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पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान
महोत्सव विशेषांक
महान ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय.
मनोज र. जैन १. उपदेशमाला - श्रीमहावीर प्रभु के हाथों दीक्षित बने श्रीधर्मदास गणि द्वारा निर्मित. धर्मदास गणि तीन ज्ञान के धारक थे. इस में २५० विषयों पर उपदेश संगृहीत है. अपने लिये यह ग्रंथ इतना मूल्यवान है कि स्वाध्याय न करने पर अतिचार लगता है. ग्रंथ में रहे उपदेशों का महत्त्व दो वाक्यों में कैसे समझाया जा सकता है. ग्रंथकार ने स्वयं गाथा ५३४ में कहा है कि यह ग्रंथ पढ लेने पर भी जिसको धर्म में उद्यम करने का मन नहीं होता वह अनन्त संसारी है, यही एक कथन इस महान ग्रंथ के लिये पर्याप्त है. आगमों की पंक्ति में रखने योग्य इस ग्रंथ का जीवन में कम से कम एक बार अध्ययन करना अनिवार्य है.
२. प्रशमरति- जैन शासन के पदार्थों का संकलन करने वाला यह ग्रन्थ २२ अधिकार व ३६३ श्लोक प्रमाण है. पूज्य वाचकवर्य उमास्वातिजी महाराज द्वारा रचित है. इसमें दर्शन शास्त्र की चर्चाएं, कषाय विजय के उपाय, इन्द्रिय स्वरूप, गुरुकुलवास, विनय, १२ भावना, १० विध यतिधर्म, सम्यग्दर्शन स्वरूप, ध्यान और मुक्त अवस्था स्वरूप इत्यादि पदार्थों को प्रस्तुत किया गया है. अल्प शब्दों में भरपुर पदार्थ कहने की दक्षता तो सचमुच वाचकवर्य की ही कह सकते हैं.
३. तत्त्वार्थसूत्र (तत्त्वार्थाधिगमसूत्र) - कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य ने अपने सिद्धहेम व्याकरण में उपोमास्वाति संग्रहीतास कहकर सर्वश्रेष्ठ संग्रहकार के रूप में संबोधित किया है. उमास्वातिजी ने १० अध्याय और २ कारिकाओं से अलंकृत इस ग्रन्थ में जैन धर्म के तत्वज्ञान का संग्रह वैज्ञानिक रीति से किया है. इसी एक ग्रन्थ से जैन तत्वज्ञान विषयक संपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं.
सम्यग्दर्शन की मुख्यता पूर्वक मोक्षमार्ग के वर्णन के साथ जीवादि तत्व. ७ नय, औपशमिकादि भाव. नारकी. द्वीप समुद्र, देव, धर्मास्तिकायादि अजीव, आश्रव, पांच व्रत, भावना, कर्मबंध के कारण, कर्मस्वरूप, संवर, तप और मोक्ष आदि पदार्थों का रोचक वर्णन किया गया है.
४. द्वादशार नयचक्र - आचार्य श्रीमल्लवादिसूरिजी ने मात्र १ श्लोक के आधार से १०००० श्लोक प्रमाण इस ग्रन्थ की रचना की है. जिसमें विधि, विधिनिधि, विद्युभय, विधिनियम, उभय, उभयविधि, उभयोभय, उभयनियम, नियम, नियमविधि, नियमोभय व नियमनियम इस प्रकार भिन्न भिन्न प्रकार से ७ नयों का १२ आरास्वरूप अध्यायो में विस्तार से निरूपण है.
५. श्रावक प्रज्ञप्ति - उमास्वातिजी द्वारा रचित इस ग्रन्थ में ४०५ श्लोक हैं. श्रावक धर्म का प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थों में यह सब से प्राचीन और प्रमाणभूत है. जिसमें सम्यक्त्व का स्वरूप-नयतत्त्व का स्वरूप-कर्म के भेद, श्रावक के १२ व्रत और श्रावक योग्य सामाचारी इत्यादि का विशद् वर्णन किया गया है.
६. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका - पूज्य आचार्य सिद्धसेन दिवाकरसूरि विरचित यह ग्रन्थ वर्तमान में संपूर्ण रुप से उपलब्ध नहीं होता है. मात्र २१ द्वात्रिंशिका उपलब्ध है. भिन्न-भिन्न विषयों को समेटते इस ग्रंथ में अनेक मतों की समीक्षा, वादोपनिषद्, वाद, वेदवाद, गुणवचन, उपाय, सांख्यप्रबोध, वैशेषिक, बौद्ध संताना, नियति, निश्चय, दृष्टि व महावीर संबंधी पदार्थों की प्रस्तुति बडी रोचकता से की गई है.
७. संमतितर्क प्रकरण - पू. आ. सिद्धसेन दिवाकरसूरि द्वारा रचा गया यह प्रकरण द्रव्यानुयोग का सर्वोत्तम ग्रन्थ माना जाता है. परिकर्मित मतिमान के लिए ही यह प्रकरण वाच्य बनता है. जिसके द्वारा सम्यक्त्व याने शुद्ध मति प्राप्त होती हो. ऐसे तर्क का वर्णन जिसमें हो उसका नाम संमतितर्क प्रकरण है. ग्रथ का मुख्य विषय अनेकान्तवाद से संबद्ध है. परन्तु वह एकान्त के निरसन द्वारा ही शक्य होने से मूलग्रंथ में न्याय-वैशेषिक-बौद्ध इत्यादि दर्शनों की समीक्षा की गई है. तदुपरांत द्रव्यार्थिकादि नय, सप्तभंगी व ज्ञान दर्शन के भेदवाद आदि जैन दर्शन के अनेक विषयों की महत्त्वपूर्ण चर्चा
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