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पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान
महोत्सव विशेषांक
जैन की दिनचर्या
महान पुण्योदय से जीव को जिन शासन की प्राप्ति होती है. जैन वह बन सकता है जिसका जीवन जिनाज्ञा के अनुरूप हो. जीने की उत्कृष्ट कला है श्रावक जीवन. जिनेश्वरों ने मोक्ष पाने के लिये दो धर्म बताएँ हैं, प्रथम है साधु धर्म और दूसरा है श्रावक धर्म. श्रावक को सुबह से शाम तक किस तरह की प्रवृत्ति करनी चाहिए, उसका साद्योपान्त वर्णन धर्मग्रंथों में किया गया है. यहाँ पर संक्षिप्त में श्रावक को करने योग्य उचित कर्त्तव्यों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है. जिन्हें विस्तार पूर्वक जानने की जिज्ञासा हो, उन्हें श्राद्धविधि प्रकरण और धर्म बिन्दु ग्रंथ मननीय है. ऐसे कई ग्रंथों में सुन्दर मार्ग दर्शन दिया है, जिसे पाकर व्यक्ति स्व-पर का अवश्यमेव कल्याण कर सकता है.
व्यक्ति को सुबह कब उठना चाहिए और उठते ही क्या करना चाहिए इसका मार्गदर्शन करते हुए कहा है कि रात्रि के चौथे प्रहर में अर्थात् ब्राह्ममुहूर्त (१) में पंचपरमेष्ठि (अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु) का स्मरण करते हुए जागृत होना चाहिये.
नाक की नाडी (स्वर) देखना जिस तरफ की नाडी चलती हो उस तरफ का पैर पहिले नीचे रखना फिर बिस्तर का त्याग करना. रात्रि के पहने हुए कपडे बदल डालना और शुद्ध वस्त्र पहनना. शरीर की अशुद्धि को भी त्यागना यानी शौचादि क्रिया से भी निवृत होना चाहिये. जाप करना
शरीर और वस्त्र की शुद्धि हो जाने के बाद मंदिर जी उपाश्रय या घर के एकान्त स्थान में जाकर एकाग्र चित्त से नवकार का जाप करना चाहिये, जाप करते समय मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखें. पद्मासन में बैठकर माला को ऊँगलियों का सहारा न देकर जाप करना यही उत्कृष्ट विधि है. यदि ऐसा न हो सके तो माला हाथ में लेकर जाप करे परंतु स्मरण रहे कि मेरु का उल्लंघन न होना चाहिये. यह मध्यम विधि है. चलते फिरते बिना संख्या का जाप करते रहना चाहिये. प्रतिक्रमणा या सामायिक
इच्छानुसार जाप करने के बाद उपाश्रय या घर के एकान्त स्थान में बैठकर श्रावक को रात्रि प्रतिक्रमण करना चाहिए. प्रतिक्रमण न आता हो या ऐसा ही कुछ कारण हो तो सामायिक करे. बारह व्रतधारी श्रावक ब्राह्ममुहूर्त में अवश्य प्रतिक्रमण करें या नवकार महामंत्र का जाप करें. सूर्योदय होने में ९६ मिनट बाकी रहे, उस समय को ब्राह्यमुहूर्त कहते है. देवदर्शन
प्रतिक्रमण के बाद देवदर्शन करने श्री मंदिरजी में जाए. घर से निकलते ही एक निसीहि कहे, इसमें श्रावक के लिए घर और व्यापार सम्बन्धी तमाम बातों का त्याग करना कहा गया है. दूसरी निसीहि मंदिर जी की सीढी चढते समय कहे, इसमें मंदिर सम्बन्धी ८४ आशातना को दूर करने को कहा है. और तीसरी निसीहि मूल गंभारे के पास में आकर कहे. इस तरह से कह कर भगवान की स्तुति करें.
याद रखें कि पुरुष वर्ग प्रभु की दाहिनी ओर और स्त्री वर्ग बाँयी ओर खडे होकर दर्शन तथा स्तुति करें. इस समय भगवान को बिना छुए, मात्र वासछेप से पूजा करनी चाहिये. प्रभु मूर्ति के समाने रह कर प्रभु की स्तुति या दर्शन करना चाहिए.
बाद में उत्तरासंग पूर्वक योग मुद्रा सहित मधुर वाणी से चैत्य वंदन करे. योग मुद्रा इसे कहते है : दोनों हाथों की कुहनी (कोणी) को उदर पर रखे, दोनों हाथ कोषवृत्ति पर रखे, दोनों हाथों की ऊँगलियाँ परस्पर संश्लेषित (एक दूसरे से मिली हुई) रखें इसका नाम योग मुद्रा है. मंदिरजी से बाहर निकलते समय आवस्सिहि जरुर कहें.
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