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पन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक
पुष्प पूजा विधि
भगवान को जो पुष्प चढाए, वह शुद्ध, साफ, सुगन्धित, खिले हुए तथा अखंडित होने चाहिए. पुष्प की पत्तियाँ अलग अलग करके न चढाएँ. जो पुष्प जमीन पर पड़ा हुआ हो, पैर लगा हुआ या नीचे गिरा हुआ हो ऐसे पुष्प भगवान को नहीं चढाना चाहिए पूजा समाप्त कर संसारिक कार्यों में लगे.
भोजनविधि
भोजन अपने कुटुम्बी जनों के साथ बैठकर करना चाहिए. भोजन में भक्ष्याभक्ष्य का विचार जरुर रखें यानि अभक्ष्य वस्तुओं का सर्वथा त्याग कना चाहिए. उत्पातपूर्वक क्रोधान्ध होकर, खराब वचनों को कहते हुए या दक्षिण दिशा में मुख कर किए जानेवाले भोजन को राक्षसी भोजन कहा जाता है. संध्याकाल, रात्रिकाल, स्वजन का मुर्दा पडा हुआ हो ऐसे समय भोजन नहीं करना चाहिए. जाति भ्रष्ट के घर भी भोजन नहीं करना चाहिये. अज्ञात भोजन या अज्ञात फल भी नहीं खाना चाहिये. बाल हत्या, स्त्री हत्या, भ्रूण हत्या, गौहत्या करने वाले नीच मनुष्यों के साथ बैठकर भी भोजन नहीं करे. भोजन के पहिले यदि पानी पीए तो वह विष के समान होता है, भोजन के मध्य में पत्थर के समान और अंत में अमृत के समान होता है. अतिथि, नौकर, पशु, आदि के भोजन कर लेने के बाद ही गृहस्थ को भोजन करना चाहिए. भोजन करने के बाद दो घडी आराम लेकर सम्बन्धियों से वार्तालाप करना चाहिये जिससे हर एक से प्रेम बना रहे और घर में शान्ति रह सके. इसके बाद व्यापार के लिये बाजार आदि जाये.
द्रव्योपार्जन
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गृहस्थ को चाहिए की न्यायपूर्वक द्रव्योपार्जन करे. द्रव्य साध्य नहीं वरन् साधन है. इस बात का ख्याल रख कर ही व्यापार करे. परोपकार, धर्म कार्य, कुटुम्ब पोषण, भाईयों का उद्धार, मित्रों का उपकार, देशसेवा समाज सेवा इत्यादि कामों में द्रव्य की आवश्यकता होती है, इसलिये नीतिपूर्वक द्रव्योपार्जन करना चाहिये जिस कार्य से पापारम्भ अधिक हो या लोकनिंदा होती हो अथवा जिस कार्य को करने से यह भव और परभव बिगडता हो ऐसे कार्य नहीं करना चाहिये और न ही उसके द्वारा द्रव्योपार्जन करना चाहिए. अर्थोपार्जन में अतिक्लेश, धर्म का उल्लंघन, नीच की संगति अथवा
विश्वासघात नहीं करना चाहिये. लेनदेन में वचन का घात न किया जाए, इसका खास ध्यान रखना चाहिए. व्यापार में एक तोल, एक बोल रखना उन्नति का मार्ग है. आमदनी का कम से कम चौथाई हिस्सा पुण्य कार्य में खर्च करना चाहिए.
व्यालु
दिन के आठवें भाग में व्यालु (शाम का भोजन कर लेना चाहिए. संध्या के समय चार काम बिल्कुल न करे. जैसेआहार, मैथुन, निद्रा और स्वाध्याय रात्रि भोजन का नियमित रूप से त्याग करने से एक महीने में पंद्रह उपवास का फल होता है.
संध्या पूजन एवं प्रतिक्रमण
थोड़ा सा जल लेकर हाथ, पैर, मुख आदि साफ करके सायंकाल की पूजा के लिये मंदिर मे जाना चाहिए और आरती तथा मंगल दीपक उतारकर प्रभु का पूजन करना चाहिए. बाद में प्रतिक्रमण करने के लिये उपाश्रय में जाए, अगर गुरु का अभाव हो तो घर में आकर विधिपूर्वक प्रतिक्रमण करे और काउसग्ग के वक्त ध्यान रखे कि काउसग्ग मे न्यून या अधिक न गिना जाय.
गुरुभक्ति
प्रतिक्रमण के बाद गुरु की शारिरिक भक्ति वैयावच्च करे. गुरु की सेवा के समय गुख के वस्त्र से ढँकना चाहिये. जिससे थूक आदि से उनकी आशातना न हो जाए. गुरु को पाद स्पर्श न हो तथा और भी तैंतीस आशातनाओं में से कोई
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