SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक बौद्ध आदि धार्मिक ग्रन्थों के साथ-साथ वैद्यकशास्त्र, ज्योतिष, आगम, काव्य, नाटक, नीति, वंशावलि, स्तोत्रादि से संबन्धित सैकडों अप्राप्य विषयों के ग्रंथ हैं. प्राकृत, संस्कृत, बंगला, तेलुगु, तामिल, कन्नड, ओडिया आदि भाषाओं में देवनागरी, तमिल, तेलुगु, कन्नड, उडिया, मलयालम, आसामी, मैथीली, और बंगला आदि लिपिओं में लिखित स्याही और उत्कीर्ण दोनों प्रकार के तालपत्र ग्रंथ उपलब्ध हैं.. संरक्षण की प्राकृतिक विधिविविध स्थलों से प्राप्त कुछेक प्राचीन तालपत्र, ऐसी स्थिति में थे, जो परस्पर चिपके हुए थे तथा उन्हें खोलना भी असंभव इस हेतु इन ग्रंथों को वर्षा ऋतु में हवादार स्थानों में खोलकर रखा गया तथा प्रतिदिन उसके पत्र खोलते गये, थोडे ही दिनों में सभी चिपके ग्रंथों को सामान्य प्रयत्नों से अलग करना संभव हो सका. मिट्टी आदि से सफाई के लिए धर्मस्थल (कर्णाटक) में प्रयुक्त विधि को यहाँ पर अपनाया गया है. शुद्ध जल में सिट्रोनेल्ला तेल की कुछ बूंदें डालकर मलमल के कपड़े से सफाई की जाती है. यदि पत्र में स्याही (त्दत्त) निकल गई हो और अक्षर ठीक से नहीं दिखाई देते हों तो उसे पुनः स्पष्ट रूप से देखने के लिए नैसर्गिक रुप से प्राप्त सिन्दूर, आलता, मसी, हल्दी, काजल, अडूस, कोयला आदि का प्रयोग किया जाता है, सबसे उत्तम तरीका है कि सीम (शिम्ब) के पत्तों का रस भर देने से अक्षर सुस्पष्ट रुप से दिखने लगते है. यह एक अनुभवसिद्ध प्राचीन विधि है. इसका प्रयोग करने से तालपत्र में किसी प्रकार के कीड़े नहीं लगते हैं तथा अक्षर दीर्घकाल तक स्पष्ट व सुरक्षित रहते हैं, खंडित पत्रों को जोडने हेतु खास टिस्यु पेपर को एक विशेष प्रकार के गम से चिपकाने पर अक्षर सुस्पष्ट हो जाते हैं और पत्र भी जुड कर सुदृढ होता है. पत्रों में सिट्रोनेल्ला तैल का कोटिंग दिया जाता है, जो कीटाणुओं (सिल्वर फिस आदि) से इसकी रक्षा करता है. जीर्ण काष्ठ पट्टी को बदलकर नयी पट्टी लगाई जाती है तथा नये सूत की डोरी से बांधकर रखा जाता है. कहीं-कहीं ग्रंथ को लाल कपडे से बांधने का भी प्रचलन है, जो समशीतोष्ण होता है तथा उसका मुख्य उद्देश्य कीट और धूल आदि से ग्रन्थ को सुरक्षित रखना है. तालपत्र ग्रंथो में लिखित अप्राप्य विषयों को वाचकों के समक्ष दीर्घकाल तक पहुँचाने के लिए सुरक्षा भी महत्वपूर्ण अंग है. इस हेतु से संपूर्ण नैसर्गिक वस्तुओं के प्रयोग की विधि यहां पर अपनाई गई है. प्राचीन तालपत्रीयग्रंथ - तालपत्र में लिखने की परंपरा प्राचीन है. जापान के होरियूजि के मठ में रखे हुए प्रज्ञापारमिताहृदयसूत्र तथा उष्णीषविजयधारणी चौथी शताब्दी के ग्रन्थ हैं. नेपाल के तालपत्रीय ग्रन्थसंग्रह में ई. स. सातवीं शताब्दी का लिखा हुआ स्कंदपुराण है. लगभग इसी काल में लिखी हुई विशेषावश्यक भाष्य की तालपत्रीय प्रति जैसलमेर ज्ञानभंडार में मौजूद है, जो कि भारतवर्ष में उपलब्ध सबसे प्राचीन तालपत्रीय प्रति कही जा सकती है. आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा के ग्रंथालय में सबसे पुराना तालपत्रीय ग्रंथ प्रायः दशवीं सदी का एक ग्रंथ व १३-१४ सदी के लिखे देवनागरी लिपि में अनेक ग्रंथ संग्रहीत है. दक्षिणी शैली के ग्रंथों में संग्रहीत ६०० वर्ष प्राचीन जैनधर्म से सम्बन्धित ग्रन्थ उपलब्ध है, जो तेलुगुलिपि मे સતાપીણ હામાર ગુણ અને 6[d oોની વિશુદ્ધિની ! માવા છ ગણ ગુણોથી યુ51 આયાર્યોને વંદન વિનોદભાઈયૂSાવાળા, મુંબઈ
SR No.525262
Book TitleShrutsagar Ank 2007 03 012
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2007
Total Pages175
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy