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के समय डोरी को ढीला करने से प्रत्येक पत्र दोनों ओर से आसानी से उलटाया जा सकता है तथा सरलता से पढ़ा जा सकता है साथ ही पत्र बिखरते भी नहीं हैं.
पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक
कश्मीर और पंजाब के कुछ अंश को छोडकर बहुधा सारे भारतवर्ष में तालपत्र का बहुत प्रचार था. प्राचीन समय में • तालपत्र और भूर्जपत्र (भोजपत्र) की बहुतायत होने तथा अल्प मूल्य में उपलब्ध होने के कारण इसके ऊपर ग्रंथलेखन की परंपरा प्रचुरता से रही. पश्चिमी उत्तरी व उत्तरपूर्वी भारत में स्याही से लिखने का प्रचलन था, परंतु दक्षिण-पूर्व में तीखे गोल मुख की शलाका के माध्यम से अक्षरों को कुरेदकर लिखा जाता था. उसके बाद पत्रों पर काजल आदि फिरा देने से कुरेदे गये खड्डो में अक्षर काले बन जाते थे. इन्हें सुरक्षा हेतु देवालय तथा ग्रंथालयों में रखा जाता था. सुरक्षा की दृष्टि से ग्रंथ के दोनों ओर चन्दन, बांस, साल, ताल आदि वृक्ष की काष्ठपट्टी को सूत की रंगीन डोरी से बांध कर धुआँ जाने के स्थल में रखा जाता था, जिसके कारण कीड़े आदि ग्रन्थ को नष्ट नहीं कर सके.
तालपत्र लेखन संबंधी विशिष्ट जानकारियाँ
विभिन्न देश व काल में उत्कीर्ण लेखों के प्रारंभ एवं अंत में मांगलिक प्रतीक चिह्नों का अंकन जैसे भले मिंडी, स्वस्तिक, ओम, त्रिरत्न, चैत्य, सूर्य, चन्द्र, शंख, पद्म, नंदी, कलश आदि के चित्र बनाए जाते थे तथा ग्रन्थ के प्रारम्भ में मांगलिक श्लोक लिखे जाते थे. उसके बाद मूल ग्रन्थ का प्रारंभ होता था. मूल ग्रन्थ संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं तथा प्रान्तीय लिपियों में पाए जाते थे. इस प्रकार के तालपत्रीय ग्रंथों में आगम, वेद, पुराण, आयुर्वेद, ज्योतिष, मन्त्र-तन्त्र, शिल्पकलादि से सम्बन्धित कृतियाँ प्राप्त होती हैं. यदि मूल ग्रन्थ के साथ टीकादि भी हो तो वह क्रमशः लिखे जाते थे. मूल कृति के लेखन के साथ साथ ही इनका भी लेखन किया जाता था. कोई कोई ग्रंथों में मूल कृति ही पाई जाती है. टीकादि विवरण या तो होता ही नहीं है या फिर बाद में लिखने हेतु जगह छोड़ी हुई देखी जाती है. ग्रंथ के अन्त में प्रायः प्रतिलेखन पुष्पिका हुआ करती हैं, जिसके अन्तर्गत प्रतिलेखन वर्ष, ग्रन्थमान लिखानेवाला, लिखनेवाले आदि से सम्बन्धित जानकारियाँ पाई जाती हैं. इसके अतिरिक्त प्रतिलेखन से सम्बन्धित विशिष्ट जानकारियाँ तथा किसी महत्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख भी प्रतिलेखन पुष्पिका में पाया जाता है. किन्हीं ग्रंथो में प्रतिलेखन पुष्पिका प्रत्येक अध्याय आदि के अन्त में भी होती है.
कथा से संबन्धित ऋषि, मुनि, पशु-पक्षी, वृक्ष आदि का चित्रण भी किया जाता था. मध्य काल में लेखन शैली का भी पर्याप्त विकास हो चुका था, वर्ण एवं शब्दों का समुदायीकरण कर अक्षरों से शब्द, पद्य एवं बडे गद्यांशों के अंत में विरामादि चिन्हों का प्रयोग आदि देखा जा सकता है.
वर्तमान काल में भारत के दक्षिणी और दक्षिण पूर्वी हिस्सों के प्रारंभिक पाठशालाओं में विद्यार्थियों के लिखने हेतु; रामेश्वर, जगदीश आदि के मन्दिरों में जमा कराये हुए रुपयों की रसीदें देने आदि कार्यों में आज भी तालपत्र के प्रयोग किए जाते हैं, उत्कल प्रांत में तालपत्र से निर्मित जन्मपत्रिका तथा धर्मग्रंथादि की लेखन परंपरा आज भी देखी जा सकती है. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर में तालपत्र
आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर, कोबा में लगभग ३००० से ज्यादा तालपत्र ग्रंथ संग्रहित है. जिसमें जैन, वैदिक,
पाथवेहिया होष तिने पचीस प्रतिजननी पनी झाला
खाता छत्रीश गुशोधी युक्त આચાર્યોને વંદન
सो
ભરતભાઈશાહ, મુંબઈ
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