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पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान
महोत्सव विशेषांक
ठक्कुर फेरू कृत रत्नपरीक्षा ग्रंथ : एक परिशीलन
मनोज र. जैन, कोबा .....बहुरत्ना वसन्धरा' इस पृथ्वी पर कई प्रकार के रत्न भरे पड़े हैं, जो देखने में तो सामान्य पत्थर जैसे लगते हैं, परन्तु मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन को परिवर्तित कर देने की क्षमता रखते है. पृथ्वी पर सबसे अधिक मूल्यवान होने के कारण रत्नों के प्रति लोगों को अधिक आकर्षण होता है तथा संपत्ति के रूप में इसकी लोकप्रतिष्ठा प्राचीन काल से चली आ रही
रत्न शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है - 'रमन्ते अस्मिन् जना इति रत्नम्' जिसमें व्यक्ति आसक्त अथवा तल्लीन बन जाता है, उसे रत्न कहते है.
रत्नों के कई भेद प्रभेद हैं. परन्तु मुख्यतया मौक्तिक-मोती, मरकत-पन्ना, वज्र-हीरा, प्रवाल-विद्रुम, वैदूर्य-लहसुनिया, नील-नीलम (इन्द्रनीलमणी), माणेक-चुन्नी, गोमेद-पीला हीरा और पुष्पराग-पोखराज इन नवरत्नों का प्रचलन सुविख्यात है.
भारतीय मनीषियों का मानना है कि हीरा, माणेक, मोती, विद्रुम, पन्ना, पोखराज, नीलम, गोमेद और वैदूर्य, इन प्रधान रत्नों की उत्पत्ति क्रमशः सूर्यादि नव ग्रहों के कारण हुई है. पृथ्वी के जिन भागों पर ग्रहों की किरणें साक्षात् पड़ती हैं, उन ग्रहों के विशेष तत्वों का संपात होने के कारण पृथ्वीतल में सतत रासायणिक प्रक्रिया होने से इन रत्नों का निर्माण होता है. इसिलिए जिस ग्रह के जैसे रंग का वर्णन ज्योतिषग्रन्थों में पाया जाता है, प्रायः उस ग्रह के रत्नों का रंग भी वैसा ही होता है. इसलिए इन रत्नों में उन ग्रहों की विशेष शक्ति संग्रहित रहती है, जो रत्न धारण करनेवालों के लिए अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव देने में सक्षम बनती है.
जैन शास्त्रों में रत्नों का उल्लेख भगवान ऋषभदेव के समय से ही पाया जाता है. उत्तराध्ययनसूत्र, भगवतीसूत्र, राजप्रश्नीयसूत्र जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र व ज्ञाताधर्मकथा के सत्रहवें अध्ययन, में रत्नों के विषय में चर्चा की गई है. प्रत्येक तीर्थंकर की माता चौदह स्वप्नों में एक रत्नराशि भी देखती है.
वराहमिहिर, अगस्ति, बुद्धभट्ट आदि रत्नशास्त्रकारों ने रत्नों की उत्पत्ति बल नामक दानव से मानी है. श्रीमाल वंशोद्भव चन्द्र के पुत्र ठक्कुर फेरू ने भी इसी लोकश्रुति का अनुवाद किया है. अन्यमत से दधीचि ऋषि के द्वारा रत्नोत्पत्ति माना गया है. पृथ्वी से स्वाभाविक रूप से ही रत्नों की उत्पत्ति हुई ऐसा मत भी है.
रत्नों का व्यवहार कब से प्रारंभ हुआ यह कहना तो कठिन है फिर भी हम कह सकते हैं कि रत्न विषयक सबसे प्राचीन ग्रन्थ हमारे भारत में निर्मित हुए हैं. वराहमिहीर, अगस्ति, बुद्धभट्ट और ठक्कुर फेरू के रत्न परीक्षा ग्रन्थ प्रमाणभूत माने गए हैं. ऋग्वेद और अथर्ववेद में भी रत्नों के उल्लेख हए है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजकीय कोशागार में रखने योग्य रत्नों की परीक्षा का अधिकार आता है. इस प्रकार रत्नों के लिए हमारे पूर्वजों ने काफी अनुभव पूर्ण वर्णन किया है.
भारत सदियों से रत्नों का व्यापारी केन्द्र रहा है. अपने अनुभवों के आधार पर भारतीय जौहरियों ने रत्नों की लेन देन व उसकी सच्चाई परखने हेतु रत्न परीक्षा के ग्रन्थ बनाए हों, ऐसा कहा जा सकता है. जिसमें रत्नों की खरीद-बिक्री, नाम, जाति, आकार, घनत्व, रंग, गुण, दोष तथा मुल्य इत्यादि का सांगोपांग निरुपण किया गया होगा. रत्नविदों का मानना है कि जिन दो तत्वों को पृथ्वी के मुख्य तत्व माने जाते हैं, वे अग्नि व सोम (पानी) नामक दोनों तत्व इन रत्नों में भी मुख्य रूप से अपेक्षित होते हैं. इसीलिए आग व पानी से ही रत्नों की पहचान होती है.
वराहमिहिर, अगस्ती एवं बुद्धभट्ट से परवर्ती और अल्लाउद्दीन खिलजी (१२९६-१३१६) के शाही खजाने के मन्त्री, धंधकुलोत्पन्न, कन्नाणपुर वास्तव्य श्रेष्ठि श्री चन्द्र फेरू के पुत्र ठक्कुर फेरू का रत्नपरीक्षा ग्रन्थ दूसरे तद्विषयक ग्रन्थों से
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