બનું. સંસારના કારણરૂપ જળ, અગ્નિ, સ્ત્રીના સંસર્ગથી મુક્ત બની શાશ્વતસુખનો સ્વામી બનું. ૮. ચંદનપૂજા શા માટે ? હે પરમાત્મન્ ! મોહનીય કર્મનો નાશ કરીને આપે આત્મામાં શીતળતા પ્રસરાવી દીધી છે. પરંતુ હે, મારા નાથ ! મારો આત્મા વિષય કષાયની અગ્નિથી સળગી રહ્યો છે. આપને આ ચંદનની શીતળતા અર્પીને મને આત્મિક શીતળતા-સૌરભતા અને સમરસની શીતળતા આપો. ચંદનપૂજા શિયાળામાં કેસરનું પ્રમાણ વધારે બરાસ ઓછું. ઉનાળામાં બરાસનું પ્રમાણ વધારે કેસરનું પ્રમાણ ઓછું. ચોમાસામાં બરાસ અને કેસર સરખા પ્રમાણમાં વાપરવા. ૯. પુષ્પપૂજા શા માટે ? હે પ્રભુ ! પુષ્પ અર્પિત કરીને હું આપની પાસે સુમન એટલે સુંદર મન માંગી રહ્યો છું. આપના અંગે ચઢતા પુષ્પને જેમ ભવ્યત્વની છાપ મળે છે, તેમ મને પણ સમ્યકત્વની છાપ મળો. ૧૦. ધૂપ પૂજા શા માટે ? હે પરમાત્મન્ ! આ ધૂપની ઘટા જેમ ઊંચે જાય છે તેમ મારે પણ ઉર્ધ્વગતિ પામી સિધ્ધશિલા પ્રાપ્ત કરવી છે. હે તારક! આપ મારા આત્માની મિથ્યાત્વરૂપી દુર્ગંધ દૂર કરીને, શુદ્ધ આત્મસ્વરૂપને પ્રગટ કરનારા થાઓ. ૧૧. દીપક પૂજા શા માટે ? હે પરમાત્મન્ ! આ દ્રવ્યદીપકનો પ્રકાશ ધરીને હું આપની પાસે મારા અંતરમાં કૈવલ્ય જ્ઞાનરૂપી ભાવદીપક પ્રગટે અને અજ્ઞાનનો અંધકાર મટી જાય એવી પ્રાર્થના કરૂં છું. ૧૨. ચામરપૂજા શા માટે ? હે પરમાત્મન્ ! આ ચામર આપણા ચરણોમાં નમીને જેમ તરત જ પાછો ઊંચે જાય છે, તેમ હે રાજરાજેશ્વર ! આપના ચરણમાં લળી લળીને નમનારો હું ઊર્ધ્વગતિ પામું. ‘જિનજી ચામર કેરી હાર ચલંતી એમ કહે રે લોલ, જિનજી જે નમે અમર પરે તે ભવિ ઉર્ધ્વગતિ લહે રે લોલ. ૧૩. દર્પણ પૂજા શા માટે ? દર્પણમાં ૫૨માત્માનું મુખ જોઈને હે વિમલદર્શન પરમાત્મા ! જેવું આપનું આત્મસ્વરૂપ છે એવું મારૂં આત્મસ્વરૂપ છે. હું પણ આપના જેવો વીતરાગી બની જાઉં. ૧૪. અક્ષત પૂજા શા માટે ? હે પરમાત્મન્ ! આપની સન્મુખ શુદ્ધ અખંડ અક્ષતનો નંદાવર્ત સાથીયો આલેખીને અક્ષત - ક્યારે પણ નાશ ન પામે તેવું સિદ્ધશિલાનું પરમધામ મને પ્રાપ્ત થાઓ. આ અક્ષત જેમ વાવ્યા છતાં ઊગતા નથી તેમ મારે પણ સંસારમાં પુનઃ જન્મ પામવો નથી. ૧૫. સાથીયો શા માટે ? સંસારભ્રમણાની ચારગતિને દૂર કરવા. ત્રણ ઢગલી - જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રની આરાધના દ્વારા સિદ્ધશિલામાં વાસ 161 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान • महोत्सव विशेषांक થાય. સિદ્ધશિલા અને ઉપરની લીટી - સિદ્ધનાં જીવોની સૂચક છે. ૧૭. નૈવેદ્ય પૂજા શા માટે ? હે અણાહારી ! આપ એવા સ્થાનમાં બિરાજ્યા છો, જ્યાં આહારની જરૂર જ પડતી નથી. હું આપની પાસે નૈવેદ્ય ધરૂં છું, મારી આહારસંજ્ઞા દૂર થાય. આહા૨સંજ્ઞાના પાપે ભવોભવ રઝળ્યો છું. એકપણ ભવ એવો નથી ગયો, હું ખાધા વિનાનો રહ્યો હોઉં છતાં આ જીવ હજી ધરાયો નથી. પ્રભુ શુ વાત કરૂં ? મેં ખા- ખા કર્યું છે. પ્રભુ ! આપને વિનંતી કરુ છું કે મારી આહાર સંજ્ઞા જ નાશ પામે. મને કોઇ ભોજનમાં રાગ-દ્વેષ ન થાય. વહેલી તકે અણાહારી પદ પામું. ૧૭. ફળપૂજા શા માટે ? હે, પરમાત્મન્ ! વૃક્ષનું અંતિમ સંપાદન ફળ હોય છે. તેમ આપની ફળ પૂજાના પ્રભાવે મને પણ મારી પૂજાના અંતિમ ફળરૂપે મોક્ષફળ પ્રાપ્ત થાઓ. ૧૮. પૂજાનું ફળ શું ? સવારે કરેલી પૂજા મધ્યાન્હે કરેલી પૂજા સંધ્યાએ કરેલી પૂજા પ્રભુ દર્શન પૂજનનો પ્રભાવ - ૧. પરમાત્માના દર્શન કરવા જવું- એવી ઇચ્છા કરનાર ૨. દર્શન કરવા ઊઠવાની તૈયારી કરતા ૩. દર્શન કરવાનો નિશ્ચય કરતા ૪. માર્ગમાં જયણાપૂર્વક દેરાસર તરફ જતા ૫. અડધા માર્ગે ભાવોલ્લાસથી પહોંચતા ૬. જિનમંદિરને જોતાં ૭. જિનમંદિરે ભાવોલ્લાસથી પહોંચતા ૮. ગભારાના દ્વાર પાસે પહોંચી નમો જિણાણું ઉચ્ચારતા ૯. ત્રણ પ્રદક્ષિણા દેતા ૧૦. જિનેશ્વર ભગવાનનું પ્રમાર્જન કરતાં ૧૧. સ્વદ્રવ્યથી એકાગ્રચિત્તે અષ્ટપ્રકારી પૂજા કરતાં ૧૨. જિનેશ્વરો આગળ ગીત - વાજિંત્ર નૃત્ય કરવાથી ૧૩. ચૈત્યવંદનાદિ ઉત્કૃષ્ટ પરિણામે ભાવપૂજા કરતા રાત્રિના પાપોનો નાશ કરે છે. આજન્મના પાપો નાશ કરે છે. સાત જન્મના પાપોનો નાશ કરે છે. ફળ એક ઉપવાસ બે ઉપવાસ 162 ત્રણ ઉપવાસ ચાર ઉપવાસ પંદર ઉપવાસ એક મહિનાના ઉપવાસ છ મહિના ઉપવાસ એક વર્ષના ઉપવાસ સો વર્ષના ઉપવાસ સો ગણું ફળ એક હજાર વર્ષ ઉપવાસ અનંત ગણું ફળ અનંત વર્ષના ઉપવાસનું ફળ ભગવાનને સામે રાખવા તે સમ્યક્ દર્શન ગવાનને સાથે રાખવા તે - સમ્યક્ જ્ઞાન ભગવાનમય જીવવું તે – સમ્યક્ ચારિત્ર - સાભાર ‘સ્વાધ્યાય સંચય Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक जीवन जीने की कला राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी जीवन सभी प्राणी जीते हैं. परन्तु किसी-किसी का जीवन उदाहरण बन जाता है. यदि हम उदाहरण नहीं बन सकते तो कोई बात नहीं परन्तु अपना जीवन सुखमय व्यतीत करने के लिए विचार करना आवश्यक है. अपने व्यवहार से, कार्य से, वचन से समाज में ऐसा वातावरण तैयार करें कि लोगों में आप आदरणीय बन जाएँ. इसके लिए कुछेक मननीय बातें प्रस्तुत हैं. अनुमोदन : आज हम किसी के अच्छे कार्य की भी अनुमोदना-प्रशंसा नहीं करते हैं. किसी के अच्छे काम की प्रशंसा के बजाए उसकी निंदा करना नहीं भूलते हैं. हम खाने के बाद गुणानुवाद तो दूर रहा, अवर्ण वाद जरुर करेंगे. एक व्यक्ति ने अपनी मंगल भावना के साथ भोजन का आयोजन किया. लोग खाने बैठे, उसने खीर परोसी तो उसको खाकर एक व्यक्ति ने अनुमोदना करने के बजाय उल्टा मुंह बिगाडा, जैसे केस्टर आयल पी लिया हो. आपने कभी मुसलमानों से नहीं सीखा कि कार्य की अनुमोदना कैसे करें? मुसलमानों के यहाँ भी भोज के आयोजन होते हैं. आप किसी भी मुसलमान से पूछ ले- भई, उसने क्या खिलाया? वह भले ही तेल का सीरा खाकर आया होगा, पर यही कहेगा- क्या लाजवाब रसोई थी. सुबह खाया था. शाम तक मुंह से सीरे का ही स्वाद आता रहा. वो खाने की अनुमोदना ही करेंगे न कि हमारी तरह मुंह बिगाडेंगे, कभी अपने जाति भाई की निंदा नहीं करेंगे. ___ मुसलमानों का यह गुण आपको भी अपनाना चाहिये. अपने जीवन व्यवहार में इस गुण का समावेश करे. किसी के अच्छे कार्य की अनुमोदना ही करें, न कि आलोचना. सहयोग : जीवन जीने की एक कला यह भी है. अमेरिका की यह घटना है. रात्रि का समय, एक व्यक्ति अपनी गाडी से समुद्र के किनारे-किनारे जा रहा था. समुद्र के किनारे की हवा खाने का मन हुआ तो गाडी रोकी और उतर कर समुद्र की तरफ चला गया. पीछे से कोई बडी गाडी निकली. हाइवे रोड पर एक गाडी खडी देखकर पीछे वाली गाडी के ड्राईवर ने सोचा-ये गाडी यहाँ क्यों खडी है. कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई. उसके मन में कई तरह की शंकाएँ जन्म लेने लगी. मानवता के नाते मेरा कर्तव्य है कि मैं उसकी रक्षा करूं. उसे मित्र को लेने के लिये एयरोड्राम जाना था. देर हो रही थी पर यहाँ मानवता का सवाल था. मानव जीवन के कर्तव्य की पुकार थी. अपनी गाडी से नीचे उतरा और अगली गाडी के अंदर झांक कर देखा. गाडी खाली थी और काफी दूरी पर समुद्र की ओर एक आदमी उसे जाता हुआ दिखाई दिया. उसके दिमाग में आया कि ये अवश्य ही आत्मघात के लिये जा रहा है. संसार से दुखी लगता है. यह अवश्य मर जायेगा. वह दौडकर अगले व्यक्ति के नजदीक आया और उसे समझाया -मित्र, यह जीवन बडा ही मूल्यवान है. मरना बडा सरल है, क्यो कायर की तरह मर रहे हो. यह मेरा एड्रेस और ये ५ डालर रखो. अगर भूखे हो तो खाना खा लेना. कल मेरे आफिस चले आना. मैं तुम्हें काम दूंगा, और हर संभव संहयोग दूंगा. अभी मैं जल्दी में हूँ. यह मेरी भेंट ले लो, इसका तिरस्कार न करना. हवा खोरी के लिये आया व्यक्ति स्तब्ध रह गया. उसे बोलने का भी अवसर नहीं मिला. पीछे वाला व्यक्ति तुरन्त पलटा और तेजी से अपनी गाडी की ओर लौट पडा. पहले वाला व्यक्ति अपने हाथ में एड्रेस कार्ड और ५ डालर लिये अपनी गाडी में आ बैठा. अब उसके हृदय में विचार का आन्दोलन शुरु हुआ. मैं भले ही करोडपति हूँ, पर मेरा आज तक का जीवन निष्फल गया. मैंने कभी परोपकार का कार्य नहीं किया. जीवन तो इस व्यक्ति का है जो दूसरों के लिये भी सोचता है. दूसरों के दुख दर्द में काम आता हैं. उस व्यक्ति के मात्र २ मिनट के अल्प परिचय से उसके जीवन के अंदर परिवर्तन आया. कुछ ही महीनों के बाद न्यूयार्क टाइम्स के अंदर एक समाचार पढा कि कोई बहुत बड़ी कंपनी भयंकर घाटे में जा रही है. शायद दिवाला निकल जाये. कम्पनी का नाम उसे कुछ परिचित सा लगा. अपने पास के एड्रेस कार्ड से मिलाया तो उसने देखा कि यह कंपनी तो उसी 163 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान •महोत्सव विशेषांक परोपकारी व्यक्ति की है जिसने मुझे जीवन जीने की कला सिखलाई थी. उसने उस समय जो मेरी मदद की, उसका बदला चुकाने का समय आ गया है. वह अपनी चेक बुक लेकर उस व्यक्ति के पास आफिस में गया, जाकर परिचय दिया -मैं आपको कुछ महीने पहले समुद्र तट पर मिला था और आपने कहा था कि मैं सहयोग करूँगा. सामने वाले व्यक्ति की वाणी में विनम्रता कितनी कि हाथ जोडकर बोला 'क्षमा कीजिए, इस समय मैं बहुत लाचार हूँ. स्थिति सुधरने दीजिये फिर मैं आपको अवश्य सहयोग करूँगा' चेक बुक लेकर आया वह व्यक्ति बोला- मैं आपसे कुछ मांगने नहीं आया वरन् देने आया हूँ. आपने मेरे ऊपर इतना महान उपकार किया है, जिसका किंचित् मात्र बदला देने आया हूँ. ताकि मेरी आत्मा कर्ज मुक्त बन जाये. उस दिन आपने मुझे गलत समझ लिया था. मैं तो अपने चित्त की शांति के लिए वहाँ गया था. मैं कई कम्पनियों का डायरेक्टर हूँ, कईयों का मेनेजिंग डायरेक्टर हूँ. बतलाइये मैं आपको क्या सहयोग दे सकता हूँ. मुझे आपकी मदद करते हुए अत्यन्त खुशी ही होगी. मुझे सेवा का अवसर दीजिए. जीवन की यह कला मैंने आप से ही सीखी है. उसने कहा -आप मेरे घाटे को पूरा नही कर सकते. पूरे पचास लाख डालर का नुकसान है. आने वाले व्यक्ति ने चेक बुक निकाल कर पचास लाख डालर का चेक काट कर उसे देते हुए कहा कि यह चेक मैं आपको दे रहा हूँ, और कुछ मेरे लायक सेवा हो तो निःसंकोच टेलीफोन करियेगा. उपकार का कैसा बदला ? पांच डालर के बदले पचास लाख डालर यह परिवर्तन सिर्फ दो मिनट के परिचय से आया. कोई घंटा आधा घंटा प्रवचन नहीं दिया था उसने मात्र ५ मिनट के अल्प परिचय से एक व्यक्ति के जीवन में इतना परिवर्तन आया कि उसने ५० लाख डालर का चेक कितने सहज और उदार भाव से दे दिया. जिसने जीवन जीने की कला सीख ली हो फिर उसके लिए पैसे का कोई महत्व नहीं रह जाता है. मानवता की सेवा करना उसके जीवन का उद्देश्य बन जाता है. जीवन रक्षण हमें समर्पण की भूमिका प्राप्त करनी है. हम समर्पण की साधना भी निष्काम भावना से नहीं करते. उसमें भी प्राप्ति की आकांक्षा रखते है. Give and Take. अर्थात् मैं तुझे देता हूँ, तू मुझे दे शान्ति की कामना हम शब्दों से करें और मन विषय की ओर लगा रहे. भगवान से अपने लाभ की प्रार्थना करते हैं. तो वहाँ भी हम भिखारी बन जाते है. प्रभु के द्वार पर जो निष्काम भाव से जायेगा वही भगवान् बनकर लौटेगा पुण्य की निधि लेकर लौटेगा. परमात्मा के द्वार पर अपराधी बन कर जाये कि हे भगवान् मैं तेरी शरण में आया हूँ और मुझे तेरे सिवाय कोई शरण नहीं दे सकता. तेरी शरण में आकर मैं निष्पाप बन जाऊँ यही मेरी कामना है. समर्पण का यह भाव ही आपको निर्भय कर देगा. सिंह जंगल का राजा है, उसे भय नहीं होता. सिंह के बालक ने जंगल में पहली ही बार अपने से कई गुना विशाल शरीर वाले हाथियों के झुण्ड का झुण्ड देखा तो भय से थर-थर कांपता हुआ सिंहनी की गोद में जा बैठा. माँ ने बालक को भयभीत देखकर कहा- अरे तूने मेरे दूध को भी लजा दिया. सिंह के बालक ने माँ की गोद में बैठकर करुण विलाप किया तो पास ही कहीं जंगल में घूम रहे सिंह के कानों में उसकी पुकार आई. भला सिंह अपने बालक को कैसे संकट में देख सकता? तुरन्त दौडा उसके रक्षण के लिये बालक के पास में आते ही सिंह को वस्तुस्थिति का पता चल गया कि मेरा बालक क्यों चिल्लाया है. सिंह ने तुरन्त ही जंगल को कपा देने वाली भयंकर गर्जना की. विशालकाय हाथियों का झुण्ड वहाँ से जान बचाकर भाग निकला. इसी तरह परम पिता परमात्मा भी आपका रक्षण करेगा, पर आपकी पुकार में वेदना होनी चाहिए. परमात्मा निश्चय ही आपका रक्षण करेगा. पंडित की परिभाषा: परमात्मा से जब यह पूछा गया कि भगवान्, इस संसार के अंदर सबसे अधिक विद्वान और पंडित किसे कहा जाय? इसकी व्याख्या क्या है. भगवान् महावीर ने बतलाया जो समय के मूल्य को समझे, वही पंडित समय का उपयोग करने वाला अप्रमादकर्ता साधना की सिद्धि प्राप्ति करता है. परन्तु प्रमाद अवस्था के अंदर मात्र विषय कषायों का पोषण होगा, संसार में आगमन होगा और वह व्यक्ति अपनी अज्ञान दशा में उन कार्यों को आमंत्रण देगा जो आत्मा को घायल करने वाले हैं. आत्मा को 164 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक रुष्ट करने वाले हैं. यह अपनी अज्ञान दशा के लक्षण हैं. अज्ञान दशा में भी ज्ञान का प्रकाश पुंज प्राप्त करना हैं. प्रकाश के अंदर से प्रयत्न को उपस्थित करना है जिससे जीवन की अनादि कालीन वासना से मैं अपनी आत्मा को मुक्त करूँ और मेरी आत्मा जागृत प्रकाश के अंदर परमात्मा के आदेश का परिपूर्ण पालन करने वाली आत्मा बनें. 50 एक में शांति, अनेक में अशांति यदि आप आत्मचिंतन करते हैं तो चिंतन के लिये मात्र एक चिनगारी चाहिए. ध्यान की जरा सी भी अग्नि यदि प्रगट हो जाय तो बरसों का व अनादि अनंतकाल में जो कुछ कर्म किया, उपार्जन किया, वह जल कर भस्म हो जायेगा. वैराग्य की जागृति के लिए तो मात्र एक ही चिंतन चाहिए और एक ही चिंतन आपके अंदर यदि आ गया तो सारी चिंताओं को नष्ट कर देगा. मुनि राजऋषि मिथिला के बहुत बड़े राजा थे. एक बार एक ऐसी भयंकर व्याधि त्राणज्वर से वे ग्रस्त हुए कि उनके शरीर में भयंकर गर्मी उत्पन्न हो गई. सारा शरीर तपने लगा. बडी बेचैनी और अशांति रहने लगी. बडे-बडे वैद्य उपचार के लिए आए. एक अनुभवी वैद्य ने उपचार बताया- यदि आप शीतोपचार करें यानि चंदन का विलेपन सारे शरीर पर करें तो यह त्राण ज्वर मिट सकता है, राजा के आठ रानियाँ थी. आठों रानियाँ वैद्य के बताये अनुसार चंदन घिसने लगी. घिसते समय उनके हाथों में जो चूडियाँ पहनी हुई थी, उसकी आवाज आने लगी. आवाज आना स्वाभाविक था. आप जानते हैं कि बीमार आदमी का स्वभाव चिडचिडा होता है. राजा बहुत दिनों से बेचैन थे और काफी दिनों से नींद भी नहीं आई थी. चूडियों की आवाज ने उनकी शांति को और भंग कर दिया. सम्राट आवेश में आकर उत्तेजित हो गये और कहा- 'यह वज्रपात कहाँ हो रहा है?" इसे बंद करो. यह आवाज मुझे जरा भी पंसद नही. रानियों के पास विवेक था. उन्होने सोचा महाराज को आवाज जरा भी पसंद नहीं है. क्या किया जाय कि महाराज को चूडियों की आवाज भी सुनाई न दे और चंदन भी घिस कर तैयार हो जाये. ऐसी अवस्था में उन्होंने तुरंत चूडियाँ हाथों से निकाल ली. मात्र सुहाग की निशानी हेतु एक-एक चूडी ही अपने हाथ में रखी. दो मिनट बाद राजा ने पूछा- यह आवाज कैसे बंद हो गई? क्या चंदन घिसना ही बंद कर दिया ? रानियों ने नम्र निवेदन किया- राजन् ! दवा तो हम तैयार कर रही हैं, चंदन घिसा जा रहा है. चूकि यह आवाज आपको पसंद नहीं थी, अतः हमने हमारे हाथों की चूडियाँ निकाल दी है. मात्र एक चूडी रखी जो सुहाग की निशानी है. जैसे ही यह जवाब मिला राजा ने दार्शनिक दृष्टि से उसका चिंतन शुरु किया कि एक में शांति, अनेक में अशांति, मात्र एक चूडी हाथ में हो तो कहीं कोई संघर्ष नहीं, आवाज नहीं, कोई क्लेश नहीं, बल्कि परम शांति है. अनेक में संघर्ष था, क्लेश था. राजा ने तुरन्त आत्मचिंतन किया कि मैं संसार के संघर्षों से जकड़ा हुआ हूँ, यही मेरी अशांति का कारण है. यही भाव मेरे मन के द्वेष का है कि मेरे मनोभाव में यह क्लेश पैदा हो रहा है, अशांति हो रही है. कितनी उद्विग्नता लेकर मैं चल रहा हूँ? इसलिए इस रोग से यदि मैं मुक्त हो गया व इस बिमारी से मैं बच गया तो परमात्मा के चरणों में जाकर परम शांति प्राप्त करूँगा. यही शुद्ध एकत्व भाव उनके उपचार का कारण बना. विचार की पवित्रता: आप बाजार में जा रहे हैं. सामने से आपको डाक्टर आता दिखाई दे तो आपको हॉस्पिटल याद आ जाता है. वकील मिलने पर कोर्ट याद आ जाता है. पुलिस मिलने पर जेल याद हो आती है, विद्यार्थी मिलने पर कॉलेज याद आ जाता हैं. यदि मैं आपसे पूंछु कि साधु पुरुषों को देखकर आपके मन में क्या भाव आता है? उनको देखकर आपकी दृष्टि कहाँ तक पहुंच जायेगी, मुझे समझाइये ? परन्तु आपकी दृष्टि में गहराई नहीं है. कभी इस प्रकार से सोचने का प्रयास किया ही नही. परमात्मा को देखने से यदि दृष्टि मिल जाय तो यह दृष्टि का विकार निकल जायेगा. उसके परमाणुओं द्वारा इतना बडा परिवर्तन होता है. परन्तु यह स्थिति कहाँ ? साधु पुरुषों को देखकर आपकी दृष्टि परलोक तक पहुंचनी चाहिए. 165 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान प.महोत्सव विशेषांक परन्तु आप अपने जीवन को दुर्गति तक पहुंचा रहे है. यह सद्गति और दुर्गति आप अपने वर्तमान में तैयार करते हैं और आपका विचार ही उसका निमित्त बन रहा है. विचार की अपवित्रता ही दुर्गति का कारण बनती है. विचार की पवित्रता आपको सद्गति तक पहुंचाती है. प्रसन्नचंद्र जैसे राजऋषि, जिन्होंने दीक्षा ग्रहण कर उत्कृष्ट चरित्र की आराधना की और जब सम्राट श्रेणिक ने आकर भगवान महावीर से पूछा, 'भगवान् ! इस समय आपके साधुओं में सबसे उत्कृष्ट साधना करने वाला कौन है? भगवान ने उत्तर दिया- 'वर्तमान में हमारे साधुओं में सबसे उत्कृष्ट साधना करने वाले साधक प्रसन्नचंद्र राजर्षि हैं. श्रेणिक ने पुनः पूछा- 'भगवान्, यदि वे परलोक पहुंचे तो उनकी गति क्या होगी? भगवान ने उत्तर दिया- 'इस समय मृत्यु हो तो मर कर सांतवी नर्क में जायेंगें'. इस पर राजा श्रेणिक ने जिज्ञासा से पूछा- 'भगवान् यह कैसे हो सकता है? कुछ ही देर बाद देव दुन्दुभी बजी. आकाश में देवताओं ने प्रसन्नचंद्र राजर्षि को केवल ज्ञान प्राप्त करने का महोत्सव किया. जब देव दुन्दुभी का नाद सुना तो श्रेणिक ने भगवान् से पूछा- यह देव दुन्दुभी का क्या रहस्य है? भगवान ने उत्तर दिया- यह प्रसन्नचंद्र राजर्षि को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ, उसका नाद है. एक क्षण पहले तो कहाँ प्रसन्नचंद्र राजर्षि सांतवी नरक में जाने वाले थे और अब उन्हें एक क्षण बाद ही केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई. अंतर सिर्फ इतना ही कि उनके मन में तूफान था. मन के अंदर युद्ध चल रहा था. भयंकर संघर्ष था जिसकी वजह से कर्म दूषित बन गये थे. यदि उस समय वह काल कर जाये तो निश्चित ही दुर्गति में चले जायें. परन्तु जैसे ही उनका हाथ अपने मस्तक पर गया और जब उन्होने देखा कि अरे ! मैं साधु हूँ, राजा नहीं. मेरे मस्तक पर अब राज मुकुट नहीं है. वह सतर्क हुए. अंतर्मन में जागृति आयी. अंदर का पश्चाताप इतने सुन्दर भाव से प्रकट हुआ कि उसका यह चमत्कार कि एक क्षण के अंदर वे केवलज्ञान की स्थिति में पहुंच गये.. बुद्धि का दुरुपयोग : हर इंसान के पास बुद्धि तो है किन्तु आज व्यक्ति इसका उपयोग अनीति, अप्रमाणिकता के लिए करता है. पाप छिपाने के लिए करता है. यह बुद्धि का अतिरेक हमारे जीवन में अभिशाप बन गया. कलकत्ता के ग्रान्ट होटल के नीचे सेठ मफतलाल अपनी मर्सडीज गाडी लेकर आये और होटल के सामने खडी करके चले गये. वहाँ गाडी पार्किंग नहीं की जाती थी. परन्तु जैसे ही वापस लौटे, पुलिसवाले को खडा देखा. गाडी पार्क की हुई थी . पुलिस न ने गाडी देखी और सोचा-बड़ा आदमी दिखता है. चालान भरवा कर कोर्ट के चक्कर में नहीं पड़ना पसंद करेगा. अपनी भी कुछ आमदनी हो जायेगी. भष्टाचार, तो आप जानते ही है कि सभी जगह फैला हुआ है. एक हिन्दी कवि ने इस झूठ के साम्राज्य के बारे में अपनी कविता के माध्यम से परिचय दियाआज झूठ का ही प्रताप है, सच बोलना महापाप है. बाप गधा है बेमतलब का, मतलब है तो गधा बाप है. सेठ मफतलाल पुलिस मैन का इरादा भांप गये. एक अधेला खर्च किये बिना गाडी अपने कब्जे में करने का तुरन्त उपाय सोचा. टैक्सी ली और घर आ गये. घर से थाने मे फोन किया कि मेरी फलां कलर की, फलां मॉडल की और फलां नम्बर की गाडी चोरी हो गयी है. थाने में रिपोर्ट लिखवाकर वह निश्चित हो गये कि गाडी को तो कोई नुकसान होने वाला है नहीं. वह पुलिस वाला इधर खडा मालिक का इंतजार करता रहा. इधर वायरलेस से गाड़ी के बारे में सभी जगह सूचना भेज दी गयी. जैसे ही पुलिस की गाडी वहाँ पर आई, अधिकारी ने देखा कि गाडी तो वही है, जिसकी चोरी हो जाने की रिपोर्ट लिखी गयी है. पुलिस मैन से अधिकारी ने कहा- यह गाडी तो चोरी हो गयी थी. तुम यहाँ पर खडे हो चोर आयेगा कैसे. पुलिस मैन बेचारा बडा निराश हुआ कि एक घंटा मेरा यूं ही बेकार हो गया. आमदनी भी नहीं हुई. पुलिस गाडी के 166 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक पीछे लगाकर मर्सडीज को सेठ मफतलाल के घर पर पहुंचाया गया. सेठ मफतलाल को गाडी सौंप दी यह रही आपकी गाडी. एक पैसा भी खर्च नहीं और गाडी सुरक्षित घर पहुंच गयी. तो मेरे कहने का यह आशय था कि हमारी बुद्धि का अतिरेक इतना भयंकर है कि जहाँ से इसका उपयोग आत्मतत्व के चिंतन के लिये होना चाहिए, उसकी जगह पर हम इसका इस्तेमाल अनीति के लिए, अप्रमाणिकता के लिए करते है. हमारा चरित्र और वर्तमान शिक्षा प्रणाली पहले पुराने जमाने के समय में ऋषि मुनियों के आश्रम में शिक्षा की व्यवस्था थी. हमारी उस समय की शिक्षा प्रणाली ही ऐसी थी कि छात्र ऋषि मुनियों के आश्रम में रह कर तप और त्याग से परिपूर्ण बनकर निकलते थे. वे शुद्ध सदाचारी और संयमी बनकर के इस देश के नागरिक बनते थे. राष्ट्र का निर्माण और प्रजा की सेवा करने वाले होते थे और स्वयं की आत्मा की उपासना भी करते थे. आज वह सब रहा ही कहाँ ? आज का माडर्न एज्युकेशन प्रणाली इतनी दूषित हो चुकी है कि तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन जैसे महान शिक्षाशास्त्री ने दुखी होकर, आज की शिक्षा प्रणाली पर प्रहार करते हुए लिखा- No education but character. ऐसी शिक्षा से कोई मतलब नहीं जो चरित्र का निर्माण न कर सके, जीवन के अंदर नैतिक उत्थान न कर सकें. पहले ऐसी व्यवस्था थी कि हजारों ऋषि-मुनियों के जो आश्रम थे, वहीं से पढकर विद्यार्थी बाहर निकलते थे. वे अपनी संस्कृति, अपने संस्कार के लिए जीवन अर्पण करने वाले होते थे. हमारे यहाँ उस समय शिक्षा का लक्ष्य रखा गया- 'सा विद्या या विमुक्तये. मुझे ऐसा ज्ञान चाहिए जो वासना से, पाप से, अनीति से मेरी आत्मा को मुक्त कर सके. मेरी आत्मा में गुणों का सृजन कर सके. राष्ट्र, समाज और प्रजा के लिए मैं कर्तव्य, बुद्धि और प्रेरणा प्राप्त कर सकूं. आज जितने भी स्कूल-कालेज हैं वहाँ से व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त तो होता है, परन्तु उस व्यवहारिक क्षेत्र में धर्म का अनुशासन चाहिए. ये धर्म के अनुशासन वहाँ नहीं सिखाये जाते, जिसका यह परिणाम है कि आज सारा ही विश्व अशान्ति से घिरा हुआ है. एक बार स्वामी विवेकानंद किसी कालेज में प्रवचन देने के लिए गये. मॉडर्न एज्युकेशन के उन विद्यार्थियों से स्वामी जी ने पूछा- जीवन में तुम क्या बनना चाहते हो? छात्रों में से किसी ने डाक्टर, किसी ने वकील, किसी ने इंजीनियर बनने का लक्ष्य बताया. स्वामी विवेकानंद ने कहाबड़े दुःख की बात है आप में से किसी को अपना लक्ष्य ही नहीं मालुम कोई भी विद्यार्थी यह नहीं कह सकता कि मैं मानवता को प्राप्त करूंगा. प्राणिमात्र का कल्याण करूंगा. आज की शिक्षा प्रणाली का व्यक्ति स्व की परिधि तक ही सीमित हो गया है, स्व की परिधि में ही घिरा है. सर्व तक जाने का संकल्प ही नहीं, लक्ष्य ही नहीं है. आज सरकार सभी चीजों का राष्ट्रीयकरण कर रही हैं. मैं कहता हूँ कि हमारी इस शिक्षा प्रणाली का सबसे पहले भारतीयकरण करो. आज मॉडर्न एज्युकेशन जिसमें सिर्फ शब्द ज्ञान मिलेगा, भौतिक ज्ञान मिलेगा, किन्तु उस आध्यात्मिक चेतना का लक्ष्य नहीं मिलेगा. आत्मा का पोषण करने वाला वह तत्त्व नहीं मिलेगा. वह सम्यक् ज्ञान नहीं मिलेगा. जिससे राष्ट्र का नैतिक उद्धार हो सके. पहले के जमाने में जो शिक्षा प्रणाली थी, उसका लक्ष्य था मोक्ष प्राप्त करना. सत्य और सदाचार के मार्ग पर चलकर समाज और राष्ट्र का कल्याण करना, प्राणिमात्र का कल्याण करना किन्तु अंग्रेजों ने आकर कुछ ऐसा किया कि हम अपनी संस्कृति को भूल गये. लार्ड कर्जन के जमाने में लार्ड मैकाले को इस काम के लिए नियुक्त किया गया. मैकाले ने अपनी डायरी में लिखा है कि- मैं इस नई शिक्षा प्रणाली के माध्यम से एक ऐसा सुगर कोटेड पॉयजन देकर जा रहा हूँ जो आने वाले वर्षों में पूरे भारत को अभारतीय बना देगा. उनको अपनी संस्कृति से विमुख कर देगा. वही हुआ जो अंग्रेज चाहते थे. अंग्रेज हमारे देश से तो चले गये पर हमें अंग्रेजियत की मानसिक दासता में जकड गये. हम आजादी के बाद एक भी अंग्रेज को धोती कुर्ता नहीं पहना सके. वो सारे देश को पैंट सूट पहना कर चले गये. हमारे देश पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर चयन किया था कि यहाँ का वातावरण गर्म है. धोती कुर्ता ढीला ढाला होता है. 167 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक ताजी हवा का आवागमन उसमें रहता है. इसके अलावा शरीर को सूर्य की रोशनी से विटामिन मिलता है. हमारे शरीर के जर्स का नाश होता है. पश्चिम में इसलिए लोग सनबाथ करते हैं . किन्तु हमने बिना सोचे पैंट सूट धारण कर लिया और अनेक बिमारियों को आमंत्रण दे डाला. अंग्रेज टाई पहनते है तो इस धार्मिक भावना से कि क्राइस्ट के शूली पर लटक जाने की याद आती रहे. पर हम किस देवता के शूली पर चढने की याद में टाई लगाते हैं. विज्ञान -विकृत विज्ञान : मुझे एक पत्रकार ने पूछा आज का विज्ञान इतना एडवान्स हो गया है . भौतिक दृष्टि से बहुत खोज की गहराई में उतर चुका है और नई वस्तुओं का काफी आविस्कार हो चुका है. उसके बारे में आपको कुछ कहना हैं. मैने कहा- आज का विज्ञान इतना विकृत हो चुका है कि निश्चित रुप से एक दिन मानव जाति का विनाश करके _रहेगा. जो विज्ञान विशिष्ट ज्ञान था. वह आज विकृत बन चुका है. एटम बम बनाकर इस विश्व को विज्ञान ने क्या दिया? एटमिक एनर्जी के रुप में जहाँ विश्व का कल्याण होना था, उसका दुरुपयोग किया जा रहा है. इसका निर्माण करने वाला वैज्ञानिक जिसने अपनी खोज राष्ट्र को अर्पण कर दी, उस व्यक्ति ने अपनी खोज का परिणाम जब देखा तो स्तब्ध रह गया. हिरोशिमा-नागासकी पर एटमिक विस्फोट जब उसने टी.वी. पर देखा तो उसे इतना मानसिक क्लेश हुआ कि वह विक्षिप्त हो गया. मरते समय भी उसके मुंह पर यही शब्द थे- क्तड झण्थ्य ढ़दृ द्यदृ ण्ड्थ्य. वह व्यक्ति मर कर निश्चित रुप से नर्क में जायेगा. जिसने इस मानव जाति का घोर अहित किया है. इस तरह के अनेक अस्त्र आज तो बन चुके हैं. बुद्धि का दुरुपयोग आज इतना भयंकर हो गया कि उस विशिष्ट ज्ञान को हमने विकृत ज्ञान बना दिया. हमारी बुद्धि पर हमारा अनुशासन नहीं रहा, हमारे विचारों में विवेक नहीं रहा. विकृत विज्ञान ने कब्जा कर रखा है जिसके कारण आज मानव जाति का अस्तित्व ही खतरे में हैं. किस प्रकार इस विकृत विज्ञान द्वारा उत्पन्न अशांति का निवारण हो, इसी पर हमें विचार करना है. इस अशांति का मूल कारण क्या है? उसे हमें देखना है. परमात्मा की खोज : सेठ मफतलाल राजा के परम मित्र थे. राजा के महल में ही रहते थे. एक दिन राजा ने पूछ लिया- मैं बहुत दिनों से साधना में परमात्मा की खोज में लगा हूँ. परन्तु मुझे कहीं परमात्मा ही नजर नहीं आया. सेठ मफतलाल बडे बुद्धिशाली थे. उन्होंने कहा- आपके खोज का तरीका ही गलत है. राज महल में रहकर कोई परमात्मा की खोज हो सकती है ? यह कोई खोजने का तरीका है ? मफतलाल ने सोचा -राजा को सही रास्ता दिखाना चाहिए. दो चार दिन बाद रात्रि के ग्यारह बजे सेठ मफतलाल राजमहल आये. सीधे छत पर चढ गये. लालटेन लेकर कुछ खोजने लग गये, राजा ने सोचा, ये मफतलाल रात्रि में क्या खोज रहा है. जाकर उससे पूछा-मफतलाल यहाँ क्या दूढ रहे हो ? मेरे घर से ऊँट चला गया है, खो गया है, वही खोज रहा हूँ, मफतलाल ने उत्तर दिया. अरे, मूर्ख आदमी ! राजमहल की छत पर कहीं ऊँट मिलेगा. मफतलाल ने जवाब तैयार ही रखा था- हुजूर आप भी तो परमात्मा को यही खोज रहे हैं. वे तो बहुत बड़े हैं. जब | यहाँ ऊँट नहीं मिल सकता तो यहाँ इस राजमहल में परमात्मा कहाँ से मिलेगा. राजा विचार में पड़ गया-बात तो इसने सही कही है, जो चीज त्याग के माध्यम से मिलने वाली है, वह प्राप्ति में कहाँ से मिलेगी. तो परमात्मा को खोजने का हमारा तरीका ही गलत है. त्याग की भूमिका पर साधना करें तभी परमात्मा को खोजने में सफलता मिलेगी. मृत्यु में ही जीवन है : मृत्यु एक शाश्वत सत्य है. जन्म के साथ ही मृत्यु की गाडी दौडनी शुरु हो जाती है और जीवन के लक्ष्य तक पहुंचाने के बाद ही छोडती है. रवीन्द्र नाथ टैगोर ने विश्व प्रसिद्ध काव्य गीतांजली, जिस पर उन्हे नोबेल 168 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरस्कार मिला, में मृत्यु को संबोधित करते हुए लिखा- आओ ? तुम बडी प्रसन्नता से आओ. मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ. बहुत वर्षों से मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में था. परन्तु याद रखना ! इस रवीन्द्रनाथ के यहाँ से कोई निराश नहीं गया. आज तक कोई खाली नहीं गया. आने वाले अतिथि को कुछ न कुछ देकर ही भेजा है. अब मेरे पास कुछ नहीं बचा है. अब तुम अपनी खाली झोली लेकर आये हो तो मैंने सोचा, अपना ये जीवन ही तुम्हें अर्पण कर दूं. मृत्यु को इतनी शांति के उन्होंने देखा, उसको अपने जीवन में अनुभव किया और उसका दर्द भूलकर मृत्यु को ही संगीत बना लिया. पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान •महोत्सव विशेषांक जटायु ने सीता हरण के समय अपना जीवन अर्पण कर दिया. उसे मालुम था कि मैं सीता को बचाने में सफल नहीं हो सकता. पर किसी प्रकार में रावण को रोकूं, उसके कार्य में बाधा उत्पन्न करू. परिणाम क्या रहा? रावण ने तलवार से जटायु के पंख काट दिये, परन्तु जटायु खुश था, उसे मृत्यु में भी प्रसन्नता नजर आ रही थी कि मैंने सत्कार्य के लिये अपना जीवन अर्पण किया है. हमारे जीवन में जिस दिन यह भावना आ जाय कि परमात्मा के कार्य के लिए मैं अपना सर्वस्व अर्पण कर दूं. अपना . जीवन अर्पण कर दूं. यह भाव ही पुण्य भाव बन जाता है जो परमात्मा की प्राप्ति में कारण बनता है. व्रत नियम का पुण्य प्रभाव हमारे जीवन में परमात्मा की प्राप्ति हो, इसके लिए जीवन के दैनिक व्यवहार में कुछ ऐसे नियम धारण करे जो हमें अनीति के मार्ग पर जाने से रोके पाप के दलदल में धसने से बचाये. व्रत नियमों का ऐसा पुण्य प्रभाव होता है जो हमारे जीवन में बदलाव भी ला सकता है. सेठ मफतलाल रोज प्रवचन सुनने जाते थे. महाराज प्रतिदिन प्रेरणा मफतलाल व्रत नियमों से कोसों दूर भागते थे. एक दिन महाराज से कहा क्या उपदेश मेरे लिए ही है? और कोई नहीं मिला. देते थे और व्रत नियम लेने का आग्रह करते. आपने मेरे को ही क्यों टारगेट बनाया है. यह महाराज ने कहा- तुम्हारे ऊपर मेरा विशेष अनुराग है. साधु संतों के अंदर ऐसी करुणा होती है कि जो आध्यात्मिक रुप से सीरियस पेशेन्ट हो उसी का मैं पहले रक्षण करुं. सेठ मफतलाल ने कहा- भगवन्, मैंने तो बहुत व्रत नियम ले रखे हैं. आप और कितने नियम देंगे. सुबह उठता हूँ, पहले बीडी पीता हूँ, यह मेरा पहला नियम. दूसरा नियम-पान खाता हूँ. तुरन्त चाय पीता हूँ. यह तीसरा नियम फिर बाजार जाता हूँ यह चौथा नियम. सारा जीवन ही इस तरह नियमों से जकडा है. अब आप कहाँ और नियमों का जंगल पैदा कर रहे हैं. महाराज ने कहा- फिर भी प्रयास करो, यह मेरा आग्रह है. चार महीना निकल गया, पर मफतलाल नहीं माने. परन्तु महाराज की करुणा ऐसी कि मैं इसको कुछ नियम देकर जाऊं. आखिर जाते जाते विहार करते समय महाराज ने कहा- भले आदमी चार महीने पूरे हो गये. अब तो जाते जाते मेरी गुरुदक्षिणा तो दे दो. कम से कम अपने मन की प्रसंन्नता तो लेकर जाऊं. मफतलाल ने कहा- महाराज आपने तो बहुत प्रयास किया. मेरा ही पुण्य बल कम था कि मैं आपकी वस्तु ग्रहण न कर सका. आप देना चाहते हैं तो एक नियम मैं ले सकता हूँ किन्तु मेरी बुद्धि से. महाराज ने कहा- ठीक है भाई, तुम्हारी जो इच्छा हो, वही नियम तुमको दूंगा. 169 मफतलाल ने कहा मेरे घर के सामने एक कुम्हार रहता है. रोज सवेरे जब मैं उठता हूँ तो सबसे पहले उस कुम्हार की टाट दिखाई देती है. तो मैं यह नियम ले सकता हूँ कि जहाँ तक कुम्हार की टाट नहीं देखूं, वहाँ तक चाय पानी नहीं करुं. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक - महाराज ने नियम दे दिया और कहा-धन्यवाद. इतना भी तुम लो तो धीरे-धीरे यह परिग्रह रुप ले लेगा. इस बात को काफी समय बीत गया. एक दिन मफतलाल कुछ लेट उठे. कुम्हार अपनी दिनचर्या के अनुसार गधे को लेकर खेत चला गया था. उठते ही मफतलाल ने सामने देखा वहाँ कुम्हार नहीं था. घर में पूछा तो पता लगा कि कुम्हार तो खेत में जा चुका है, बारह बजे के पहले आने वाला नहीं है. सेठ मफतलाल ने कहा- गजब हो गया, तब तो मेरी ही बारह बज जायेगी. यहाँ तो उठते ही चाय चाहिए. अब क्या करें ? आखिरकार मफतलाल ने कुम्हार के खेत का पता मालुम किया और घोडा लेकर रवाना हो गये. कुम्हार खेत में से मिट्टी निकाल रहा था. पसीने से भरी टाट, सूर्य की रोशनी में चमकी. मफतलाल ने घोडे पर बैठे-बैठे जब कुम्हार को टाट देखी तो इतना प्रसन्न हुआ कि प्रसन्नता के अतिरेक में चिल्ला उठा -देख लिया, देख लिया. उधर कुम्हार को गढ्ढा खोदते समय संयोगवश काफी सामान निकल आया था. काफी कीमती रत्न आभूषण थे. कुम्हार ने देखा- यह तो मफतलाल है. इसने अगर गाँव में जाकर कह दिया तो सारा माल लुट जायेगा. ठाकुर ले जायेगा. उसने मफतलाल से कहा- अरे ! जो भी है, आधा-आधा बांट ले. मफतलाल ने देखा कि सोना -चांदी दुनियां भर का बहुमूल्य सामान पडा है. मफतलाल खुश हो गया. अपने हिस्से का आधा माल पोटली में डाल घर ले आया. फिर तो वह रोने लगा कि -लाख धिक्कार है मुझे. महाराज ने मेरे को कितना समझाया, पर मैं नहीं माना. जाते जाते एक नियम मैंने लिया और उसी नियम के प्रभाव से कितनी संपत्ति मुझे मिल गई. घर का सारा दारिद्र्य समाप्त हो गया. घर में जो समस्या थी, वह नियम के पुण्य प्रताप से खत्म हो गई. यदि मैंने पहले ही नियम ले लिये होते तो मेरा पहले ही कल्याण हो जाता. तो मेरे कहने का मतलब है कि एक भी लिया हुआ नियम कभी निष्फल नहीं जाता. आपका जीवन नियमों में बंधा रहेगा. तो नियमों के पुण्य प्रभाव से आपका सारा जीवन ही बदल जायेगा. आपको मानसिक शांति तो प्राप्त होगी ही. उसके साथ -साथ जीवन दृष्टि भी बदल जायेगी. उपरोक्त तथ्यों को यदि अपने जीवन में हम आंशिक रूप से भी ग्रहण करें तो हम बेहतर जीवन जी सकते हैं. मन में करुणा, दया, प्रेम, मैत्री आदि का भाव तथा अपने आस-पास के लोगों के साथ सदा सम्यक व्यवहार रखें तो हम सुखमय जीवन जी सकते हैं. અરિહંત પરમાત્મા પુણયની oisiી છે. ણિાધુ ભગવંતો સુખના ભંડાર છે . આયાર્ય ભગવંતો ગુણના ભંડાર છે. ઉપાધ્યાય ભગવંતો વિનયની ભંsiણ છે સાધુ ભગવંતો સહાય ના ભંડાર છે સથગ દર્શન રોહનો ભંડાર છે સમ્યગ જ્ઞાન ણવિચારનો ભંડાર છે યાશિ ણ આયણનો ભંડાર છે. રાયણ તપ સંતોષનો ભંડાર છે. 170 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी ਬਣੀ ਫਰਕ महोत्सव विशेषांक आर्षवाणी आचार्य श्री कैलाससागरसूरिजी * संसार में देखना हो तो तीर्थंकर परमात्मा को देखो, दूसरा देखने जैसा है ही क्या. * शरीर और कर्म अपना कार्य करते हैं तो आत्मा को अपना कर्तव्य करना चाहिए. एक दिन जिसकी मिट्टीहोनेवाली है उस देह की किसलिए चिन्ता करे. * जगत की भाषा में नहीं परन्तु जगतपति की भाषा में बोलो. हाँ कभी जनसमुदाय की भाषा में तुच्छकार हो तो वह क्षम्य है, किन्तु साधु की वाणी में कभी तुच्छकार नहीं होता. * कोई व्यक्ति भूल या अपराध कर सकता है, परन्तु हमें तो उसके सद्गुण ही देखना, ग्रहण करना चाहिए, दुर्गुण नहीं. * इस भव में जीभ का दुरूपयोग करेंगे तो जीभ, कान का दुरूपयोग करेंगे तो कान, यानि जिसका दुरुपयोग करेंगे वह परभव में नहीं मिलेगा. इस प्रकार परभव में ये चीजें दुर्लभ हो जाएँगी. * यदि आपको गुण की आराधना करनी है, तो तीर्थंकर परमात्मा की करो, प्रभु की भक्ति करो, हम साधुओं की __ नहीं. साधु के लिए प्रशंसा ज़हर के समान है, * ज्ञाता द्रष्टा भाव जैसे-जैसे प्रकट करेंगे, वैसे-वैसे समभाव आएगा. राग द्वेष जीतने का उपाय, साक्षीभाव से रहना ही है. *गुरू की सेवा जितनी हो सके, उतनी कम है. उनके आशीर्वाद और सेवा से ही विद्या फलवती होती है. * सहन करना, क्षमा करना और सेवा करना , यही है जीवन मन्त्र. * आत्मश्रेय के लिए हमेशा जागृत रहो. * तीर्थ तो प्रभुभक्ति के लिए है, इस तीर्थ का मैं कुछ भी ग्रहण करूँ तो मेरी आसक्ति बढ़ेगी. સમસ્ત વિશ્વનું કલ્યાણ થાઓ, સર્વ જીવો પરોપકાર માં તત્પર બનો. દોષોનો સર્વથા નાશ થાઓ, અને લોકો સર્વત્ર સુખી થાઓ. 171 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वी के समान सहिष्णु, कमल पत्र की तरह निर्लेप, वायु की तरह अप्रतिबद्ध, __ पर्वत सम निष्कंप, सागर की तरह क्षोभ रहित व केंचुए की भाँति गुप्तेन्द्रिय आचार्यों को कोटि-कोटि वंदन. मफतलाल मोहनलाल महेता परिवार मुंबई Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गगन की तरह अपरिमित ज्ञानी, मतिकेतु-श्रुतकेतु, अतिन्द्रियार्थदर्शी, सूत्रार्थ में अति निपुण, एक मात्र मोक्ष सुख के गवेषक तथा दोष-दुर्गुणों से रहित आचार्यों के चरणों में कोटि-कोटि वंदन. नाहर बिल्डर्स मुंबई SHREE NAMINATH PRINTERS M-9825042651 पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक