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पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक
भारतीय प्राचीन लेखन परंपरा में : तालपत्र लेखन
गिरिजाप्रसाद षडंगी
प्राचीन काल से भाषाओं को लिपिबद्ध करने के लिए मानव ने भिन्न भिन्न वस्तुओं का सहारा लिया है. लेखन सामग्री के रूप में सर्वप्रथम पत्थर, मिट्टी, धातु आदि का आधार बनाया. इनमें से एक है तालपत्र, इसकी निर्माण नैसर्गिक है. विश्व के इतिहास मे सर्वप्रथम मिश्रवासी लोगों के द्वारा तालपत्र का लेखन में उपयोग करने का उल्लेख मिलता है. भारतवर्ष में तालपत्र को लेखन सामग्री के रुप में प्राचीन उपयोग बौद्ध जातक में प्राप्त है. ह्यु-एन्संग के जीवन चरित्र से ज्ञात होता है। कि भगवान बुद्ध की मृत्यु के बाद जब प्रथम बार सभा बैठी तब त्रिपिटक को तालपत्र पर लिखा गया था. भारत के इतिहास से ज्ञात होता है कि गुप्त काल में तालपत्रों का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता था.
धार्मिक तथा शास्त्रीय ग्रंथों को इस पत्र पर स्याही से और उत्कीर्णन पद्धति से लिखा जाता था. उत्कीर्णन पद्धति का विकास क्रमशः शिलालेख, (प्रस्तर, दीवार, स्तंभ एवं मूर्ति) ताम्रपत्र, ( राजाज्ञा, दानपत्र, शासनादेशादि ) तालपत्र (धार्मिक ग्रंथ ) के रूप में पाया जाता है. भारतवर्ष की प्रचलित लिपियों के विकासक्रम का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि नौवीं शताब्दी के प्रारंभ में उत्कीर्णन शैली में लेखन पाया जाता था. तालपत्र में उपलब्ध लिपि को नांदीनागरी के रुप में जाना जाता है. इसी नागरी लिपि का पूर्ण विकसित स्वरूप वर्तमान देवनागरी लिपि है.
तालपत्रों का प्राप्तिस्थान भारत के समुद्र तटवर्ती, ओडीसा, आन्ध्रप्रदेश, कर्णाटक, केरल, तमिलनाडु राज्य तथा श्रीलंका व मलबारद्वीप में इसका मुख्य उत्पत्ति स्थल माना जाता है. तालपत्र दो प्रकार के होते हैं- खरताल और श्रीताल, तालपत्रों में श्रीताल का पत्र सर्वश्रेष्ठ है. श्रीताल और यह तालपत्र के मूल उदल में से निकलने वाली पट्टिका रूप होता है. श्रीताल का पत्र लंबाई, चौड़ाई तथा सुंदरता की दृष्टि से कागज जैसा है. सामान्य गुणवत्तावाले तालपत्र भारत के बाकी राज्यों में प्राप्त होते हैं. तालपत्रीय ग्रन्थों को पोथी कहा जाता है तथा इसे पूज्य माना जाता है,
लेखन कार्य हेतु तालपत्र की संस्कार पद्धति
प्राचीन काल में लिखने से पहले तालपत्र को पेड़ से काटकर पानी में डुबाकर कुछ दिनों तक रखा जाता था. पानी से निकालकर छाया में सुखाने के बाद आवश्यकतानुसार इन तालपत्रों को संधियों में से काटकर, पर्याप्त लंबी परंतु चौडाई में एक से पांच ईंच तक की पट्टियाँ निकाली जाती थी, उनमें से जितनी लंबाई का पत्र बनाना हो उतना काट लेते थे, जिससे यह लिखने के लिए उपयुक्त बन सके, ग्रन्थ लिखने के लिये जो ताडपत्र काम में आते थे, उन्हें शंख, कौडी या चिकने पत्थर आदि से घोंटा जाता था. तालपत्र में ३ से ७ पंक्तियाँ लगभग ७५ से १२० अक्षरों तक तथा श्रीताल में १० से २२ पंक्तियाँ १०० से २०० अक्षरों में लिखा जाता था. कम लंबाई के पत्रों के मध्य में एक छिद्र तथा अधिक लंबाई वाले पत्र में कुछ अंतर पर दाईं व बाईं ओर एक-एक छिद्र किया जाता था. ग्रन्थ के नीचे और ऊपर उसी माप की सुराख वाली लकडी की पट्टियाँ लगाई जाती थीं. इन सुराखों में डोरी डाले जाने से एक माप की एक से अधिक ग्रन्थ एकत्र कर बांधे जा सकते थे. पढ़ने
બાવીસ પશિહોને રાહબકવાવાળા અને ચૌદ આાંતર ગંથિઓથી મુક્ત
આવા છગીરા ગુણોથી યુક્ત આચાર્યોને વંદન
- સોજન્ય
જિનેશભાઈલાલ, મુંબઈ
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