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पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान
महोत्सव विशेषांक
स्थापना में साणंद संघ का सबसे मुख्य सहयोग रहा है. साणंद श्रीसंघ का साथ न होता तो शायद मधुपुरी में तीर्थ न बनता.
जब महुडी में आचार्यश्री को प्रथम बार श्री घंटाकर्ण वीर की मूर्ति स्थापित करने की प्रेरणा हुई तब उस मूर्ति को बनवाने की पूर्ण जिम्मेदारी आचार्यश्रीने इन्हीं प्रौढ़ श्रावक श्रीमान् दलसुखभाई महेता को सौंपी. तीन दिन तक जयपुर में रहकर श्री दलसुखभाईने आचार्यश्री की दिव्य प्रेरणानुसार मूर्ति का निर्माण कराया था. पूज्य आचार्यश्री की श्री दलसुखभाई पर इतनी कृपा दृष्टि थी कि उन्होंने स्वयं एक छोटी सी श्री घंटाकर्ण की छवी आशीर्वाद के रूप में उनको अर्पित की थी. जो आज भी साणंद के जिनालय में दर्शनार्थ लगाई गई है.
योगनिष्ठ पूज्यश्री के अनन्य भक्तों की पंक्ति में दलसुखभाई महेता का नाम अग्रगण्य था. जब भी कोई शासन का प्रश्न उठता तो श्री महेता आचार्यश्री के समर्थन में हमेशा अडिग रहते थे. आचार्य श्रीमद् के प्रति आपकी आस्था और गुरुभक्ति अनन्य कोटि की थी. ऐसे परिवार में सात भाई व तीन बहनों में सबसे छोटे अवंतिकुमार को माता-पिता व सभी भाई-बहनों का लाङप्यार मिल रहा था, संसार की समस्त सुख-सुविधाएँ बालक के चारों ओर घूम रही थी, बालपन सुखमय व्यतीत हो रहा था, किन्तु शांत प्रकृति अवंतिकुमार का मन सांसारिकता से अध्यात्म की ओर प्रेरित हो रहा था. वीतराग का कल्याणकारी संयम मार्ग उनके हृदय को भा गया. मन में चारित्र की एक ही लगन अंकुरित होने लगी.
विद्यानुरागी अवंतिकुमार ने प्राथमिक शिक्षा साणंद शहर के शेठ सी. के. हाईस्कूल में तथा अहमदाबाद शाहपुर के ज्ञानयज्ञ विद्यालय से नौवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की. विद्यार्जन की लगन ने आपको अपने सहपाठियों व गुरुजनों का प्रियपात्र बना दिया. लौकिक शिक्षा प्राप्त करने के क्रम में आप आध्यात्मिक शिक्षा भी प्राप्त करते रहे. अपने भाई-बहनों व मित्रों के साथ खेलने में नेतृत्व करते व सभी को अच्छी-अच्छी बातें बताते और पढने के लिए प्रेरित भी करते. वे गुण आज भी पूज्यश्री की विशिष्टता के परिचायक हैं. व्यावहारिक शिक्षा के साथ साथ धार्मिक क्रिया कलापों में भी आपकी
अभिरुचि रहती. माता-पिता के संस्कार स्वतः ही बालक में दृष्टिगत होने लगे. वैराग्यशील आत्मा संयम धारण करने के लिए आतुर होने लगी. पूर्वजन्म में अभ्यस्त त्याग और वैराग्य सहज में प्रकट होने लगे. माता-पिता की भी ऐसी भावना थी ही कि उनकी एक संतान तो आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी की परम्परा में संयम ग्रहण कर प्रभु शासन को समर्पित हो. उनकी यह भावना भी आगे जा कर अवंतिकुमार के दीक्षा ग्रहण के लिए बडी निर्णायक सिद्ध हुई.
पिता श्री दलसुखभाई और माता शांताबेन ने अपने लाडले १७ वर्षीय अवन्तिकुमार को जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने के लिए पूज्य योगनिष्ठ आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी की पाट परम्परा में जिनके करकमलों से महान शासन प्रभावना होगी ऐसे लक्षण देखकर पूज्य गुरुदेव श्री पद्मसागरसूरिजी के श्रीचरणों में अपने कुल दीपक को समर्पित कर शासन प्रभावना व गुरुपरम्परा के प्रति आस्था का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत किया.
जिनकी विशिष्ट कृपादृष्टि महेता परिवार पर जीवनपर्यन्त रही. ऐसे परम पूज्य प्रशान्तमूर्ति आचार्य श्री कीर्तिसागरसूरीश्वरजी ने अपने वरदहस्तों से पूज्य आचार्य श्री कैलाससागरसूरिजी की पावन उपस्थिति में मार्गशीर्ष शुक्ला ४, विक्रम संवत् २०२५, दिनांक २३ नवम्बर, १९६८ को अहमदाबाद अरुण सोसायटी में मुमुक्षु अवंतिकुमार को भागवती दीक्षा
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पाँच इन्द्रियों के विषयों को रोकनेवाले, नव प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्ति के धारक, चार कपाय से रहित, पंच महाव्रत युक्त, पंचाचार पालक, पाँच समिति से समित एवं तीन गुप्ति के धारक
आचार्यों को भावभरी वंदना.
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भरतभाई के. शाह परिवार, सहयोग ग्रूप, पूना
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