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पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी भाचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक
पीछे लगाकर मर्सडीज को सेठ मफतलाल के घर पर पहुंचाया गया. सेठ मफतलाल को गाडी सौंप दी यह रही आपकी गाडी. एक पैसा भी खर्च नहीं और गाडी सुरक्षित घर पहुंच गयी. तो मेरे कहने का यह आशय था कि हमारी बुद्धि का अतिरेक इतना भयंकर है कि जहाँ से इसका उपयोग आत्मतत्व के चिंतन के लिये होना चाहिए, उसकी जगह पर हम इसका इस्तेमाल अनीति के लिए, अप्रमाणिकता के लिए करते है.
हमारा चरित्र और वर्तमान शिक्षा प्रणाली पहले पुराने जमाने के समय में ऋषि मुनियों के आश्रम में शिक्षा की व्यवस्था थी. हमारी उस समय की शिक्षा प्रणाली ही ऐसी थी कि छात्र ऋषि मुनियों के आश्रम में रह कर तप और त्याग से परिपूर्ण बनकर निकलते थे. वे शुद्ध सदाचारी और संयमी बनकर के इस देश के नागरिक बनते थे. राष्ट्र का निर्माण और प्रजा की सेवा करने वाले होते थे और स्वयं की आत्मा की उपासना भी करते थे.
आज वह सब रहा ही कहाँ ? आज का माडर्न एज्युकेशन प्रणाली इतनी दूषित हो चुकी है कि तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन जैसे महान शिक्षाशास्त्री ने दुखी होकर, आज की शिक्षा प्रणाली पर प्रहार करते हुए लिखा- No education but character. ऐसी शिक्षा से कोई मतलब नहीं जो चरित्र का निर्माण न कर सके, जीवन के अंदर नैतिक उत्थान न कर सकें. पहले ऐसी व्यवस्था थी कि हजारों ऋषि-मुनियों के जो आश्रम थे, वहीं से पढकर विद्यार्थी बाहर निकलते थे. वे अपनी संस्कृति, अपने संस्कार के लिए जीवन अर्पण करने वाले होते थे. हमारे यहाँ उस समय शिक्षा का लक्ष्य रखा गया- 'सा विद्या या विमुक्तये.
मुझे ऐसा ज्ञान चाहिए जो वासना से, पाप से, अनीति से मेरी आत्मा को मुक्त कर सके. मेरी आत्मा में गुणों का सृजन कर सके. राष्ट्र, समाज और प्रजा के लिए मैं कर्तव्य, बुद्धि और प्रेरणा प्राप्त कर सकूं. आज जितने भी स्कूल-कालेज हैं वहाँ से व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त तो होता है, परन्तु उस व्यवहारिक क्षेत्र में धर्म का अनुशासन चाहिए. ये धर्म के अनुशासन वहाँ नहीं सिखाये जाते, जिसका यह परिणाम है कि आज सारा ही विश्व अशान्ति से घिरा हुआ है.
एक बार स्वामी विवेकानंद किसी कालेज में प्रवचन देने के लिए गये. मॉडर्न एज्युकेशन के उन विद्यार्थियों से स्वामी जी ने पूछा- जीवन में तुम क्या बनना चाहते हो?
छात्रों में से किसी ने डाक्टर, किसी ने वकील, किसी ने इंजीनियर बनने का लक्ष्य बताया. स्वामी विवेकानंद ने कहाबड़े दुःख की बात है आप में से किसी को अपना लक्ष्य ही नहीं मालुम कोई भी विद्यार्थी यह नहीं कह सकता कि मैं मानवता को प्राप्त करूंगा. प्राणिमात्र का कल्याण करूंगा.
आज की शिक्षा प्रणाली का व्यक्ति स्व की परिधि तक ही सीमित हो गया है, स्व की परिधि में ही घिरा है. सर्व तक जाने का संकल्प ही नहीं, लक्ष्य ही नहीं है. आज सरकार सभी चीजों का राष्ट्रीयकरण कर रही हैं. मैं कहता हूँ कि हमारी इस शिक्षा प्रणाली का सबसे पहले भारतीयकरण करो. आज मॉडर्न एज्युकेशन जिसमें सिर्फ शब्द ज्ञान मिलेगा, भौतिक ज्ञान मिलेगा, किन्तु उस आध्यात्मिक चेतना का लक्ष्य नहीं मिलेगा. आत्मा का पोषण करने वाला वह तत्त्व नहीं मिलेगा. वह सम्यक् ज्ञान नहीं मिलेगा. जिससे राष्ट्र का नैतिक उद्धार हो सके.
पहले के जमाने में जो शिक्षा प्रणाली थी, उसका लक्ष्य था मोक्ष प्राप्त करना. सत्य और सदाचार के मार्ग पर चलकर समाज और राष्ट्र का कल्याण करना, प्राणिमात्र का कल्याण करना किन्तु अंग्रेजों ने आकर कुछ ऐसा किया कि हम अपनी संस्कृति को भूल गये. लार्ड कर्जन के जमाने में लार्ड मैकाले को इस काम के लिए नियुक्त किया गया. मैकाले ने अपनी डायरी में लिखा है कि- मैं इस नई शिक्षा प्रणाली के माध्यम से एक ऐसा सुगर कोटेड पॉयजन देकर जा रहा हूँ जो आने वाले वर्षों में पूरे भारत को अभारतीय बना देगा. उनको अपनी संस्कृति से विमुख कर देगा. वही हुआ जो अंग्रेज चाहते थे. अंग्रेज हमारे देश से तो चले गये पर हमें अंग्रेजियत की मानसिक दासता में जकड गये.
हम आजादी के बाद एक भी अंग्रेज को धोती कुर्ता नहीं पहना सके. वो सारे देश को पैंट सूट पहना कर चले गये. हमारे देश पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर चयन किया था कि यहाँ का वातावरण गर्म है. धोती कुर्ता ढीला ढाला होता है.
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