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पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान
महोत्सव विशेषांक
सूर्याभ, श्वेत तथा कदलीगर्भ के समान. ___पुष्पराग (पोखराज, पुखराज) - फेरू ने इसका उत्पत्ति स्थान हिमालय बताते हुए कहा है कि उत्तम गुणयुक्त और दोषरहित पुखराज जो व्यक्ति धारण करता है, उस पर गुरुग्रह का सदैव अनुग्रह रहता है. यह पीतवर्णी और कनकवर्णी
इसमें स्निग्धता का गुण विशेष रूप से होता है. अन्य मत से इसे रुधिर वर्णवाला भी माना गया है. ठक्कुर फेरू के मत से भीसम और चन्द्र दो प्रकार के पुखराज हिमगिरि से प्राप्त होते थे. चण्डेश्वर ने बाणपुष्प के समान कान्तियुक्त कहकर इसके प्रभाव का वर्णन करते हुए इसे पुत्रदायक, धनदायक और पुण्य देनेवाला माना है.
कर्केतनमणि- इस रत्न विशेष की उत्पत्ति के विषय में फेरू का कहना है कि यह पवण और उपपठान देश में पैदा होता है. कर्केतन ताम्रवर्ण और पके हुए महुए के फल सदृश होता है. इसे नीलाभ सुदृढ़ और सुस्निग्ध कहा गया है. बुद्धभट्ट के मत से कर्केतन रत्न पूज्यतम है. शायद दुर्लभ होने के कारण ऐसा कहा गया हो. कर्केतन के प्रभाव से कुल, पुत्र, धन, धान्य, और सौख्यवृद्धि होती है. ___भीसमरत्न - इसके बारे में मात्र ठक्कुर फेरू ने ही उल्लेख किया है. यह श्वेतवर्ण होता है. उत्पत्ति हिमालय मानी है. भीसम जिसके पास होता है उसे अग्नि और विद्युत से कभी भय नहीं रहता.
गोमेदरत्न - गोमूत्र के समान वर्णवाले गोमेद को फेरूने पीताभ और पंडुर कहा है. इसकी उत्पत्ति के विषय में ठक्कुर फेरू ने सिरिनायकुलपरेवंगदेशे लिखा है. जिसकी विवरणकारों ने ठीक से पहचान नहीं की ऐसा ज्ञात होता है. नायकुल जैन शास्त्रों में प्रसिद्ध है. भगवान महावीर की जन्मस्थली क्षत्रियकुंड या वैशाली का प्रदेश माना जाता है. नायकुल इंगित करके ठक्कुर फेरू ने इस ओर इशारा किया है कि क्षत्रियकुंड ग्राम के आगे बंगदेश है, जो गोमेद का उत्पत्ति स्थान है. दूसरा स्थान नर्मदानदी है. गोमेद क्षय रोग और तेज खांसी में गुणकारी होता है. श्वेत रंगी गोमेद धन-संपत्ति कारक है. उन्होंने कुछ पारसी रत्नों का भी उल्लेख किया है. जैसे
लाल - लाल याने अग्नि की तरह लालवर्णीय रत्न बंदखसाण देश में प्राप्त होने वाला. अकीक - पीले रंग का यमन देश अर्थात् अरब देश में प्राप्त होने वाला. फिरोजा - नीलवर्णी नीसावर तथा मुवासीर में प्राप्त होने वाला.
आधुनिक व्याखाकार निसावर को फारस का निशापुर और मुवासीर को ईराक का मोसुल या अलमोसिल समझते हैं. लाल, लहसुनिया, इन्द्रनील और फिरोजे की तौल सुवर्ण टंककों मे होती थी. अकीक की कीमत अन्य रत्नों की अपेक्षा बहुत कम होती है. यमन के अकीक मुंबई आदि स्थानों में आज भी प्रसिद्ध है.
फेरू ने रत्नों के मूल्य के विषय में कहा है कि किसी भी रत्न का मूल्य बंधा हुआ नहीं है. यह नजर पर आधारित है. अल्लाउद्दीन के समय में रत्नों के जो दाम और तौल प्रचलन में थे, वही अपने ग्रन्थ में उद्धृत किये हैं. उन्होंने हीरा,
ा और माणिक का मूल्य सुवर्णमुद्रा में कहा है. रत्नों की सबसे बड़ी तोल एक टांक और सब से छोटी तोल एक गुंजा प्रमाण बताई गई है. फेरू की रत्नपरीक्षा से यह ज्ञात होता है कि सभी रत्नों में हीरे का मूल्य सबसे अधिक था, जो आज भी है. हीरा जैसे-जैसे वजन में भारी होता है, वैसे-वैसे उसका मूल्य बढ़ता जाता है. परन्तु यह बारह रत्ती प्रमाण तक ही माना जाता है. तेरह रत्ती से लेकर एक-एक रत्ती तोल बढ़ने पर कीमत दूगुनी मानी जाती है. हीरे के बाद माणिक का दाम दूसरे स्थान पर, मोती तीसरे और पन्ना चौथे क्रम में आता था. वज्र, मोती, माणिक, मरकत, लाल, लहसुनिया, इन्द्रनील, फिरोजा, गोमेद, स्फटिक, भीसम, कर्केतन, पुंसराय और वैदूर्य, इन रत्नों में से प्रत्येक का मूल्य सुवर्ण या रजत टंककों में पाया जाता है. ___ तौल के विषय में फेरू ने तीन राई का एक सरसों माना है. छः सरसों का एक तंडुल और दो तंडुल का एक यव लिखा है. सोलह यव और छ: गुंजा प्रमाण एक मासा माना है तथा चार मासा का एक टंक बताया है. अन्त में उन्होंने
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