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________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक जैनधर्म को संरक्षण प्रदान करते रहे. राष्ट्रकूटवंश- राजा शिवसार द्वितीय के राज्यकाल में राष्ट्रकूटों ने गंगवाडी को कब्जा करके गंगनरेशों को पराजित किया. परन्तु उनके द्वारा जैनधर्म को संरक्षण देने की परम्परा को कायम रखा. राष्टकूटों का राज्य ई. से तक रहा. इनमें से कुछ राजा जैनधर्म के महान् संरक्षक थे. जिनका राज्यकाल जैनों के लिए बहुत समृद्धिकारक था. जैन दिगम्बर परम्परा में अकलंकदेव एक प्रखर वाग्मी तथा ग्रन्थकार के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं. वि. स. में अकलंकदेव का बौद्धों के साथ महान शास्त्रार्थ हुआ था. दिगम्बर जैन कथाकोष के अनुसार अकलंक शुभतुंग राजा के पुत्र थे. राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय जैनधर्म का संरक्षक था. जिसने एलाचार्य गुरु के शिष्य धार्मिक विद्वान वर्धमान गुरु को वदनगुप्पे गाँव दान में दिया था. गोविन्द तृतीय का पुत्र अमोघवर्ष प्रथम भी जैनधर्म का महान उन्नायक, संरक्षक तथा आश्रयदाता था. उसका राज्यकाल ई. से तक रहा. अमोघवर्ष ने लगभग वर्षों तक राज्य किया. अमोघवर्ष ने अपने पुत्र अकालवर्ष या कृष्ण द्वितीय को राज्यकार्य सौप दिया था. कृष्ण द्वितीय के महासामन्त पृथ्वीराय के द्वारा सौन्दति के एक जैन मन्दिर के लिए कुछ भूमि दान किए जाने का वर्णन मिलता है. सभी राष्ट्रकूट राजाओं में अमोघवर्ष जैनधर्म का महान संरक्षक था. राजा अमोघवर्ष का पुत्र कृष्ण द्वितीय भी जैनधर्म का भक्त था. पुष्पदन्त ने 'महापुराण' की उत्थानिका में जैनधर्म के दो आश्रयदाताओं का उल्लेख किया है- एक भरत का और दूसरा उसके पुत्र नन्न का. ये दोनों कृष्णराज तृतीय के महामात्य थे. राष्ट्रकूटवंश की समाप्ति के बाद चालुक्य वंश की स्थापना हुई. इस मध्यकाल में चालुक्यों की अनेक शाखाएँ विद्यमान रहीं. प्रसिद्ध कन्नड़ कवि पम्प का संरक्षक अरिकेसरी भी चालुक्य वंश की एक शाखा से सम्बन्धित था. इस प्रकार प्रारम्भिक चालुक्य वंश के समाप्त हो जाने के बाद भी विभिन्न चालुक्य राजाओं के द्वारा बराबर जैनधर्म को आश्रय दिया जाता रहा है. होयसल वंश- चालुक्यों के पतन के बाद दक्षिण में दो महाशक्तियों का जन्म हुआ था. उनमें से एक तो होयसल थे, जो कर्णाटक देश के वासी थे और दूसरे यादव थे. दोनों ने पश्चिमी चालुक्यों के प्रदेश पर कब्जा कर चालुक्य राजवंश को नष्ट कर दिया. होयसलों ने दक्षिण भाग पर अधिकार कर लिया तथा यादवों ने उत्तरी भाग पर. सागरकट्टे के एक शिलालेख से यह स्पष्ट होता है कि होयसलों के शासन प्रबन्ध में जैनगुरुओं की प्रमुख भूमिका रही है. पार्श्वनाथ वसदि से प्राप्त एक शिलालेख के माध्यम से यह ज्ञात होता है कि राजा विनयादित्य चालुक्य वंश के विक्रमादित्य षष्ठ का सामन्त था. राजा विनयादित्य पोयसल एक बार मत्तावर आए और पहाड़ पर अवस्थित वसदि के दर्शनार्थ गए. उन्होंने लोगों से पूछा कि आपने गाँव में मन्दिर न बनवाकर इस पहाड़ी पर क्यों बनवाया ? माणिक सेट्ठी ने उत्तर दिया- हमलोग गरीब हैं. हम आपसे गाँव में मन्दिर बनवाने की प्रार्थना करते हैं क्योंकि आपके पास लक्ष्मी की कमी नहीं है. यह सुनकर राजा प्रसन्न हुआ तथा उसने माणिक सेट्ठी व अन्य लोगों से मन्दिर के लिए जमीन ली और मन्दिर का निर्माण कराकर उसकी व्यवस्था के लिए नाडली गाँव दान में दी. उसने वसदि के पास ऋषिहल्ली नाम का गाँव तथा कुछ मकान बनाने की भी आज्ञा दी और उस गाँव के बहुत से कर माफ कर दिए. होयसल नरेश विनयादित्य के पुत्र एरेयंग ने कल्बप्पु पर्वत की बस्तियों के जीर्णोद्धार तथा आहारदान आदि के लिए अपने गुरु गोपनन्दि पण्डित को गाँव में दान में दिया था. उन्होंने जैनधर्म की विभूति को पुनः आगे बढ़ाया. एरेयंग के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र बल्लाल प्रथम गद्दी पर बैठा. उसके गुरु चारुकीर्ति मुनि थे. एकबार जब बल्लाल युद्धक्षेत्र के समीप ही मरणासन्न हो गया तो चिकित्सा शास्त्र में निपुन चारुकीर्ति मुनि ने उसे तत्काल स्वस्थ कर दिया. ऐसा कहा जाता था कि चारुकीर्ति मुनि के शरीर को छूकर बहनेवाली वायु भी रोग को शान्त कर देती थी.. राजा बल्लाल के अल्पकालीन शासन के बाद विष्णुवर्द्धन बिट्टिगदेव गद्दी पर बैठा. उसने कर्नाटक को चोल शासन 113
SR No.525262
Book TitleShrutsagar Ank 2007 03 012
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2007
Total Pages175
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size32 MB
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