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________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक लिखकर वर्ण के आस-पास लिखे जाते थे. इस तरह लिखी गई लिपि को पड़ी मात्रा लिपि कहते हैं. सुलेखन के लिये लिपिकारों की आदतें भी महत्व रखती थी. कई लिपिकार लिखते समय पत्र के नीचे लेखन पाटी रखकर लिखते थे तो कई कश्मीरी लिपिकार पत्र को बिना कुछ आधार दिये लिखते थे. कई लिपिकार एक पैर पर बैठकर लिखते थे तो कई दोनों पैर के सहारे बैठकर लिखते थे. इसके अलावा लिपिकार अपनी कलम तक एक दूसरे को नहीं देते लिपिकार ग्रंथ लिखते समय लिपि के बीच-बीच में ऐसी खूबी से जगह छोडते थे जो एक आकृति का रूप धारण कर लेती थी. जिसे रिक्त स्थान चित्र कहा जाता है. इन आकृतियों में चतुष्कोण, त्रिकोण, षट्कोण, छत्र, स्वस्तिक, पेड़, विशेष व्यक्ति का नाम, श्लोक,गाथा आदि का समावेश होता है. कई लिपिकार काली स्याही से लिखे गए ग्रन्थों में विशेष वर्णों को लाल, पीली, सोनेरी, रूपेरी स्याही से लिखकर उभारते थे जिससे चित्राकृतियाँ बनती थी, जिसमें संवत, ग्रंथ के लेखक, रचनाकार, दानकर्ता नाम, कलश, फूल, ध्वज, स्वस्तिक आदि का समावेश होता है.ग्रन्थ के मध्य में छोड़ी गई जगह में, दोनों ओर के हासिये में एवं अंक स्थान में कई प्रकार के चित्र एवं फुल्लिकाएँ अलग-अलग स्याही से बनाते थे. कई ग्रन्थों में जहाँ पशु-पक्षी आदि के नाम का उल्लेख होता था उसके आसपास उनके चित्र बना दिए जाते थे. कल्पसूत्र जैसे पवित्र ग्रन्थों को स्वर्णाक्षर से लिखे जाते थे. प्राचीन काल में मूल, टीका, विवरण आदि के लिये अलग-अलग प्रतियाँ लिखी जाती थी पर अभ्यास के समय बार-बार अलग-अलग प्रतियाँ देखने की समस्या के कारण इस प्रथा को बंद कर मूल सूत्र के नीचे सूक्ष्म अक्षरों में टीका, भाष्य आदि लिखने की परंपरा शुरु हुई. सूक्ष्माक्षरी लिपि में ग्रंथ लिखे जाने लगे थे. पर्युषण जैसे महापर्व के शुभ अवसर पर बड़े अक्षरों से लिखे गए स्थूलाक्षरी ग्रंथों का उपयोग होता था, जिस में कल्पसूत्र, कालकाचार्य कथा जैसे ग्रंथों का समावेश होता है. प्रदर्शित हस्तलिखित प्रतियों में ऐसी ही विशेषताएँ हैं. (भोजपत्र के एक ही पृष्ठ श्रेष्ठि धरणाशा एवं पेथडशा मंत्री चित्र खण्ड पर अतिसूक्ष्म अक्षरों में सचित्र पाण्डुलिपियाँ लिखा हुआ पूरा कल्पसूत्र) दीवारों, काष्ठ फलकों, वस्त्रों पर चित्रांकन की परंपरा प्रारंभिक काल से प्रचलित रही है. सातवाहनकालीन अजंता की गुफा के भित्तिचित्र इस परंपरा के स्पष्ट साक्ष्य हैं. विक्रम संवत ११७ (१०६० ई.) की रची जैसलमेर की ओघनियुक्ति सब से प्राचीन उपलब्ध प्रमाण हैं, जिसके फलस्वरूप ताड़पत्रीय पाण्डुलियों पर चित्रांकन की परंपरा प्रकाश में आई है. १०वीं शताब्दी के पूर्व ही धार्मिक और साहित्यिक ग्रन्थों की सचित्र पाण्डुलियों की एक सामान्य परंपरा प्रचलित थी. प्रारंभिक पाण्डुलिपियों की चित्रशैली प्राचीनकाल से चली आ रही अजन्ता की उच्चस्तरीय चित्र-परंपरा से ली गयी थी. परंतु इसकी रचना में कहीं આયાર્યોને વંદન જયંતીલાલ નાગરદાસ શાહ, બેંગલોર 44
SR No.525262
Book TitleShrutsagar Ank 2007 03 012
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2007
Total Pages175
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size32 MB
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