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पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान
महोत्सव विशेषांक
कुछ विशिष्टता पूर्ण है. इसका प्रमुख कारण तो यह है कि यह ग्रन्थ प्राकृत भाषाबद्ध है तथा दूसरी बात कि पूर्वशास्त्रों का अभ्यास कर उसमें अपने प्रत्यक्ष अनुभवों का भी उल्लेख किया गया है. प्राचीन रत्नपरीक्षा संबंधी परंपरा का जतन करते हुए फेरू ने अपने समय के माप-तोल तथा मूल्य बताया है.
रत्नों के विषय में सर्वांगपूर्ण जानकारी जैन श्रावक ठक्कुर फेरू ने अपने रत्न परीक्षा में इस प्रकार दी है.
वज्र (हीरा)- हेमवन्त, सुर्पारक, कलिंग, मातंग, कौशल, सौराष्ट्र तथा पांडुर प्रदेशों में और वेणुनदी में उत्पन्न होता है. इसमें भी कौशल और कलिंग के वज्र ताम्राभ हेमवन्त और मातंग के श्वेत व पांडू होते हैं. सौराष्ट्र के नील और वेणुनदी तथा सुरिक के हीरे श्यामवर्णी होते हैं. वज्र खदान से प्राप्त होता है, उस अवस्था में षट्कोण, अष्टफलक और बारह धारवाला होता है. श्वेताभ ब्राह्मण, रक्ताभ क्षत्रिय, पीताभ वैश्य और कृष्णाभ शूद्रक जातिय होता है. चारों वर्णोंवाले वज्र में राजा को अरुणाभ हीरा श्रेयस्कर होता है. शेष स्व-स्व वर्णवाले को धारण करने के लिए हितकर है. तीक्ष्ण धारवाला हीरा पुत्रार्थी स्त्रीजनों के लिए हानिकारक होता है. परन्तु चप्पड़िक मलिन और तीकोनाकार हीरा स्त्रीजनों को सुख देनेवाला कहा है.
श्रेष्ठ प्रकार का हीरा जहाँ होता है, वहाँ अकाल मृत्यु, सर्प भय, अग्नि भय, व्याधि भय नहीं होते. हाथ में धारण करने से अकाल मृत्यु नहीं होती और ग्रह पीड़ा शान्त होती है. वज्र की एक और विशेषता यह है कि सभी रत्न वज्र से काटे जाते हैं, परन्तु वज्र को वज्र ही काट सकता है.
मुक्ता (मोती) - मोती चन्द्र ग्रह का रत्न है. ये आठ प्रकार के होते हैं- मेघमुक्ता, गजमुक्ता, मत्स्यमुक्ता, सर्पमणि, वंशमोती, शंखमुक्ता, सूकरमुक्ता और शुक्तिमुक्ता मोती. वंशमुक्ता और मेघमुक्ता को छोड़कर शेष छ: मोती तिर्यंचों से उत्पन्न होते है. इनमें मात्र शुक्तिमुक्ता मोती सुलभ है, बाकी दुर्लभ माने गये हैं.
मेघमुक्ता - रात्रि के अंधकार को दूर करने वाला द्युतिमान मेघमुक्ता, जहाँ होता है, वहाँ अशुभ नहीं होता. गजमुक्ता - हाथी के गंडस्थल से उत्पन्न पाण्डुरवर्णी, गजमुक्ता दुर्लभ और राज्य सुख देनेवाला है. चिन्तामणीरत्न - वर्षा की बूंद धरती पर आने से पहले ही हवा में सूख जाय तो चिन्तामणीरत्न बन जाता है. मत्स्य मोती - मछली के मुँह से उत्पन्न, शत्रुभय, चोरभय, डाकिनी-शाकिनी आदि के भय का नाशक है, वंश मोती - जलीय वनप्रदेश के बांस की गांठ में उत्पन्न हरे वर्णवाला यह मोती अत्यन्त दुर्लभ है. शंखमोती - महासमुद्र में शंख से उत्पन्न अरुणाभ, मांगल्य को देनेवाला, शंखमुक्ता प्रायः दुर्लभ होता है. शूकरमोती - वर्तुलाकार, घृतवर्णी यह मोती जिसके पास होता है, वह इन्द्र से भी पराजित नहीं होता. सर्पमणि - लक्ष्मी का स्वरूप, कान्तियुक्त, नीलवर्णी, जिसके प्रभाव से सर्प उपद्रव आदि दूर होते हैं. शुक्तिमुक्ता- सीप से प्राप्त होने वाला यह मोती वेध्य होता है.
माणिक- पद्मराग, सौगंधिक, नीलगंध, कुरुविंद और जामुनियाँ, माणिक की ये पाँच जातियाँ हैं. माणिक की अनेक जातियों में बर्मी सर्वोत्तम होते हैं. यह रत्न वर्तमान में हीरे से भी अधिक मूल्यवान है. उत्तम कोटि का माणिक कबूतर के रक्त जैसे रंगवाला होता है.
पद्मराग - सूर्यकिरणों जैसी कान्ति, सुस्निग्ध, कोमल तथा तप्त सुवर्ण की भांति गुणयुक्त होता है. सौगंधिक - पलास के फूल, अनार के दाने, कोयल, सारस तथा चकोर की आंख के रंग जैसा होता है. नीलगंध - कमल, आलता, मूंगा व हिंगूल के समान रंगवाला नील आभायुक्त नीलगंध है. कुरुविंद - पद्मराग और सौगंधिक जैसा ही अनेक रंगी कुरुविंद होता है, जामुनिया - जामूनी और कनेरपुष्प के रंग जैसी रक्तकान्तिवाला होता है. मरकतमणि (पन्ना)- फेरू के मतानुसार पन्ने की उत्पत्ति अलविंद, मलयाचल, बर्बर और समुद्रतट है. गरुड़ के कंठ
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