SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक काष्ठपट्टिका रखकर मजबूती से बिना गाँठ से बाँधा जाता था. कागज की पोथियों की सुरक्षा के लिये ग्रंथ के दोनों ओर काष्ठ या गत्ते द्वारा निर्मित आवरणों का प्रयोग किया जाता था. जिन पर सुन्दर सुशोभन चित्र जैसे चौदह स्वप्न, अष्टमंगल, नेमिनाथ स्वामी की बारात, तीर्थंकरों के चित्र, उपदेश-श्रवण आदि का अंकन किया जाता था. आर्द्र वातावरण, धूल, कीट आदि से सुरक्षित रखने के लिये इन पोथियों को वस्त्र के बस्ते में लपेटकर रखी जाती थी. इन पोथियों को अधिक सुरक्षा प्रदान करने हेतु काष्ठमंजुषा में रखी जाती थी. जिन पर भी सुंदर चित्रकारी की जाती थी. ग्रंथों को हानिकारक कीट आदि से सुरक्षा हेतु कुछ पारंपरिक औषधियों का भी उपयोग किया जाता था. जैसे कि सांप की केचुली, तम्बाकु के पत्ते, नीम के पत्ते, घोड़ावज इत्यादि. जैन धर्म में ज्ञानपंचमी का पर्व सुरक्षित पोथियों की साफ-सफाई से जुड़ा है जो कार्तिक शुक्ल पंचमी के दिन मनाया जाता है. इस समय वातावरण में आर्द्रता न होने के कारण ग्रंथो की सफाई के अनुकूल होता है. इस दिन शास्त्रपूजन की परंपरा जैन समाज की ज्ञान के प्रति उत्कृष्ट भावना को दर्शाती है. इस अनूठी परंपरा के कारण आज तक जैन ज्ञानभंडार सुरक्षित रह पाये हैं. प्राचीन विद्वानों ने पोथी सुरक्षा हेतु कुछ श्लोंकों की भी रचना की थी जो प्रायः ग्रंथ के अंत में लिखे जाते थे. जिससे पाठक बार-बार स्मरण करता रहे. उदकानल चोरेभ्यो, मूषकेभ्यो तथैव च, अग्नेरक्षेज्जलाद् रक्षेत्, रक्षेत् शिथिल बंधनात्. कष्टेन लिखितं शास्त्रं, यत्नेन परिपालयेत्, मूर्ख हस्ते न दातव्यं, एवं वदति पुस्तिका..१.. सुलेखन कला जैन लिपिकार आलेखन के साथ-साथ लेखनकला में कुशल होने से वह अपनी सूझ-बूझ से जैन प्रजा की उदारता को ध्यान में रखकर आलेखन में कई विशेष कलाओं का उपयोग करते थे. असंख्य ग्रंथों में सुलेखन कला के उदाहरण देखने को मिलते हैं जो कई ज्ञान भंडारों में विद्यमान हैं, जिसे देखने से लिपिकार की कुशलता का दर्शन होता है. आनंदघन चौवीसी सह टबार्थ १८वीं सदी ताड़पत्र जैसे माध्यम की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए अधिक से अधिक पंक्तियो का समावेश करने के लिये दो पंक्तियों के बीच का अंतर कम रखा जाता था और लिपि में आने वाले ह्रस्व, दीर्घ इ,ई, उ, ऊ की मात्रा को वर्ण के ऊपर नीचे न palanwaryaनिनिमय નવતd, લવ olહાથ ગુપ્તિ, છાત નિદાન તથા નવ પ્રકારે કર્યાવિહારની સ્વરૂપના જ્ઞાતાં માવા છીણ ગુણોથી યુકત આચાર્યોને વંદન જ સૌજળ * તનવીરકુમાર ડાયમંડ લિમીટેડ, મુંબઈ 43
SR No.525262
Book TitleShrutsagar Ank 2007 03 012
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2007
Total Pages175
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy