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________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक जैन श्रेष्ठि आशीष शाह समृद्धिशालि शालिभद्र __ पूर्व भव में तपस्वी साधु को उत्कृष्ट भाव से दी खीर के पुण्य से हर रोज उपभोग के लिए देवलोक में से ९९ पेटी आती थी. जिसमें ३३ पेटी वस्त्रों से, ३३ पेटी अलंकारों से व ३३ पेटी विविध खाद्य पदार्थो से भरी हुई रहती थी. एक बार पहने हुए वस्त्र या अलंकार दूसरी बार कभी नहीं पहनते थे. जिसकी एक कंबल भी मगध सम्राट श्रेणिक न खरीद सके, वैसी १६ रत्नकंबल भद्रा माता ने खरीद कर अपनी ३२ पुत्रवधूओं को नहाने के बाद पैर पोंछने के लिए दी. इतनी समृद्धि होने के बावजूद भी नित्य जिनपूजा करते थे. अंत में संसार की असारता को समझकर भगवान के पास दीक्षा ग्रहण कर उत्कृष्ट संयम का पालन किया. पुणिया श्रावक भगवान की देशना सुनकर अपनी सर्व संपत्ति का त्याग कर दिया था. दो आदमी का गुजारा हो सके, उतना ही प्रतिदिन धन कमाते थे. उससे ज्यादा की अभिलाषा नहीं रखते थे. प्रतिदिन एक साधर्मिक को भोजन करवाने का नियम था और घर में सिर्फ दो व्यक्ति खा सके, उतना ही भोजन रहता था. अतः श्रावक-श्राविका में से कोई एक उपवास करता था और उसके भोजन से साधर्मिक भक्ति करते थे. जगडुशा कच्छ के भद्रेश्वर शहर का निवासी श्रीमाळी जैन श्रावक, राजा वीसलदेव के समय में सं. १३१२ से १३१५ का त्रिवर्षीय दुष्काल में सिंध, गुजरात, काशी आदि देश में भरपूर अनाज देकर दानशालाएँ खोली और तीन साल के अकाल का संकट निवारण किया. अति धनवान होने के साथ-साथ साहसी, वीर, धर्मनिष्ठ और दीन-दुखिओं के उद्धारक थे. जैनों के प्रमुख तीर्थ शत्रुजय व गिरनार के संघ निकाल कर नये जैन मंदिर बनाये और पुराने मंदिरों का जीर्णोद्धार करके जैन धर्म की सेवा की. कर्माशा कर्माशाह कपडे के बड़े व्यापारी थे. चितौड के ओसवंश की वृद्ध शाखीय तोलाशाह (मेवाड के महाराणा सांगा के परममित्र) के पांच पुत्रों में सबसे छोटे कर्माशा बुद्धि, विनय, विवेक के कारण श्रेष्ठ और ख्यातिमान थे. तोलाशाह के द्वारा आचार्यदेव से यह पूछने पर कि ‘समराशाह के द्वारा सं. १३७१ में शत्रुजय पर स्थापित बिंब, जिसका मस्तक म्लेच्छों ने खंडित कर दिया है, का पुनः उद्धार करने का मनोरथ सिद्ध होगा या नहीं?' सूरिजी ने बताया कि 'तेरा पुत्र कर्माशाह वह उद्धार करेगा.' सं. १५८७ में शेठ कर्माशाह ने शत्रुजय की खंडित प्रतिमा का सोलहवाँ उद्धार किया. उन्होंने महामात्य वस्तुपाल के द्वारा रखवाए मम्माणी पाषाण खंडो को भूमिगृह से निकालवाये और वाचक विवेकमंडन व पंडित विवेकधीर के निर्देशन में उसकी प्रतिमा कराकर विद्यामंडनसूरि के पास प्रतिष्ठा करवाई. 106
SR No.525262
Book TitleShrutsagar Ank 2007 03 012
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2007
Total Pages175
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size32 MB
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