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________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक संगीतप्रिय पूज्यश्री रागरागिनी में स्तवनों व पदों के द्वारा आत्म मस्ती में स्वयं तो मग्न रहते ही हैं, साथ-साथ आराधना में उपस्थित श्रोताओं के हृदय कमलों को भक्तिसंगीत के द्वारा प्रफुल्लित कर देते हैं. इतना ही नहीं मानो कि भजनों के स्वर आपके कंठ का स्पर्श पाकर मधुरता प्राप्त करते है. आपने भारत भर के प्रायः सभी कोनों में विचरण कर भारत भूमि को पवित्र किया है व विदेश में काठमांडू (नेपाल) तक जाकर अपने अनुभवों को समृद्ध किया है.शास्त्र वचन है कि देशाटन का अनुभव भी आचार्य पद प्रदान के लिये एक महत्त्वपूर्ण योग्यता है, जिसे आपने गुरु की निश्रा में रहकर प्राप्त की है. पंन्यासश्री में गुरुभक्ति है कि ऐसी धुन की ३८ वर्ष के सुदीर्घ संयम पर्याय में निरंतर वैयावच्चमय गुरुकुलवास का सौभाग्य प्राप्त किया है. गुरु की प्रत्यक्ष निश्रा में दीर्घ संयमी जीवन व्यतीत करने का अवसर पुण्योदय से ही प्राप्त होता है. वर्षीतप, अठठाई, नवपदजी की ओली, वर्द्धमान तप की ओली आदि अनेक विध तपों से पवित्र आपश्री का जीवन अन्य जीवों के लिये भी प्रेरणादायी रहा है. आपकी योग्यता को देखते हुए पूज्य गुरुदेव आचार्यश्री ने तीर्थाधिराज श्री सम्मेतशिखर की पावन भूमि पर वसंतपंचमी के दिन (माघ शुक्ल पंचमी) विक्रम संवत् २०५२, दिनांक २४ जनवरी, १९९६ के दिन आपको पंन्यासपद से विभूषित किया. पूज्य पंन्यास श्री अमृतसागरजी के संसारी बडे भ्राता श्रीमान् महेशभाई और श्रीमती धर्मज्ञाबेन ने अपने हृदय के टुकडे समान पुत्र भाविककुमार को उसकी जन्म से ही तेजस्वी पुण्यशालीता को देख कर जिनशासन की सेवा के माध्यम से जगत कल्याण हेतु अपने अनुज बन्धु के शिष्य के रूप में जिनशासन को समर्पित किया, जो आज के जैन जगत में मुनिपद पर रहते हुए भी गुरुजनों के आशीर्वाद से अभूतपूर्व शासन प्रभावना कर रहे हैं. गुरुपरम्परा के विस्तरण में प्रयत्नशील पूज्यश्री ने एक शिष्य एवं दो प्रशिष्यों की अभिवृद्धि की है, जो सुंदर संयम पालना पूर्वक श्रीसंघ की निरन्तर सेवा कर रहे हैं. आपने एकमात्र शिष्य मुनि नयपद्मसागरजी को उनकी छुपी शक्तियों को पहचान कर उन्हें हर तरह की शिक्षाएँ देकर समर्थ बनाया. 'एकश्चंद्रः तमोहंति...' की कहावत को चरितार्थ करने में समर्थ शिष्य, जैन एकता के कार्य में स्वयं को अहर्निश समर्पित हो अपने गुरु भगवंतों की कृपा प्राप्त कर जैन एकता का अभूतपूर्व कार्य कर रहे हैं. मुनिश्री नयपदमसागरजीने Jain International organization (J.I.O), Jain International Trade organization (J.I.T.O), Jain Doctors Federation. Jain C.A Federation. Jain Advocate Federation. जैन संस्थान, जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक युवक महासंघ आदि अनेक संगठनों की स्थापना कराकर जैन समाज के शक्ति केन्द्रों को सुसंगठित किया है व इनके माध्यम से शिक्षा आदि के क्षेत्र में एक नई जागृति व क्रांति लाई है. पूज्य पंन्यास प्रवरश्री के अंतरंग समर्थन सहित मुनिश्री का यह कार्य जैन एकता का बेनमून व जीता जागता उदाहरण है. जैन एकता के भगीरथ कार्यों में आशीर्वाद रूप सशक्त बल प्रदान कर आपने जैन समाज को उपकृत किया है. जिनशासन की सेवा में समर्पित पूज्य पंन्यास प्रवर श्री अमृतसागरजी महाराज का व्यक्तित्व व कृतित्व हमारी प्रेरणा के स्रोत बने रहेंगे, आचार्य पद पदारोहण की मंगलमय वेला में कोटिशः वंदना. चार प्रकार की विकथा तथा चार कपायों के त्यागी हैं और चार प्रकार की विशुद्ध बुद्धि से युक्त, चतुर्विधाहार निरालवमतिवाले। आचार्यों को भावभरी वंदना. सौजन्य - थराद निवासी प्रेमचंद मणीलाल मोरखीया, मुंबई 20
SR No.525262
Book TitleShrutsagar Ank 2007 03 012
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2007
Total Pages175
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size32 MB
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