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पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान
महोत्सव विशेषांक
थे. इस में चैत्यवंदन के सूत्रों का अर्थ के साथ अरिहंतों के स्वरूप, शुभानुष्ठान करने की विधि और अनेक दर्शनों का वर्णन किया गया है. चैत्यवंदन करने वालों को एक बार यह ग्रंथ अवश्य पढ लेना चाहिए.
१८. धर्मसंग्रहणी - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी रचित इस सूत्रग्रंथ के टीकाकार आ. श्रीमलयगिरिसूरिजी हैं. इस ग्रंथ में तीर्थंकर परमात्मा की महत्ता, धर्म के दो प्रकार, नास्तिकवाद का खंडन, आत्मा की सिद्धि पूर्वक अन्य मतों का खंडन, जैनागमों का प्रामाण्य, जगत्कर्तृत्वरास, एकान्त पक्ष-स्वभाव का खंडन व आत्मा शरीर प्रमाण है, ज्ञान शक्ति युक्त है इत्यादि का दार्शनिक विवेचन किया गया है.
१९. पंचवस्तु - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी ने इस ग्रंथ में श्रमण जीवन का विस्तार से वर्णन किया है. १७१४ गाथा प्रमाण ग्रन्थ में प्रव्रज्या ग्रहण करने योग्य कौन और दीक्षा देने योग्य गुरु कैसे, साधु जीवन में प्रतिदिन कौन सी आराधना कैसे करे, किस भाव से करें, जीवन के अन्त में संलेखना करने का अधिकार किसे है, संलेखना कैसे करें आदि का पक्ष-प्रतिपक्ष द्वारा रोचक ढंग से वर्णन किया गया है.
२०. पंचाशक- आ. हरिभद्रसूरिजी द्वारा रचित यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत में है. जिस में १९ पंचाशक है. इस ग्रंथरत्न में जैन आचार और विधिविधान के संबंध में अनेक गंभीर प्रश्नो को उपस्थित कर सुन्दर ढंग से समाधान किया गया है.
२१. विंशतिविंशिका - आगमोक्त अनेक पदार्थों को समाविष्ट करता यह ग्रन्थ २०-२० श्लोक प्रमाण २० विंशिकाओं में विभक्त है, चरम पुदगल परावर्त का स्वरूप, सद्धर्म का स्वरूप, श्रावक धर्म, श्रावक प्रतिमा, यति धर्म की शिक्षा, भिक्षा योग व सिद्धिसुख इत्यादि पदार्थों का संक्षेप में वर्णन किया गया है.
२२. योगशतक - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी द्वारा रचित यह ग्रन्थ योग के स्वरूप को समझाने वाला १०० गाथा प्रमाण है. योग के माध्यम से आत्मा का विकास किस प्रकार करे, आत्मा को मोक्ष के साथ योजित करना ही योग है, निश्चययोग और व्यवहारयोग की व्याख्या, चार प्रकार के योग के अधिकारी जीवों की व्याख्या, त्रिविधयोग शुद्धि की विचारणा, भय, रोग-विष के उपाय, कर्म का स्वरूप, राग-द्वेष-मोह का स्वरूप और उसके विनाश हेतु प्रतिपक्षी भावनाओं का चिन्तन, शुक्लाहार का वर्णन, मरणकाल को जानने के उपाय, मृत्युकाल जानकर सर्वभावों का त्याग पूर्वक अनशन विधि का आचरण, मुक्तिपद की प्राप्ति के उपाय आदि का सुन्दर शैली में वर्णन किया गया है. __२३. योगदृष्टि समुच्चय - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी रचित योगदृष्टि समुच्चय जैन योग की महत्त्वपूर्ण रचना मानी जाती है. योग की तीन भूमिकाओं- दृष्टियोग, इच्छायोग और सामर्थ्ययोग तथा योग के अधिकारी के स्वरूप- गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी व सिद्धयोगी इन चार प्रकार के योगियों का विस्तृत वर्णन किया गया है.
२४. षड्दर्शन समुच्चय - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी रचित इस ग्रन्थ में भारतीय संस्कृति में प्रसिद्ध ६ दर्शनों की परिभाषा संक्षेप में प्रस्तुत की गई है. किसी भी दर्शन पर पक्षपात किये बिना प्रत्येक दर्शन के तत्वों का सरल भाषा में वर्णन किया गया है. देवता, पदार्थ व्यवस्था एवं प्रमाण व्यवस्था इन मुख्य तीन भेदक तत्त्वों द्वारा छः दर्शनों की मान्यताओं का विवेचन किया गया है.
२५. षोडशक प्रकरण - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी रचित इस ग्रंथ में १६-१६ गाथा प्रमाण १६ प्रकरण है. प्रत्येक प्रकरण में विषय को संपूर्ण रूपेण न्याय देने का प्रयत्न किया गया है. सद्धर्मपरीक्षक, देशना की विधि, धर्म के लक्षण, धर्म के लिंग, लोकोत्तर तत्त्व की प्राप्ति, जिनभवन करण, जिनबिंब करण, प्रतिष्ठाविधि, पूजा, सदनुष्ठान की प्राप्ति इत्यादि अनेक पदार्थों का निरुपण करते हुए कहा है कि प्रत्येक हितकांक्षी आत्माओं को धर्म श्रवण में सतत प्रयत्न करना चाहिए.
२६. सम्यक्त्व सप्तति - आ. श्रीहरिभद्रसूरिजी ने इस प्रकरण में ६७ स्थानों की विचारणा १२ अधिकारों में की है. सम्यक्त्व के स्थानों का वर्णन करने से पहले अयोग्य को अदेय मानकर सर्वप्रथम उसके अधिकारी का वर्णन किया गया
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