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________________ पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान • महोत्सव विशेषांक दक्षिण भारत में जैन धर्म रामप्रकाश झा जैन धर्म के प्राचीन शास्त्रों व इतिहास के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि जैनधर्म के चौबीस तीर्थंकरों का जन्म और निर्वाण उत्तर भारत में ही हुआ. उस समय दक्षिण भारत में जैन धर्म की क्या स्थिति थी, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है. परन्तु भगवान महावीर के पश्चात् जैन धर्म का विस्तार दक्षिण भारत में भी हुआ इसके कई प्रमाण शिलालेखों और दक्षिण भारत के साहित्य के अध्ययन से प्राप्त होता है. दक्षिण के कई राजवंशों का संरक्षण एवं मंत्रियों सेनापतियों का सहयोग प्राप्त कर जैनाचार्यों ने जैन धर्म को सर्वप्रिय धर्म बना दिया. जैन धर्म को दक्षिण भारत में जड़ पकड़ चुके बौद्धधर्म एवं शैवधर्म का सामना करना पडा. सर्वप्रथम मैसूर तथा तमिलनाडु के राजवंश के अनेक राजाओं ने जैन धर्म को उत्साह पूर्वक संरक्षण दिया. धीरे-धीरे यह धर्म प्रभावशाली होता गया. लगभग एक हजार वर्षों तक कर्नाटक की जनता तथा वहाँ के राजवंशों के सक्रिय सहयोग के कारण जैनधर्म दक्षिण भारत के कण-कण में व्याप्त रहा. इसका सारा श्रेय उन जैनाचार्यों को जाता है, जिन्होंने अपनी महानता, समुचित विचारदक्षता तथा समाजसेवा के आधार पर दक्षिण भारत की जनता को अपने सदुपदेशों से अनुप्राणित किया तथा उन प्रदेशों की भाषाओं में दक्षता प्राप्त करके अपनी रचनाओं द्वारा दक्षिण भारत की भाषाओं और जैन साहित्य के भण्डार को समृद्ध किया. जैन धर्म को अनेक प्रमुख राजवंशों से संरक्षण तथा संपोषण प्राप्त हुआ था. जिसमें पल्लव राजवंश तथा चोल राजवंश के शासकों की जैन समाज और जैनधर्म के प्रति गहरी आस्था को प्रगट करने वाले अनेक उल्लेख मिलते हैं. कर्नाटक में चालुक्यों का राज्य स्थापित होने पर तेलुगु प्रदेश में जैनधर्म आगे आया. पूर्वीय चालुक्य वंशीय राजाओं की सहायता पाकर जैनधर्म की शक्ति तथा उसका प्रभाव काफी बढा. इस वंश का एक शासक विजयादित्य षष्ठ जैनधर्म का महान अनुरागी था. उसके द्वारा जैन मन्दिरों के लिए दिए गए दान का पर्याप्त उल्लेख मिलता है. कटकराज दुर्गराज ने धर्मपुरी गाँव में एक जैनमन्दिर का निर्माण कराया, जिसका नाम कटकाभरण जिनालय रखा गया. वह जिनालय यापनीय संघ, कोटी मडुक और नन्दिगच्छ के जिननन्दि के प्रशिष्य तथा दिवाकर के शिष्य श्री मन्दिरदेव के प्रबन्ध में था. ग्रेव्य गोत्र और त्रिनयन कुल का वंशज नरवाहन प्रथम पूर्वीय चौलुक्य नरेश का अधिकारी था. उसका पुत्र मेलपराज और पुत्रवधू मेण्डाम्बा जैनधर्म के प्रति उत्साही व अनुयायी थे. उनके पुत्र भीम और नरवाहन द्वितीय भी जैनधर्म के अनुरागी थे. उनके गुरु का नाम जयसेन था, जिनकी प्रेरणा से भीम और नरवाहन द्वितीय ने विजय वाटिका (विजयवाडा) में दो जैनमन्दिर बनवाए थे. उन मन्दिरों के संचालन हेतु राजा अम्म द्वितीय ने पेडु गाडिदिपर्रु नामक गाँव दान में दिया था. विजगापट्टम जिले के रामतीर्थ से प्राप्त शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि राजा विमलादित्य के धर्मगुरु सिद्धान्तदेव थे. इससे यह स्पष्ट होता है कि रामतीर्थ जैनधर्म का एक पवित्र स्थान था तथा राजा विमलादित्य ने जैनधर्म को अंगीकार कर जैनगुरु को अपना मार्गदर्शक बनाया था. प्राचीनकाल से ही यह स्थान जैनधर्म का प्रभावशाली केन्द्र तथा उसके अनुयायियों के लिए तीर्थ स्थान था. दानवुलपाडु के एक शिलालेख में सेनापति श्रीविजय के समाधिमरण का वर्णन है. श्रीविजय एक बड़ा योद्धा, महान विद्वान तथा जैनधर्म का अनुयायी था. कुछ शिलालेखों में वैश्य जाति के सद्गृहस्थों के समाधिस्थलों का उल्लेख मिलता है. जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह स्थान पवित्र माना जाता था तथा जैनधर्म के अनुयायी दूर दूर से यहाँ जीवन का अन्तिम काल बिताने के लिए आते थे. कालक्रम से जैनधर्म कर्नाटक का एक प्रभावशाली और स्थायी धर्म बन गया. इसका प्रमुख श्रेय उन जैन गुरुओं का है जिन्होंने जैनधर्म का कोरा उपदेश देना बन्द कर राज्यों के निर्माण में भाग लेना प्रारम्भ किया. जिसके फलस्वरूप 111
SR No.525262
Book TitleShrutsagar Ank 2007 03 012
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2007
Total Pages175
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size32 MB
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