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पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी आचार्यपद प्रदान महोत्सव विशेषांक
ज्ञानभक्ति का रहस्य तथा उसके द्वारा होनेवाले लाभ समझाया जाता था. पुस्तकों के अंत में उनके नाम की प्रशस्ति आदि लिखी जाती थी. ताकि अन्यों को भी सुकृत की अनुमोदना व अनुसरण की प्रेरणा मिले. इस प्रकार साहित्य सृजन और ज्ञानभंडारों की स्थापना तथा अभिवृद्धि कराने वालों का विविध रूप से परिचय दिया जाता था.
हस्तलिखित ग्रन्थों के अंत में लिखी जाने वाली इन प्रशस्तियों में पुस्तक लिखवाने वाले के पूर्वज, माता-पिता, बहनभाई, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि के नाम, उस समय के राजा, पुस्तक लिखवाने वाले का संक्षिप्त परिचय, उपदेशक अथवा धर्मगुरु, पुस्तक लिखवाने का निमित्त, पुस्तक लेखन हेतु किया गया धनव्यय तथा जहाँ-जहाँ ग्रन्थ भेंट दिया गया हो, उन स्थलों का उल्लेख किया जाता था. ये प्रशस्तियाँ संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, मारूगुर्जर आदि भाषाओं में गद्य-पद्यबद्ध श्लोकादि की सुंदर रचना के रूप में प्राप्त होती हैं. प्रशस्तियाँ लिखवाने की पद्धति के फलस्वरूप आज हमें कई महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य और वृत्तान्त प्राप्त होते जा रहे हैं. सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है की प्रशस्ति लेखन के माध्यम से ही आज हमारे समक्ष लाखों ग्रन्थ तथा सैकड़ों ज्ञानभंडार उपलब्ध है,
इसके अतिरिक्त ज्ञानवृद्धि के निमित्त उत्सव, ज्ञानपूजा आदि महोत्सव आयोजित किये जाते थे. इसके परिणाम स्वरूप अनेक जैन राजा, मंत्री तथा कई धनाढय गृहस्थों ने तपश्चर्या के उद्यापन निमित्त, अपने जीवन में किए गए पापों की आलोचना के निमित्त, जैन आगमों के श्रवण के निमित्त, अपने स्वर्गस्थ माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि स्वजनों के आत्मश्रेयार्थ अथवा ऐसे ही प्रसंगों पर नये नये ग्रन्थ लिखवाकर या कोई अस्त-व्यस्त हो गए ज्ञानभंडार को यदि कोई बेच रहा हो, तो उसे खरीदकर नए ज्ञानभंडारों की स्थापना की जाती थी.
इसी तरह पुराने ज्ञानभंडारों को भी समृद्ध किया जाता था. प्रसंगोपात कल्पसूत्रादि ग्रंथों को सुवर्णादि की स्याही से लिखवाकर सुन्दर चित्रों सहित तैयार कराके गुरुभक्त अपने श्रद्धेय आचार्य भगवन्तों को समर्पित करते थे. ऐसे अनेक ग्रंथ निर्मित होते थे और गुरुभगवंत इन ग्रंथों को ग्रंथालयों में संगृहीत करवाते थे. इसी प्रकार ज्ञानमंदिरों में वैविध्य सभर प्रतियों का संग्रह होता रहता था.
जैन राजाओं के द्वारा श्रुतसंवर्द्धन
ज्ञानकोश की स्थापना करनेवाले राजाओं में साहित्यरसिक सिद्धराज जयसिंहदेव तथा परमार्हत् कुमारपाल दो गुर्जरेश्वर राजा प्रसिद्ध हैं. महाराज सिद्धराज ने तीन सौ लहियों को रखकर प्रत्येक दर्शन के व प्रत्येक विषय से सम्बन्धित विशाल साहित्य लिखवाकर राजकीय पुस्तकालय की स्थापना की. आचार्य श्री हेमचंद्र कृत सांगोपांग सपादलक्ष ( सवालाख) सिद्धहेमशब्दानुशासन व्याकरण की सैकड़ों नकलें कराकर उनके अभ्यासियों को तथा विविध ज्ञानभंडारों को भेंट दिया. इसका उल्लेख प्रभावक चरित्र, कुमारपालप्रबंध आदि ग्रन्थों में मिलता है.
परन्तु पाटण के तपागच्छ के जैन ज्ञानभंडार में सिद्धराज जयसिंहदेव द्वारा लगभग चौदहवीं सदी में लिखवाई गई लघुवृत्ति सहित सिद्धहेमव्याकरण की सचित्र ताडपत्रीय प्रति है, उस प्रति के चित्रों को देखकर उनके द्वारा ज्ञानभंडार बनवाये जाने का अनुमान प्राप्त होता है. उपरोक्त प्रति में एक चित्र के नीचे ' पंडितश्छात्रान् व्याकरणं पाठयति ' ऐसा लिखा हुआ व इसी में एक ओर पंडित सिद्धहेमव्याकरण की प्रति लेकर विद्यार्थियों को पढ़ाता तथा दूसरी ओर विद्यार्थी सिद्धहेमव्याकरण की प्रति लेकर पढ़ रहे हैं ऐसे चित्र हैं. सोलंकीयुग में पाटण जैन विद्या का मुख्य केन्द्र माना जाता था.
महाराज कुमारपाल ने इक्कीस ज्ञानभंडारों की स्थापना की तथा श्रीहेमचंद्राचार्य विरचित ग्रंथों की स्वर्णाक्षरीय इक्कीस प्रतियाँ लिखवाने का उल्लेख कुमारपालप्रबंध तथा उपदेशतरंगिणी में मिलता है. लिखने के लिए ताडपत्र नहीं मिलने पर उन्होंने ताडपत्रों के लिए साधना की थी.
जैन मंत्रियों के द्वारा श्रुतसंवर्द्धन
जैन मंत्रियों में ज्ञानभंडार की स्थापना करनेवाले तथा ग्रन्थ लिखवानेवालों में प्राग्वाट (पोरवाड) जातीय महामात्य
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