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पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान
महोत्सव विशेषांक
पद्मसागर की एक बूंद
अमृतसागर
पं. मनोज र. जैन, डॉ. हेमन्तजी कैलास से सागर तक प्रवाहित कल्याण गंगा की निरंतर बहती धारा को अपने में समाहित किए पद्मसागर की एकएक बूंद जिनभक्ति-गुरुभक्ति की अनन्य सेवा में तल्लीन है, उस पद्मसागर की एक बूंद अमृत का पान कर जन-जन के हृदय में प्रभुभक्ति-गुरुभक्ति का रसास्वादन कराते हुए संयम एवं तपश्चर्या के उस शिखर को प्राप्त कर रही है, जिसे प्राप्त करने की भावना सभी श्रमणों के मन में होती है. वर्तमान में सागरसमुदाय के तप-जप मौन साधना के उच्चसाधक पूज्य पंन्यास श्री अमृतसागरजी आज अपनी आराधना एवं योग्यता के बल से श्रमण परम्परा के गरिमापूर्ण पद 'आचार्य पदवी' से अलंकृत हो रहे हैं. आपश्री को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होते देख कर जैन समाज गौरव का अनुभव कर रहा है.
मनोविज्ञान का कहना है, कि व्यक्ति हृदय में जैसे भाव होते हैं, वे ही भाव उसके चेहरे पर भी पढे जा सकते हैं. व्यक्ति के हृदय में उत्पन्न होनेवाले भाव उसके मुख पर उभरते हैं. व्यक्ति का चेहरा पुस्तक के पृष्ठ के समान होता है, जिसे कुशल
ठीक उसी तरह चेहरे के भावों को पढ़ने में समर्थ पूज्य गुरुदेव, राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. (तत्कालीन मुनि श्री पद्मसागरजी) ने अवन्तिकुमार के चेहरे का भाव पढकर ही दीक्षा के समय उनका नामकरण मुनि अमृतसागर किया था. 'यथा नाम तथा गुण' की कहावत को चरितार्थ करते हुए पूज्यश्री की हित-मितपथ्यकारी वाणी के प्रभाव से कई लोगों ने सन्मार्ग ग्रहण किया है. आपकी भावना यही रहती है कि मानव समुदाय नीतिमान और आराधक बने. आप मानव-समाज का कल्याण करने में सदैव तत्पर रहते हैं..
जैन धर्म और संस्कृति के केन्द्र समान गुजरात के साणंद नगर में वैशाख कृष्ण १३, विक्रम संवत् २००८ दिनांक २२ मई, १९५२ के दिन पुण्ययोग से सागरसमुदाय के अनन्य गुरुभक्त ऐतिहासिक 'चांदा मेहताना टेकरा' में रहने वाले शेठ श्रीमान दलसुखभाई गोविंदजी मेहता के घर संघमाता तुल्य श्रीमती शांताबेन की रत्नकुक्षी से एक तेजस्वी बालक ने दशवीं संतान के रूप में जन्म लिया. जिनशासन व सुविहित गुरु परम्परा में समर्पित पिता व माता ने जिनशासन के भावि जाज्वल्यमान नक्षत्र का नाम अवंतिकुमार रखा. आपका जन्म जिस परिवार में हुआ उस परिवार की सागरसमुदाय के प्रति
ण भावना हम सभी के लिये गौरव लेने योग्य है. बीसवीं सदी के महान योगनिष्ट आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरजी के प्रति श्रीमान दलसुखभाई की गुरुभक्ति सर्वविदित रही है. उस जमाने में कुछेक अल्पमति दृष्टिरागी लोग साणंद में पूज्यश्री को उपद्रव करने लगे थे. उस समय आचार्यश्री के साथ रहकर आपने अनुकरणीय नैतिक सहयोग दिया था. आचार्य श्री की अमीदृष्टि उनके जीवन की मूल्यवान पूंजी थी.
साणंद का श्री संघ भी पूज्य आचार्यश्री के प्रति आदर बहुमान करनेवाला था. आज के प्रसिद्ध तीर्थधाम महुडी की
जैसे एक दीपक सैकडों दीपकों को प्रज्वलित करता है उसी प्रकार स्वयं को ___एवं अन्य अनेकों को प्रतिबोधित करनेवाले आचार्यों को भावभरी वंदना.
सौजन्य गोळावाला डायमंड, मुंबई हस्ते अमृतलाल मोहनलाल शाह
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