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________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक और सीने में भी मरकतमणि होती है. जबकि बुद्धभट्ट ने इसे समुद्रतट, रेगिस्तान और पर्वतस्थानीय बताया है. वही अगस्ति के अनुसार पर्वत समुद्र किनारा और तुरुष्कदेशीय कहा है. इससे यह ठीक से पता चलता है कि रत्नविदों के अभिप्राय से पन्ना समुद्र किनारों और रेगिस्तानवर्ती देशों में पाया जाता होगा. गरुडोदगार, कीडउठी, वासउती, मूगउनी और धूलिमराई ये पांच जातियाँ है, गरुडोद्गार रम्य, नील, अमल, कोमल और विषहर होता है. कीडउठी सुखकर, स्निग्ध और स्वर्ण जैसी कान्तिवाला होता है. वासवती पन्ना सरुक्ष, नीलवर्ण, हरितवर्ण और सूकर के पुच्छ के समान स्निग्ध होता है. मूगउनी काठिन्ययुक्त, कषने पर हरताल की तरह सुस्निग्ध होता है तथा धूलमराई जाति का पन्ना गुरुतायुक्त और कषने पर नीलाभ कान्तिवाला होता है. नीलमणि (नीलम)- फेरू ने इसकी उत्पत्ति सिंहलद्वीप तथा चण्डेश्वरने सिंहलद्वीप के साथ कर्लिंगदेशोदभव भी माना है, जो सिंहल से उतरती श्रेणि का होता है. फेरू के मत से नीलमणि के चार वर्ण, छ अथवा (नौ) दोष, पाँच गुण और नौ छाया होती है. श्वेत नीलाभ ब्राह्मण, नीलारुणाभ क्षत्रिय, पीताभ वैश्य और घननीलाभ शूद्र जाति का होता है. अभ्रक, मंदिस (भद्दापन), कर्कर, सत्रास, जठर, पथरीला, मल, सगार (मिट्टी) और विवर्ण ये नौ दोष होते हैं. अभ्रक दोष से धनक्षय, कर्कर से व्याधि, मंदिस से कुष्ट, पाषाणिक से शस्त्रघात, विभिन्न वर्ण से सिंहादि भय, सत्रास दोष से बंधुवध और समल सगार जठर दोषों से मित्रक्षय होता है. गुरुता, सुरंग, सुस्निग्ध, कोमल और द्युति-कान्ति ये पाँच गुण होते है. __ठक्कुर फेरू कथित पाँच महारत्नों का अन्य सभी विद्वानों के साथ मेल खाता है, परन्तु उपरत्नों के विषय में फेरू का मत भिन्न है. उसने विद्रुम, लहसुनिया, वैदूर्य और स्फटिक उपरत्न गिनाकर इनके साथ पुष्पराग, कर्केतन और भीसम को अभिष्ट मानकर इन सबका संक्षिप्त परिचय दिया है. जबकि बुद्धभट्ट के मत से वैदूर्य, कर्केतन, स्फटिक (पुलक) और विद्रुम ये चार ही उपरत्न है. उसने इन चारों का सारभूत वर्णन कर ग्रन्थ समाप्त किया है. इन दोनों के परवर्ति चण्डेश्वर ने गोमेद, स्फटिक, भस्मांगक मणि, गारुडोदगार, तार्क्ष्यमणि, गरुड़मणि, आस्तिक मणि और सुवर्णरेखा मणि का वर्णन करके वैदूर्य और प्रवाल का वर्णन किया है. _ विद्रुम (मूंगा) - ठक्कुर फेरू के मतानुसार से मूंगे की उत्पत्ति कावेरी, विंध्यपर्वत, चीन, महाचीन, समुद्र किनारा और नेपाल देश है. मूंगा वल्ली के रूप में उत्पन्न होता है और कंदनाल की तरह कोमल और अत्यन्त रक्तवर्णी होता है.. ____ अर्थशास्त्र के अनुसार मूंगा आलकंद और विवर्ण (समुद्र) से आता था. अगस्ति मत के अनुसार इसे हेमकंद पर्वत की खारी में झील से उत्पन्न होना माना गया है. अन्य प्राप्तिस्रोत में सिसली, कोर्सिका, सार्जीनिया, नेपल्स के पास लेगहार्न और जेनेबा अलजीरिया आदि भी थे. मार्कोपोलो के अनुसार तिब्बत में मूंगे की खूब मांग थी. प्लीनी के मत से भारत मूंगे। का अच्छा बाजार था. भूटान और असम भी मूंगे के खरीदार थे. ___लहसुनिया - ठक्कुर फेरू के अनुसार यह नीला, पीला, लाल और श्वेत रंगी होता है, यह सिंहल द्वीप से आता है. लहसुनिया यदि दोषरहित, स्वच्छ तथा बिलाड़ की आँखों जैसा हो तो वह नवग्रह के रत्नतुल्य माना जाता है. इसे पुलकित भी कहते हैं. दरियाई लहसुनिया बाघ की आँख के समान पीतवर्णी होता है. जबकि स्फटिक लहसुनिया भी इसी का एक भेद माना जाता है. वैदूर्य - फेरू ने इसका उत्पत्ति स्थान कुवियंग देश के संनिकट विदूर पर्वत और इसका वर्ण बांस के पत्ते जैसा हरित वर्णवाला माना है. फेरू ने वैदूर्य और लहसुनिया को भिन्न माना है, जबकि बुद्धभट्ट और चण्डेश्वरने उसे एक ही रत्न माना है. बुद्धभट्टने नेत्रदलप्रकाश और चण्डेश्वर ने 'मार्जारनेत्रसंकाशम्' कहकर ऐक्यता दर्शायी है. स्फटिकरत्न - फेरू ने इसका उत्पत्तिस्थल नेपाल, कश्मीर, चीन, कावेरी, यमुनानदी और विंध्यगिरि माना है. रविकान्त और चन्द्रकान्त इसके दो प्रकार हैं. रविकान्त से अग्नि और चन्द्रकान्त से अमृत समान जल का स्राव होता है. बुद्धभट्ट ने इसे पुलकरत्न से संबोधित किया है. उसके मत से यह रत्न पुण्यभागी पर्वतस्थान, पवित्र नदियों में तथा अन्य स्थानों से प्राप्त होता है. गुंजादल, द्राक्ष और कमलदण्ड के समान वर्णवाले स्फटिक चार प्रकार के माने गए हैं- बिल्वफल, 119
SR No.525262
Book TitleShrutsagar Ank 2007 03 012
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2007
Total Pages175
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size32 MB
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