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________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक व्यक्ति, समाज, देश और समस्त विश्व को सुखमय, निरामय, शान्तिमय और उन्नतिमय करने के लिए अपना अस्तित्व रखने वाला धर्म. सभी जीव आत्मवत् है. सभी के प्रति परस्पर उपकार करने के लिए परिपक्व दृष्टि को विकसित कर जहां पर अक्षय, अजर, अमर आत्मसुख का निवास है उस स्थिति (मोक्ष) के सहभागी बनाने के लिए उदात्त अभिगम.के साथ प्रवर्तमान धर्म यानि जैन धर्म. जैनधर्म के रहस्यभूत कर्मवाद, सूक्ष्म तप मीमांसा, नवतत्त्व का सुन्दर स्वरूप, चार अनुयोगों का सुन्दर अनुपम निरूपण, चार निक्षेपों का रम्य वर्णन, सप्तभंगी तथा सप्तनय का सत्य स्वरूप, स्याद्वाद-अनेकान्तवाद की विशिष्टता, अहिंसा की पराकाष्ठा, तप की अलौकिकता, योग की अद्वितीय साधना तथा व्रत-महाव्रतों की सूक्ष्म पद्धति से पालन आदि के कारण उत्कृष्ट स्थान धराने वाला धर्म. किससे दोस्ती करूं? चंदा में दाग है, सूरज में आग है. तारों में विराग है, मैं किससे दोस्ती करू ? ग्रीष्म में तपन है, शीत में कम्पन है. वर्षा में अनबन है, मैं किससे दोस्ती करूं? पवन मदहोश है, वन-प्रान्त खामोश है. वसुन्धरा बेहोश है, मैं किससे दोस्ती करूं ? संसार मे भोग है, काया में रोग है, स्वार्थी सब लोग है, मैं किससे दोस्ती करूं? कैसा यह प्रश्न है, न जोश है न होश है, पूछता हूं प्रभु, मैं किससे दोस्ती करूं ? आत्मा ही शरण है, मोह माया मरण है निज स्वरूप अपना है, अन्य सब सपना है. क्यों न खुद से ही खुद की दोस्ती करूँ. 103
SR No.525262
Book TitleShrutsagar Ank 2007 03 012
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2007
Total Pages175
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size32 MB
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