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________________ पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक अमृतसागर के अमृत-वचन १. हम जिसके प्रति आसक्त बने हैं, उससे विरक्त होकर हमें पूर्णता की ओर प्रयाण करना चाहिए. २. निःसार-संसार को समझ लेने के बाद, विषयों के थोथे आनंद में ब्रह्मानंद को कौन भूल सकता है. ३. अहर्निश आत्म जागति की ओर बढ़ने का प्रयास साधक को उत्तरोत्तर विकासशील बनाता है. ४. आत्मा ही एक मात्र परमतत्त्व है, ऐसा समझकर अपने गन्तव्य स्थान का लक्ष्य निर्धारित कर लेना चाहिए. ५. आराधना से शून्य जीनव नये पुण्य का उपार्जन नहीं होने देता है. ६. परमात्मा महावीर ने प्यासे को रजोहरण देकर अव्याबाध सुख की प्राप्ति का साधन बताया है. ७. यदि हम चारित्र जीवन ग्रहण नहीं कर सकते, तो जो आज संयम के धारक हैं, उनकी अनुमोदना कर पुण्योपार्जन तो करें. ८. जिन्दगी के सभी पहलुओं पर जो ठीक से नहीं सोचता है, उसकी निश्चिन्तता सच्ची नहीं होती. ऑखो भी बसी कोमलना आँखो में बसी कोमलता मन में बसी विरागता पंचमहाव्रतधारी, पाँच प्रकार के निर्यथ-निदान के ज्ञाता, पाँच प्रकार के चारिख के ज्ञाता, पाँच प्रकार के चारित्र लक्षण से संपन्न तथा पाँच समितियों से समित आचार्यों को भावभरी वंदना. श्री धनराजभाई ढढ्ढा रिलीजीयस ट्रस्ट, मुंबई
SR No.525262
Book TitleShrutsagar Ank 2007 03 012
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2007
Total Pages175
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size32 MB
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