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पंन्यास प्रवरश्री अमृतसागरजी अाचार्यपद प्रदान
महोत्सव विशेषांक
शालभंजिका
अप्सरा जिनपीठिका
शाहीदाता शालभंजिका प्रस्तुत शिल्पांश को प्रदर्शित करने का उद्देश्य जिनमंदिर के महत्वपूर्ण शिल्प स्थापत्य से लोगों को परिचित कराना है. भारत के कई जिनमंदिर अपने स्तम्भ एवं दीवारों पर की गई नक्काशी एवं महत्वपूर्ण प्रसंगों के चित्रांकन के लिये विश्वविख्यात है, शत्रुजय, गिरनार, आबु के जिनमंदिर, नालंदा, खजुराहो, तारंगा, कुंभारिया, ओसिया, राणकपुर, देवगढ के जिनमंदिरों में की गई नक्काशी उस समय के समाज की कला एवं धर्मभावना के प्रति उदारता की साक्षी हैं. शिल्प लाक्षणिकता
कुषाण युग की जिनप्रतिमाओं में प्रतिहार्य, धर्मचक्र, मांगलिक चिह्नों एवं उपासकों का अंकन पाया जाता है. परन्तु गुप्तकाल की प्रतिमाओं में अष्टप्रतिहार्य (अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्य ध्वनि, चामरधारी सेवक, सिंहासन, त्रिछत्र, देव दुन्दुभि एवं भामण्डल), सिंहासन में धर्मचक्र, लघु जिनप्रतिमा, यक्ष-यक्षी, जिनों के कर एवं पादुका पर धर्मचक्र, पद्म, त्रिरत्न जैसे मांगलिक चिह्न भी पाए जाते हैं, उस काल की प्रतिमाओं में श्रीवत्स, पूर्णघट, स्वस्तिक, वर्धमान, मत्स्य एवं नंद्यावर्त के अंकन भी पाए जाते हैं. जिनप्रतिमाओं में लांछन के अंकन के साथ-साथ परिकर में लघु जिन प्रतिमाएँ नवग्रह, गजाकृतियाँ, विद्या देवी, श्वेताम्बर प्रतिमाओं में सिंहासन के मध्य में पदम-पुस्तक युक्त शांतिदेवी तथा गज एवं मृग का भी अंकन पाया जाता है, साथ-साथ जिनेश्वरों के जीवन दृश्यों का अंकन, पंचकल्याणक, भरत-बाहुबली युद्ध, नेमिविवाह तथा पार्श्वनाथ एवं महावीरस्वामी के उपसगों का अंकन भी देखने में आता है. त्रितीर्थी प्रतिमाएँ, चौमुखी जिनप्रतिमाएँ, पंचतीर्थी जिनप्रतिमाएँ एवं चौवीसी जिनप्रतिमाओं का अंकन प्राचीन समय में लोकप्रिय रहा होगा ऐसा अनुमान किया जाता है. इस खंड में क्रमबद्ध परंपरा एवं विविध लाक्षणिकताओं के साथ प्रतिमाएँ प्रदर्शित की गई है. महत्वपूर्ण जिनप्रतिमाएँ
भारतीय धातुप्रतिमा के इतिहास में जैनकला का महत्वपूर्ण योगदान है. हड़प्पा से प्राप्त कांस्य निर्मित नर्तकी की प्रतिमा (ई. पूर्व. २५००-१५००) को छोड़कर भारत की प्राचीन धातुप्रतिमाएँ जैनकला की देन है. जैनकला की सबसे पुरानी कांस्य प्रतिमा चौसा (जि. भोजपुर, बिहार) से प्राप्त हुई. जो पहली शताब्दी की कही जाती है.
धातु प्रतिमा कला को वास्तविक प्रोत्साहन उत्तर गुप्तकाल में मिला. इस काल की सबसे महत्वपूर्ण रचनाएँ भी जैनकला की देन है. वैसे तो जैन प्रतिमा पूरे भारत में मिलती है, फिर भी अकोटा, वसंतगढ, लील्यादेव, चहर्दी, कड़ी, वल्लभी, महुड़ी,
પાંય ઈન્દ્રિયોના અને પાંચેય ઈન્દ્રિયોના વિષયોના સ્વરૂપના ડાતા, પાંચ પ્રમાદ, પાંચ માણd, પાંચ વિદ્રા, પાંય કુમાdilod (ભાણી સાથે પSજીવંતિકાયની રક્ષા કરવાવાળા આવા છplીણ ગુણોથી યુકI
આચાર્યોને વંદન
જ સૌyવ્ય છે. સી.દિલીપ એન્ડ કંપની, મુંબઈ
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