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२. विद्या
३. कृषि -
४. पशुपालन५. शिल्प
वैद्यक- ज्योतिष आदि से धनार्जन. वर्तमान में सी.ए., एडवोकेट आदि के बौद्धिक
व्यवसाय.
प्राचीन समय से श्रेष्ठ व्यवसाय माना गया है.
गाय, भैंस, बकरी, ऊँट, बैल, हाथी इत्यादि का पालन.
शिल्प सौ प्रकार का है. कुम्हार, लुहार, चित्रकार, जुलाहा और नापित आदि उत्पादन व हुनर संबंधी.
राजा, शेठ आदि मालिक की सेवा.
भिक्षा से जीवन यापन.
पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान • महोत्सव विशेषांक
६. सेवक
७. भिक्षा
जिस कार्य में आरंभ समारंभ (हिंसा) ज्यादा हो या न्याय-नीति का पालन अशक्य- दुष्कर हो, ऐसी अर्थोपार्जन की प्रवृत्ति विवेकीजनों के लिये उचित नहीं है. अर्थात् त्याज्य है.
संदर्भ- नीतिवाक्यामृतं, धर्मबिन्दु प्रकरण, श्राद्धविधि प्रकरण, अर्हन्नीति.
प्राचीन व्यापार के विशिष्ट प्रकार
कुत्रिकापण- तीनों लोक में उत्पन्न होने वाली सजीव, निर्जीव हर एक वस्तु जहाँ से मिल सके ऐसी देवाधिष्ठित दुकान. (संदर्भ:- भगवती, अंतकृद्दशांग, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशांग)
सार्थवाह- जिस को आज की भाषा में मोबाईल मल्टी मेगा मोल कहा जा सकता है.
अर्थ पुरुषार्थ विषयक सूत्र एवं अर्थ
'न्यायोपात्तं हि वित्तमुभयलोकहिताय' न्याय से प्राप्त धन इहलोक एवं परलोक दोनों में सुख देनेवाला होता है. 'सोऽर्थस्य भाजनं योऽर्थानुबन्धेनार्थमनुभवति'
(धर्मबिंदु प्रकरण अ. १ सूत्र ४)
(नीतिवाक्य. अर्थ समु. सूत्र २)
धनी वह होता है जो अप्राप्त धन को प्राप्त करके प्राप्त धन की वृद्धि से अर्थ का उपभोग करता है. 'अतिव्ययोऽपात्रव्ययश्चार्थं दूषणम्'
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(नीतिवाक्य. व्यसन समु. सूत्र १९ )
अत्यंत व्यय करना और निषिद्ध कार्यों में धन का व्यय करना अर्थ के पाप है.
निंद्ये बाह्ये महानर्थकारणे मूर्छिता धने । शून्यास्ते दानभोगाभ्यां, ये पुनः क्षुद्रजन्तवः ।। इहैव चित्तसंतापं, घोरानर्थपरंपराम् । यत्ते लभन्ते पापिष्ठास्तत्र, किं भद्र ! कौतुकम् ? ।।
(उपमिति)
दान और भोग से रहित जो क्षुद्र जीव निंद्य और महा अनर्थ के कारणभूत धन में मूर्छा करते हैं वे निसंदेह इसी भव में चित्त के संताप को और घोर अनर्थों की परंपरा को प्राप्त करते हैं.
योजयन्ति शुभे स्थाने, स्वयं च परिभुञ्जते । न च तत्र धने मूर्छामाचरन्ति महाधियः ।। ततश्च तद्धनं तेषां सत्पुण्यावाप्तजन्मनां । इत्थं विशुद्धबुद्धीनां, जायते शुभकारणम् ।।
(उपमिति)
इससे विपरीत बुद्धिमान पुरुष धन में मूर्छा नहीं करते हुए शुभ स्थान में व्यय करता है और स्वयं उसका उपभोग भी करता है. अतः ऐसा धन विशुद्ध बुद्धि वाले जीवों को शुभ का कारणभूत होता है.