Book Title: Praudh Apbhramsa Rachna Saurabh Part 1
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रौढ अपमंश रचना सौरभ (भाग-1) डॉ. कमलचन्द सोगाणी याण ज्जोयो जोवो जन विद्यालयो. श्रीमहावीरजी प्रकाशक अपभंश साहित्य अकादमी जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी राजस्थान Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रौढ अपमंश रचना सौरभ ( भाग-1) डॉ. कमलचन्द सोगाणी ( सेवानिवृत्त प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र ) सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर जाणु उजागी जोदो जैन विद्यासंस्था भीमहावीरजी प्रकाशक अपभंश साहित्य अकादमी जनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी राजस्थान Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैनविद्या संस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी, श्रीमहावीरजी - 322220 ( राजस्थान ) प्राप्ति स्थान 1 जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी 2. अपभ्रंश साहित्य अकादमी दिगम्बर जैन नसियां भट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-302004 प्रथम बार, 1997, 1100 मूल्य पुस्तकालय संस्कररण 75/विद्यार्थी संस्करण 60/ मुद्रक मदरलैण्ड प्रिंटिंग प्रेस 6-7, गीता भवन, आदर्श नगर जयपुर-302004 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ स. 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 = 12 13 परिशिष्ट- 1 ( i ) (ii) (iii) (iv) अनुक्रमणिका विषय आरम्भिक प्रकाशकीय स्तुति स्थानवाची अव्यय कालवाची अव्यय प्रकारवाची अव्यय विविध अव्यय अभ्यास (प्रारम्भ के चार पाठों का) विशेषण ( गणनावाचक संख्या शब्द ) एवं अभ्यास वाक्य विशेषण ( क्रमवाचक संख्या शब्द ) एवं अभ्यास वाक्य विशेषण (विविध संख्यावाची शब्द ) एवं अभ्यास वाक्य विशेषण ( सार्वनामिक) एवं अभ्यास वाक्य (क), (ख), (ग) विशेषण (गुणवाचक) वर्तमान कृदन्त भूतकालिक कृदन्त अपभ्रंश - व्याकरण-सूत्र अभ्यास-5 के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद अभ्यास - 6 के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद अभ्यास-7 के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद अभ्यास - 8 के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद पृ. सं. - ∞ ∞ 2 2 3 18 22 32 37 53 57 63 82 91 96 101 i iii iv › V Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ सं. विषय पृ. सं. vi vii viii _ix (v) अभ्यास-9 (क) के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद (vi) अभ्यास-9 (ख) के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद (vii) अभ्यास-9 (ग) के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद (viii) अभ्यास-10 के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद परिशिष्ट-2 कृदन्त परिशिष्ट परिशिष्ट-3 सूत्रों में प्रयुक्त सन्धि-नियम शुद्धि-पत्र सहायक पुस्तकें एवं कोश xlii lvi lviii Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरम्भिक 'प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ भाग-1' अपभ्रंश अध्ययनाथियों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है । ___ यह सर्वविदित है कि तीर्थंकर महावीर ने जनभाषा प्राकृत में उपदेश देकर सामान्यजन के लिए विकास का मार्ग प्रशस्त किया। प्राकृत भाषा ही अपभ्रंश के रूप में विकसित होती हुई प्रादेशिक भाषाओं एवं हिन्दी का स्रोत बनी । अत: हिन्दी एवं अन्य सभी उत्तर भारतीय भाषाओं के विकास के इतिहास के अध्ययन के लिए अपभ्रंश भाषा का अध्ययन आवश्यक है। अनेक कारणों से अपभ्रंश के अध्ययनअध्यापन की उचित व्यवस्था न हो सकी। परिणामतः अपभ्रंश का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर हो गया । दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावी रजी द्वारा संचालित 'जैन विद्या संस्थान' के अन्तर्गत 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' की स्थापना सन् 1988 में की गई । अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर द्वारा मुख्यत: पत्राचार के माध्यम से अपभ्रश का अध्यापन किया जाता है । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ भाग-1 के प्रकाशन से अपभ्रंश की विशिष्ट जानकारी प्राप्त की जा सकेगी। इससे पूर्व डॉ. सोगाणी द्वारा लिखित 'अपभ्रंश रचना सौरभ', 'अपभ्रंश काव्य सौरम', 'अपभ्रश अभ्यास सौरभ' एवं 'प्राकृत. रचना सौरभ' पुस्तकें प्रकाशित हैं। ये सभी पुस्तकें अपभ्रंश अध्ययन-अध्यापन को गति देने में सहायक सिद्ध होंगी, ऐसी हमें आशा है। हमें लिखते हुए गर्व है कि प्रबन्धकारिणी कमेटी के सहयोग से डॉ. सोगाणी अपभ्रंश के अध्ययन अध्यापन को देश में एक सुदृढ़ आधार प्रदान करने की दिशा में सतत प्रयत्नशील हैं। प्रस्तुत पुस्तक 'प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ भाग-1' के लिए हम डॉ सोगाणी के आभारी हैं । पुस्तक प्रकाशन के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के कार्यकर्ता एवं मदरलैण्ड प्रिन्टिग प्रेस धन्यवादाह हैं । बलभद्र कुमार जैन संयुक्त मंत्री नरेश कुमार सेठी अध्यक्ष प्रबन्धकारिणी कमेटी, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय अपभ्रंश भारतीय आर्य परिवार की एक सुसमृद्ध लोकभाषा रही है । इसका प्रकाशित प्रकाशित विपुल साहित्य इसके विकास की गौरवमयी गाथा कहने में समर्थ है | स्वयंभू पुष्पदन्त, धनपाल, वीर, नयनन्दि, कनकामर, जोइन्दु, रामसिंह, हेमचन्द्र, धू आदि अपभ्रंश भाषा के अमर साहित्यकार हैं । कोई भी देश व संस्कृति इनके आधार से अपना मस्तक ऊंचा रख सकती है । विद्वानों का मत है - " अपभ्रंश ही वह भाषा है जो ईसा की लगभग सातवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक सम्पूर्ण उत्तर-भारत की सामान्य लोक-जीवन के परस्पर भाव-विनिमय और व्यवहार की बोली रही है ।" यह निर्विवाद तथ्य है कि अपभ्रंश की कोख से हो सिन्धी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, बिहारी, उड़िया, बंगला, असमी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी प्रादि आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है । इस तरह से राष्ट्रभाषा का मूल स्रोत होने का गौरव अपभ्रंश भाषा को प्राप्त है। यह कहना युक्तिसंगत है"अपभ्रंश और हिन्दी का सम्बन्ध अत्यन्त गहरा और सुदृढ़ है, वे एक-दूसरे की पूरक हैं । हिन्दी को ठीक से समझने के लिए अपभ्रंश की जानकारी आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है ।" डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार - "हिन्दी साहित्य में (अपभ्रंश की) प्रायः पूरी परम्पराएं ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं ।" अतः राष्ट्रभाषा हिन्दी सहित आधुनिक भारतीय भाषाओं के सन्दर्भ में यह कहना कि अपभ्रंश का अध्ययन राष्ट्रीय चेतना और एकता का पोषक है, उचित प्रतीत होता है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हैं कि अपभ्रंश भाषा को सीखना - समझना अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसी बात को ध्यान में रखकर 'अपभ्रंश रचना सौरभ', 'अपभ्रंश काव्य सौरभ' व 'अपभ्रंश अभ्यास सौरभ' नामक पुस्तकों की रचना की गई थी। इसी क्रम में 'प्रोढ अपभ्रंश रचना सौरभ भाग 1' प्रकाशित है । 'प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ भाग 1' में विभिन्न प्रकार के अव्यय, विभिन्न प्रकार के विशेषणों, विभिन्न विभक्तियों में वर्तमान कृदन्त के प्रयोगों तथा भूतकालिक कृदन्त के विभिन्न प्रयोगों को समझाया गया है । इनको समझाने के लिए काव्यों से वाक्य-प्रयोगों का संकलन किया गया है । अभ्यास के लिए हिन्दी वाक्यों के अपभ्रंश में अनुवाद के पाठ तैयार किये गये हैं । परिशिष्ट में उन वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद भी दे दिया गया है । इस तरह से अध्ययनार्थी ग्रव्ययों, विशेषणों आदि का ( ii ) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरढ़ ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगे। इसी पुस्तक में अपभ्रंश व्याकरण के संज्ञा व सर्वनाम के संस्कृत भाषा में लिखे सूत्रों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। सूत्रों का विश्लेषण एक ऐसी शैली से किया गया है, जिससे अध्ययनार्थी संस्कृत के प्रति सामान्य ज्ञान से ही सूत्रों को समझ सके। सूत्रों को पांच सोपानों में समझाया गया है-1. सूत्रों में प्रयुक्त पदों का सन्धिविच्छेद किया गया है, 2. सूत्रों में प्रयुक्त पदों की विभक्तियां लिखी गई हैं, 3. सूत्रों का शब्दार्थ लिखा गया है, 4. सूत्रों का पूरा अर्थ (प्रसंगानुसार) लिखा गया है तथा 5. सूत्रों के प्रयोग लिखे गये हैं । मुझे पूर्ण विश्वास है कि 'प्रौढ़ अपभ्रंश रचना सौरभ भाग 1' के प्रकाशन से अपभ्रंश अध्ययन-अध्यापन के कार्य को गति मिल सकेगी और 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' अपने उद्देश्य की पूर्ति में द्रुतगति से अग्रसर हो सकेगी। मुझे सूचित करते हुए हर्ष है कि 'प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ भाग 2' लेखनप्रक्रिया में है । इसके माध्यम से सन्धि, समास, कारक मौर अपभ्रंश व्याकरण के शेष सूत्र समझाए जा सकेंगे। पुस्तक के प्रकाशन की व्यवस्था के लिए जैन विद्या संस्थान समिति का माभारी हूँ । अकादमी के कार्यकर्ता एवं मदरलैण्ड प्रिंटिंग प्रेस धन्यवादाह हैं। वीर निर्वाण संवत् 2523 दिनांक 25-4-97 डॉ. कमलचन्द सोगाणी संयोजक जनविद्या संस्थान समिति Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुति जय तुहुँ गइ तुहुँ मइ तुहुँ सरणु । तुहुँ माय वप्पु तुहुँ वन्धु जणु ।। तुहुँ परम-पक्खु परमत्ति-हरु । तुहुँ सव्वहुँ पर हुँ पराहिपरु । तुहुँ दंसणे गाणे चरित्ते थिउ । तुहुँ सयल-सुरासुरेहिं गमिउ । सिद्धन्ते मन्ते तुहुँ वायरणे । सज्झाए झारणे तुहुँ तवचरणे ।। अरहन्तु वुद्ध तुल् हरि हरु वि तुहुँ अण्णाण-तमोह-रिउ । तुहुँ सुहुमु णिरञ्जणु परमपउ तुहुँ रवि वम्भु सयम्भु सिउ ॥ -महाकवि स्वयम्भू (प.च. 43.19.5-9) - जय हो, तुम (मेरी) गति हो, तुम ( मेरी) बुद्धि हो, तुम (मेरी) शरण हो । तुम (मेरे) मां-बाप हो, तुम बंधुजन हो । तुम परमपक्ष हो, दुर्मति के हरणकर्ता हो । तुम सब अन्यों से (भिन्न हो), तुम परम आत्मा हो । -तुम दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थित हो । सकल सुर-असुर तुम्हें नमन करते हैं । सिद्धान्त, मन्त्र, व्याकरण, स्वाध्याय, ध्यान और तपश्चरण में तुम हो। -अरहन्त, बुद्ध तुम हो, विष्णु और महादेव और अज्ञानरूपी तिमिर के रिपु (शत्रु) तुम हो । तुम सूक्ष्म, निरंजन और मोक्ष हो, तुम सूर्य, ब्रह्मा, स्वयंभू और शिव (iv) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 1 स्थानवाची अव्यय (1) 1. तेत्थ तहि/तेत्तहे/तउ 2. एत्थु एत्थ/एत्तहे 3. केत्थु केत्तहे कहि 4. जेत्थु जहि/जेत्तहेजउ 5. सवेत्तहे 6. अण्णेत्तहे =वहाँ = यहाँ =कहाँ =जहाँ =सब स्थानों पर = दूसरे स्थान पर (2) 1. कहन्तिउ/कउ 2. केत्थ 3. कहि 4. एत्तहे ...."एत्तहे 5. तत्थहो 6. तहितिउ =कहाँ से -कहाँ से =कहाँ से =एक अोर".... दूसरी ओर =वहाँ से -वहाँ से 1. कहिं चि कहिं जि/कहिं वि 2. कत्थइ 3. कत्थ वि 4. कहि मि -कहीं पर, किसी जगह =कहीं पर =कहीं पर == कहीं पर 1. पासु/पासे 2. पासहो 3. पासेहि 4. दूरहो 5. दूर 6. पच्छए/पच्छले अणुपच्छए 7. पुरे/अग्गले/अग्गए 8. उपरि 9. हेट्ठि =पास, समीप =पास से, समीप से =पास में =दूर से, दूरवर्ती स्थान पर -दूर से =पीछे =आगे -ऊपर -नीचे प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. चउपासें चउपासे हि/चउपासिउ == चारों योर, चारों ओर से वाक्य-प्रयोग (1) 1. तुहुं तेत्थु/तहिं/तेत्तहे/तउ वसहि । -तुम वहाँ रहो। 2. हउं एत्थ/एत्थ/एत्तहे वसउं । -मैं यहाँ रहता हूँ/रहती हूँ। 3. सो केत्थु कहि/केत्तहे वसइ । -वह कहाँ रहता है ? 4. हउ जेत्थ जहि/जेतहे/जउ वस उं, तेत्थु सो वि वसइ । -मैं जहाँ रहता हूँ, वहाँ वह भी रहता है । 5. परमेसरु सव्वेत्तहे अस्थि । -परमेश्वर सब स्थानों पर है । 6. हउ अण्णेत्तहे गउ ।। -मैं दूसरे स्थान पर गया। (2) 1. तुहं कहन्तिउ/कउ मझु फलु लहेसहि । -तुम कहां से मेरे लिए फल प्राप्त करोगे ? 2. तुहुं तहितिउ मझु फलु लहेहि । -तुम वहां से मेरे लिए फल प्राप्त करो। 3. विमाणु कहि/केत्थु उड्डिउ । ___-विमान कहां से उड़ा ? 4. विमाणु तत्थहो उड्डिउ । -विमान वहां से उड़ा । 5. एत्तहे गाणहो सुहु अत्थि, एत्तहे इंदियहो सुह अत्थि ।। -एक अोर ज्ञान का सुख है, दूसरी ओर इन्द्रियों का सुख है । (3) 1. कहिं चिकत्थइ/कहि मि मोरा णच्चन्ति । -कहीं पर मोर नाचते हैं । 2 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. कहि मि गायण गाइय । -कहीं पर गायन गाये गये । 3. कहिं वि कहि जि मेह गज्जन्ति । -कहीं पर मेघ गरजते हैं । 4. कत्थइ विचित्त सरवर लक्खिन । - कहीं पर विचित्र तालाब देखे गये । (4) 1. रावणहो पासु दूउ पेसिउ । -रावण के पास दूत भेजा गया। 2. तुहुं रह पच्छए/पच्छले जान। - तुम रथ के पीछे जाओ। 3. सो रह पुरे अग्गले चलेसइ । -वह रथ के आगे चलेगा। 4. एहो पक्खि उप्परि उड्डेइ । -यह पक्षी ऊपर उड़ता है । 5. पत्थर हेट्टि देखिन। -पत्थर नीचे देखे गये। 6. सो महु पासहो प्रोसरिउ । -वह मेरे पास से हट गया। 7. सो दूरहो/दूरें धावन्तु महु पासु आवइ । -वह दूर से दौड़ता हुआ मेरे पास आता है। संकलित वाक्य-प्रयोग (1) 1. दसरह-जणय वे वि गय तेत्तहे । पुरवरु करतुकमंगलु जेत्तहे । (21.2 प.च.) -दशरथ और जनक दोनों वहाँ गये जहाँ कौतुकमंगल श्रेष्ठ नगर (था)। __2. एत्थु ण हरिसु विसाउ करेवउ । (28.12 प.च.) -यहाँ हर्ष और शोक नहीं किया जाना चाहिए। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 3 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 3. जहि वसइ महारिसी सच्चभूइ गउ तहि भामण्डलु जणु लेवि । ( 22.7 प.च.) - जहाँ सत्यभूति महामुनि रहते थे, वहाँ भामण्डल पिता को लेकर गये । 4. एउ दीसइ गिरिवर-सिहरु जेत्यु, उवसग्गु भयङ्करु होइ तेत्थु । ( 32.2 प.च.) - जहाँ यह श्रेष्ठ पर्वत का शिखर देखा जाता है, वहाँ भयंकर उपसर्ग है । 5. जउ जउ पवणसुत्त परिसक्कइ, तउ तउ वलु रंग थक्कइ । ( 51.13 प.च.) -जहाँ-जहाँ पवनसुत जाता था, वहां-वहां सेना नहीं ठहरती थी । 6. एत्त हे ते तहे वारि घरि लच्छी विसंठलु धाइ । ( 4.436 हे प्रा. व्या.) - अस्थिर लक्ष्मी घर घर पर, द्वार-द्वार पर यहां-वहां दौड़ती है । 7. के तहे रावणु । (69.20 प.च.) - रावण कहाँ है । 8. परमेसरि गउ दहवयणु केत्थु । ( 10.1 पच. ) - हे परमेश्वरी ! दशानन कहां गया ? 9 कहिं गच्छहि प्रच्छमि जाम हउं । ( 64.5 पच. ) - जब तक मैं हूँ (तुम) कहां जावोगे ? 10. प्रणेत्त सोउ उप्परगउ । (3.3 प.च.) ] - दूसरे स्थान पर अशोक (वृक्ष) उत्पन्न हुआ । 11. हूओ सि एत्थ लंकाहिवइ । (615 पं.च.) - तुम यहां लंकाधिपति हुए । ( 2 ) 1 एत्त हे जिरणवर - सासणु सुन्दरु । एत्त हे जाणइ वयणु मणोहरु । एतहे पाउ प्रणवमो वज्झइ । एतहे विसएहिं मणु परिरुज्भ इ । (55.1 प च ) - एक ओर / इधर अरहंत का सुन्दर शिक्षण है, दूसरी श्रोर / उधर जानकी का मनोहर मुख । एक श्रोर / इधर अतुलनीय पाप बांधा जाएगा, दूसरी श्रीर / उधर मन विषयों से रोका जाएगा । 2. परिपुच्छिय तुम्हे पयट्ट केत्थु । कि मायापुरिस पढुक्क एत्थु । (69.9 प च. ) - पूछा गया - आप कहां से प्राये, क्या यहाँ कोई मायापुरुष आ पहुँचा है ? [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. एउ कहिल जलु । ( 68.4 पच. ) - यह जल कहां से प्राप्त किया गया ? 4 वुह - मण्डलु वि चऊहिं तहिति । (2.3 प च ) वहां से चार योजन बुध-मण्डल है । 5. धूमु कहन्तिउ / कउ उम्रिउ । (4416 हे. प्रा. व्या.) धुत्रां कहां से उठा ? 6. त्यो विचवेष्पिणु सुद्धमइ । हूओ सि एत्थ लंकाहिवइ 11 (6.15 प.च.) - हे शुद्धमति ! वहां से मरकर ही तुम यहां लंकाधिपति हुए हो । ( 3 ) 1. कहिं चि ग्राहया हया महीयलं गया गया । (61.4 प.च.) - कहीं पर / किसी जगह ग्राहत अश्व और हाथी जमीन पर पड़े हुए हैं । 2 कत्थइ सन्दरण सय-खण्ड किय । कत्थइ तुरङ्ग णिज्जीव थिय 1 ( 43.1प.च.) - कहीं पर रथों के सैंकड़ों टुकड़े किए गए थे, कहीं पर निर्जीव घोड़े थे । 3. कत्थइ कप्पदुम दिट्ठ तेण । ( 31.6 पच. ) - कहीं पर उसके द्वारा कल्पवृक्ष देखे गए। 4. कत्थ त्रिलोट्टाविय हत्थि हड | ( 43.1 प.च.) - कहीं हाथियों के समूह लोट-पोट कराए गए । 5. वणे कहि मि रिहालिय मत्त गया । ( 36.1 पच.) -वन में कहीं पर मस्त गज देखे गए । 6 कहि जि पुच्छ-दीहरा । किलिक्किलन्ति वाणरा । ( 32.3 प.च. ) - कहीं पर लम्बी पूँछवाले वानर किलकारियां भरते थे । 7 किं केण वि कहि वि परिब्भविय । ( 36.12 प.च.) - क्या किसी के द्वारा कहीं पर ( तुम्हारा ) पराभव किया गया ? ( 4 ) 1. तहि अवसरे मम्भीसन्तु मउ | सण्णहेदि दभासहो पासु गउ । (71.14 पच.) - उस समय अभय देता हुआ मय शस्त्रास्त्र से सुसज्जित होकर रावण के पास गया । 2. सियहे पासु पयट्टु दसाणु । (73.8 प.च.) रावण सीता के निकट गया । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [s Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 ओसरु पासहो ।(74.5 प.च.) - (तू) पास से हट जा। 4. मुच्छ ग्गिएप्पिणु रहुवइ घरिणि हे । करि प्रोसरिउ व पासहो करिणिहे । (73 12 पच.) --राम की पत्नि की मूर्छा को देखकर (रावण उसी प्रकार हट गया) जैसे हथिनी के पास से (हाथी) हट गया हो । 5. को वि दूरहो ज्जे पाणेहिं विमुक्कु । (65.3 प.च.) -कोई दूर से ही (हनुमान को देखकर) प्राणों से छुटकारा पा जाता। 6. पच्छए पुरे वि रावणो । (75.17 प.च.) -पागे-पीछे भी रावण (दिखाई देता था)। 7. पुणु पच्छए हिलिहिलन्त स-भय । खर खुरेहि खणन्त खोणि तुरए। (12.8 प.च.) -फिर तेज खुरों से पृथ्वी खोदते हुए भयभीत हिनहिनाते हुए घोड़े (पैदल सेना के) पोछे (थे)। 8 सायरु उप्परि तणु धरइ, तलि घल्लइ रयणाई । (4.334 हे .प्रा.व्या.) - सागर ऊपर ऊपर की ओर घास धारण करता है, (किन्तु) रत्नों को __ पैंदे में रखता है। 9. पेट्टहु हेट्टि हुग्रासणु जालिउ । (3.12.13 जस.च.) -पेट के नीचे अग्नि जलाई गई। 10. अग्गले पच्छले अ-परिप्पमाण । जउ जउ जे दिट्ठि तउ त उ जि वाण । (64 10 प.च.) - (हनुमान के) प्रागे-पीछे असीमित बाण (थे) । जहाँ-जहाँ दृष्टि (जाती थी), वहां-वहां ही बाण (थे)। 11 थिउ अग्गए पच्छए मड-समूहु । (16.15 प.च.) -योद्धा-समूह प्रागे-पीछे बैठ गया । 12. तउ दूर दिट्ठि जे जणइ सुहु । (9.2 प.च.) तुम्हारी दृष्टि दूर से ही सुख उत्पन्न करती है। 6 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. दूरहो जिणि रुद्धउ वइरि वलु । णं जम्बूदीवें उवहि-जल । (15.3 प.च) -~-शत्रुबल दूरवर्ती स्थान पर ही रोक लिया गया, मानो जबूद्वीप के द्वारा समुद्र का जल। 14. वलहो पासे थिउ कुसलु भणेप्पिणु । (26.1 प.च ) --कुशल पूछकर राम के पास बैठ गया। 15. रहेइ विज्जुलंगु अणुपच्छए । पडीवा-इन्दु व सूरहो पच्छए । (26.1 प.च.) -(उसके) पीछे विद्युदंग चोर शोभित है, मानो सूर्य के पीछे प्रतिपदा का चन्द्रमा हो। 16. जे रिउ अणुपच्छए लग्ग तहो । गय पासु पडीवा णिय-णिवहो । (56 प.च.) -- जो दुश्मन उसके पीछे लगे थे, (वे) निज राजा के पास वापस गये । 17. थिय चउपासें परम-जिणिन्दहो । ( 3.10 प.च.) -- (देवता) परम जिनेन्द्र के चारों ओर स्थित थे। 18. चउपासिउ वइरिहुं तणिय सङ क । (7.11 प.च.) -चारों ओर से दुश्मनों की शंका (है)। 19. पेसिय सासणहर चउपासेहिं । ( 20.1 प.च.) -चारों ओर से शासनधर भेजे गए। 1. 'ऐसे शब्द जिनके रूप में कोई विकार-परिवर्तन न हो और जो सदा एक से; सभी विभक्ति, सभी वचन और सभी लिंगों में एक समान रहें, अव्यय कहलाते हैं ।' 'लिंग, विभक्ति और वचन के अनुसार जिनके रूपों में घटती-बढ़ती न हो, वह अव्यय है।' -अभिनव प्राकृत व्याकरण, नेमीचन्द शास्त्री, पृष्ठ 213 । 2. उपर्युक्त सभी अव्यय स्थानवाचक हैं । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 7 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 2 -तब =जब =उस समय/तब -जिस समय/जब =जब कालवाची अव्यय (1) 1. तइयहुँ 2. जइयहुं 3. तावेहि 4. जावेहि 5. जं 6. तं 7. जाम ७. ताम 9. जाहि. 10. ताहिं 11. एवहिं 12. कइयहुं तब -जब =तब -अब/अभी/इस समय -कब =जब तक (2) 1. जाम/जाउं/जाम्ब/जाव 2. ताम/ताउं/ताव तब तक =प्राज कल -कल (3) 1, अज्ज/अज्जु 2. कल्ले कल्लए 3. परए 4. अज्ज वि 5. अज्जु-कल्ले 6. अणुदिणु 7. दिवे-दिवे 8. रतिन्दिउ 9. रत्तिदिणु 10. कन्दिवसु/कं दिवसु =अाज तक =आज-कल में -प्रतिदिन -प्रतिदिन =रात-दिन =रात-दिन =किसी दिन (4) 1. भत्ति =शीघ्र 8 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. छडु =शीघ्र = शीघ्र =शीघ्र पल भर में =तत्काल 3. अइरेण 4. लहु 5. रिणविसेण 6. तक्खरण 7. तक्खणे 8. रिणविसें 9. खणे खणे 10. खरणन्तरेण 11. खणं-खणं 12. तुरन्त 13. तुरन्तएण 14. तुरन्त 15. तुरन्तउ 16. अवारें तत्काल =पल भर में -हर क्षण =कुछ देर के बाद ही =क्षण-क्षण में =तुरन्त =जल्दी से =जल्दी से =तुरन्त =तुरन्त (5) 1. रण कयाइ 2. चिरु 3. पच्छए-पच्छइ 4. पच्छा 5. पडीवउ 6. पडीवा 7. प्रज्जहो =कभी नहीं -दीर्घ काल तक बाद में -बाद में =फिर वापस =और फिर/वापस =आज से वाक्य प्रयोग (1) 1. जइयहुं हउं एत्थु अच्छउं, तइयहं तुहुँ जुज्झसि । -जब मैं यहां बैठता हूँ, तब तुम लड़ते हो । 2. जं/जाम/जामहि/जाहिं मेह गज्जन्ति, तं/ताम/तामहि/ताहिं मोर गच्चन्ति । - जब मेघ गरजते हैं, तब मोर नाचते हैं । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ } [१ ... Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. एवहिं तुहुँ चिट्ठ । -अभी तुम ठहरो/बैठो। 4. तुहुँ कइयहुं जग्गेससि । -तुहं कब जागोगे ? (2) 1. जाम/जाव/जाउं/जाम्व तुहं सोयसि, ताम/ताव/ताउं हउं जग्गउं । -जब तक तुम सोते हो, तब तक मैं जागता हूँ। (3) 1. तुहं प्रज्ज/अज्जु तहो उपकरि, कल्ले/कल्लए/परए हउं तुज्झ उपकरेसउं । -तुम आज उसका उपकार करो, कल मैं तुम्हारा उपकार करूँगा । 2. अज्जु वि पइं एहु कज्जु ण किउ । -प्राज तक तुम्हारे द्वारा यह कार्य नहीं किया गया । 3 सो अज्जु-कल्ले तत्थु जाएसइ । वह प्राज-कल में वहां जायेगा। 4. अणुदिणु/दिवे-दिवे तई फलाई खाएव्वउं । -प्रतिदिन तुम्हारे द्वारा फल खाए जाने चाहिए । 5. पिउ रत्तिदिणु/रत्तिन्दिउ तउ चितइ । ---पिता रात-दिन तुम्हारी चिन्ता करता है । 6. कन्दिवसु/कंदिवसु हउं तउ घरे अच्छउं । -किसी दिन मैं तुम्हारे घर में बैठूगा । (4) 1. तेण झत्ति/छुडु/अइरेण/लहु लुक्किा । -उसके द्वारा शीघ्र छिपा गया । 2. पई मित्तसु तुरन्त/तुरन्तएण/तुरन्ते/अवारे/तुरन्तउ प्रोसह कीणिज्जउ । - तुम्हारे द्वारा मित्र के लिए जल्दी जल्दी से तुरन्त औषधि खरीदी जाए । 3. विमाणु जुज्झेवं णिविसेण/णिविसें उड्डिउ । -विमान युद्ध के लिए पल भर में उड़ा। 4. तासु पासु संदेसउ तक्खणेण/तक्खणे पेसिउ । - उसके पास सन्देश तत्काल भेजा गया । 10 ] . प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. जो णाणु पयासि खणे खणे/खणं खणे जीवइ, सो जीवणे संति पावइ । -जो ज्ञान के प्रकाश में हर क्षरण जीता है, वह जीवन में शांति पाता है । 6 सामिए खरणन्तरेण भिच्च कोक्किन । -स्वामी के द्वारा कुछ देर के बाद में नौकर बुलाया गया । (5) 1. मुणि हिंसा ण कयाइ करेसइ । -मुनि हिंसा कभी नहीं करेगा। 2. चोरु चिरु णरयि पडेसइ । -चोर दीर्घकाल तक नरक में पड़ेगा । 3 पढमु गव्वु जिणि, पच्छा/पच्छए/पच्छइ अण्णा दोसा जिणु । -पहिले अहंकार को जीतो, बाद में अन्य दोषों की जीतो । 4. प्रज्जहो तुहं महु मित्तु अत्थि । -आज से तुम मेरे मित्र हो । 5. पहिलउ तुहुँ भोयणु करि, पडिवउ/पडिवा तुहुँ गाणु गाअ । –पहिले तुम भोजन करो, फिर तुम गाना गाओ। संकलित वाक्य-प्रयोग (1) 1. दिण्णु देव पइं मग्गमि जइयहुं । णि यय-सच्चु पालिज्जइ तइयतुं । (21.4 प.च.) -हे देव (राजन् ) ! आपके द्वारा दे दिया गया है । जब (मैं) माँगू, तब निज सत्य (वचन) पाला जाए। 2. तहिं णिवसइ मयरद्धउ जइयहुं । अवरु चोज्जु अवयरियउ तइयहुं । (3.5.10 णा.च.) -जब नागकुमार वहां निवास कर रहा था, तब (एक) अन्य आश्चर्य घटित हुआ। 3. एह बोल्ल णिम्माइय जावेहिं । ढुक्कु भाणु अत्थवरणहो ताहिं । (23.9 प.च.) -जब/जिस समय यह वचन कहे गये, तब हो/उस समय ही सूर्य अस्ताचल पर पहुंच गया। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 11 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. धणहरु सरु सारहि छत्त-दण्डु । जं वारिणहिं कि उ सय खण्ड-खण्डु । तं अमरिस-कुद्धे दुद्धरेण । संभरिय विज्ज विज्जाहरेण । (37.15 प.च.) -जब बाणों के द्वारा धनुष, सर, सारथि और छत्र-दण्ड सौ-सौ टुकड़े कर दिए गए तब क्रोध से क्रुद्ध दुर्जय विद्याधर के द्वारा विद्या का स्मरण किया गया। 5. जं दुक्खु-दुक्खु संथविउ राउ । पडिवोल्लिय णिय-घरिणिए सहाउ । (37.6 प.च.) -जब बड़ी कठिनाई से राजा आश्वस्त किया गया (तब) निज पत्नी द्वारा भावपूर्वक पूछा गया । 6. एवहिं सयलु वि रज्जु करेवउ । पच्छले पुणु तव-चरणु चरेवउ । (24.5 प.च.) -इस समय अभी (तुम्हारे द्वारा) समस्त राज्य ही भोगा जाना चाहिए. पीछे/फिर तप का आचरण किया जाना चाहिए । 7. अण्णु वि थोवन्तर जाइ जाम । गम्भीर महाणइ दिट्ट ताम । (23.13 प च.) '--और भी, जब (वे) थोड़ी दूर तक जाते हैं, तब (उनके द्वारा) गम्भीर महानदी देखी गई। 8. सीयए वुत्तु 'पुत्त महु एवहिं । छुडु वद्धउ छुडु धरउ सुखेवेहि'(सुख+ एवेहिं)। (35.2 प.च.) -सीता के द्वारा कहा गया, अभी (तुम) मेरे पुत्र (हो) । शीघ्र बढ़ो, शीघ इस समय सुख धारण करो। 9. जं णिसुणिउ गाउ भयङ्करु । दासरहि घाइउ । (38.9 प.च.) -जब भयंकर नाद सुना गया (तब) राम दौड़े। 10. जामहि विसमी कज्जगई जीवहं मज्झे एइ । तामहिं अच्छउ इयरु जणु सु-अणुवि अन्तरु देइ । (4.406 हे.प्रा.व्या.) -जब जीवों (मनुष्यों) के सामने विषम कार्य-स्थिति उत्पन्न होती है, तब साधारण आदमी तो दूर रहे सज्जन भी उनकी अवहेलना करता है। 11. कइयहुं माणेसहुं राय-सिय । (9.6 प च.) -हम राज्य-लक्ष्मी का अनुभव कब करेंगे ? 12 1 [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) 1. को वि भणइ मुहे पण्णु ण लायमि । जाम्व ण रुण्ड-णिवहु णच्चावमि । (59.4 प.च.) --कोई कहता है मैं (तब तक) मुंह में पान नहीं लूंगा, जब तक घड़ समूह को नहीं नचाता हूँ। 2. अम्हेहिं पुणु जुज्झेवउ समरे । ताव तिट्ठ णयरे । (30.3 प.च.) -हमारे द्वारा फिर युद्ध में लड़ा जायेगा, तब तक नगर में ठहरो। 3. तिलहं तिलत्तणु ताउं पर जाउं न नेह गलन्ति । (4.406 हे.प्रा.व्या.) -तिलों का तिलपना तभी तक पूर्ण रूप से (है), जब तक तेल नहीं निकलता है। 4 जाम ण पत्त वत्त भत्तारहो । ताम णि वित्ति मज्झ आहारहो। (50.10 प.च.) - जब तक पति के समाचार उपलब्ध नहीं हुए, तब तक मेरी आहार से निवृत्ति (थी)। 5. ताम ण जामि अज्जु जाम ण रोसविउ मई दसाणणो ।(51.1 प.च ) -जब तक मेरे द्वारा रावण क्रोधित नहीं किया गया, तब तक मैं आज नहीं जाऊंगा। 6. जाव ण सुण मि वत्त भत्तारहो । ताव णिवित्ति मज्झ आहारहो । ( 38.19 प.च.) -जब तक (मैं) पति की कथा नहीं सुनती हूँ, तब तक मेरी आहार से निवृत्ति रहेगी। (3) 1. समउ कुमार प्रज्ज वि रावण सन्धि करे । (58.1 प.च.) -हे रावण ! (तुम) प्राज भी कुमार (लक्ष्मण) के साथ सन्धि करो । 2. जइ भरहहो होहि सुभिच्चु प्रज्जु तो प्रज्जु वि लइ अप्पणउ रज्जु । (30.9 प.च.) -यदि (तुम) आज भरत के अच्छे दास होते हो तो आज ही अपना राज्य ले लो। 3. सुणु कते कल्ले काई करमि । (62.10 प.च.) -हे सुन्दरी ! सुनो, कल (मैं) क्या करूँगा ? प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 13 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. तहिं हउं पलय दवग्गि कल्लए वणे लग्गेसमि । (62.11 प.च.) --कल मैं उस वन में प्रलय की आग लगा दूंगा। 5 सा परए घिवेसइ कहो वि माल (7.1 प.च.) -वह कल किसको माला पहनायेगी ? 6. अज्ज वि कुम्भयण्णु णइ प्रावइ । (67.8 प.च.) -आज तक कुम्भकर्ण नहीं आया । 7. जाणइ दिदु देव जीवन्ती । अणुदिण तुम्हह णामु ल यन्ती । (55.9 प.च ) -हे देव ! जानकी जीती हुई और प्रतिदिन तुम्हारा नाम लेती हुई देखी गई है। 8. रत्तिन्दिउ लङ्काउरि-पएसु । जगडइ वइसवणहो तणउ देसु । (10.7 प.च ) -रात-दिन लंकापुरी देश (और) वैश्रवण का देश झगड़ता है । 9. दिवे-दिवे छिन्देवउ पाउ-तरु । (50.6 प.च.) -आयुरूपी वृक्ष प्रतिदिन छेदा जाएगा। 10. चिन्तेव्वउ जीवें रत्ति-दिण । भवे भवे महु सामिउ परम-जिणु । (54.16 प च.) -- जीव द्वारा रात-दिन (यह) विचारा जाना चाहिए (कि) भव भव में मेरे स्वामी परम जिन हों। 11. मह पुणु चंगउ अवसरु वट्टइ । जो किर अज्जु कल्ले अभिट्टइ ।(53.2 प.च.) -फिर मेरे लिए अच्छा अवसर है । जो निश्चय ही आज-कल में युद्ध करूँगा । 12. अवसें कन्दिवसु वि सो होसइ । साहसगइहे जुझ जो देसइ । (47.3 प.च.) -अवश्य ही किसी दिन वह (मनुष्य) उत्पन्न होगा, जो सहस्रगति के साथ युद्ध करेगा। 13. अज्जही तुहं महु राणाउ । (20.11 प.च.) -प्राज से तुम मेरे राजा (हो) । (4) 1. झत्ति पलित्तउ अणुहरमाणु हुासहो । (60.1 प.च.) --(वह) (लक्ष्मण) आग का अनुकरण करते हुए शीघ्र भड़क उठा। 14 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. सीयए वुत्तु 'पुत्तु महु एवहिं। छुडु वद्धउ छुडु धरउ सुखेवेहिं (सुख+एवेहिं )।' (35.12 प.च ) -सीता के द्वारा कहा गया-इस समय (तुम) मेरे पुत्र (हो) । (तुम) ___ शीघ्र बढो, शीघ्र इस समय सुख धारण करो। 3. सो अइरेण विणासइ । (71.12 प.च.) -वह शीघ्र नष्ट हो जाता है । 4. लहु सण्णाह भेरि अप्फालिय । (40.14 प.च.) -शीघ्र ही संग्राम भेरी बजवा दी गई । 5. अत्थाण-खोहु रिणविसेरण जाउ । (37.8 प.च.) __ -पलभर में सभा में क्षोभ उत्पन्न हुआ । 6. तो एम पसंसेवि तक्खणेरण । 'हिय जाणइ' अक्खिउ लक्खणेण । (40.13 प.च) -तब इस प्रकार प्रशंसा करके, लक्ष्मण द्वारा तत्काल (उसी समय) कहा गया (कि) जानकी हरण कर ली गई है । 7. तक्खणे उजे पण्णति-वलेण विरिणम्मिय वलं । (46.3 प.च.) -(उनके द्वारा) विद्या के बल से तत्काल (उसी समय) सेना बना ली गई। 8. णिविसें तं जम-गयरु पराइउ । (11.9 प.च.) -पलभर में वह यम के नगर पहुंच गया। 9. खणे खणे वोल्लहि णाई अयाणउ । (44.12 प.च.) -(तुम) हर क्षरण अज्ञानी की तरह बोलते हो। 10. पट्टविय विसल्ल-खरणन्तरेण । (69.15 प.च.) -विशल्या कुछ देर के बाद भेज दी गई। 11. जे मुश्रा वि जीवन्ति खणं खणे । दुज्जय हरि-वल होन्ति रणङ्गणे । (70.1 प.च.) -मरे हुए भी जो क्षण-क्षण में जीते हैं, (तो) युद्ध में लक्ष्मण की सेना दुर्जय होगी। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 15 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. पुणु णरवइ मंदिरे गय तुरन्त । (69.8 प.च) ----फिर राजा तुरन्त मन्दिर में गया । 13. णिउ रामहो पासु तुरन्तएण। (68.1 प.च.) -(वह) (उसे) जल्दी से राम के पास ले गया । 14. सो रिसि सङ गु तुरन्तें वन्दिउ । (5.16 प.च.) - वह मुनि संघ जल्दी से वन्दना किया गया । 15. जं जाणहि त करहि तुरन्तउ । (5.16 प.च.) -जिसको जानो उसको तुरन्त करो । 16. जो परवर-लक्खेहि पण विज्जइ । सो पहु मुअउ अवारें णिज्जइ । (5.2 प.च.) --जो श्रेष्ठ नर लाखों द्वारा प्रणाम किया जाता है, वह प्रभु मरा हुआ तुरन्त ले जाया जाता है । (5) 1. तं विहिसणा पई पजम्पियं । दहमुहस्स रण कयाइ जं पियं । (57.5 प.च.) -हे विभीषण ! तुम्हारे द्वारा वह कहा गया है जो रावण के लिए प्रिय कभी नहीं है। 2. चिरु जेण ण इच्छिउ दप्पणउ । रहे तेण णिहालिउ अप्पणउ । (61.3 प.च.) -जिस योद्धा के द्वारा दीर्घ काल तक (बहुत समय तक) दर्पण नहीं देखा गया था उसके द्वारा रथ में अपना मुख देख लिया गया । 3. पढमु सरीरु ताहे रोमञ्चिउ । पच्छए णवर विसाएं खञ्चिउ । (50.3 प.च.) -पहले उसका शरीर पुलकित हुआ किन्तु बाद में (वह) विषाद के द्वारा भरी गई या विषाद से भर उठी। 4. पच्छए पाणिग्गहणु करेसमि । (26.4 प.च.) -बाद में (मैं) पाणिग्रहण करूंगा। 16 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. पहिलउ जुज्झेवउ दिट्टि जुज्भु । जल - जुज्भु पडीवउ मल्ल(4.9 प च . ) - जुज्भु । - पहले दृष्टि-युद्ध लड़ा जाना चाहिए, फिर जल-युद्ध और मल्ल-युद्ध । 6. जंजिवि ण सक्किउ सलिल जुज्भु । पारड पडीवउ मल्ल- जुज्भु । (4.11 पच ) - जब जल-युद्ध जीतने के लिए समर्थ नहीं हुआ, (तो) फिर मल्ल युद्ध प्रारम्भ किया गया । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 17 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 3 प्रकारवाची अव्यय (1) 1. एम/एम्ब/इय 2 केम केवं 3. तेम/तिम 4. जेम/जिम 5 जिह 6. किह 7. जिह जिह..."तिह तिह = इस प्रकार =किस प्रकार क्यों = उसी प्रकार वैसे =जिस प्रकार जैसे =जिस प्रकार =किस प्रकार =जितना अधिक ... ..."उतना ही जैसे जैसे ...... वैसे वैसे = की मांति/जैसे -किसी प्रकार (2) (3) जिह कह वि वाक्य प्रयोग 1. नरिदेण रयाणाई एम/एम्ब/इय देखिज्जन्ति । -राजा के द्वारा रत्न इस प्रकार देखे जाते हैं । 2. रक्खसा केम/केवं मारेव्वउं । -राक्षस किस प्रकार मारे जाने चाहिए/जाएंगे ? 3. मुणि किह झाइ। -मुनि किस प्रकार ध्यान करता है ? 4. जेम/जिम तुहं मई भणसि, तेम/तिम हउं कज्जु करउं । -जिस प्रकार तुम मुझको बताते हो, उसी प्रकार मैं कार्य करता हूँ। 5. जिह हउं वय धार, तिह तुहं वय धारि । -जिस प्रकार मैं व्रत धारण करता हूँ, उसी प्रकार तुम व्रत धारण करो । 18 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. जिह जिह तुहुं गुरु वक्खाणु सुणेसहि, तिह तिह तुज्भु णाणु वड्ढेसइ । - जैसे जैसे ( जितना अधिक ) तुम गुरु का व्याख्यान सुनोगे, वैसे वैसे ( उतना ही ) तुम्हारा ज्ञान बढ़ेगा । 7. अरिहंता जिह सव्वा जीवा गारणमा अस्थि । हितों की तरह सभी जीव ज्ञानमय होते हैं । 8. सो कह वि तेण बधिउ । - वह किसी प्रकार उसके द्वारा बांधा गया । संकलित वाक्य प्रयोग (1) 1 परणवेप्पिणु तेण वि वुत्तु एम । ( 22.2 प.च.) - ( दशरथ को ) प्रणाम करके उसके (कंचुकी के ) द्वारा भी इस प्रकार कहा गया। 2. एम्व णराहिव अण्ण विणिग्गय । (59.8 प.च.) - इस प्रकार अन्य राजा भी निकल पड़े । 3. इय चउवीस वि परमजिरण पणवेष्पिणु भावें, पुणु पाणउपाय मि रामायण - कावें । ( 1.1 प.च.) - इस प्रकार चौबीसों परमजिनों को भावपूर्वक प्रणाम करके, मैं फिर अपने को रामायण काव्य से प्रकट करता हूँ । 4. हउं पेक्खु केम विच्छारियउ । ( 30.1 प.च.) - देखो मैं किस प्रकार अपमानित किया गया हूँ ? 5. किह पडेण पच्छण्णु पहायउ । (76.13) - किस प्रकार वस्त्र द्वारा प्रभात ढक दिया गया ? 6. सो दीण - वयणु पहु चवइ केवं । ( 28.2 प.च.) - वह प्रभु दीन वचन क्यों बोलता है ? 7. सय-खण्ड केवं तउ ग गय जीह । (58.15 पच. ) - तुम्हारी जीभ के सौ टुकड़े क्यों नहीं हुए ? प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 19 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 8. वे वि वीर एक्कासणे वइट्ठ, जेम गयगङ्गणे चन्दाइच्च । ( 26.10 प.च.) - दोनों वीर एक आसन पर बैठे जिस प्रकार श्राकाश में चन्द्रमा और सूर्य (बैठते हैं । 9. पढम - विहत्ति तप्पुरिस जेम, ण पईसइ उज्भहे चक्कु तेम । (4.1 प.च.) - जिस प्रकार (जैसे ) प्रथमा विभक्ति में तत्पुरुष समास प्रवेश नहीं करता है, उसी प्रकार ( वैसे ही ) अयोध्या में चक्र प्रवेश नहीं करता । - 10. जिम सिद्धालए सिद्धु तिम समसरणे पट्ठउ । (5.6 प.च ) - जिस प्रकार सिद्ध सिद्धालय में ( जाते हैं), उसी प्रकार ( वह ) समवशरण में गया । 11. जेम सेण्णु समरंगणे पसरइ । तिह अम्वरे मेह-जालु पसरइ । ( 28.1 प.च. ) - जिस प्रकार सेना युद्ध में फैलती है, उसी प्रकार प्रकाश में मेघ- जाल फैलता है । 12. जिह रवि - किरणेहि ससि ग पहावइ । तिह मई होन्तें भरहु ण भावइ । (22.5 प.च.) - जिस प्रकार सूर्य की किरणों के कारण चन्द्रमा प्रभाव नहीं रखता है, उसी प्रकार मेरे होते हुए भरत अच्छा नहीं लगता है । 13. ते जगय-पवण-सुग्गीव सुय रामहो चलणेहिं पडिय हि । कल्लाण-काले तित्थङ्करहो तिण्णि वि तिहुवण- इन्द जिह 11 ( 69.1 प.च.) - वे जनक, पवन और सुग्रीव के बेटे राम के पैरों पर पड़े, किस प्रकार ? जिस प्रकार कल्याण के समय तीनों इन्द्र जिन भगवान के पैरों पर पड़ते हैं । 14. भाई विप्रोएं जिह जिह करइ विहीसणु सोउ । तिह तिह् दुक्खेण रुबइ स हरि-वल-वाणर- लोउ । ( 77.1 प.च.) 1 - भाई के वियोग में विभीषण ने जितना अधिक / जैसे जैसे शोक किया, उतना ही, वैसे वैसे राम-लक्ष्मण और वानर - समूह दुःख के कारण रोया । [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) 1. जाणइ सिविणा-रिद्धि जिह ण हुअ ण होइ ण होसइ तुझु । ( 57.4 प. च.) -स्वप्न की सम्पदा की तरह सीता न तुम्हारी थी न है, न होगी। (3) 1. सो रण मुहे कह वि कह वि ण मुउ । (5.6 प.च.) --वह रण में किसी प्रकार न मरा । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 21 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध अव्यय (1) 1. णाहि / स हि /उ/रग/ ण/वि 2. मं 3. किण्ण (2) 1. सहूं / समउ / समाणु 2. विणु (3) 1. ( 4 ) 1. 2. म खानु रामें / णामेण ( 9 ) 1. गवर 2. णवरि 3. पर 4. परोपरु रण / ण: वइ / णाई रपाइं / इव जिह / जेम / व्व / व (6) 1. कि 2. काई 3. तेरण 4. कइयहुं 22 (7) 1. जइ 2. पच्चेल्लि उ ( 8 ) 1. सई (9) 1. प्रत्थक्कए 2. अहवा ] "तो पाठ 4 = नहीं = मत / नहीं = क्यों नहीं = =साथ = बिना = नामक / नामधारी / नाम से =मानो = की तरह / की भाँति = परन्तु / केवल - केवल = = किन्तु === आपस में एक दूसरे के विरुद्ध = क्या = क्यों = इसलिए कब = यदि = बल्कि = स्वयं = एकाएक / शीघ्र = अथवा [ तो प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 जिम (10) 1. भो 2. अरे 3 हा 4. श्रहो (11) 1. पुणु पुणु 2. पुणुवि 3. मुहु मुह 4 वारवार 5. एक्कसि 6. एक्कवार 7. सयवारउ 8 तिवार / तिवारउ 9. वहुवारउ (12) 1 एत्थन्तरे 2. ताणन्तरे 3 थोवन्तरे (13) 1. सुट्ठ 2. श्रवसें 3. वरु 4. वरि 5 सबभावें 6. अवियारें 7. सर 8. लीलए 9. सव्वाघरेण 10 खिरारिउ जिम प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] =या = हे / प्ररे =अरे = हे =हे या बार-बार = एक बार फिर =बार-बार ==बार-बार = एक बार = एक बार = सौ बार -तीन बार = बहुत बार - इसके पश्चात् / इसी बीच / इसी समय = उसके बाद = थोड़ी देर बाद ==अत्यन्त = अवश्य ही = = अधिक अच्छा = अच्छा = = सद्भावपूर्वक = विकार भाव से = स्नेहपूर्वक = लीलापूर्वक = पूर्ण आदरपूर्वक - = पूर्णरूप से [ 23 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. दुक्खु दुक्खु 12. सहसत्ति 13. दाहिरणेण 14. उत्तरेण =बड़ी कठिनाईपूर्वक -एकदम (सहसा) =दक्षिण की ओर = उत्तर की ओर सकलित वाक्य प्रय (1) 1. मइं सरिसउ अण्णु गाहिं कुकइ । (1.3 प.च.) -मेरे समान दूसरा कुकवि नहीं है । 2. रणउ संधिहे उप्परि वुद्धि थिय । (1.3 प.च.) -सन्धि के ऊपर (मेरी) बुद्धि नहीं ठहरी । 3. छक्कारय दस लयार ण सुय । (1.3 प.च ] -- (मेरे द्वारा) छः कारक (और) दस लकार नहीं सुने गये । 4. किं चलण-तलग्गइ कोमलाई। रणं णं अहिणव-रत्तप्पलाई। (69.21 प.च.) -क्या (यह उसके) कोमल चरणतल (हैं). नहीं नहीं नये लाल कमल (हैं)। 5. तोयदवाहण -वसु में राम-दवग्गिए डज्झउ । (70.1 प.च.) --राम की दावानल से तोयदवाहनवंश न जलाया जाए। 6. गवि चलिउ तो वि तहो झाणु थिरु । (9.11 प.च.) -तो भी उसका स्थिर ध्यान विचलित नहीं हुआ। 7. णहि गय, णहि तुरय, ........."रणवरि महियले रुण्डई दीसन्ति । (38.2 प.च.) --न हाथी, न घोड़े, पृथ्वी पर केवल धड़ देखे जाते हैं । 8. रावण किण्ण गण हि महु वयणइं। (57.2 प च.) -हे रावण ! (तुम) मेरे वचनों को क्यों नहीं गिनते हो ? (2) 1. सो वि गउ सहुं पुत्ते । (21.10 प च.) -वह भी पुत्र के साथ गया। 2. एव विमुक्कइं विसय-सुहेहिं समउ मणि रयणाई। (77.20) -इस प्रकार विषय-सुखों के साथ मणि-रत्न (भी) छोड़ दिए गए। 24 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. तेण समाणु सनेहें लइया, रायहं चउ सहास पव्वइया । (2.11 प च ) -उसके साथ चार हजार राजाओं के द्वारा स्नेहपूर्वक प्रव्रज्या ली गई। 4. सिय कहो समाणु एक्कु वि पउ ण गय । (33.5 प च.) - लक्ष्मी किसी के साथ भी एक कदम नहीं गई । 5. पइं विणु को पलङ्क सुवेसइ । (2 3 4 प.च.) -तुम्हारे बिना कौन पलंग पर सोवेगा? (3) 1. सिरिमाल-रणाम तहो तणिय दुहिय । (7.1 प.च.) -श्रीमाला नाम की उसकी कन्या है। 2. सिरिकण्ठ-णामु रिणव-मेहुणउ । (6.1 प.च.) -- श्रीकण्ठ नाम का राजा का साला था। 3. परमेसर दुज्जउ दुठ्ठ खलु चन्दोवरु गामें अतुल वलु । (12.1 प.च.) -हे परमेश्वर ! चन्द्रोदर नाम का अतुल बलशाली दुष्ट खल दुर्जय (है)। 4 गामेण सयंपहु णयह किउ । (9.13 प च.) -स्वयंप्रभ नाम का नगर बसाया गया । (4) 1. तं वयणु सुणेवि पलम्व-बाहु । रणं चन्दाइच्चहुँ कुविउ राहु । (4.5 प च.) -उसके वचन को सुनकर बाहुबलि क्रुद्ध हुआ, मानो राहु सूर्य और चन्द्र से क्रुद्ध हुप्रा हो । 2. दुक्खु दुक्खु हरि दमिउ परिन्दें । रग मयरद्धउ परम-जिणिन्दें । (5.4 प.च.) - राजा के द्वारा बड़ी कठिनाई से घोड़े वश में किए गए, मानो जिनेन्द्र के द्वारा कामदेव वश में किया गया है । 3. महि-मण्डले सीसु दीसइ असिवर-खण्डियउ । णावइ सयवतु तोडेवि हमें छंडियउ । (7.5 प.च.) - तलवार के द्वारा खण्डित किये हुए सिर पृथ्वीतल पर दिखाई देते हैं, मानो हंस के द्वारा कमल तोड़कर छोड़ दिए गए हों। 4. दिठ्ठ दसासेण सेयसेण णावइ रिसहु भडारउ । (1 5.6 प च.) - रावण के द्वारा (मुनि) देखे गए मानो श्रेयांस के द्वारा प्रादरणीय ऋषभ (देखे गए हों)। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 25 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. झत्ति पलित्तउ अणुहरमाणु हुासहो । गाई समुट्ठिउ मत्थासूलु दसासहो । (60 | पच) -अग्नि की नकल करते हुए (वह) शीघ्र भड़क उठा, मानो रावण के सिर में दर्द उठा हो। 6. तुहं पुणु धावइ णाई अयाणउ । (11.13 प.च.) --किन्तु तुम अज्ञानी की तरह दौड़ते हो । 7. आयए लच्छिए वहु जुज्झाविय । पाहुण या इव वहु वोलाविय । (5 13 पच.) ---इस लक्ष्मी के द्वारा बहुत लड़वाए गए, अतिथि की तरह (इसके द्वारा) बहुत (स्थान पर) गमन किया गया । 8. आलग्गु सो वि वणे मिह हुआसु । (7.5 प.च.) --वह वन में दावानल की भांति (युद्ध में) भिड़ गया । 9. णिव्वाडेप्पिणु धम्मु जिह जं भावइ तं गेण्हहि मित्ता। (6 4 पच) --धर्म की तरह (इन सिद्धियों में से) चुनकर, हे मित्र ! जो अच्छा लगे __ वह ले लो। 10. अप्पूणु भरहु जेम णिक्खन्तउ । (5.14 प.च.) - स्वयं भरत के समान प्रव्रजित हो गया । 11. दुज्जण-पुरिसो ब्व सहाव-खारु । (69.3 प.च ) - दुर्जन पुरुष की भांति (समुद्र) स्वभाव से खारा है । 12. तवसि व परिपालिय-समय-सारु । (69.3 प.च.) - तपस्वी की भांति (समुद्र के द्वारा) सिद्धान्त (मर्यादा) का पालन किया गया है। (5) 1. गए मोत्तिउ सिङ्घल-दीवे मणि वइरागरहो वज्जु पउरु । प्रायई सव्वई लब्भन्ति जए गवर ण लब्भइ भाइ-वरु । (69.12 प.च.) -हाथी में मोती, सिंहलद्वीप में मणि, हीरे की खान से प्रचुर हीरा-ये जगत में प्राप्त हो सकते हैं, किन्तु श्रेष्ठ भाई प्राप्त नहीं किया जा सकता है। 26 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. परिगलिउ रुहिरु थिउ णबर चम्मु । ( 22.2 प च ) - खून गल गया ( है ), केवल चमडी शेष है । 3. गवरि एक्कु सन्देसउ णेज्जहि । ( 45.15 प.च.) - केवल एक सन्देश ले जाओ । 4. पर सन्धिहे कारणु प्रत्थि एक्कु । ( 58.14 पच. ) किन्तु सन्धि का कारण एक है । 5. भिडिय परोप्यरु हणुव - मय । (75.1 प.च.) - हनुमान और मय श्रापस में भिड़ गए । 6. पहरन्ति परोपरु पहरणेहि । (75.2 प. च ) — अस्त्रों से एक दूसरे के विरुद्ध प्रहार करते हैं । ( 6 ) 1. कि इन्दहो इन्दत्तणु टलिउ ? ( 27.6 प.च.) क्या इन्द्र का इन्द्रपना टल गया । 2. हे परवइ मूढा रुहि काई ? ( 37.5 प.च.) - हे मूर्ख राजा ! रोते क्यों हो । 3. जिह जच्चन्धु दिसाउ विभुल्लउ । अच्छमि तेरण एत्थु एक्कल्लउ । (44.8 प.च.) - जन्मान्ध की तरह ( मैं ) दिशा भूल गया, इसलिए यहां अकेला हूँ । 4. कइयहुं माणेसहुं राय - सिय । ( 9.6 प.च.) ――― - ( मैं ) राज्य- लक्ष्मी का अनुभव कब करूँगी ? ( 7 ) 1. जइ तहो श्रप्पिय जणय-सुय तो हउं रण वहमि इन्दइ णासु । (57.5 प.च.) -यदि जनक की पुत्री (सीता) उसके लिए सौंप दी गई, तो मैं इन्द्रजीत नाम नहीं रखूँगा । 2. तेण विरिउ जिणेवि ण सक्कियउ । पच्चेल्लिउ हजं णिरत्थु कियउ । (43.3 प.च ) - उसके द्वारा भी रिपु जीतना सम्भव नहीं किया गया है, बल्कि मैं निरस्त्र कर दिया गया हूँ । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ 1 [ 27 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) 1. किं सलिलें, सई जे विसल्ल जाउ । (69.14 प.च) --जल से क्या प्रयोजन ? स्वयं विशल्या ही जाए । (9) !. प्रत्यक्कए प्राइउ सुर-णिकाउ तित्थयर-पुत्त केवलिउ जाउ । (5.14 प.च.) --एकाएक/सहसा देव समूह आ गया, (क्योंकि) तीर्थंकर के पुत्र (बाहुबलि) केवली हुए थे। 2. वरि खय-कालु ढुक्कु प्रत्थक्कए । (67.4 प.च.) -अच्छा हो (मेरा भी) क्षयकाल शीघ्र प्रा जाए। 3. कहिं संचरहि सण्ढ अहवा णर । (20.8 प.च.) - हे नर अथवा सांड ! कहां जाता है ? 4. जिम अब्मिडु जिम पह महु पाएहिं । (6.12 प.च.) -या तो लड़ो या मेरे पैरों में पड़ो। (10) 1. भो भो रयणकेसि किं भुल्लउ । अच्छहि काई एत्थु एक्कल्लउ । (44.7 प.च.) -हे ! अरे ! रत्नकेशी । क्या (तुम्हारे द्वारा) मुला दिया गया है ? तुम __ यहां अकेले क्यों ठहरे हो ? 2. अरे ! खल खुद्ध पिसुण अकलंकहे । मरु-मरु णीसरु णीसरु लंकहे । (57.8 प.च.) -अरे ! दुष्ट, क्षुद्र, चुगलखोर मर मर । कलंकहीन लंका से निकल । 3. हा विहि हा का इं कियन्त किउ । एउवसणु काई महु दक्खविउ । (68 12 पच) - हे विधाता ! हे कृतान्त । (मेरे द्वारा) क्या किया गया (है) यह दुःख (मेरे लिए) मुझे क्यों दिखाया गया है ? 4. अहो अहो राम राम रामापिय । (70.7 प च ) हे राम! हे सीता-प्रिय राम ।। (11) 1. पुण पुणु वग्गइ पेक्षेवि रावण-साहणु । 60.3 प.च.) --रावण की सेना को देखकर (वह) बार-बार कूदता है । 28 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. अभिट्टाइं पुणु वि राम-राम्वण-वलइं । (66.1 प.च.) - राम और रावण की सेनाएं एक बार फिर भिड़ गई। 3. मुहु मुहु जम्पहि अ-सुवाहणु । (70.8 प.च.) ---(तुम) बार बार अशोभन बोलते हो । 4. वार वार अप्पाणउ णिन्देवि भोयण-भूमि पइठ्ठ पहाणाउ । (73.5 प च.) - बार बार अपने पापकी निन्दा करके (वह) प्रधान भोजन-स्थल को गया। 5. जइ वि ण कि पि देहि सुर-सारा। तो वरि एक्कसि वोल्लि भडारा । (2.14 प.च.) – यद्यपि श्रेष्ठ देव कुछ नहीं देंगे, हे आदरणीय ! तो भी अच्छा एकबार कहें। 6. ग्रहो परमेसर पर-उवयारा । एक्कवार मह खमहि भडारा (44.4 प च.) -पर का उपकार करनेवाले हे परमेश्वर ! हे आदरणीय ! एक बार मुझे क्षमा करें। 7. सयवारउ सिक्खविउ मई । (49.6 प.च.) -मेरे द्वारा सौ बार शिक्षा की गई है । 8. परियञ्चिय ति-वार सहसक्खें । (2.2 प.च.) –इन्द्र द्वारा तीन बार प्रदक्षिणा दी गई । 9. तुरिउ ति-वारउ भामरि देप्पिणु ....... (2.14 प.च.) -तुरन्त तीन बार प्रदक्षिणा देकर ........... । 10. बहुवारउ रिण सियर-कइचिन्धेहिं । वेयारिय सुकेस-किक्किन्धेहि । (8.10 प.च.) - निशाचर और कपिध्वजियों, सुकेश और किष्किन्ध के द्वारा (हम) बहुत बार विदीर्ण किए गए। (12) 1. तो एस्थन्तरे पहु प्राणन्दिउ । (5.16 प.च) -तो इसके प्रनन्तर राजा आनन्दित हुआ। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 29 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. एत्थन्तरे मारिच्चेण वुत्तु । (10.4 प.च.) -इसके पश्चात् मारीच के द्वारा कहा गया । 3. तो एत्थन्तरे ण यण -विसालए । एह वत्त जं सुय वणमालए । (29.3 प.च.) ____ -- तब इसी बीच/इसी समय विशाल नयनवाली वनमाला के द्वारा जब यह बात सुनी गई। 4. तारणन्तरे दिठ्ठ जडाइ वणे । (39.1 प. च ) -उसके बाद वन में जटायु दिखाई दिया। 5. थोवन्तरे जल-णिम्मल-तरंग । ससि-संख-समप्पह दिट्ठ गग । (69.7 प.च.) -थोड़ी देर बाद निर्मल जल-तरंगवाली, शशि और शंख के समान प्रभा वाली गंगा देखी गई। (13) 1. सुठ्ठ वि सीयालु महन्त-काउ, किं विमहइ केसरि-णहर-घाउ । (61.54 च.) -अत्यन्त बड़ी कायावाला सियार भी क्या सिंह के नख-घात को सहन कर सकता है ? 2. किं करेहि तुहं सुठ्ठ वि भल्लउ । वन्धव-सयण-हीणु एक्केल्लउ । (70.2 प.च) -अत्यन्त अच्छा भी तू बन्धु और स्वजन से रहित अकेला क्या करेगा ? 3. प्रवसें कन्दिवसु वि सो होसइ । (47.3 प.च.) -अवश्य ही किसी दिन वह मनुष्य उत्पन्न होगा। 4. वरु सरणु जामि रहु-गन्दण हुँ । ( 43.3 प.च.) -अधिक अच्छा, मैं राम की शरण में जाता हूँ। 5. किं सोएं कि खन्धावारें । वरि पावज्ज लेमि अवियारें। (5.13 प.च.) -शोक से क्या (लाभ)? सेना से क्या (लाभ) ? अच्छा मैं अविकार भाव से प्रव्रज्या लेता हूँ। 0. सब्भावें भणइ कित्तिधवलु । (6.4 प च.) -कीर्तिधवल सद्भावपूर्वक कहता है । 7. भणमि सणे, दहवयण । (54.13 प.च.) . -हे रावण ! (मैं) स्नेहपूर्वक कहता हूँ। 30 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. मारुइ लोलए लङ्क पइट्ठउ । (48.4 प.च.) __ -हनुमान ने लीलापूर्वक लंका में प्रवेश किया। 9. तं पणवहो सई सम्वायरेण जइ इच्छहो भव-मरण-खउ । (87.2 प.च,) -यदि (तुम) संसार और मरण के नाश की इच्छा करते हो (तो) उसको पूर्ण पादरपूर्वक सदा प्रणाम करो। 10. जण-विरुद्ध ववहरिउ रिणरारिउ। (76 2 प च) -(हे भाई) (तुम्हारे द्वारा) पूर्णरूप से जन-विरुद्ध आचरण किया गया । 11. जं दुक्खु दुक्खु संथविउ राउ । पडीवोल्लिउ णिय-धरिणिएं सहाउ । (37.6 प च.) -जब बड़ी कठिनाई से राजा आश्वस्त किया गया (तो) निज भार्या द्वारा भावपूर्वक पूछा गया । 12. तो सहसत्ति पलित्तु विहीसणु । (21.1 प.च.) -तब विभीषण एकदम (सहसा) क्रोध से आगबबूला हुआ । 13. दाहिणण सुगीउ स-साहणु। (44.6 प.च.) -सेनासहित सुग्रीव दक्षिण की अोर (गया)। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 31 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 5 अभ्यास निम्नलिखित वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद कीजिए 1. श्रेणिक नाम का राजा राजगृह नगर में रहता था । 2. क्या तुम्हारे द्वारा परमेश्वर का नाम लिया जाता है ? 3. जिन-शासन में राम-कथा किस प्रकार कही गई है, बताइए । 4. हंसकर उसके द्वारा इस प्रकार कहा गया। 5. तुम्हारा पुत्र यहां त्रिभुवन-तिलक होगा। 6. इन्द्र ने तीन बार उसकी प्रदक्षिणा की। 7. फिर उसने जिनेन्द्र की वन्दना प्रारम्भ की। 8. हम भरत-नरेन्द्र को कल क्या जवाब देंगे ? 9. वे विमानों से वहां पहुंचे जहां समवशरण में जिन थे । 10. चक्ररत्न ने नगर में प्रवेश नहीं किया, जिस प्रकार अज्ञानी में सुकवि की वाणी प्रवेश नहीं करती है । 11. मैंने उसके साथ अप्रिय नहीं किया । 12. मैं उसके पास नहीं जाता हूँ। 13. उसको सुनकर राजा शीघ्र आग-बबूला हो गया । 14. जो तीनों युद्धों को प्राज जीतता है, उसका ही राज्य होगा। 15. उनके द्वारा शीघ्र दृष्टि-युद्ध प्रारम्भ किया गया। 16. जब भरत दृष्टि-युद्ध जीतने के लिए समर्थ नहीं हुआ तब तुरन्त जल-युद्ध प्रारम्भ किया गया। यदि मनुष्य में धैर्य होता है तो उसके पास से लक्ष्मी, कीर्ति नहीं हटती है । 18. वहां सब ही बन्धुजन बुलवाये गए तब कन्या के साथ पाणिग्रहण किया 17. गया। 32 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20. 19. पल भर में अन्धेरा होता है, पल भर में चांदनी होती है, पल भर में मेघ बरसता है। प्रतिदिन इन्द्रियरूपी शत्रुओं को जीतते हुए वह वहां गया जहां कैलाश पर्वत है। 21. उसका पुष्पविमान आकाश में रुका मानो वर्षा के कारण कोयल का कलरव रुक गया हो। 22. मैं पाषाण की तरह कैलाश को उखाड़कर समुद्र में फेंक दूंगा। 23. कहीं सुअों (तोतों) की पंक्तियां उठी मानो मरकत के कंठे टूट गये । 24. आकाश में प्रत्यन्त सुन्दर चन्द्रमा उगा, मानो जगरूपी घर में दीपक जला हो । 25. अच्छा, अब सिद्धिरूपी वधू का पाणिग्रहण किया जाए । 26. उसके द्वारा जो गुप्तचर भेजे गये थे, वे तत्काल वापस आ गये । 27. नीति के बिना वह एक भी पग नहीं चलता है । 28. आठ प्रकार के विनोद में वह दिवस बिताता है । 29. आगे-पीछे यौद्धा-समूह बैठ गया । 30. अरे राजहंस, बतायो ! यदि कहीं अंजना देखी गई है । 31. हे पुत्र ! तुम मुझे मुख दिखायो । 32. तुम रोते क्यों हो ? मुह पोंछो । 33. आज से वह उसका मंत्री है । 34. क्या बाल सूर्य अन्धकार को नष्ट नहीं करता है ? 35. इस समय राज्य भोगा जाना चाहिए, बाद में फिर तपश्चरण किया जाना चाहिए। 36. हे रावण ! तुम आनन्द करते हुए स्वजनों को क्यों नहीं देखते हो ? 37. तुम पहाड़ के समान बड़प्पन को क्यो नष्ट करते हो ? प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 33 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. हे भाई! सुनो — मैं जानता हूँ, देखता हूँ, नरक की शंका करता हूँ, ( किन्तु ) फिर भी मैं शरीर में बसती हुई पाँच इन्द्रियों को जीतने में ( जीतने के लिए) समर्थ नहीं हूँ । स्वप्न की सम्पदा की तरह जानकी न तुम्हारी हुई, न है, न होगी । 39. 40 दोनों निन्दा करते हुए आपस में भिड़ गए । 41. उसके द्वारा विशल्या का जल लाकर सबके ऊपर डाल दिया गया । 42. थोड़ी देर बाद उनके द्वारा अयोध्या देखी गई । 43. हे भाई! एक बार मुझे मुखड़ा दिखाओ | 44. नगर के चारों ओर समुद्र था । 45. वह दक्षिण की ओर गया । शब्दार्थ 1. श्रेणिक = सेणिश्र, राजाः - रणरवइ, राजगृह = रायगिह, नगर = पट्टण 2. लेना = ले 5. त्रिभुवन - तिलक = तिहुश्ररण- तिलश्र 6. इन्द्र = सहसक्ख, पुरन्दर; प्रदक्षिणा करना = परियंच 7. जिनेन्द्र = जिणिन्द, वन्दना = वन्दरण, प्रारम्भ किया = श्राढस 8. भरत = भरह, जवाब = पच्चत्तर 9. पहुंचे हुक्क, समवसरण == = समोस रण 10. चक्ररत्न = चक्क रयरण, प्रवेश करना = पइसर, पर्टस, सुकवि = सुकइ, वाणी-वयण, श्रवहन्भन्तरे अज्ञानी में 11. अप्रिय विप्पिन 13. आग-बबूला हुआ पलित्त 34 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. तीनों=तिण्णि मि, जीतना=जिण, ही=वि 15. दृष्टि-युद्ध दिट्ठि-जुज्झ, प्रारम्भ किया गया=पारद्ध 16. समर्थ नहीं हुआ=ण सक्किम 17. यदि=छुडु/जइ, मनुष्य =माणूस, धैर्यधोरत्तण, हटना=प्रोसर 18. सब ही=सयल वि, बुलाना=कोक्क, पाणिग्रहण = पारिणग्गहण 19. अंधेरा=अन्धार, चांदनी चंदिण, मेघ=धाराहर, बरसना=वरिस 20. इन्द्रियरूपी शत्रु=इन्दिय-वयरि (पु), कैलाश पर्वत=कइलास-गिरि 21. पुष्प विमान=पुष्फविमाण. आकाश में=अम्बर (न), रुकनाथम्भ, वर्षा=पाउस (पु.), कोयल कोइल (पु.), कलरव=वमाल (पु.) 22. पाषाण=पाहाण, मूल से उखाड़ना=उम्मूल, फैकना=धिव 23. तोता=सुन (पु.), पंक्ति-पंति (स्त्री.), मरकत=मरगय, कठ=कंठिया (स्त्री.) 24. चन्द्रमा=ससि (पू.), दीपक दीवन (पु.), जला=पइत्त, जगरूपी घर= जगहर 25. सिद्धिरूपी वधु सिद्धि वहू, विवाह करना=परिण/परिणी 26. गुप्तचर-गूढपुरिस, भेजना=पट्ठव, वापस =पडीवा 27 नीति=णीइ (स्त्री.), पग=पन 28. आठ प्रकार के प्रविह, विनोद=विणोप्र, समय बिताना=णी 29. योद्धा=भड (पु.), समूह समूह (पु. न.), बैठा=थिन 30. राजहंस रायहंस 31. दिखाना=दक्खव 32. पोछना=लुह 33. मन्त्री=मति (पु.) 34. अन्धकार=तम, नष्ट करना=हण 35. भोगना=भुंज, तपश्चरण-तवचरण 36. आनन्द करना=णन्द, स्वजन=सयरण प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 35 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37. बड़प्पन =वड्डतरण, नष्ट करना=खण्ड, समान-सम (वि.) 38. शंका करना=संक, पांच इन्द्रिय पंचिदिय 39. स्वप्न=सिविण, संपदा रिद्धि 40. निन्दा करना=दोच्छ, भिड़ना-भिड, दोनों वे वि 41. लाना=प्राण, डाला=चित्त 42. अयोध्या-प्रउज्झा 43. मुखवयण (पु. न.), दिखाना=दक्खव 36 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 6 विशेषण (गणनावाचक संख्या शब्द) एक्क दो/दु/वे/वि/दुइ - दो = तीन - चार = पांच चउ पंच छ/छह सत्त - छह = सात पाठ = दस = ग्यारह = बारह = तेरह = चौदह गव दस/दह एयारह धारह/वारह तेरस/तेरह चउदह पण्णारह सोलह सत्तारह अट्ठारह एक्कुरणवीस/एक्करणवीस बीस/वीस एक्कबीस वावीस तेवीस चवीस पंचवीस छव्वीस/छहवीस सत्तावीस = पन्द्रह = सोलह = सतरह = अट्ठारह = उन्नीस = बीस = इक्कीस - बाईस = तेईस = चौबीस = पच्चीस = छब्बीस = सत्ताईस प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] । 37 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठार्वीस एकुण ती तीस एक्कतो बत्तीस तेत्तीस चडतोस पंचतोस / पतीस छत्तीस सततीस श्रद्वतीस एगुणचालीस चालीस एक्कचालीस बयालीस तियालोस चालीस पंचचालीस छयालीस सत्तचालीस चालीस / श्रट्टायाल एक्कूणपणास पण्णास एक्वण्णास दुवण्णास तिवरणास वउवण्णास पंचवण्णास छप्परगा स सत्तवण्णास 38 ] wwwdcdcm - - - - = 1 अट्ठाईस उन्तीसा तीस इकतीसा बत्तीस तैंतीस चौंतीस पैंतीस छत्तीस संतीस अड़तीस उन्तालीस चालीस इकतालीस बयालीस तैंतालीस - चौवालीस पैतालीस छयालीस संतालीस अड़तालीस = उनचास पचास इक्यावन - बावन तिरपन चौवन = पचपन = छप्पन = सत्तावन [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठवण्णास एक्कुरसि सट्टि एक्सट्ठि खट्ठ/दुस "तिसट्ठि चउसट्ठि पंचसडि छट्ठ सत्तसट्ठि अट्ठसट्ठि एक्काहत्तर सत्तरि एक्कहत्तर दुसत्तरि तिसत्तरि / तेहरि हरि पंचहर छहत्तर सतहत्तर अट्ठहरि एक्कासी प्रसी / सीइ एक्कासी / एक्कासी बेनासी तेश्रासी चउग्रासी/चउरासी पंचासी छयासी / सडसिन सत्तासी प्रौढ प्रपभ्रंश रचना सौरभ ] अट्ठावन === उनसठ 2 = साठ = इकसठ = बासठ - — 1 सड़सठ = अड़सठ = उनहत्तर = सत्तर तिरेसठ चौंसठ पैंसठ छियासठ == = बहत्तर = इकहत्तर = तिहत्तर चौहत्तर पचहत्तर छिहत्तर सतहत्तर = अठहत्तर उनासी अस्सी t इक्कासी बयासी तिरासी चौरासी पचासी छियासी -- सत्तासी [ 39 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठासी रणवासी/एक्कूणणव णवइ/राउ एक्करराव बारणउइ तिरगवई चउरणवह पंचरणबई छारणवइ/सण्णवइ /छण्णवइ सत्ताणवई अट्ठाणवइ गवणवई = अठासी = नवासी = नब्बे = इक्यानवे = बानवे = तिरानवे = चौरानवे = पंचानवे = छियानवे = सत्तानवे = अट्ठानवे = निन्नानवे = सो = हजार = लाख = करोड़ सय सहस/सहास लक्ख कोडि अन्य संख्याएँ व प्रयोग लक्खवत्तीसट्ठारह = बत्तीस लाख अठारह । (2.17 प.च.) दस सय = एक हजार । (2.1 प.च.) ति-सहासेहि-सत्त-सयाहिएहि तेहत्तरि-ऊसासेहिँ = तीन हजार सात सौ तेहत्तर ___ उच्छ्वास । (50.7 प.च.) सय-पंच सवाय-धणु-प्पमाणु = साढ़े पांच सौ धनुषप्रमाण । (4.2 प.च.) चउदह-सयई-च करूणाई = चार कम चौदह सौ। (11.4 प.च.) धीसद्ध-जीह __= दस जीभ । (13.7 प.च.) उपर्युक्त सभी शब्द निश्चित संख्यावाची गणना-बोधक विशेषण हैं । इनके लिंग, वचन और विभक्ति को निम्न प्रकार समझा जाना चाहिए(i) संख्यावाची 'एक्क' शब्द के रूप केवल एकवचन पुल्लिग में पुल्लिग 'सव्व' 40 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमा के अनुसार, नपुंसकलिंग में नपुंसकलिंग 'सव्व' के अनुसार तथा स्त्रीलिंग में स्त्रीलिंग 'सव्वा' के अनुसार होते हैं । एक्क पुल्लिग एकवचन नपुंसकलिंग एकवचन स्त्रीलिंग एकवचन एक्क, एक्का, एक्क, एक्का, एक्कु एक्का, एक्क एक्कु, एक्को द्वितीया एक्क, एक्का, एक्क, एवका, एक्कु एक्का, एक्क एक्कु एक्के, एक्केण, एक्के, एक्केण, एक्काए, एक्कए एक्केणं एक्केण चतुर्थी व एक्क, एक्का, एक्क, एक्का, एक्का, एक्क षष्ठी एक्कसु, एक्कासु, एकसु, एक्कासु, एक्काहे, एक्क हे एक्कहो, एक्काहो, एक्कहो, एक्काहो, एक्कस्सु एक्कस्सु पंचमी एक्कहां, एक्काहां एक्कहां, एक्काहां एक्काहे, एक्कहे सप्तमी एक्कहिं, एक्काहिं एक्कहि, एक्काहिं एक्काहिं, एक्कहि तृतीया प्रथमा (ii) दु/दो वे शब्द के तीनों लिंगों के बहुवचन में रूप निम्न प्रकार से होंगे प्रथमा दुवे, दो, वे दोण्णि, दुण्णि, वेण्णि, विण्णि द्वितीया दुवे, दो, बे, दोण्णि, दुण्णि, वेण्णि, विण्णि तृतीया दोहि, दोहिं, दोहि ; वेहि, बेहि. बेहि ; विहि, विहिं, विहिं चतुर्थी व षष्ठी (i) विहं, विहं, विहि (5.7 प.च.) (ii) दोण्ह, दोव्हं; दुण्ह, दुण्हं; वेण्ह, वेण्हं ; विण्ह विण्हं पंचमी दुत्तो, दोश्रो, दोउ; वित्तो, वेप्रो, वेउ सप्तमी दोसु, दोसुं; वेसु, वेसुं; विहिं (43.6 प. च.), विहि (43.3 प.च.) प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 41 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (iii) 'ति' शब्द के तीनों लिंगों के बहुवचन में रूप निम्न प्रकार से होंगे - प्रथमा तिणि द्वितीया तिष्णि तृतीया (i) तिहिं (ii) तीहि तीहि तीहिं चतुर्थी व षष्ठी (i) तिहुं, तिह (ii) तिह, तिह पंचमी सप्तमी (iv) 'चउ' शब्द के तीनों लिंगों के बहुवचन में रूप निम्न प्रकार से होंगे - प्रथमा (i) चउ (ii) चत्तारो, चउरो, चत्तारि, चयारि ( 43.10 प.च.) (i) चउ (ii) चत्तारो, चउरो, चत्तारि द्वितीया तित्तो, ती, तीउ तीसु, तीसुं तृतीया चतुर्थी व षष्ठी (i) चउ पंचमी सप्तमी (ii) चउण्ह, चउण्हं चउत्तो, चऊप्रो, चऊउ, चउम्र (हे. प्रा. व्या. 3.17 ) चऊसु, चऊर्स् : चउसु, चउसुं (हे. प्रा व्या. 3.17) (v) पंच शब्द के तीनों लिंगों के बहुवचन में रूप निम्न प्रकार से होंगे - प्रथमा पंच द्वितीया पंच चउहि चउहिं, चउहिँ ; चऊहि, चऊह, चऊहिं (हे प्रा.व्या. 3.17, पिशल पृ. 652 ) 42 ] तृतीया चतुर्थी व षष्ठी (i) पंचह, पंचहुं (ii) पंच, पंच पंचहि, पंचहि, पंचाहिँ (पिशल पृ. 654) [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी सप्तमी पचत्तो, पंचाओ, पचाउ, पंचाहि, पंचेहि पंचसु, पंचसुं (पिशल, पृ. 654) छ/छह, सत्त, अट्ठ, णव, दस/दह, एयारह, बारह/वारह, तेरस/तेरह, च उदह, पण्णारह, सोलह, सत्तारह, अट्ठारह-इन सब के रूप 'पंच' की भांति होते हैं। (vi) उन्नीस से अट्ठावन तक के शब्द ह्रस्व प्रकारान्त होते हुए भी स्त्रीलिंग के समान प्रयुक्त होते हैं। इनके रूप 'बीस' के अनुसार होंगे। ये रूप कह कहा के अनुसार होंगे। वीस/बीस (तीनों लिंगों में) एकवचन बहुवचन प्रथमा वीस वीसउ, वीसमो, वीस द्वितीया वीस वीसउ, वीसमो, वीस तृतीया वीसए वीसहि चतुर्थी व षष्ठी वीसहे वीसह, वीसहूं, वीस पचमी वीसहे वीसह, वीसहं सप्तमी वीसहि वीसहि (vii) उनसठ से निन्नानवे तक के शब्दों के रूप 'सठि' या 'मसी' के अनुसार चलेंगे । इनके रूप एकवचन और बहुवचन दोनों में स्त्रीलिंग 'मह' या 'लच्छी' के समान प्रयुक्त होते हैं। सट्ठि (तीनों लिंगों में)2 एकवचन बहुवचन प्रथमा सट्ठिउ, सट्ठिो , सट्ठि द्वितीया सट्टि सट्ठिउ, सट्ठिो , सट्ठि सट्ठि 1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ. 154 1 2. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ. 157 । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम ] [ 43 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीया मट्टिए चतुर्थी व षष्ठी सविहे पंचमी सट्ठिहे सप्तमी सट्ठिहिं सटिहिं सट्ठिह, सट्ठिहुं, सद्धि सट्ठिह, सट्ठिहुं सट्टिहिं असी (तीनों लिंगों में)1 एकवचन बहुवचन प्रथमा असी असीउ, असीमो, असी द्वितीया असी असीउ, असीमो, असी तृतीया असीए असीहिं चतुर्थी व षष्ठी असीहे असीह, असीहं, असी पंचमी असीहे असीहं, असीहुँ सप्तमी असीहिं असीहि (viii) सय=सौ के रूप प्रकारान्त नपुंसकलिंग 'कमल' की भांति होते हैं। सय/सन एकवचन बहुवचन प्रथमा सय/सन, सउ सयई, सयाई, सय द्वितीया सय/सन, सउ सयई, सयाई, सय तृतीया सएण/सयेण, सएं, सयहिं, सयाहिं, सयेहिं सएणं/सयेणं चतुर्थी व षष्ठी सय, सयसु सयहो; सय, सयह सयस्सु, सयासु, सयाहो सयाहं सयहे, सयहु, सयाहे, सयाहु सयहुं, सयाई सप्तमी सइ, सए सयहि पंचमी 1. श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृ. 157 । [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहस /सहास =हजार, लक्ख-लाख के रूप 'सय' की भांति होते हैं । कोडि=करोड़ के रूप एकवचन एवं बहुवचन स्त्रीलिंग 'सट्ठि' की भांति होते हैं। (ix) संख्यावाचक शब्दों के प्रयोग - (1) दो से अट्ठारह तक के शब्द सदैव बहुवचन में ही प्रयुक्त होते हैं । (2) जब 'बीस मनुष्य' कहना होता है, तो दो प्रकार से कहा जाता है - (क) वीस नर-बीस मनुष्य । ___(ख) नरहुँ वीस=मनुष्यों की बोस (संख्या)। (3) उन्नीस से लेकर सौ तक और इसके भी आगे जितने संख्यावाची शब्द हैं, उनके प्रयोग सामान्यतया एकवचन में होते हैं। जब ये संख्यावाची शब्द बीस, पचास, आदि ऐसी एक अपनी संख्या सूचित करते हों, तो वे एकवचन में प्रयुक्त होते है. चाहे उनका विशेष्य बहुवचनान्त हो। तीस फल खायो तीस फलाई खाइ । यहां 'तीस' का प्रयोग ‘एकवचन' में हैं। इसकी विभक्ति तो विशेष्य के अनुसार है, पर वचन और लिंग नहीं । जब हम कहें-तीन तीस फल खायो= 'तिणि तीसउ फलाइं खाइ' तो तीस में बहुवचन का प्रयोग होगा । जब 'तीस' आदि शब्द प्रपनी अनेकता बताते हैं तो वे बहुवचनान्त होते हैं। इसी प्रकार सय, सहस, काडि आदि शब्द एकवचनान्त और बहुवचनान्त होंगे। (देखें उदाहरण वाक्य 49 से 55 तक)। (4) सौ और दो सौ, दो सौ और तीन सौ आदि संख्यावाचक शब्दों के बीच संख्या बनाने के लिए 'अहि' या 'उत्तर/उत्तरीय' शब्द लघु संख्या के साथ लगा दिया जाता है, जैसे 'अटोतरसय =एक सौ पाठ' (प. च. 3.4), अट्ठोत्तर-सहास=एक हजार आठ या पंचाहि प्र-सय= एक सौ पांच, कोडिसहास-दहुत्तरिय=दस हजार करोड़ (9.7 प. च ), बारहाहिन दो सहस-दो हजार बारह या बारहोत्तर दो सहस=दो हजार बारह, एक्काहि लक्ख = एक लाख एक या एक्कोत्तर लक्ख =एक लाख एक । (5) दो सौ आदि संख्या के लिए दो आदि संख्यावाचक शब्द पहले रख कर सय, सहास, लक्ख आदि बाद में रखकर संख्या बनाई जाती है, जैसे प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 45 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोसय = दो सौ, तिसय = तीन सौ दो सहास = दो हजार, तिलनख = तीन लाख आदि । (6) दो प्रकार, तीन प्रकार आदि शब्दों को प्रकट करने के लिए 'विह' लगाकर दुविह = दो प्रकार का, तिविह, चउविह, छविह, दसविह, तैरसविह, चउदसविह, सोलहविह, सत्तविह, अट्ठविह, अट्ठारहविह प्रादि प्रयोग में लिए जाते हैं (प.च. 3.2.9, 16.1,2) 1 (x) कह ( कितना ) शब्द का प्रयोग तीनों लिंगों के बहुवचन में होता है ( पिशल, T. 668) I प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी व षष्ठी (i) कइहं, कइहुं (ii) कइण्ह, कइहं कइत्तो, कईो, कई उ कइसु. कइसुं पंचमी सप्तमी 46 संकलित वाक्य प्रयोग विशेषण (गरणनावाचक संख्या शब्द ) (1) उ एक्कै मन्तिए रज्ज - कज्जु । ( 16.6 प.च.) कइ कइ कहिं, कहि, कहिं (2) उ एक्कें विहिं तिहिं कज्ज-सिद्धि 1 ( 16.6 प.च.) - एक दो तीन ( मन्त्रियों से ) कार्य सिद्धि नहीं होती है ) । - एक मन्त्री के द्वारा राज-काज नहीं ( चल सकता है) । (3) श्रकिलेसें वीस हिं होइ मन्तु । ( 16.6 प.च.) ] ( 4 ) मणु चवइ गरुन वारहहुं बुद्धि । ( 16.6 पच. ) - मनु कहते हैं बारह (मन्त्रियों) की बुद्धि मारी (होती है)। - बोस (मन्त्रियों) से बिना कष्ट के मन्त्रणा होती है । [ प्रोढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) पञ्च महन्वय पञ्चाणुव्यय । तिणि गुणव्वय चउ सिक्खावय । (2.10 प. च.) -पांच महाव्रत, पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत (और) चार शिक्षाव्रत (नष्ट (6) तेण समाणु सणेहें लइया । रायहँ चउ सहास पव्वइया । (2.11 प.च.) -चार हजार राजाओं के द्वारा स्नेहपूर्वक उसके साथ संन्यास लिया गया । (7) वेण्णि वि विहिं चलणेहिं रिणवडेप्पिणु । थिय पासेहिं जिणु जयकारेप्पिणु । (2.13 प.च.) -दोनों ही दोनों चरणों में पड़कर, जिन की जयकार करके पास में बैठ गए। (8) विणि मि दुज्जय दुद्धर पवयल । (17.7 प.च.) -दोनों ही दुर्जय, दुर्द्धर और प्रचण्ड (थे)। (9) गय वे वि लएप्पिणु विज्जउ । (2.15 प.च.) -दोनों ही विद्या लेकर चले गए। (10) छक्कारय दस लयार ण सुय । (1.3 प.च.) -- छ कारक और दस लकार नहीं सुने गए। (11) णउ णिसुअउ सत्त विहत्तियउ । (1.3 प.च.) ---(मेरे द्वारा) सात विभक्तियां नहीं सुनी गई । (12) रणव-रस-अट्ठ-भाव-संजुत्तउ । (2.4 प.च.) -- (जो) नौ रस और पाठ भावों से युक्त (था)। (13) किह रावणु दह मुहु वीस-हत्थु ? (1.10 प.च.) -रावण दस मुह और बीस हाथवाला किस तरह था ? (14) दो-गुण-धरहो दुविह-तव-तत्तहो । (3.2 प.च.) -दो गुणों को धारण करनेवाले और दो प्रकार के तप से तपे हुए (जिनेन्द्र __ के केवलज्ञान उत्पन्न हुआ)। (15) दुतिपंचसत्तमोमई घराई । (1.4 जस.च.) -दो, तीन, पांच और सात मंजिलवाले घर (थे)। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 47 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (16) अवराह दोण्णि अज्ज वि खमीसु । (2.18 क.च.) -हे प्रभु ! अन्य दो (फलों के ऋण) को आज ही क्षमा कीजिए। (17) जेहिं ण सेविय छह अणायदण । (9.12 णा.च.) -जिनके द्वारा छह अनायतन सेवन नहीं किए गए हैं (वे सम्यग्दृष्टि हैं)। (18) एयारह पडिमउ सावयाह । (1.12 णा.च.) -श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाएं होती हैं । (19) एयारह-पडिमउ सावयह जेण वियारिवि उत्तियउ । . उद्धरिय जेण बारह वि तव तेरह चरिय विहत्तियउ । (3.17 जस.च.) -विचार करके जिसके द्वारा श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाएँ कही गई हैं। जिनके द्वारा जारह तप ग्रहण किए गए और चारित्र तेरह कहे गये हैं। (20) तेरसविहु चारित्तु चरन्तहो । (3.2 प.च.) -तेरह प्रकार के चारित्र का आचरण करते हुए (जिनेन्द्र के ज्ञान उत्पन्न हुआ)। (21) चउदह रज्जुय पायामु जासु । (1.11 प.च.) ---जिस (लोक) का आयाम चौदह राजू है । (22) पण्णारह-कमलायत्त-पाउ । (1.7 प.च.) -पन्द्रह कमलों के विस्तार पर पैर रखनेवाले (वर्द्धमान विपुलाचल पर ठहरे)। (23) केहि मि वाइउ वज्जु मणोहरु । बारह-तालउ सोलह-अक्खरु । (2.4 प च.) --किसी के द्वारा बारह ताल और सोलह अक्षरवाला मनोहर वाद्य बजाया गया । (24) सत्तारह संजम पालन्तहो । (3.2 प.च.) -सत्रह (प्रकार के) संयम को पालन करते हुए (जिनेन्द्र के केवलज्ञान उत्पन्न हुआ)। (25) अट्ठारह वि दोस णासन्तहो । (3.2 प.च.) -अठारह दोषों को नष्ट करते हुए (जिनेन्द्र के केवलज्ञान उत्पन्न हुमा)। (26) तुहुँ एवहिं एक्कुणवीसमउ । (12.5 प.च.) -तुम अब उन्नीसवें हो। 48 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (27) वीसोवसग्ग पच्चय बहुय । (1.3 प.च.) -बीस उपसर्ग और बहुत से प्रत्यय (नहीं सुने गए)। (28) बावीस दिवस पालेवि सव्वु । (ज.च. 4.28) -बाईस दिन तक सब का पालन करके (-शरीर का त्याग किया)। (29) इय चउवीस वि परम-जिण पणवेप्पिणु भावें । (1.1 प.च.) -इस प्रकार चौबीस परम जिनों को भावपूर्वक प्रणाम करके (मैं रामायण लिखता हूँ)। (30) वत्तीस-सुरिन्द-कियाहिसेय । (1.9 प.च.) -बत्तीस इन्द्रों द्वारा अभिषेक किया गया। (31) वेयडढहो सेढिहिं जाइँ ताई। पण्णास व सट्ठि वि पुरवराई। (16.11 प.च.) - विजया पर्वत की श्रेणी पर जो पचास या साठ श्रेष्ठ नगर हैं... । (32) पुणु असीहि लक्खिज्जइ ससहरु । (2.3 प.च.) -फिर प्रस्सी (लाख योजन) पर चन्द्रमा देखा जाता है। (33) गवरणवइ-उवरे सहसेक्क-मूलु । (1.11 प.च.) -जो एक हजार (योजन) गहरा और निन्यानवे हजार (योजन) ऊंचा है। (34) अट्ठाणवइ सहास कमेप्पिणु भडारउ रिसह सिंहासणे ठविउ ।(2.3 प.च.) -अट्ठानवे हजार (योजन) चलकर आदरणीय ऋषभ को सिंहासन पर स्थापित कर दिया। (35) सत्तहि जोयण सहि तहितिउ । सण्णवइहिं तारायण-पन्तिउ । (2.3 प.च.) --वहां से सात सौ छियानवे योजन दूर तारागणों की पंक्ति थी। (36) परिणेप्पिणु कण्णहँ छ वि सहास । (10.7 प.च.) -छह हजार कन्याओं को परणकर (रावण अपने घर गया)। (37) अट्ठोत्तर-सहास-लक्खण-धरे । (2.1 प.च.) - (ऋषभ) एक हजार पाठ लक्षणों से युक्त (थे)। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 49 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (38) छन्वीस वि सहसई पेक्खणयहुँ । (8.1 प.च.) -(वहां) छन्बीस हजार नाटकघरों के लिए (स्थान था)। (39) अट्ठायाल सहस-वर जुवइहिं । (8.1 प.च.) । अड़तालीस हजार श्रेष्ठ युवतियों से (नगर शोभित था)। (40) जहिं जक्ख-सहासई दारुणई । (9.7 प.च.) -जहां हजारों भीषण यक्ष (थे)। (41) एक्क कुडुल्ली पंचहि रुद्धी । तहं पंचहं वि जुनं जुअ बुद्धी । (हे. प्रा. व्या. 4-422) --एक छोटी झोंपड़ी पांच के द्वारा रोकी गई है, उन पांचों की ही बुद्धि अलग-अलग विचरती है। (42) तुह जलि महु पुणु वल्लहइ बिहुं वि न पूरिम आस । (हे. प्रा. व्या. 4.383) - तुम्हारी (चातक की) जल-प्राप्ति में और मेरी प्रियतम-प्राप्ति में दोनों के लिए पाशा पूरी नहीं की जायेगी। (43) अग्गए थियउ सहन्ति सु-सीलउ णं तिहुं कालहुं तिणि वि लीलउ । (47.7 प च.) -~-तीनों सुशील (कन्याएँ) (मुनिराज के) सम्मुख सुशोभित होती हुई उपस्थित हुईं, मानों तीन काल की तीन लीलाएं (हों)। (44) पाराविय बावीसह दिवसहुँ । (55.9 प.च.) -- (मेरे द्वारा) (उसे) बावीस दिन में पारणा कराया गया । [ यहां वावीस का 'ह' बहुवचनान्त हैं, पर यहां प्रयोग एकवचनान्त के स्थान पर है] (45) दोण्हं पि सह चेव जीवो गो ताम । (3.13 ज.च.) -तब दोनों का ही जीव साथ हो गया । (46) तहिं जम्बूदीउ महा-पहाणु । वित्थरेण लक्खु जोयण पमाणु । (1.11 प.च ) __ वहां एक लाख योजन विस्तारवाला प्रमुख जम्बूद्वीप है। (47) पुणु दस -सय कर करेवि पणच्चिउ । (2.7 च.) -फिर एक हजार हाथ को बनाकर नाचा । 50 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (48) कंचरण-रयणहँ कोडिउ वारह । पडिय लक्ख बत्तीसट्ठारह । (2.17 प. च.) -बारह करोड़ बत्तीस लाख अट्ठारह रत्नों की वर्षा हुई । (49) सउ अट्ठोत्तर चित्त पडाय । (3.4 प.च.) -चित्र पताकाओं की एक सौ पाठ (संख्या थी)। (50) तिणि लक्ख सावयहुँ पासिद्धहुँ । (3.10 प.च.) -प्रसिद्ध श्रावकों की तीन लाख (संख्या थी)। (51) चउरासी सहास पव्वइया । (3.10 प.च.) -चौरासी हजार (मनुष्य) प्रव्रजित हुए । (52) अट्ठारह कोडिउ हयवराहुँ । (3.13 प.च.) -हाथियों की मट्ठारह करोड़ (संख्या थी) । (53) मारणवइहिं भाइहिं वरिटठु । (4.2 प.च.) -- (वह) अट्ठानवे भाइयों में वरिष्ठ है । (54) जिह भायर अट्ठारणवइ इयर । जीवन्ति करेवि तहो तणिय केर। (4.3 प. च.) -जिस प्रकार दूसरे भट्ठानने भाई उसकी सेवा करके जीते हैं। (55) जिणु पव्वइउ तुरन्तु रसहिं सहासहि सहियउ । (5.2 प च.) -दस हजार (मनुष्यों) के साथ (अजित) जिन तुरन्त दीक्षित हुए। (56) अण्णु वि एक्कुणसट्टि पुराण इँ । जिण सासणे होसन्ति पहारा ई । (5.9 प.च.) --और भी उनसठ उत्तम पुराण (पुरुष) जिन-शासन में होंगे । (57) विज्जहुँ सहासु उप्पणु किह तित्थयरहो केवलणाणु जिह । (9.11 प. च.) -जिस प्रकार तीर्थकर के केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, उसी प्रकार उसकी विद्याओं की एक हजार (संख्या) उत्पन्न हुई। (58) घणु एक्कु एक्कु णरु दुइ जे कर । (15.4 प.च.) ~एक धनुष, एक मनुष्य और दो हाथ (थे)। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 51 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 6 अभ्यास (1) मैं चौबीस तीर्थंकरों को भावपूर्वक प्रणाम करता हूँ। (2) मैंने पाँच महाकाव्यों का नाम नहीं सुना। (3) अरिहंत चार कर्मों को नष्ट करते हैं । (4) वह तीन लोक में प्रिय है। (5) वहां चौदह नदियां हैं। (6) वह एक हजार हाथ को बनाकर नाची । (7) चार हजार राजाओं द्वारा स्नेहपूर्वक उसके साथ प्रव्रज्या ग्रहण की गई । (8) बारह करोड़ रत्न खरीदे गए । (9) बत्तीस लाख देव वन्दना करेंगे । (10) एक बालक ने स्नान किया । (11) एक महिला गीत गाकर प्रसन्न होती है। (12) एक विमान वहां से उड़ा। (13) उस अवसर पर दो रथों में राजा बैठे। (14) वे दस प्रकार का धर्म पालन करेंगे। (15) दो देवियां मानवरूप धारण करके इस लोक में पायीं। (16) एक सौ आठ बालक खेलते हैं । (17) अट्ठासी घरों के मनुष्यों ने यहां प्रवेश किया। (18) नब्बे गांवों में बिजली नहीं है। (19) वह हजार विद्याओं से विभूषित किया गया । (20) विद्याधरों की चौदह हजार संख्या है। (21) हजार विद्याओं को सोचकर रावण के द्वारा पर्वत उपाड़ दिया गया । (22)उस राजा के हजारों अनुचरों द्वारा नगर घेर लिया गया मानो बारह मास द्वारा वर्ष घेरा गया हो। (23) एक योजन के भीतर जो भी चलता है, वह जीता हुआ नहीं निकलता है। (24) चार कषाय जीती जानी चाहिए। (25) तुम्हारे तीन पुत्र होंगे। (26) वह छ फल लेकर घर गया । (27) हनुमान के द्वारा आठ तीर छोड़े गये। (28) युद्ध में उसके सात सौ विमान नष्ट हुए । (29) मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथ करोड़ों योद्धा हैं। (30) तुम्हारे कुटुम्ब में कितने पुरुष व कितनी महिलाएं हैं ? (31) कितने श्रावकों द्वारा व्रत पाले गए ? (32) तुम कितने रथों के स्वामी हो ? शब्दार्थ ___ (1) प्रणाम करना=पणम । (4) प्रिय=वल्लह । (5) नदी=सरि (स्त्री)। (6) हाथ =कर(पु) । (7)प्रवज्या=पव्वइया; लेना, ग्रहण करना=लय ।(8) खरीदना =कीण; रत्न == रयण (नपु)। (9) वन्दना=वन्दण (नपु.) । (11) गीत=गी। (13) रथ =सन्दण (पु)। (15) प्राया हुअा=पाइय (वि)। (17) प्रवेश किया= पइट्ठा । (18) बिजली विज्जुया (स्त्री)। (19) विभूषित किया गया=परियरिय । (21) पर्वत=महिहर। (22) अनुचर=भिच्च ; घेरना, लपेटना=वेड्ढ ; वर्ष= संवच्छ र । (27) तीर=सर; छोड़े गए मुक्क । (31) श्रावक=सावय (नपु.); व्रत= वय (पु.)। 52 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषरण (क्रमवाचक संख्या शब्द ) पहिल / पहिलन / पहिल्लउ / पढम / पहिलार / य atr / atra / वीयय तइन / तइयउ चउथ / चउथश्र / चउत्थ / च उत्थश्र पंचम / पचमध छट्ठ / छट्ठश्र सत्तम / सत्तमश्न अट्ठम / प्रट्ठमश्र रणवम / रवमश्र दहम / दहम एयार हम / एयार हमन - बारहम / बारहमन तेरहम / तेरहम चउदहम / चउदहमध परगा रहम / पगारहमन सोलहम / सोलहमश्र सत्तार हम / सत्तार हमन पाठ 7 अट्ठारहम / श्रट्ठारहमश्र एक्कुणवीस / एक्कुणी समग्र / एगुलवी सम वीसम / वीसमप्र एक्ratसम / एकवीसमन = पहला / प्रथम 1 दूसरा - तीसरा = चौथा = पांचवाँ = =छठा = सातव = आठवां नवाँ = दसवाँ = ग्यारहवाँ =बारहवाँ = तेरहवाँ = चौदहवाँ = = पन्द्रहवाँ = सोलहवां = सत्तरहवां = अट्ठारहवां - उन्नीसवां 1 बीसवां - इक्कीसवां आगे की सभी संख्याएँ गणनावाचक संख्या में 'अ' प्रत्यय जोड़कर बनाई जा सकती हैं | सभी क्रमवाचक संख्या शब्द पुल्लिंग और नपुंसकलिंग विशेष्य के अनुसार प्रयुक्त होंगे। इनके रूप पुल्लिंग में अकारान्त 'देव' के समान और नपुंसकलिंग में 'कमल' के समान होंगे । स्त्रीलिंग में रूप 'कहा' व 'लच्छी' के समान चलेंगे | प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 53 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहिला / पहिलारी / पढमा बोया तइया चउथी पंचमी छट्ठी सत्तमी श्रट्ठमी वमी संकलित वाक्य प्रयोग 1. पहिलउ एउ ताम वुज्झेव्वउ | जीव दया- वरेण होएब्वउ । (54.15 प.च ) तब पहला (धर्म) यह समझना चाहिए । श्रेष्ठतम जीव दया हुई जानी चाहिए | एहारहमी सोलहमी बारहमी सत्तारहमी तेरहमी प्रट्ठारहमी चउदहमी एक्कुरणवीसमी पणारहमी बीसमी दहमी इसी प्रकार अन्य संख्याएं समझी जानी चाहिए । 2. वीयउ मद्दवतु दरिसेव्बउ । तइयउ उज्जय-चित्तु करेव्व । (54 15 पच.) - दूसरी (बात) मार्दवता दिखाई जानी चाहिए। तीसरा सरल चित्त बनाया जाना चाहिए | 54 3. चउथउ पुणु लाहवेण जिबेव्वउ । पञ्चमउ वि तव चरणु चरेव्वउ । (54.15 प. च.) - चौथा (धर्म) फिर लाघव से जिया जाना चाहिए। और पांचवां (धर्म) तपश्चरण किया जाना चाहिए । 4. छट्ठ उ संजम - वउ पालेब्वउ । सत्तमु किम्पि णाहिँ मग्गेव्वउ । (54.14 प.च.) - छठा (धर्म) संयम व्रत पाला जाना चाहिए । सातवां कुछ भी नहीं मांगा जाना चाहिए । 5. अट्ठमु वम्मचेरु रक्स्लेव्वउ | गवमउ सच्च - वयणु वोल्लेव्वउ । (54.15 प. प.) - प्राठवाँ (धर्म) ब्रह्मचर्य रखा जाना चाहिए । नवां सत्य वचन बोला जाना चाहिए । 1 6. दसमउ मणे परिचाउ करेव्वउ | एहु दस भेउ धम्मु जाणेव्वउ । (54.15 प.च.) - दसवां (धर्म) मन में त्याग किया जाना चाहिए । वह दस भेदवाला धर्म समझा जाना चाहिए । [ प्रौढ प्रपभ्रंश रचना सौरम Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. एयारहमए णरवर णिविट्ठ । बारहमए तिरिय णमन्त दिट्ठ । (1.8 प.च.) ---ग्यारहवें (कोठे) में श्रेष्ठ मनुष्य बैठे थे । बारहवें में नमन करती स्त्रियां देखी गईं। 8. माहव मासहो पढम-दिणे तहि सिरिकण्ठे दिण्णु पयाणउ । (6.5 प.च.) -वहां माधव मास के पहले दिन श्रीकण्ठ के द्वारा दान दिया गया । 9. देउलवाडउ पण्णु पहिल्लउ । (45.4 प.च.) -पहला देवकुल की बाड (और) ढाक का पेड़ था। 10. एहउ पहिलारउ मूल-सेण्णु । (16.12 प.च.) -यह (उसकी) पहली मूल-सेना है । 11. पहिलए कोट्टए रिसि-संधु दिछ । (1.8 प.च.) -पहले कोठे में ऋषि संघ देखा गया । 12. पहिल उ कलसु ल इउ अमरिन्दें। (2.5 प.च.) -पहले कलश देवेन्द्र के द्वारा लिया गया । 13. दसमउ कलसु लइज्जइ चन्दें । (2.5 प.च.) -दसवां कलश चन्द्र द्वारा लिया गया। 14. सत्तमे गम्पि जणणि जोक्कारिय । अट्ठमे दिवसे पुज्ज णीसारिय । (11.2 प. च.) -सातवें (दिन) जाकर जननी की स्तुति की गई। पाठवें दिन पूजा (यात्रा) निकाली गई। 15. ताव-चउहत्थउ पहरु समाहउ । (50.6 प.च.) -तब तक चौथा प्रहर समाप्त हुआ। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 55 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ7 अभ्यास 1. मेरी चौथी परीक्षा कल होगी। 2. तीसरी पुत्री का विवाह पिता द्वारा प्रानन्दपूर्वक किया गया । 3. आज से दसवीं रात्रि को वह युद्ध जीत लेगा । 4. अठारहवीं झोपड़ी बनाई गई। 5. दसवीं गुफा में मुनि ध्यान करते हैं। 6. उसकी तीसरी बहिन यश की इच्छा करती है। 7. मैं दसवीं साड़ी खरीदती हूँ। 8. क्या तुम्हारी दूसरी आंख में दोष है ? 9. दसवीं कक्षा का चालीसवां छात्र, पांचवीं कक्षा का पचासवां विद्यार्थी मेरे द्वारा बुलाया गया है। 10. तीसरी पंक्ति की छठी महिला का परिवार सुखपूर्वक घर में रहता है। 11. बारहवीं कक्षा का छात्र गुरु की शिक्षा का पालन करता है। 12. वह यहां दसवें दिन भी खेलेगा। 56 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 8 विशेषण (विविध संख्यावाची शब्द) (i) दोनों, तीनों, चारों, पांचों, दसों, पचासों आदि समुदायवाचक संख्याओं को प्रकट करने के लिए सख्या के प्रथमा, द्वितीया आदि में सख्यावाचक शब्द के आगे 'वि' या 'मि' जोड़ दिया जाता है । जैसे वे वि पयण्ड वे वि विज्जाहर । (53.8 प.च.) -दोनों प्रचण्ड (थे), दोनों विद्याधर (थे)। वेणि वि अञ्जण-मन्दोयरि-सुप्र । (53.8 प.च.) -दोनों अंजना और मंदोदरी के पुत्र थे । वेणि मि समरङ्गणे अतुअ-वल । (43.16 प.च.) -दोनों ही रण-प्रांगण में अतुल बलवाले (थे)। (ii) दुगुना, तिगुना आदि प्रावृत्तिवाचक शब्दों को प्रकट करने के लिए संख्या शब्दों के आगे 'गुरण' शब्द जोड़ दिया जाता है और फिर विशेष्य के लिंग व वचन के अनुसार रूप चलाए जाते हैं दुगुण/दुउण/दूण (=दुगुना); तिगुण (=तिगुना); चउगुण (=चौगुना) पंचगुण (=पंचगुना)। (iii) 'सब', 'बहुत', 'कुछ', 'कोई' आदि अनिश्चय-संख्यावाचक शब्दों के लिए निम्न प्रकार समझा जाना चाहिए -- सयल-सब 'क' सर्वनाम के साथ 'वि' या 'मि' जोड़ देने से कोई, किसी, कुछ आदि अनिश्चयवाचक विशेषण बन जाते हैं (वाक्य 1 से 6), 'कई' के साथ वि या मि जोड़ देने से अर्थ 'कुछ' हो जाता है । संकलित वाक्य प्रयोग(1) 1. को वि फलई तोडेप्पिणु भक्ख इ । (2.12 प.च.) --कोई फलों को तोड़कर खाता है । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 57 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. का वि विणोउ कि पि उप्पायइ । (1.14 प च.) --कोई (स्त्री) विनोद (करती है), (कोई) कुछ उत्पन्न करती है । 3. केण मि ताम कहिउ सहस-वणहो । (8.10 प. च.) -तब किसी के द्वारा सहस्राक्ष के लिए कहा गया । 4. केहि मि घोसिउ चउविहु मङ्गलु । (2.4 प.च.) - किन्हीं के द्वारा चार प्रकार के मंगल उच्चारण किए गए। 5. प्रारूढ के वि णर गयवरेस् । (7.13 प.च.) -कोई मनुष्य श्रेष्ठ हाथियों पर चढ़े । 6. अण्णहो कहो वि समप्पि जमत्तणु । (11.12 प.च.) -(आप) किसी दूसरे के लिए यमपना सौंप दें। 7. घणु एक्कु एक्कु णरु दुइ जे कर । (15.4 प.च.) -एक धनुष, एक मनुष्य और दो ही हाथ (थे)। 8. एक्कु प्रणेय जिणेवि किं सक्कइ ? (17.9 प.च.) -क्या एक (अकेला) अनेक को जीतने के लिए समर्थ होता है ? 9. एक्कु ए बहु अण्णु मि गयणे थिय । (15.3 प.च.) - यह अकेला और दूसरे बहुत आकाश में स्थित थे । 10. तहिं जो अउज्झहिं बहवें कालें । उच्छण्णे परवर-तरु-जालें । ( 5.1 प. च.) -वहां अयोध्या में बहुत समय होने पर श्रेष्ठ मनुष्यरूपी वृक्ष की परम्परा नष्ट हुई। 11. एक्कमेक्क कोक्कन्तई रणे हक्कन्तई उभय-वलई-अभिट्टई । (4.7 प. च.) -एक दूसरे को ललकारते हुए, युद्ध में हांक देते हुए दोनों सेनाएं भिड़ गई। 12. एक्कु पचण्डु तिखण्ड-पहाणउ । अण्णेक्कु वि कुव्वर-पुर-राण उ । (26.10 प. च.) -एक प्रचण्ड तीन खंड का प्रधान, दूसरा कूबर नगर का राजा था। 13. अण्णोण्णेल हुआसणे पेल्लिउ । (35.13 प.च.) -एक दूसरे के द्वारा प्राग में पेला गया है । 58 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. इयर ण पइसरन्ति किं कज्जें । (5.12 प.च.) -किस कारण से दूसरे (भाई) नहीं पाते हैं । 15 सयल वि बन्धु-सत्तु-समभावा । (5.15 प.च.) -सभी बन्धु और शत्रु में समभाव रखनेवाले थे । 16. ते कप्पयरु सव्व उच्छण्णा । (2.8 प.च.) - वे सब कल्पतरु नष्ट हो गए । 17. एक्केक्कय धए अहिणव-छा यहुँ । सउ अट्ठोतरु चित-पडायहुँ । ( 3.4 प. च.) - प्रत्येक ध्वज पर अभिनव कान्तिवाली एक सौ आठ चित्र पताकाओं की (छवि थी)। 18. थोहि दिवसहिं तिहुअण-जणारि । णासिय घाइय-कम्म वि चयारि । (4.14 प. च.) -थोड़े दिनों में त्रिभुवन के मनुष्यों के दुश्मन चार घातिया कर्म नष्ट कर दिए गए। 19. एक्कहि दिणे पाउच्छेवि जणणु । गय तिणि वि भीसणु भीम-वणु । (9.7 प. च.) --एक दिन तीनों (माई) पिता को पूछकर भीषण और भयंकर बन को गए। 20. प्रवर वि विज्जाहर वसि करेवि । (7.10 प.च.) - दूसरे विद्याधरों को वश में करके (विद्युतवाहन विरक्त हो गया)। 21. काहि दिणेहिं परिणाविउ देविउ । (2.9 प.च.) -कई दिनों बाद देवियों ने विवाह किया। 22. कइहि मि दिणेहि पडीवउ प्रावमि । (31.2 प.च.) --कुछ दिनों में मैं वापस आ जाऊँगा। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम ] [ 59 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) 1. पयाहिण करेवि गुरु-भत्ति किय । वन्देप्पिणु विणि मि पुरउ थिय । (6.13 प.च.) -प्रदक्षिणा करके (उसके द्वारा) गुरु भक्ति की गई, वन्दना करके दोनों सामने बैठ गए। 2. परिप्रोसें तिणि वि उच्चलिय। बाहुबलि-भरह-रिसह व मिलिय । ( 6.13 प. च.) -सन्तोषपूर्वक तीनों चले, मानो भरत, बाहुबलि और ऋषभ मिल गए हों। 3. गय वे वि लएप्पिणु विज्जउ । (2.15 प.च.) -दोनों विद्याएं लेकर चले गए। 4. विहि मि भवन्तराइ वज्जरियई । विहि मि जणण-वइरई परिहरियई । (5.7 प.च.) -दोनों के जन्मान्तर कहे गए । दोनों का पिता से वैर छुड़वाया गया। 5. सत्त वि णरय जेण विद्धंसिय । (11.10 प.च.) -जिसके द्वारा सातों नरक नष्ट कर दिए गए। 6. चत्तारि वि सायर परिभमइ । (12.6 प.च.) -(वह) चारों समुद्रों का परिभ्रमण करता है । 7. अट्ठ वि कुमार अण्णेक्क-रहे । (29.11 प.च.) -(वह) पाठों कुमार दूसरे रथ पर (बैठे) । 8. तो परिणउ विण्ह वि एक्कु जणु । (36.12 प.च.) -तो दोनों में से एक व्यक्ति (मुझसे) विवाह करें। 9. रण उ जाणिउ विहि मि कवणु राउ । (43.5 प.च.) - दोनों में राजा कौन है, नहीं जाना गया । 10. विहि सिमिरेहिं वे वि सहन्ति भाइ । (43.5 प.च.) -दोनों शिविरों में दोनों भाई शोभते हैं । 11. विहिँ एक्कु वि गउ पइसारु लहइ । (43.5 प.च.) -दोनों में से एक भी प्रवेश नहीं पाता है । 60 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 ते चलिय चयारि वि परम मित्त। (43.10 प.च.) - वे चारों ही मित्र चल पड़े । 13. प्रभिट्टई वेणि मि साहणाइँ । ( 43.14 प.च.) -दोनों सेनाएं भिड़ गईं । 14. सोलह बत्तीस दूण- कमेण विविह-रूव-दरिसावरण हुँ । ( 75.16 प.च.) - सोलह-बत्तीस और इसी दुगुने क्रम में विविध रूपों में दिखाई देनेवाले (रावणों की एक सेना उत्पन्न हो गई) । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 61 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 8 अभ्यास (1) दोनों आकाश में घूमते हैं। (2) जो चारों युद्ध जीत लेगा, उसको तुम वीर जानो । (3) पांचों के द्वारा बार-बार शरीर अलंकृत किया जाता है । (4) आठों छात्रों में से एक इस ग्रन्थ को पढ़ता है । (5) तुम्हारे द्वारा चौबीसों तीर्थंकरों को प्रणाम किया जाना चाहिए। (6) उसकी सम्पत्ति मेरी सम्पत्ति से दुगुनी है । (7) मेरे पास उससे तिगुनी पुस्तकें हैं । (8) सोलह वस्तुएं पाठ वस्तुओं से दुगुनी कही जाती हैं । (9) इस नगर में चालीस गुने अधिक लोग बसते हैं । (10) हनुमान ने चारों उद्यानरक्षकों को मार दिया । (11) दोनों सेनाएं आपस में टकरा गईं। (12) वहां कोई भी नहीं था, जो उन धनुषों को चढ़ा लेता। (13) कोई भी नारी जो उस दर्पण को देखती है, वह प्रसन्न होती है। (14) गुरु उसको कुछ ज्ञान देता है। (15) किसी के द्वारा किसी के ऊपर रण में चक्र छोड़ा गया । (16)किसी पर तुम प्रसन्न होते हो,किन्तु किसी पर तुम क्रुद्ध भी होते हो । (17) दूसरों के लिए विविध प्रकार की विद्याएं सिखाई गईं। (18) एक का मुख खिला हुआ था, दूसरे का मुख खिन्न था। (19) एक रथ पर महीधर प्रारूढ हुआ, दूसरे रथ पर पाठों कुमार चढ़े । (20) तुम एक दूसरे की निन्दा मत करो । (21) इस कक्षा का प्रत्येक छात्र एक दूसरे के लिए स्नेहपूर्वक बोलता है। (22) किसी नगर में एक राजा रहता था। (23) थोड़े फल लायो। (24) तुम बहुत रत्न क्यों खरीदते हो ? (25) कई मनुष्य भोजन जीमते हैं । (26) हंसते हुए कुछ लोग गांव जाते हैं। शब्दार्थ (1) परिभमन्ति=घूमना; णह-मण्डल =प्राकाश (3) भूस=प्रलंकृत करना (10) उज्जाणवाल= उद्यानरक्षक (12) धणु (पुन)=धनुष; चडाव=चढाना (13) जोय=देखना (15) मुक्क=छोड़ा गया (17) सिक्खाव=सिखाना (18) पप्फुल्ल=खिलना; खिज्ज अफसोस करना (23) आणायलाना । 62 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ9 विशेषण (सार्वनामिक) -यह (क) 1. एत/एम/ए प्राय/प्राय प्र/प्राम यह प ह (पुल्लिग, नपुंसकलिंग) -वह -वह एता/एप्रा =यह प्राया -यह इमा -यह । (स्त्रीलिंग) -वह -- जा 2.क =क्या, कोन, कौनसा । =क्या, कौन, कौनसा (पु., नपुं.) कवरण कार्ड -क्या -क्या (नपुंसकलिंग) =क्या, कौन, कौनसी =क्या, कौन, कौनसी (स्त्रीलिंग) कवरणा प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 63 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) 1. एह/एहन तेह/तेहा ==ऐसा/इसके समान/ इस प्रकार का -वैसा/उसके समान जैसा/उस भांति S (पु., नपुं) =कैसा/किसके समान/ किस प्रकार का =समान/जैसा/जिसके समान/जिस प्रकार का ) केह/केहन/ केहिय जेह/जेहन =ऐसी = वैसी (स्त्रीलिंग) । 2. अइस तइस = कैसी =जैसी =ऐसा इसके समान/ इस प्रकार का -वैसा/उस जैसा/ उस भांति =कसा/किसके समान किस प्रकार का =जैसा/जिसके समान/ जिस प्रकार का =दूसरे के जैसा/ अन्य के समान कइस (पु , नपुं.) जइस अन्नाइस/प्रवराइस 1. हे. प्रा. व्या. 4-442 (एहन आदि का प्रयोग प.च. में मिलता है, उदाहरण वाक्य देखें)। 2. 3. हे. प्रा. व्या. 4-403 । हे. प्रा. व्या. 4-413 । 64 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइसी तइसी (स्त्रीलिंग) कइसी जइसी अन्नाइसो/प्रवराइसी जैसी दूसरे के जैसी -कैसा (पु., नपुं.) 3. एरिस एप्रारिस/प्रारिस =ऐसा तारिस =वसा केरिस जारिस =जैसा अन्नारिस -दूसरे के जैसा अम्हारिस =हमारे जैसा मारिस =मेरे जैसा तुम्हारिस =तुम्हारे जैसा भवारिस =आप जैसा सरिस/सरिच्छ समान -वैसी 4. एरिसी/एप्रारिसी/पारिसी ऐसी तारिसी केरिसी जारिसी =जैसी अन्नारिसी -दूसरे के जैसी . -कैसी (स्त्रीलिंग) 1. 2. हे. प्रा. व्या. 1-142 । पारिस का प्रयोग प.च. में प्राप्त है, (प.च. 22.3 23.1)। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम ] [ 65 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. अम्हारिसी मारिसी (ग) 1. अम्हार / अम्हारय महार / महारश्र तुम्हारिसी भवारिसी सरिसी / सरिच्छी 66 1 तुम्हार / तुम्हार तुहार / तुहारन / तुहारय मेर मेरश्र अम्हारी महारी तुम्हारी तुहारी मेरी ==हमारे जैसी = मेरे जैसा = तुम्हारे जैसी = प्राप जैसी = समान | = हमारा = मेरा == तुम्हारा =तेरा = मेरा = मेरा - = हमारी =मेरी = तुम्हारी =तेरी =मेरी (स्त्रीलिंग) 1 > (पुल्लिंग, नपुंसक लिंग ) अपभ्रंश में तेरा, मेरा, हमारा, तुम्हारा - ऐसे सम्बन्ध सूचक भाव प्रकट करने के दो तरीके हैं (i) षष्ठी विभक्ति के माध्यम से - तुज्झ / तउ, मज्भु / महु | (ii) उपर्युक्त विशेषण शब्दों (अम्हार आदि) के द्वारा । इनके रूप विशेष्य के अनुसार चलेंगे । पुल्लिंग में 'देव' के समान, स्त्रीलिंग में 'लच्छी' के वनपु. में 'कमल' के समान । (स्त्रीलिंग) [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ =इतना 2.(i) एत्तिन/य तेत्तिन/य जेत्तिय केत्तिप्राय (पुल्लिग, नपुंसकलिंग) -उतना =जितना =कितना = इतनी (स्त्रीलिंग) एतित्रा/या तेत्तिश्रा/या जेत्तित्रा/या केत्तिमा/या = उतनी =जितनी =कितनी (ii) एतुल तेत्तिल जेत्तुल केत्तुल =इतना =उतना =जितना =कितना (पुल्लिग, नपुंसकलिंग) (स्त्रीलिंग) एत्तुला तेत्तिला जेत्तुला केत्तुला = इतनी = उतनी -जितनी =कितनी (iii) एवड/एवड जेवड केवड H = इतना/इतना अधिक ! बड़ा/विस्तृत =उतना/उतना अधिक है (पु, नपुं.) =जितना/जितना अधिक =कितना/कितना अधिक ) [ 67 प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवडा/एवड्डा ) =इतनी/इतनी अधिक/ बड़ी/विस्तृत =उतनी/उतनी अधिक (स्त्रीलिंग) तेवडा । -इतना (iv) एत्तड/एत्तडम/एत्तडिय तेत्तडम/य जेत्तडम/य केत्तडप्रय (पु., नपु.) =उतना =जितना =कितना एत्तडिया -इतनी (स्त्रीलिंग) =अपना 3. (i) अप्प/अप्परण/अप्पुरण/ अप्पारण/अप्पारण/ अप्पणप्र/अप्पन रिणय -अपना (ii) सव्व/साह/साव -सब (पु, नपु.) सयल सव्वा/साहा/सावा =सब (स्त्रीलिंग) (iii) अण्ण इयर =अन्य =दूसरा - (पु., नपु.) थोव =थोड़ा (पु., नपु.) =अन्य 'अण्णा थोवा =थोड़ी (स्त्रीलिंग) ___68. ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलित वाक्य प्रयोग (क)(1)1. एउ ण जाणहुँ कहिं गउ सन्दणु । (17.7 प.च ) -(हम) यह नहीं जानते हैं कि रथ कहां गयो ? 2. कासु एउ एवड्डु पहुत्तणु । (3.9 प.च.) -यह इतना/इतना बड़ा प्रभुत्व किसका है ? 3. एहु सो णरु एउ तं पुप्फवणु । (9.1 प.च.) -यह (ही) वह मनुष्य (है), यह (ही) वह पुष्पवन है । 4. एह राम कह-सरि सोहन्ती । गणहर-देवहिं दिट्ट वहन्ती । (1.2 प.च.) -यह रामकथारूपी नदी शोभती है (और वह) गणघर देवों द्वारा बहती हुई देखी गई। 5. लइ एह जि गइ जीवहो जायहो। (5.2 प.च.) -लो, जन्म लिये हुये जीव की यह ही गति होती है। 6. एह कुमारी एहो णरु एहु मणोरह-ठाणु । (हे प्रा.व्या. 4.362/1) -यह कन्या है, यह पुरुष है और यह मन-कल्पनाओं का स्थान है । 7. एइ ति घोडा । [घोड (पु. स्त्री.)] (हे प्रा.व्या. 4363) -ये अश्व (हैं)। 8. एइ पेच्छ । (हे.प्रा.व्या. 4.363) -इनको (कुमारियों, पुरुषों और वस्तुओं को) देखो। 9. एइ मणोरहई....."करेइ । (हे.प्रा.व्या. 4.414/4) -(वह) इन मनोरथों को (पूर्ण) करेगा। 10. पोत्तउ णिवारि इउ कुम्भयण्णु । (10.7 प.च.) -(अपने) पोते इस कुम्भकर्ण को मना करो। सार्वनामिक विषेषण एत, पाय, इम, त, अमु, ज, क, कवरण, सव्व के (पु., नपु , स्त्री.) शब्दरूपों के लिए देखें-'अपभ्रंश रचना सौरभ', ले.-डॉ. कमलचन्द सोगानी, पृष्ठ 164-183 । शेष प्रकारान्त पु. शब्दों के लिए 'देव', नपु. शब्दों के लिए 'कमल', आकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के लिए 'कहा' व ईकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों के लिए 'लच्छो' की रूपावली देखें। प्रौढ . अपभ्रश रचना सौरभ ] [ 69 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. अवरोप्परु लाव जाव | ( 37.12 प.च.) - जब तक आपस में यह बातचीत ( हो रही थी), (तब तक खर ने लक्ष्मण को ललकारा । ) 12. एक्कु ए वहु अण्णु । (15.3 प.च.) - यह अकेला, दूसरे बहुत....... । 13. सच्च सव्वु एण जं प्रक्खिउ । ( 14.12 प.च.) - इसके द्वारा जो कहा गया है सब सत्य है ! 14. अहवइ एण काईं सन्देहें । ( 35.7 प.च.) - अथवा इस सन्देह से क्या ? 15. एल समाणु अज्जु जुज्भेवउ । ( 38.16 प.च.) - इसके साथ प्राज लड़ा जाना चाहिए । 16. रावणेण हसिउ 'किं प्रायहि' । किर काई सियालहि घाइएहि । ( 10.6 प. च.) - रावण के द्वारा हँसा गया (और कहा गया ) ( कि) इन श्राक्रमणकारी सियारों से क्या ? 17. एहिँ सरिस जणे भीरु ण वि । (15.3 प.च.) - लोगों में इनके समान डरपोक (दूसरा) नहीं है । 18. एहिं उवाएहिँ भेइज्जन्ति णराहिवइ । ( 16.7 प.च.) - इन उपायों से राजा भेदा जाना चाहिए । 19. आयए लच्छिए वहु जुज्झाविय । (5.13 प.च.) - इस लक्ष्मी के द्वारा बहुत लड़वाये गए । 20. आहे कण्ण हे कारणेरण होसइ विणासु वहु रक्खसहुँ । ( 21.13 प.च.) - इस कन्या के कारण से बहुत राक्षसों का नाश होगा । 21. आई हुई ग कारण । (6.12 प.च.) - ये कारण तुच्छ नहीं हैं । 70 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. प्राएं समाणु किर कवणु खत्यु । (10.12 प.च.) -इसके समान कौन क्षत्रिय है ? 23. वड्डा घर प्रोइ । (हे. प्रा. व्या. 4.364/1) -वे बड़े घर हैं। क(2)1. के प्राइच्चहो तेउ कलङ्किउ । (23.7 प.च.) -किसके द्वारा सूर्य का तेज कलंकित किया गया ? 2. तहो कवण सुकेसें ण किउ गुणु । (12.5 प.च.) -सुकेश के द्वारा उसकी कौनसी भलाई नहीं की गई ? 3. एक्केक्कहो एक्केक्कउ जे करु । परिरक्खइ जइ तो कवणु डरु । (15.2 प. च.) -यदि एक-एक हाथ एक-एक की रक्षा करता है तो क्या डर है ? 4. एहए अवसरे उवाउ कवणु । (15.10 प.च.) -ऐसे अवसर पर क्या उपाय (है) ? 5. किं वसणु कवणु गुणु को विणोउ । (16.1 प.च.) -(उसका) क्या व्यसन है ? (उसमें) क्या गुण है ? उसका क्या विनोद 6. हा कयन्त तउ कवण सुहच्छी । (67.7 प.च.) -हे कृतान्त ! (इसमें) तुम्हारी कौनसी शोभा है ? 7. कवरणहि वले पवर-विमाणई । (60.9 प.च.) . -किस की सेना में श्रेष्ठ विमान (हैं) ? 8. मेइणि""कवणे गरेण ण मुत्ती। (5.13 प.च.) -यह धरती किस मनुष्य के द्वारा नहीं भोगी गई ? 9. तुहं कवरणहुं इन्दहुं इन्दु कहे । (8.6 प.च.) -तुम किस इन्द्र के इन्द्र हो ? कहो । 10 कं झायहो कवणु देउ थुणहो। (9.9 प.च.) -(तुम) किसको ध्याते हो ? किस देव की स्तुति करते हो ? प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 71 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. एउ वोल्लिउ कवणे कारणेण । (71 17 प.च.) -किस कारण से यह बोला गया ? 12. अम्हहुँ काइँ कियउ परमेसर । (2.14 प.च.) -हे परमेश्वर ! हमारे लिए क्या किया गया है ? 13. काई बहुत्तेण पुणरुत्तेण । (14.12 प.च.) -बहुत पुनरुक्ति से क्या ? 14. तो उत्तरु काई देमि जगहो। (19.1 प च.) -तो लोगों को (मैं) क्या उत्तर दंगी ? 15. काई करेसहं । (72.6 प.च.) -(हम) क्या करेंगे ? 16. एत्तियहँ मज्झ का बुद्धि कासु । को वलहो भिच्चु को रावणासु । (48.15 प.च.) -इतनों के बीच में किसकी क्या बुद्धि है ? कौन राम का दास है ? कौन रावण का? 17. सुणे सेणिय कि बहु-वित्थरेण । (1.11 प च.) हे श्रेणिक ! सुनो, बहुत विस्तार से क्या ? 18. कि वहु-चविएण । (25.11 प.च.) -बहुत कहने से क्या (लाभ)? 19. किं भामण्डलेण कि रामें । (21.12 प.च.). -भामण्डल से क्या (प्रयोजन) ? राम से क्या (प्रयोजन) ? 72 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 9 अभ्यास (क) (1) हमारे द्वारा कौनसा अपराध किया गया, यह (इसको) हम नहीं जानते हैं । (2) जिस प्रकार संध्या के द्वारा यह कमल-वन नष्ट कर दिया जाता है, उसी प्रकार बुढ़ापे के द्वारा यौवन नष्ट कर दिया जाता है । (3) यह माला किसके लिए है ? (4) यह बाला गाती है, बजाती है और नाचती है । (5) ये महिलाएं आभूषण धारण करती हैं। (6) ये मुनि व्रत पालते हैं। (7) ये कमल खिले । (8) जो मनुष्य थकता है, वह सोता है । (9) वे नारियां सपरिवार वहां गईं । (10) वे उपकार करके प्रसन्न हुए। (11) वे चित्र सुन्दर हैं । (12) वह जो कथाएं (जिन कथाओं को) कहती है, उनको मैं सुनता हूँ। (13) तुम जिन फलों को खाते हो, वे फल मधुर हैं। (14) जो फल मधुर हैं, तुम उनको खरीदो। (15) वह राजा तीर्थंकर की वन्दना के लिए वहां गया । (16) वह लता शोमती है। (17) तुम कवि होवोगे, इसमें क्या सन्देह है ? (18) तुम किस बालक को बुलाते हो ? (19) वह किन गुफाओं को जानता है ? (20) तुम किन कार्यों को करते हो ? (21) किसके द्वारा वीणा बजाई गई ? (22) किनके द्वारा सुन्दर वाद्य बजाये गये ? (23) कल किन कन्याओं की परीक्षा होगी ? (24) वह किसका पुत्र है ? (25) जिस माता का पुत्र उन्नति करता है, वह प्रसन्न होती है । (26) तुम्हारी भक्ति किसमें है ? (27) जिसमें तुम्हारी भक्ति है, उसमें मेरी भक्ति है । (28) किस पेड़ से पत्ता गिरता है ? (29) उससे क्या (लाभ) (है) ? (30) इनके साथ तुम जानो। शब्दार्थ (1) अपराध-प्रवराह (पु.)। (2) कमल-बन-कमल-वण (नपु.); नष्ट करना=घाय/प्र; संध्या-संज्झा बुढापा=जरा । (4) बजाना=वाय । (5) प्राभूषण=आहरण (पु., नपु.);धारण करना=धार । (6) व्रत=वय (पु.,नपु)। (10) उपकार करना=उवयर । (15) वन्दना, प्रणाम=वन्दण (नपु.)।(22) वाद्य= वज्ज; सुन्दरमणोहर । (25) उन्नति=उण्णइ । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 73 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलित वाक्य-प्रयोग (ख) 1. मई मणिप्रउ बलिराय ! तुहं के हउ मग्गरण एहु । जेहु तेहु न वि होइ, वढ ! सई नारायणु एहु । (हे प्रा.व्या. 4.402/1) -हे राजा बलि ! मेरे द्वारा तू समझाया गया है (कि) (यह) ऐसा कैसा याचक है ? हे मूर्ख ! (यह) जैसा तैसा (याचक) नहीं है । ऐसा (याचक) स्वयं नारायण (भगवान विष्णु) है। 2. विण यवन्तु अच्चन्त सणेहउ । अण्णु वि खत्तिय मग्गु ण एहउ । ( 77.17 प.च.) -(विभीषण) विनयवान (और) अत्यन्त स्नेही (है)। दूसरी बात, ऐसा क्षत्रिय का मार्ग नहीं है । 3. एहउ पहिलारउ मूल-सेण्णु । (16.12 प. च.) -ऐसी (यह) पहली मूल सेना (है)। 4. एहए अवसरे उवाउ कवणु ? (15.10 प.च.) -ऐसे अवसर पर क्या उपाय है ? 5. परियलइ जेण तहो तणउ दप्पु । तं तेहउ कल्लए देमि कप्पु । (4.5 प.च.) --(मैं) कल उसको वैसा व्यवहार दूंगा, जिससे उसका दर्प नष्ट हो जायेगा। 6. तहिं तेहए वि काले भय-भीयहे । केण वि सीलु ण खण्डिउ सीयहे । (44.10 प.च.) -भय से अत्यन्त डरी हुई सीता का शील उस वैसे काल में भी किसी के द्वारा खण्डित नहीं किया जा सका । 7. तहिं तेहए भीसणे भीम-वणे। थिय विज्जहे झाणु धरेवि मणे । (9.7 प. च.) -उस वैसे भीषण और भयंकर वन में मन में विद्या का ध्यान करके (बे) बैठ गए। 8. का वि णाहि मई जेही दुक्खहँ मायणा । (19.6 प.च.) -मेरी जैसी दुःखों को भोगनेवाली कोई नहीं है । 9. मइं जेहउ केवल-संपण्णउ । एक्कु जि रिसहु देउ उप्पण्णउ । (5.9 प.च.) -मेरे जैसे केवलज्ञान से पूर्ण एक ऋषभदेव ही हुए हैं। 74 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. केहउ पर केंहिय तासु सत्ति । (16.1 प.च.) -(रावण) कितना ( कैसा) समर्थ (है), उसकी कितनी (कैसी) शक्ति है ? 11. कं दिवसु वि होसइ पारिसाहुँ । कञ्चुइ-अवत्थ अम्हारिसाहुँ। (22.3 . प. च.) -किसी दिन हम जैसों को (अवस्था) भी ऐसी (ही) होगी, (जैसी) कंचुकी की अवस्था (है)। 12. तो कवणु गहणु अम्हारिसेहिं । वायरण-विहूणेहिं प्रारिसेहि। (23.1 प.च.) --व्याकरण से विहीन ऐसे हमारे जैसों के द्वारा (वाक्य का) क्या ग्रहण होगा? 13. जो असुरा-सुर-जण-मण-वल्लहु । तुम्हारिसहुं कुणारिहि दुल्लहु । (41.13 प. च.) -जो सुर, असुर, मनुष्य के मन को प्रिय है, (वह) तुम जैसी खोटी स्त्रियों के लिए दुर्लभ है। 14. तुम्हारिसेहि तो विउ जिज्जइ । (70.10 प.च.) -तो (वह) तुम्हारे जैसों के द्वारा नहीं जीता जाता है । 15. रूसेवउ णउ अम्हारिसाह । (82.5 प.च.) -(तुम्हारे द्वारा) हम जैसों से नाराज नहीं हुआ जाना चाहिए । 16. रणउ अम्हारिसु जग-परिपीडउ । (73.12 प. च.) -मेरे जैसा जगपीड़क नहीं है । 17. को वि ण मई सरिसउ विरुवारउ । (73.12 प.च.) - मेरे समान दुष्ट कोई नहीं है । 18. तुम्हें जेहा वय-गुण- वन्ता । कइ-तित्थयर देव अइकन्ता । (5.9 प.च.) -हे देव ! तुम्हारे जैसे (समान) व्रत-गुणवाले प्रतिक्रान्त कितने तीर्थंकर (है)? प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 75 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास (ख) (1) ऐसा युद्ध कभी नहीं लड़ा गया । (2) वैसे बालक उन्नति करते हैं । (3) उसका घर मेरे घर जैसा है। (4) उसका पुत्र कैसा (किसके समान) है ? (5) तुम्हारे जंसी बुद्धि मेरी नहीं है ।(6) ऐसी वात सुनकर वह प्रसन्न हुआ । (7) कैसे साधनों से शान्ति प्राप्त की जाती है, कहो । (8) वैसे दुःख में धैर्य रखा जाना चाहिए । (9) ऐसे व्यक्ति का नाम मत लो। (10) कैसे उद्यम से कोई सफल होता है ? (11) तुम्हारे जैसे गुणवान कितने मनुष्य हैं ? (12) उसका ज्ञान हमारे (मेरे) जैसा है । (13) ऐसे राजा के द्वारा मेरी बात नहीं मानी गई । (14) तुम्हारे जैसों के द्वारा उसका राज्य क्यों लिया गया ? (15) तुम्हारे जैसा कोई विनयवान नहीं है । (16) तुम्हारी जैसी नारियों का सम्मान किया जाना चाहिए। (17) मुनि हमारे जैसों को क्षमा करते हैं । (18) वह हमारी जैसी/मेरी जैसी सामान्य महिला नहीं है। (19) ज्ञान के समान कुछ नहीं है । (20) वहां उस समय कैसा क्षोभ उत्पन्न हुआ ? शब्दाथ (8) धैर्य धीर (न) । (16) सम्मान=संमाण । (18) सामान्य सामण्ण । (20) क्षोभ खोह; उत्पन्न हुमा-जाय। 16 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलित वाक्य प्रयोग ( ग ) ( 1 ) 1. तो म्हारउ खन्धावारु सब्बु दलवट्टइ । (77.15 प.च.) --तो ( वह हमारी सभी छावनी को नष्ट कर देग! ! 2. एय महारा दीव विचित्ता । (6.4 प.च.) - ये मेरे विचित्र द्वीप हैं । 3. सुन्दरि करहि महारउ वुत्तउ । (42.6 प.च.) - हे सुन्दरी (तुम) हमारा / मेरा कहा हुआ करो । 4. तो वयणु महारउ सुिरिण मित्त । (43.9 प.च.) - तो हे मित्र । (तुम) मेरे वचन सुनो । 5. एहु पुत्ति तुहारउ भत्तारु । ( 9.1 प.च.) - हे पुत्री । यह तुम्हारा पति है । 6 जं खेत्ते तुहारए किउ णिवासु । (4.13 प.च.) -- ( उसके द्वारा) तुम्हारो भूमि पर निवास किया गया है । 7. जं दिट्ठ तुहारा वे वि पाय । (40.4 प.च.) - तुम्हारे दोनों चरण देखे गए । 8. तुम्हारउ वण-वसणु रिएप्पिणु । किउ मई पट्टणु माउ घरेप्पिणु । (28.7 प. च.) - तुम्हारे वनवास को जानकर और भाव धारण करके मेरे द्वारा नगर बनाया गया । 9. हउं किपि तुहारउ किरण- सण्डु । (46.11 प.च.) - मै तुम्हारा ( प्रापका ) थोड़ा सा किरण-समूह ( हूँ ) | ( 2 ) 1. कि बहुएं एत्तिउ कहिउ मई । ( 12.7 प च . ) - बहुत ( बात ) से क्या ? मेरे द्वारा इतना कहा गया ( है ) । 2. इय एत्तिय पहु पठवइय तेत्थु । (30.10 प.च.) *** - इस प्रकार इतने राजा वहां प्रव्रजित हुए ! प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम ] ( 77 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. फलु एत्तिउ पंच-महन्वयहो । (34.6 प.च.) -पंच महाव्रत का इतना फल (है)। 4. भणु एत्तिएण कालेण काई । चन्दण हिहे चरियई ण वि सुयाई। (45.3 प.च.) -कहो, इतने काल तक क्या (तुम्हारे द्वारा) चन्द्रनखा का आचरण नहीं सुना गया। 5. एत्तियई कियइं साहसइं जइ वि । (45.1 प.च.) -यद्यपि इतना साहस किया गया । 6. किं को वि अत्थि एत्तियह मज्झे । (45.2 प. च.) इतनों के बीच में क्या कोई है ? 7. एत्तिय-मत्तें अन्मुद्धरणउ'..."महु । (35.15 प.च.) -इतने मात्र से मेरे उद्धार हुमा । 8. एत्तिय वि तो वि तउ थाउ बुद्धि करहि सन्धि । (58.2 प.च.) -(यदि) तुम्हारी इतनी भी बुद्धि है तो सन्धि करलो । 9. एउ जेत्तिउ रक्खणु गयवरासु । तेत्तिउ जे पुणु वि थिउ रहवरासु । (16.15 प.च.) -महागज (समूह) का यह जितना रक्षण (था) उतना ही फिर रथसमूह का था। 10. जेत्तिउ दणु दुज्जउ संभवइ । तेत्तिउ पहरन्त जसु ममइ । (71.13 प.च.) -जितना दैत्य दुर्जय होता है, उतना ही प्रहार करने वालों का यश फैलता 11. केत्तिउ भीसगत्तु वणिज्जइ। (11.10 प.च.) -कितनी भीषणता वर्णन की गई है ? 12. जग्गहो जग्गहो केत्तिउ सुग्रहो । (50.7 प.च.) -(तुम) जागो, जागो, कितना सोते हो ? 13. किर केत्तिय सहाय वणे सीहहो । (67.9 प.च.) ___ -जंगल में सिंह का (कौन) कितना सहायक (होता है) ? 78 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. कहि केत्तिय प्रत्थ इं - कहो, कितने हथियार हैं 15. कि तुज्भुवि मरणे एवड्ड भन्ति । (48.2 प.च.) - क्या तुम्हारे मन में भी इतनी बड़ी भ्रान्ति ( है ) ? (53.5 प.च.) ? 16. जासु इम इ एवड्डुइँ चिन्धई । (73.11 प.च.) - जिसके (पास) इस प्रकार के निश्चय ही इतने (विस्तृत) साधन हैं ... । 17. आसु देहि छुडु एत्तडउ । (15.12 प.च.) - शीघ्र इतना प्रदेश ( कों) देवें । 18. सत्तम दिवसे एतडउ बुज्भु । (43.9 प.च.) - इतनी (बात ) ( को ) समझो, सातवें दिन में 19. लङ्केसर महु एतडिय सत्ति । (75.20 प.च.) - हे लंकेश्वर ! मेरी इतनी (ही) शक्ति है । 20 एतडिय संख गरवर-वलासु । ( 13.12 प.च.) - श्रेष्ठ मनुष्य के बल की इतनी संख्या ( है ) । 21. ग्रह वणिण कि एतडे । ( 43.10 प. च. ) - अथवा इसने वर्णन से क्या (लाभ) ? - ....... | 22. मेहलिए मिलन्तहो रहुवइहे सुहु उप्पण्णउ जेतडउ । इन्दो इन्दत्तणु पत्तहो होज्ज ण होज्ज व तेत्तडउ । (78.7 प.च.) - स्त्री से मिलते हुए राम के लिए जितना सुख उत्पन्न हुआ, उतना (सुख) इन्द्र के लिए इन्द्रत्व को पाने में हुआ या नहीं हुआ ? 23. केलडउ वहेसइ खुदु खलु । (6.11 प.च.) - (यह) क्षुद्र, नीच कितने (बन्दर) मारेगा ? ( 3 ) 1. अप्पर हणइ घिवइ परिणिन्दइ । ( 76.15 प.च.) - ( वह) प्रपने को मारता है, फेंकता है, निन्दा करता है । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] 2. जिण - धम्मु मुवि जीवहो को विग अप्परगउ । (54.8 प.च.) - जिन धर्म को छोड़कर जीव का कोई भी अपना नहीं है । [ 79 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. अप्पुण रज्जु करहि णिच्चिन्त उ । (44 2 प.च.) -चिन्तारहित होकर अपना राज्य करो। 4. रोवहि काई अकारणेण धीरवहि माए अप्पारणउ । (45.7 प.च.) -(तुम) बिना कारण के क्यों रोती हो ? हे मां ! अपने को धीरज दो । 5. मणे विम्भउ सव्वही जणहो जाउ । (43.5 प.च.) -सब मनुष्य-समूह के मन में आश्चर्य हुआ । 6. मरगहुं दिण्ण तुरंगम गयवर । (2.14 प.च.) -दूसरों के लिए घोड़े और हाथी दिए गए। 801 [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) हमारा घर स्वर्ग है । ( 2 ) मेरी पुत्री ग्रन्थ पढ़ती है । ( 3 ) तुम्हारा पुत्र क्या करता है ? (4) उसके द्वारा मेरा उपकार किया गया है । ( 5 ) आज तुम्हारा जीवन सफल है 1 ( 6 ) तुम्हारी परीक्षा कब होगी ? ( 7 ) मेरे दादा द्वारा जल पिया गया । ( 8 ) हमारे पिता के गुरु वन में रहते हैं । (9) इतनों के बीच में कौन बुद्धिमान है ? (10) तुम इतने फल क्यों खरीदते हो ? ( 11 ) तुम जितने ज्ञानियों के पास रहते हो, उतना ही तुम्हारा ज्ञान बढ़ता है । ( 12 ) इतने धन से क्या ? (13) कहो, कितनी रात बीत गई । ( 14 ) तुम्हारी बहिन द्वारा कितना कार्य किया गया है ? (15) उसके इतने अधिक दुःख को देखकर वह रोया । ( 16 ) इतनी अधिक नदियों से क्या (लाभ) ? ( 17 ) जितना अधिक तुम तप करते हो, उतनी अधिक शान्ति पाते हो । ( 18 ) तुम्हारा राज्य कितना बड़ा है ? ( 19 ) शीघ्र इतना कार्य करो । ( 20 ) इतनी बालाएं ज्ञान प्राप्त करती हैं । ( 21 ) जितना ज्ञान बढ़ता है, उतना सुख बढ़ता है । ( 22 ) तुम्हारी सेना में कितने योद्धा हैं ? ( 23 ) तुम अपने को देखो । ( 21 ) मैं अपनी कषाय छोड़ता हूँ । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] अभ्यास (ग) [ 81 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 10 विशेषण (गुणवाचक) वे शब्द जो विशेष्य की गुण सम्बन्धी विशेषता बतलाते हैं, गुणवाचक विशेषण कहलाते हैं। यहां यह समझना चाहिए कि जो लिंग, वचन और विभक्ति विशेष्य की होती है वही लिंग, वचन और विभक्ति विशेषण की रहेगी। कुछ विशेषण शब्द निम्नलिखित हैं मपु. सुन्दर थिर विसाल स्त्री. सुन्दरा/सुन्दरी थिरा विसाला वित्थिपण एक्कल्ल पियार विशेषण शब्द सुन्दर (सुन्दर) सुन्दर थिर (स्थिर) थिर विसाल (विशाल) विसाल वित्थिण्ण (विस्तारवाला) वित्थिण्ण एक्कल्ल (अकेला) एक्कल्ल पिनार (प्यार) पियार प्रउन्ध (अपूर्व) चल (चंचल) चल भोसण (भयंकर) भीसण पवित्त (पवित्र) पवित्त गम्भीर (गम्भीर) सार (श्रेष्ठ) सार धार (धारण करनेवाला) धार पेसणगार (प्राज्ञाकार) पेसणगार वित्थिण्णी एक्कल्ला/एक्कलिया पिप्रारी अउव्वा प्रउव अउव्व चल चला भीसण पवित्त गम्भीर गम्भीर सार धार भीसणा/भीसणी पवित्ता गम्भीरी सारी घारी पेसणगारी/पेसणयारी (प.च 83.3) धीरी दुल्लहा पेसणगार धीर धीर धीर (धर्यवान) दुल्लह (दुर्लभ) दुल्लह दुल्लह 82 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्लह विशेषण शब्द नपु. स्त्री. सीयल (शीतल) सीयल सीयल सीयला उण्ह (गर्म) उण्ह उण्ह उण्हा उत्तिम/उत्तम (उत्तम) उत्तिम/उत्तम उत्तिम/उत्तम उत्तिमा/उत्तमा मरणोहर (सुन्दर) मरणोहर मणोहर मणोहरा/मणोहरी जच्चन्ध (जन्मान्ध) जच्चन्ध जच्चन्ध जच्चन्या महुर (मधुर) महुर महुर महुरा उज्जल (उज्ज्वल) उज्जल उज्जल उज्जला तिक्ख (तीखा) तिक्ख तिक्ख तिक्खा वल्लह (प्रिय) वल्लह वल्लहा पण्डर (सफेद) पण्डुर पण्डुर पण्डुरा सुष्ण (शून्य) सुण्ण सुण्ण सुण्णा किविण (कंजूस) किविण किविण किविणा/किविणी जिम्मल (निर्मल) णिम्मल णिम्मल णिम्मला विमल (विमल) विमल विमल विमला किस (दुर्बल) किस किस किसा मुक्ख (मूर्ख) मुक्ख मुक्ख मुक्खा कसिरण (काला) कसिण कसिण कसिणा थूल्ल (मोटा) थूल्ल थूल्ल थूल्ला पुव्व (पूर्वी) पुव्व पुव्व पच्छिम (पश्चिमी) पच्छिम पच्छिम पच्छिमा उत्तर/उत्तरिय (उत्तरी) उत्तर उत्तर उत्तरा/उत्तरिया दाहिण/दक्खिण (दक्षिणी) दाहिण दक्खिण दाहिण/दक्खिण दाहिणी/दक्खिणी दाहिणा/दक्खिणा पुव्वा प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 83 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलित वाक्य-प्रयोग 1. जहि-महुयर-पन्तिउ सुन्दराउ । केयइ-केसर-रय-धूसराउ । (1.4 प.च.) -जहाँ केतकी के पराग-रज के समान हल्के पीले रंगवाली मधुकरों की - सुन्दर पंक्तियां (थीं)। पंति (स्त्री.), सुन्दर-सुन्दरा (वि.), धूसर →धूसरा (वि.) 2. जहि गन्दणवरणई मरणोहराई। णच्चन्ति व चल-पल्लव-कराई। (1.4प.च.) __ - जहाँ सुन्दर नन्दनवन (थे), मानो चंचल पत्तोंरूपी हाथ नाचते हों। णन्दणवण (नपु.), मणोहर (वि.) 3. थिर कित्ति विढप्पइ । (1.2 प.च.) -स्थिर कीति प्राप्त करता है । कित्ति (स्त्री.), थिर-थिरा (वि.) 4. चरणोवरि दिदि विसाला। (2.2 प.च.) -चरणों के ऊपर विशास दृष्टि (डाली)। दिदि (स्त्री) विसाल→विसाला (वि.) 5. पई विणु सुग्णउ मोक्खु । (2.10 प.व.) -तुम्हारे बिना मोक्ष सूना है। मोक्ख (पु.), सुण्ण (वि.) 6. अण्णहुँ दिण्णउ उत्तिम वेसउ । (2.14 प.च.) --अन्य के लिए उत्तम वेश दिए गए। वैस (पु.), उत्तिम (वि.) 84 ] प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. दुल्लहु जण-वल्लहु इन्दत्तणु पावेसहुँ । (3.6 प. च.) -(कब) हम दुर्लभ जनप्रिय इन्द्रत्व प्राप्त करेंगे ? इन्दत्तणु (नपु.), दुल्लह (वि.), घल्लह (वि) 8. तं ग्रह पत्तु जाणहि कमेण । (णा.च. 4.3) - उसको क्रम में प्रधम पात्र जानो । पत्त (नपु.), अहम (वि.) 9. सिहि-उण्हउ सीयलु होइ मेहु । (णा.च. 1.5) - अग्नि गर्म होती है और मेघ शीतल । सिहि (पु.); उण्ह (वि.), मेह (पु); सीयल (वि.) 10. करि कब्बु मरणोहरु मुयहि तंदु। (णा.च. 1.3) -(ग्राप) आलस्य छोड़ें । सुन्दर काव्य रचें। कव्व (पु.), मणोहर (वि.) 11. तीस परम जोयण विस्थिणि । लङ्का-णयरि तुझ मई दिण्णी। (5.8 प.च.) - तीस परमयोजन विस्तारवाली लंकानगरी मेरे द्वारा तुम्हारे लिए दी गई । लंका-णयर-लंका-णयरी (स्त्री.), वित्थिण्ण →वित्थिण्णी (वि.) 12. सुक्क-माणु आऊरिउ हिम्मलु । (5.3 प.च.) -निर्मल शुक्ल ध्यान पूरा किया गया । । झाण (पु., नपु.) गिम्मल (वि) प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 85 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 13. जिह जच्चन्धु दिसाउ विभुल्लउ । प्रच्छमि तेण एत्थु एक्कल्लउ । (44.8 प. च.) जन्मान्ध (व्यक्ति) की तरह ( मैं ) दिशाएं भूल गया, इसलिए (मैं) यहाँ अकेला रहता हूँ | 14. अहो जम्वव चरिउ महन्तु कासु । (45.1 प.च.) - हे जाम्बवन्त ! महान चरित्र किसका है ? 15. उप्पण्णउ केवल - णाणु विमलु । (4.14 प.च.) - विमल केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । 16 राय लच्छि तइलोक्क पियारी । दासि जेम जसु पेसरणगारी । ( 8.4 प.च.) - जिसकी राज्यलक्ष्मी तीन लोक में प्यारी है और दासी की तरह श्राज्ञाकारिणी है । 18. का वि उव्य लील विम्माणिय | ( 14.11 प.च.) - ( उसके द्वारा) कोई प्रपूर्व लीला अनुभव की गई । 1 जच्चन्ध (वि) एक्कल्ल (वि.) चरित्र (पु.) महन्त (वि) 17. उत्तुङ्ग, सिङ्ग, उण्णइ करेवि । णं वञ्छइ सूर- बिम्बु घरेवि । (9.13 प.च.) - ऊंचे शिखर उन्नति करके मानो सूर्य बिम्ब को पकड़ने के लिए इच्छुक हों । णारण (नपु.), विमल (वि) रायलच्छि (स्त्री.), पियारी (वि.), पेसणगार पेसणगारी (वि.) सिङ्ग (नपु.) उत्तुङ्ग (वि.) लीला (स्त्री.), उव्व उव्वा (वि.) [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19. उत्तमहो एउ कि संभवइ । (15.7 प.च.) -उत्तम (व्यक्ति) के लिए क्या यह संभव है ? उत्तम (वि.) 20. सुरवइ धरणउ........ (16.10 प च.) -इन्द्र धन्य है। सुरवइ (पु.), धण्ण (वि.) 21. चल लच्छि मणूसहो........ (16.10 प.च.) -मनुष्य की लक्ष्मी चंचल (होती है)। लच्छि (स्त्री), चल→चला (वि.) 22. भीसण-रयरिणहिं भीसण अडइ । (19.3 प.च.) -भीषण रात में भयानक जंगल (था)। अडइ (स्त्री.); भीसण→भीसणा (वि.) 23. जिह वणे भमियउ एक्कलियउ । (19.18 प.च.) -जिस प्रकार (वे) वन में प्रकली घूमी। एक्कलिय→एक्कलिया (वि.) 24. पण्डुर उ हत्थि पण्डरउ भमरु । (56.8 प.च.) -सफेद हाथी, सफेद भ्रमर (दिखाई दिए)। हत्षि (पु.-स्त्री.); पण्डुरपण्डुरा (वि.) भमर (पु); पण्डुर (वि.) 25. सव्वालङ्कार पवित्त णारि । (56.8 प.च.) -सर्व अलंकारवाली पवित्र नारी (दिखाई दी)। णारी (स्त्री.) पवित्त→पबित्ता (वि.) प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 87 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. जाणमि जिह सायर-गम्भीरी । जाणमि जिह सुर-महिहर-धीरी। (833 प. च.) -जिस प्रकार (वह) सागर की तरह गंभीर है, मैं जानता है। जिस प्रकार (वह) मन्दराचल पर्वत की तरह धैर्यवान है, मैं जानता हूँ। गम्भीर→गम्भीरी (वि.) धीर-धीरी (वि.) 27. जा अणु-गुण-सिक्खा-वय-धारी। जा सम्मत्त-रयण मणि-सारी । ( 83.3 प. च.) -जो अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत धारण करनेवाली है । जो सम्यक्त्वरूपी रत्नों और मणियों का सार है । धार→धारी (वि.) सार→सारी (वि) 28. ससि सकलङ्क तहि जि पह हिम्मल । कालहु मेहु तहिं जे तडि उज्जल । (83.9 प.च.) -चन्द्रमा कलंकसहित होता है, तो भी उसकी प्रभा निर्मल होती है । मेघ काले होते हैं, तो भी उसकी बिजली उज्ज्वल होती है । पहा (स्त्री.); णिम्मल-णिम्मला (वि) तडि (स्त्री.); उज्जल→उज्जला (वि.) 29. णं मुक्खि माणिय विउससह । (2.10 ज च.) -मानो मूर्ख के द्वारा विद्वानों की सभा सम्मानित की गई है । मुक्ख (वि.) 30. जिह किविण-णि हेलणे पणह-विन्दु । (4.i प.च.) -जिस प्रकार कंजूस के घर में याचक-समूह (प्रवेश नहीं करता है)। किविण (वि.) 31. गय अङ्गङ्गय उत्तर-देसहो । (44.6 प.च.) -अंग और अंगद उत्तर देश को गए । देस (पु.) उत्तर (वि) 88 ] प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. गयउ पणासेवि पच्छिम भायहो । (5.4 प.च.) - पश्चिम भाग को नाश करके गया । 33. तहो दाहिण-भाए भरहु थक्कु । (1.11 प.च.) - उसके दक्षिण भाग में भरत क्षेत्र स्थित ( है ) | प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] माय (पु) पच्छिम (वि) भान (पु.) दाहिण (वि.) [ 89 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 10 अभ्यास (1) विशाल पर्वत वहां देखा गया ।(2)संपत्ति स्थिर नहीं होती है । (3)वह मनोहर रथ में बैठी। (4) तुम्हारे बिना घर सूना है। (5) गंगा पवित्र नदी कहो जाती है । (6) यदि तुम्हारा मन चंचल है, तो तुम उसको रोको । (7) जीव अकेला सुख व दुःख को भोगता है। (8) मेरी पुत्री व्रतों को धारण करनेवाली है और धैर्यवान भी है। (9) काले पक्षी आकाश में उड़ते हुए देखे गए। (10) जो दासी विनयवान होती है, वह आज्ञाकारी होती है । (11) योगी ध्यान से अपूर्व प्रानन्द प्राप्त करता है । (12) वह मुनि के दुर्लभ वचनों को सुनकर अपना कल्याण करता है । (13) मेरी बहिन के द्वारा सफेद साड़ी खरीदी गई। (14) जो सास कंजूस होती है, वह बहू के साथ झगड़ा करती है। (15) जिसका शरीर दुबला है, वह दूध अधिक पीवे । (16) जो निर्मल ध्यान ध्याता है, वह विमल केवलज्ञान पाता है । (17) जिसकी दृष्टि उज्ज्वल होती है, उसकी कीर्ति जगत में फैलती है । (18) तुम मधुर फल खायो। (19) जब तक तुम्हारी वाणी तीखी रहेगी, तब तक तुम प्रशंसा नहीं पावोगे । (20) शीतल जल से प्यास नष्ट होती है। (21) उत्तम राजा को सम्पत्ति बढ़ती है । (22) वह सागर के समान गम्भीर है। (23) मेरी प्यारी माता मुझको मधुर भोजन कराती है । (24) राजा की प्रिय रानी उस उपवन में जाकर सरोवर के कमलों को देखती है । (25) मूर्ख मन्त्री राज्य की रक्षा नहीं करता है । (26) जिसकी बुद्धि मोटी होती है, उसका मन निश्चल नहीं होता है । (27) उत्तम मनुष्य के द्वारा ये गुण प्राप्त किए जाते हैं । (28) वह पूर्वी नगर को गया । (29) तुम दक्षिण देश जायो। (30) नर्मदा दक्षिणी नदी है । (31) गंगा उत्तरी नदी है । (32) पश्चिम दिशा में मेरा मित्र रहता है । (33) उसके पूर्व भाग में यमुना नदी है ! शब्दार्थ (6) रोकना=णिवार, (20) प्यास तिसा, (24) सरोवर=सरोवर, देखना-णिरक्ख, (25) रक्षा करना-परिरक्ख, (26) निश्चल-थिर । 90 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 11 वर्तमान कृदन्त अपभ्रंश में 'हंसता हुआ', 'सोता हुआ', 'नाचता हुआ' आदि भावों को प्रकट करने के लिए वर्तमान कृदन्त का प्रयोग किया जाता है। क्रिया में निम्नलिखित प्रत्यय लगाकर वर्तमान कृदन्त बनाये जाते हैं। वर्तमान कृदन्त विशेषरण का कार्य करते हैं। अत: इनके लिंग (पुल्लिग, नपुंसक , स्त्री.), वचन (एक., बहु.) और कारक (कर्ता, कर्म आदि) विशेष्य के अनुसार होंगे । इनके रूप पुल्लिग में 'देव' के समान नपुंसकलिंग में 'कमल' के समान तथा स्त्रीलिंग में 'कहा'/'लच्छो' के समान चलेंगे। वर्तमान कृदन्त अकारान्त होता है । स्त्रीलिंग बनाने के लिए कृदन्त में 'मा/ई' प्रत्यय जोड़ा जाता है तो वह शब्द प्राकारान्त/ईकारान्त स्त्रीलिंग बन जाता है। क्रियाएँ हस-हँसना, गच्च-नाचना, जग्ग-जागना वर्तमान कृदन्त के प्रत्यय हस गच्च जग्ग न्त हसन्त-हंसता हुआ रगच्चन्तनाचता हुमा जग्गन्त=जागता हुआ मारण हसमाण-हंसता हुआ णच्चमाण-नाचता हुआ जग्गमाण-जागता हुआ वर्तमान कृदन्त के विशेषरण के रूप में संकलित वाक्य-प्रयोग प्रथमा विभक्ति के प्रयोग 1. कम्पन्तु छण-चन्दु महागहेण ण मुच्चइ । (1.3 प.च.) -पूर्णिमा का कांपता हुमा चन्द्रमा महाग्रहण से नहीं बच पाता है । 2. रणरिन्द-गत्ते थर-थरहरन्त सर लग्ग । (10.11 प.च.) -राजाओं के शरीर में घर-घर करते हुए तीर लगे । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] . । 91 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. रेहइ सूर-विम्बु उग्गन्तउ । (23.12 प.च.) -उगता हुआ सूर्य बिम्ब शोभता है । 4. एक्कमेक्क कोक्कन्तई रणे हक्कन्तई उभय-वलइ-अभिट्टई। (4.7 प.च.) -एक दूसरे को युद्ध में ललकारती हुई, हांक देती हुई दोनों सेनाएं भिड़ गई। 5. तो तिणि वि एम चवन्ताई, उम्माहउ जणहो जणन्ताई। दिण-पच्छिम-पहरे विरिणग्गयाइँ ....। (27.15 प. च.) -तीनों इस प्रकार बातें करते हुए और लोगों में उन्माद पैदा करते हुए दिन के अन्तिम प्रहर में निकल पड़े । द्वितीया विभक्ति के प्रयोग 1. णासन्तु पदीसिउ पर-वलु राहव-पविखएहिं किउ कल यलु । (61.8 प. च.) -नष्ट होती हुई शत्रुसेना को देखकर राम की सेना द्वारा कोलाहल किया गया। 2. पेक्खेवि उत्थल्लन्तई छत्तई भिडिउ पसण्ण कित्ति सुर-साहणे । (17.3 प.च.) -उछलते हुए छत्रों को देखकर प्रसन्नकीति सुर-सेना से भिड़ गया। 3. रावण किण्ण णियहि गन्दन्तई सयाई । (57.2 प. च.) -रावण (तुम) मानन्द करते हुए स्वजनों को क्यों नहीं देखते हो ? तृतीया विभक्ति के प्रयोग 1. पुत्तेण जुज्झन्तरण सई भुय-वलेण महीयलु । (3.13 प.च.) जुझते हुए पुत्र के द्वारा अपने भुज-बल से धरती (प्राप्त की गई)। 2. चरन्तएहिँ हरिणेहि वि दोवउ मेल्लियउ । (19.5 प.च.) - चरते हुए हरिणों के द्वारा भी मुंह का कौर छोड़ दिया गया। 3. किङ्करहिं गवेसन्तेहिं वणे लक्खिउ लया-भवणे । (19.17 प. च.) -वन में खोजते हुए अनुचरों के द्वारा (वह) लतागृह में देखा गया। 4. पणमन्ते अक्खिय कुसल-वत्त हणुवन्ते । (50.1 प.च ) - हनुमान के द्वारा प्रणाम करते हुए कुशलवार्ता कही गई । 92 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. संसारे भमन्तएण प्रावते जन्त-मरन्तएण जीवें कोण रुवावियउ। 139.9 प.च.) .-संसार में घूमते हुए, पाते हर, उत्पन्न होते और मरते हुए जीव के द्वारा कौन नहीं रुलाया गया। चतुर्थी विभक्ति के प्रयोग 1. लङ्घवि महयहरु एत्थ बसन्तह णाहि घर । (75.9 प.च.) -समुद्र को लांघकर यहां रहते हुए (हमारे लिए) भी धरती नहीं है । 2. पसत्थउ णामु उववणु एन्ताहो पइसन्ताहो कुमारहो णाई कुसुमांजलि थिउ । -प्रशस्त नामक उपवन प्राते हुए, प्रवेश करते हुए कुमारों के लिए मानो कुसुमांजलि लिये स्थित था। पंचमी विभक्ति के प्रयोग 1. अम्हहुँ देसें देसु भमन्तहुं, कवणु पराहउ किर णासन्तहुं । (32.2 प.च.) -(एक) देश से (दूसरे) देश घूमते हुए और भागते हुए हम लोगों से किसका पराभव (अनादर)? 2. सयल-काल-हिण्डन्तहुं हुअ वरण-वासे परम्मुहिय""थिय सिय । (44.15 प च ) -हमेशा विहार करते हुए (राम-लक्ष्मण) से वनवास में विमुख होकर..." सीता स्थित हुई। षष्ठी विभक्ति के प्रयोग 1. पायाल-लङ्क भुञ्जन्ताहो उप्पणु सुमालि हे पुत्त रयणास उ । (9.1 प.च.) -- पाताल लका का उपभोग करते हुए सुमालि के रत्नाश्रव (नामक) पुत्र उत्पन्न हुआ । 2. जेरण खरहो सिरु खुडिउ जियन्तहो । ( 57.6 प.च.) -- जिसके द्वारा जीते हुए खर का सिर काटा गया । 3. सयरहो सयल पिहिमि भुञ्जन्तहो रयण-णिहाणई परिपालन्तहो सट्ठि सहास हूय वर-पुत्तहुँ । (5.10 प.च.) -रत्नों और निधियों का पालन करते हुए, समस्त धरती का उपभोग करते हुए सगर के साठ हजार श्रेष्ठ पुत्र हुए ! प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] 193 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. विद्धन्तहो रयणासव-तणयहो दिट्ठि-मुट्ठि-संधाणु ण णावइ । (11.12 प.च.) -अाक्रमण करते हुए रत्नाश्रव के पुत्र (रावरण) की दृष्टि और मुट्ठी का सन्धान ज्ञात नहीं हो रहा था । सप्तमो विभक्ति के प्रयोग 1. कि पइसरमि वलन्ते हासणे । (29.4 प.च.) क्या (मैं) जलती हुई आग में प्रवेश करूं ? स्त्रीलिंग के प्रयोग 1. रावणेण सरि दिट्ठ वहन्ती। (14.10 प.च.) -रावण के द्वारा बहती हुई नदी देखी गई । 2. तं णिसुणेवि वेवन्ति समुट्ठिय अप्पुणु । (19.2 प.च.) -यह सुनकर (वह) स्वयं काँपती हुई उठी । 3. णयरहो दूरे वणन्तरेण अजण रूवन्ती प्रोग्रारिया । (19.2 प च.) ___ -- नगर से दूर वनान्तर में रोती हुई अन्जना उतार दी गयी । 4. उद्विय रोवन्ती । (45.7 प.च.) __ -(वह) बिलाप करती हुई उठी । 5. 'हा हा माए' भरणनितहि सहियहि कलयलु किउ । (21 8 प च.) -'हा मां, हा माँ' कहती हुई सखियों के द्वारा कोलाहल किया गया । 6. अंसु फुसन्तिए वुच्चइ लीहउ कड्ढन्तिए । (18.10 प च ) -प्रांसू पोंछते हुए और लकीर खींचते हुए (उसके द्वारा) कहा जाता है । 7. दसाणण-पत्तिए वुच्चइ राम-घरिणि विहसन्तिए । (41.10 प च) । -दशानन की हंसती हुई पत्नी के द्वारा राम की गृहिणी से कहा गया । प्रेरणार्थक के साथ वर्तमान कृदन्त-प्रयोग 1. पालण-खम्भेण भामतें पहइ भमाडिय । (22.15 पच.) -घुमाते हुए पालान स्तम्भ से (उसके द्वारा) (मानो) धरती घुमा दी गई। 94 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. पडिउ जडाइ रणे जाणइ: हरि-वलहुँ तिहि मि चित्तई पाडन्तउ 1 ( 38.13 प.च.) - जटायु रण में जानकी, लक्ष्मण और राम तीनों के चित्त को गिराता हुआ गिर पड़ा । कर्मवाच्य व भाववाच्य के प्रत्यय के साथ वर्तमान कृदन्त-प्रयोग 1. दरिसाविउ सयलु वि बन्धुजणु, कस घाएहि चाइज्जन्तु वणे । (9.10 प.च.) - सभी बन्धुजनों को वन में कोड़ों के प्राघात से पीटे जाते हुए दिखाया गया । 2. पेक्खेवि हयवर पाडिज्जन्ता भिडिउ पसण्ण कित्ति सुर-साहणे । ( 17.3 प.च.) - हयवरों को गिराए जाते हुए देखकर प्रसन्नकीर्ति सुरसेना से भिड़ गया । 3. सुणेवि गिज्जन्तइँ मङ्गलाई, वर आणवडिच्छउ सयलु लोउ । ( 86.9 प च . ) - गाए जाते हुए मंगलों को सुनकर सब लोग चाहने लगे कि वर को बुलाया जाए । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [95 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ 12 भूतकालिक कृदन्त अपभ्रंश में भूतकाल का भाव प्रकट करने के लिए भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग किया जाता है । क्रिया में निम्नलिखित प्रत्यय लगाकर भूतकालिक कृदन्त बनाये जाते हैं। भूतकालिक कृदन्त शब्द विशेषण का कार्य करते हैं । जब अकर्मक क्रियाओं में इस कृदन्त के प्रत्ययों को लगाया जाता है तो इसका प्रयोग कर्तृवाच्य में किया जा सकता है। इन शब्दों के रूप कर्ता के अनुसार चलेंगे । कर्ता पुल्लिग, नपुंसकलिंग, स्त्रीलिंग में से जो भी होगा इन कृदन्तों के रूप भी उसी के अनुसार बनेंगे । इन कृदन्तों के पुल्लिग में 'देव' के समान, नपंसकलिंग में 'कमल' के समान तथा स्त्रीलिंग में 'कहा। 'लच्छो' के समान रूप चलेंगे। भूतकालिक कृदन्त अकारान्त होता है। स्त्रीलिंग बनाने के लिए कृदन्त में 'पा/ई' प्रत्यय जोड़ा जाता है, वह शब्द आकारान्त/ईकारान्त स्त्रीलिंग बन जाता है। क्रियाएँ हस हँसना, रगच्च-नाचना, जग्ग=जागना, हो-होना भूतकालिक कृदन्त के प्रत्यय हस साच्च जग्ग हसिन हसा णच्चिप्र=नाचा जग्गिजागा होम हुआ हसिय=हंसा नच्चिय-नाचा जग्गिय =जागा होय हुआ य नोट-क्रिया के अन्त्य 'प्र' का 'इ' हो जाता है। 'य' प्रत्यय 'अ' में बदला जा सकता है। अकर्मक क्रियानों से निर्मित भूतकालिक कृदन्त संकलित वाक्य-प्रयोग 1. रिणवडिय-पणेहिं महि रङ्गिय रङ्ग। (1.5 प.च.) -गिरे हुए पान के पत्तों से धरती लाल रंग से रंग गयी। 96 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 2. मच्छरु माणु वि गलिउ परिन्दहो । (5.7 प.च.) ---राजा का मान-मत्सर गल गया। 3. तं णिसूणेवि णरवइ लज्जियउ । (6.3 प.च.) - उसको सुनकर राजा लज्जित हुमा । 4. तं णिसुणे वि वयणु तहो वलियउ । (8.3 प. च.) -यह सुनकर उसका मुख मुड़ा। 5. किं वालहो पव्वज्ज म होनो । (24.5 प.च.) -क्या बालक के लिए प्रव्रज्या नहीं हुई ? 6. थम्भिउ पुप्फविमाणु अम्बरे । (13.1 प.च.) -- (उसका) पुष्पक विमान आकाश में रुक गया। 7. तं रिद्धि सुणेवि दसाणणहो परिमोसु पड्ढिउ परियणहो । (9.13 प.च.) -रावण के उस वैभव को सुनकर (देखकर) परिजनों का सन्तोष बढ़ गया। 8. पुवमउ सरेवि कोहें जलिउ । (33.13 प. च.) -पूर्वभव को याद करके (वह) क्रोध से जल उठा । 9. सीयहे वयण सुणेवि मणे डोल्लिय । (41.12 प.च.) -सीता के वचन सुनकर (मन्दोदरी) मन में कांपी। 10. तं पेक्षेवि तडिकेसु वि डरिउ । (6.13 प.च.) -उसे देखकर तडित्केश भी डर गया । 11. णव-पाउसे णव घण गज्जिय । (2.1 प.च.) -नव वर्षाऋतु में नवधन गरज उठे । 12. छत्तई पडियइँ महिहिं णाई सयवत्तई । (52.2 प.च.) -कमल की तरह छत्र धरती पर गिरे पड़े (थे) । 13. वेण्णि वि वलई परोप्परु भिडियई । (52.8 प.च.) -दोनों सेनाएं आपस में टकरा गई। 14. महएवि महियले पडिय रुयन्ती । (23.3 प.च.) ~ोती हुई महादेवी (अपराजिता) धरती पर गिर पड़ी। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 97 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. सुप्र-पन्तिउ उट्टियाउ । (13.5 प.च.) -तोतों की पंक्तियां उठी । 16. तहिं अवसरे वे वि पढुक्कियउ । (19.6 प.च.) -उस अवसर पर वे दोनों (वहाँ) पहुंची। सकर्मक क्रियाओं से निर्मित भूतकालिक कृदन्त जब सकर्मक क्रियाओं में भूतकालिक कृदन्त के प्रत्यय लगाये जाते हैं तो इनका प्रयोग कर्मवाच्य में ही किया जाता है। कर्मवाच्य बनाने के लिए कर्ता तृतीया (एकवचन अथवा बहुवचन) में रखा जाता है। कर्म जो द्वितीया (एकवचन अथवा बहुवचन) में होता है, उसको प्रथमा (एकवचन अथवा बहुवचन) में परिवर्तित किया जाता है तथा भूतकालिक कृदन्त के रूप (प्रथमा में परिवर्तित) कर्म के अनुसार चलते हैं। पुल्लिग में 'देव' के समान, नपुंसकलिंग में 'कमल' के समान तथा स्त्रीलिंग में 'कहा'/'लच्छो' के समान इसके रूप चलेंगे । भूतकालिक कृदन्त अकारान्त होता है । स्त्रीलिंग बनाने के लिए कृदन्त में 'पा/ई' प्रत्यय जोड़ा जाता है तो शब्द आकारान्त/ ईकारान्त स्त्रीलिंग बन जाता है। संकलित वाक्य-प्रयोग 1. पहिलउ कलसु लइउ अमरिन्दें । (2.5 प.च.) -पहला कलश देवेन्द्र द्वारा लिया गया । 2. वायरणु कयावि ण जारिणयउ । (1.3 प.च.) __ -(मेरे द्वारा) व्याकरण कभी भी नहीं जाना गया । 3. चलण णवेप्पिणु विविउ । (1.7 प च.) -चरणों में प्रणाम कर (उसके द्वारा) निवेदन किया गया। 4. बालि गारुड-विज्ज विसज्जिय (12.9 प.च.) -बालि के द्वारा गारुड विद्या छोड़ी गई (विजित की गई)। 5. अमरेण वि दरिसिय अमर-गइ । (6.13 प.च.) -अमर के द्वारा भी अमर गति दिखाई गई। 98 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. पुण्णाउस कोक्किय णीलजण । (2.9 प.च) -(इन्द्र के द्वारा) पुण्यप्रायुवाली नीलांजना बुलाई गई। 7. पट्टविय महन्ता तुरिय तासु । (4.3 प.च.) - शीघ्र ही उसके (पास) मन्त्री भेजे गये । 8. भरह बाहुबलि -रिसह काल-भुअङ्ग गिलिया । (5.12 प.च.) -भरत, बाहुबलि और ऋषभ कालरूपी नाग द्वारा निगल लिये गये । 9. साहणईं वे वि प्रोसारियाई । (4.9 प.च.) __~दोनों सेनाएं (कठिनाई से) हटायी गयीं। 10. अट्ठ वि कम्मइँ णिज्जियई। (32.11 प.च.) -पाठों ही कर्म जीत लिए गए। 11. घरे घरे तूरई अल्फालियई। (71.3 प.च.) -घर घर में तूर्य बजाये गये । 12. दिव्वत्थई लइयई रावणेण । (75.14 प.च.) -रावण के द्वारा दिव्य अस्त्र ले लिये गये । 13. चलियई पासणाई अहमिन्दहुँ । (3.4 प.च.) -अहमिन्द्रों के पासन चलायमान हो गये। 14. णिय-णिय जाणई सज्जियई । (3.5 प.च.) -(देवों के द्वारा) अपने-अपने यान सजाये गये । 15. विहि मि भवन्तराइ वज्जरियई । (5.7 प.च.) -(वहां) दोनों के ही जन्मान्तर बताये गये । प्रेरणार्थक के साथ भूतकालिक कृदन्त प्रयोग 1. देवाविय लहु आणन्द-भेरि । (1.8 प.च.) -- शीघ्र ही (राजा के द्वारा) अानन्द की भेरी बजवा दी गई। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 99 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. जाणाविउ पच्छण्ण-अउत्तिहिं । (5.12 प.च.) -(मन्त्रियों के द्वारा) प्रच्छन्न उक्तियों से बताया गया। 3. कोक्काविउ सयलु वि वन्धुजणु । (9.2 प.च.) -उसके द्वारा) सब ही बन्धुजन बुलवाये गये । 4. लङ्काहिउ वुज्झाविउ मरण । (13.11 प.च.) -मय के द्वारा लंकेश्वर समझाया गया। 100 1 . [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ-13 अपभ्रंश व्याकरण-सूत्र ____ यह गौरव की बात है कि हेमचन्द्राचार्य ने अपभ्रंश की व्याकरण लिखी। उन्होंने इसकी रचना संस्कृत भाषा के माध्यम से की। अपभ्रंश व्याकरण को समझाने के लिए संस्कृत-व्याकरण की पद्धति के अनुरूप संस्कृत भाषा में सूत्र लिखे गये । किन्तु सूत्रों का आधार संस्कृत भाषा होने के कारण यह नहीं समझा जाना चाहिए कि अपभ्रंश व्याकरण को समझने के लिए संस्कृत के विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता है । संस्कृत के बहुत ही सामान्यज्ञान से सूत्र समझे जा सकते हैं। हिन्दी, अंग्रेजी आदि किसी भी भाषा का व्याकरणात्मक ज्ञान भी अपभ्रंश-व्याकरण को समझने में सहायक हो सकता है। अगले पृष्ठों में हम अपभ्रंश-व्याकरण के संज्ञा व सर्वनाम के सूत्रों का विवेचन प्रस्तुत कर रहे हैं । सूत्रों को समझने के लिए स्वरसन्धि, व्यंजनसन्धि तथा विसर्गसन्धि के सामान्य-ज्ञान की आवश्यकता है । साथ ही संस्कृत प्रत्यय-संकेतों का ज्ञान भी होना चाहिए तथा उनके विभिन्न विभक्तियों में रूप समझे जाने चाहिए। अपभ्रंश में केवल दो ही वचन होते हैं-एकवचन तथा बहुवचन । अतः दो ही वचनों के संस्कृतप्रत्यय-सकेतों को समझना आवश्यक है । ये प्रत्यय-संकेत निम्न प्रकार हैं विभक्ति एकवचन के प्रत्यय बहुवचन के प्रत्यय प्रथमा जस् शस् भिस् भ्यस द्वितीया तृतीया चतुर्थी पंचमी षष्ठी सप्तमी भ्यस् प्राम सूप *सन्धि के नियमों के लिए परिशिष्ट देखें । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम ] [ 101 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनमें से (1) सि, सि और डि के रूप हरि की तरह चलेंगे । जैसे 'सि' का सप्तमी एकवचन में 'सौ' रूप बनेगा, तृतीया एकवचन में 'सिना' रूप बनेगा । इसी प्रकार दूसरे रूप भी समझ लेने चाहिए। (2) अम्, जस्, शस्, भिस्, भ्यस्, प्राम, और सुप् आदि के रूप हलन्त शब्द भूभृत् की तरह चलेंगे । जैसे भिस् का सप्तमी एकवचन में रूप बनेगा 'भिसि', 'अम्' का प्रथमा एकवचन में रूप बनेगा 'प्रम्', 'सि' का षष्ठी एकवचन में रूप बनेगा 'डसे:' । इसी प्रकार दूसरे रूप भी समझ लेने चाहिए । (3) 'टा' के रूप 'गोपा' की तरह चलेंगे । जसे 'टा' का सप्तमी एकवचन में 'टि' रूप बनेगा, षष्ठी एकवचन में 'ट:' रूप बनेगा, तृतीया एकवचन में 'टा' बनेगा। इसी प्रकार दूसरे रूप बना लेने चाहिए। (4) उत्-→उ, प्रोत्→ो , एत्→ए, इत्→इ, प्रात्→ा आदि हलन्त शब्दों के रूप भी 'भूभृत्' की तरह ही चलेंगे । 'लुक्' शब्द के रूप भी इसी प्रकार चलेंगे। (5) इनके अतिरिक्त कुछ दूसरे शब्द सूत्रों में प्रयुक्त हुए हैं। उन शब्दों के रूप कहीं 'राम' की तरह, कहीं 'स्त्री' की तरह, कहीं 'गुरु' की तरह चलेंगे। इसी प्रकार शेष शब्दों के रूपों को संस्कृत व्याकरण से समझ लेना चाहिए। सूत्रों को पांच सोपानों में समझाया गया है(1) सूत्रों में प्रयुक्त पदो का सन्धिविच्छेद किया गया है, (2) सूत्रों में प्रयुक्त पदों की विभक्तियां लिखी गई हैं, (3) सूत्रों का शब्दार्थ लिखा गया है, (4) सूत्रों का पूरा अर्थ (प्रसंगानुसार) लिखा गया है तथा (5) सूत्रों के प्रयोग लिखे गए हैं। अगले पृष्ठों में संज्ञा से सम्बन्धित सूत्र दिए गए हैं। इन सूत्रों से निम्न तेरह प्रकार के शब्दों के रूप निर्मित हो सकेंगे 102 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (क) पुल्लिग शब्द- देव, हरि, गामणी, साहु, सयंभू । (ख) नपुंसकलिंग शब्द-कमल, वारि, महु।। (ग) स्त्रीलिंग शब्द-कहा, मइ, लच्छी, घेणु, बहू । (5) सूत्रों के आधार से उपर्युक्त तेरह प्रकार के शब्दों के रूप बना लेने चाहिए । सूत्रों को समझाते समय कुछ गणितीय चिह्नों का प्रयोग किया गया है जिन्हें-संकेत सूची में समझाया गया है । 1. हरि शब्द एकवचन द्विवचन प्रथमा द्वितीया चतुर्थी पंचमी षष्ठी सप्तमी संबोधन हरिः हरिम् हरिगा हरये हरे: हरेः हरौ हे हरे हरी हरी हरिभ्याम् हरिभ्याम् हरिभ्याम् होः बहुवचन हरयः हरीन् हरिभिः हरिभ्यः हरिभ्यः हरीणाम् हरिषु हे हरयः होः 2. भूभत् शब्द एकवचन भूभृत् भूभृतम् भूमृता भूभृते प्रथमा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पंचमी षष्ठी सप्तमी संबोधन द्विवचन भूभृतौ भूभृतौ भूभृद्भ्याम् भूभृद्भ्याम् भूभृद्भ्याम् भूभृतोः भूभृतोः हे भूभृतौ बहुवचन भूभृतः भूभृतः भूभृद्भिः भूभृद्भ्यः भूभृद्भ्यः भूभृताम् भूभृत्सु हे भूभृतः भूभृतः भूभृतः भूभृति हे भूभृत् प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ । [ 103 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3. गोपा शब्द एकवचन द्विवचन बहुवचन प्रथमा गोपी गोपाः गोपी गोपः गोपामिः गोपाभ्याम् गोपाः द्वितीया गोपाम् तृतीया गोपा चतुर्थी गोपे पंचमी गोपः षष्ठी गोप: सप्तमी गोपि संबोधन हे गोपाः गोपाभ्याम् गोपाभ्याम् गोपोः गोपाभ्यः गोपाभ्यः गोपाम् गोपासु हे गोपाः गोपोः हे गोपी 4. राम शब्द एकवचन द्विवचन बहुवचन प्रथमा रामः रामो रामा रामम् रामो रामान् रामेण रामाभ्याम् रामैः द्वितीया तृतीया चतुर्थी पंचमी षष्ठी रामाय रामाभ्याम् रामेभ्यः रामात् रामाभ्याम् रामेभ्यः रामस्य रामयोः रामयोः हे रामो रामाणाम् रामेषु सप्तमी संबोधन हे राम हे रामाः 104 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. स्त्री शब्द एकवचन प्रथमा स्त्री द्वितीया स्त्रियम् तृतीया स्त्रिया चतुर्थी स्त्रिय पंचमी षष्ठी सप्तमी संबोधन 6. गुरु शब्द स्त्रिया: स्त्रिया: स्त्रियाम् स्त्रि एकवचन प्रथमा गुरुः द्वितीया गुरुम् तृतीया गुरुणा चतुर्थी गुरवे पंचमी गुरो: षष्ठी सप्तमी संबोधन प्रोढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] द्विवचन स्त्रियो स्त्रियौ स्त्रीभ्याम् स्त्रीभ्याम् स्त्रीभ्याम् स्त्रियोः स्त्रियोः हे स्त्रियो द्विवचन गुरु गुरू गुरुभ्याम् गुरुभ्याम् गुरुभ्याम् गुर्वोः बहुवचन स्त्रियः स्त्रियः स्त्रीभि: स्त्रीभ्यः स्त्रीभ्यः स्त्रीणाम् स्त्रीषु हे स्त्रियः गुरो: गुरौ गुव: गुरुषु हे गु हे गुरु हे गुरवः 7. प्रौढ़ - रचनानुवाद कौमुदी, डॉ. कपिलदेव द्विवेदी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी बहुवचन गुरवः गुरुन् गुरुभि: गुरुभ्यः गुरुभ्यः गुरूणाम् [ 105 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत सूची प्र --अव्यय •( ) - इस प्रकार के कोष्ठक में मूल शब्द रखा गया है। [()+()+( )....] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर+चिह्न शब्दों में संधि का द्योतक है । यहा अन्दर के कोष्ठकों में मूल शब्द ही रखे गए हैं । •[( )- ( )--( )...] इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर '-' चिह्न समास का द्योतक है । जहां कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे 1/1, 2/1 .. आदि) ही लिखी है वह उस कोष्ठक के अन्दर का शब्द 'संज्ञा' है। 11 प्रथमा/एकवचन 5/1 - पंचमी/एकवचन 1/2-प्रथमा/द्विवचन 5/2-पंचमी/द्विवचन 1/3- प्रथमा/बहुवचन 5/3---पंचमी/बहुवचन 2/1-द्वितीया/एकवचन 6/1-षष्ठी/एकवचन 2/2-द्वितीया/द्विवचन 6/2-षष्ठी/द्विवचन 2/3-- द्वितीया/बहुवचन 63-षष्ठी/बहुवचन 3/1-तृतीया/एकवचन 7/1-सप्तमी/एकवचन 3/2-तृतीया/द्विवचन 7/2 सप्तमी/द्विवचन 3/3- तृतीया/बहुवचन 7/3 - सप्तमी बहुवचन 4/i-चतुर्थी/एकवचन 8/1-संबोधन/एकवचन 4/2–चतुर्थी/द्विवचन 8/2-संबोधन। द्विवचन 4/3-- चतुर्थी/बहुवचन 8/3-संबोधन/बहुवचन 106 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञा-सूत्र 1. स्यमोरस्योत् 4/331 स्यमोरस्योत् [ (सि)+ (अमोः)+ (अस्य)+(उत्) ] [(सि)- (अम्) 6/2] अस्य (अ) 6/1 उत् (उत्) 1/1 । अकारान्त (शब्दों) के परे 'सि' और 'अम्' के स्थान पर उत्→ उ' (होता है) । अकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों के परे सि (प्रथमा एकवचन के प्रत्यय) अम् (द्वितीया एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'उ' होता है । देव (पु.) (देव+सि) = (देव --- उ)=देव (प्रथमा एकवचन) (देव- अम्)=(देव + उ)=देव (द्वितीया एकवचन) (कमल+सि)=(कमल+उ)= कमलु (प्रथमा एकवचन) (कमल-अम्)=(कमल+उ)== कमलु (द्वितीया एकवचन) कमल (नपु) 2. सौ पुस्योद्वा 4/332 सौ पुंस्योद्वा [ (पुंसि) + (प्रोत) + (वा)] सौ (सि) 7/1 पुंसि (पुंस्) 7/1 प्रोत् (प्रोत्) 1/1 वा (अ)=विकल्प से । (अकारान्त) पुल्लिग (शब्दों) में 'सि' परे होने पर विकल्प से (उसका) ओत्-→ 'प्रो' (होता है)। अकारान्त पुल्लिग शब्दों में सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय) परे होने पर विकल्प से उसका 'प्रो' हो जाता है । देव (पु.)-(देव+सि)=(देव+प्रो)=देवो (प्रथमा एकवचन)। 3. एट्टि 4/333 एट्टि [(एत्) + (टि)] एत् (एत्) ]/1 टि (टा) 7/1 (अकारान्त) (शब्दों में) 'टा' परे होने पर (अन्त्य 'अ' का) 'ए' (झोता है) । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 107 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकारान्त पुल्लिंग और नपुंसकलिंग शब्दों में टा (तृतीया एकवचन का प्रत्यय ) परे होने पर अन्त्य 'प्र' का 'ए' हो जाता है । देव (पु) - ( देव + टा) = (देवे + टा) टाण और अनुस्वार (-) (4/342) .: (देवे + टा ) = (देवे + ग ) = देवेण ( तृतीया एकवचन ) (देवे +टा) = (देवे + ) = देवें (तृतीया एकवचन ) कमल (नपु . ) - ( कमल + टा) = (कमले + टा) टा = ण और अनुस्वार ( ं) (4/342) 4 ङिनेचच 4/334 ङिनेच्च [ (ङिना ) + (इत्) + (च)] ङिना (ङि ) 3 / 1 इत् ( इत्) 1 / 1 च (अ) = और। . . ( कमले + टा ) = ( कमले + ग ) = कमलेर (तृतीया एकवचन ) ( कमले + टा) = ( कमले + + ) = कमलें (तृतीया एकवचन ) (अकारान्त शब्दों में) (ङि परे होने पर) ङि सहित ( अन्त्य अ ) ( के स्थान पर) इत् इ और ( एत् ए होते हैं) । अकारान्त पुल्लिंग और नपुंसकलिंग शब्दों में ङि परे होने पर ङि (सप्तमी एकवचन के प्रत्यय) सहित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'इ' और 'ए' होते हैं । देव (पु.) - (देव + ङि) = देवि (सप्तमी एकवचन ) (देव + ङि) = देवे ( सप्तमी एकवचन ) 5. भिस्येद्वा कमल (नपु.)- (कमल + ङि) कमलि (सप्तमी एकवचन ) ( कमल + ङि) = कमले ( सप्तमी एकवचन ) 4/335 भिस्येद्वा [ ( भिसि ) + (एत्)+(वा)] भिसि (भिस्) 7/1 एत् ( एत्) 1 / 1 वा (प्र) = विकल्प से । (अकारान्त शब्दों में) भिस् परे होने पर एत्-ए विकल्प से (होता है) । अकारान्त पुल्लिंग और नपुंसकलिंग शब्दों में भिस् (तृतीया बहुवचन का प्रत्यय ) परे होने पर अन्त्य 'अ' का 'ए' विकल्प से होता है । 108 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव (पु ) - (देव+भिस्) =(देवे ---भिस्) भिस् =हिं (4/347) .. (देवे- भिस्) =(देवे +हिं) = देवेहिं (तृतीया बहुवचन) कमल (नपु)– (कमल+मिस्)= (कमले+भिस्) भिस् =हिं (4/347) (कमले +भिस्) = (कमले-+-हिं) = कमलेहि (तृतीया बहुवचन) 6. ङसेहे-हू 4/336 सेहूँ हू [(ङसे:)+(हे) - (हू)] ङसे: (ङसि) 6/1 { (हे) - (हू) 1/2 ] (अकारान्त) (शब्दों से परे) 'सि' के स्थान पर 'हे' और 'हु' (होते हैं) । अकारान्त पुल्लिग और नपंसलिंग शब्दों से परे ङसि (पंचमी एक वचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'हे' और 'हु' होते हैं । देव (पु.)-(देव+ ङसि) =(देव+हे)=देवहे (पंचमी एकवचन) - (देव + ङसि)= (देव+हु) =देवहु (पंचमी एकवचन) कमल (नपु.)-(कमल-+ ङसि) =(कमल+हे)=कमलहे (पंचमी एकवचन) -(कमल+ङसि)=(कमल-+हु)= कमलहु (पंचमी एकवचन) 7. भ्यसो हुँ 4/337 भ्यसो हुँ [(भ्यसः) + (हुं)] भ्यस: (भ्यस्) 6/1 हुं (हु) 1/1 (अकारान्त शब्दों से परे) 'भ्यस्' के स्थान पर 'हुँ' (होता है)। अकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों से परे भ्यस् (पंचमी बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'हुँ' होता है । देव (पु.)-(देव+भ्यस्) =(देव+हुं) =देवहुं (पंचमी बहुवचन) कमल (नपु.)- (कमल+भ्यस्)=(कमल +९)= कमलहुं (पंचमी बहुवचन) प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 109 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. उसः सु-हो-स्सवः 4/338 इसः (ङस्) 6/1 सु-हो-स्सव : [(सु)-(हो)-(स्सु) 1/3] (अकारान्त शब्दों से परे) ङस् के स्थान पर सु', 'हो' और 'स्सु' (होते हैं) । अकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दो से परे ङस् (षष्ठी एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर सु, हो और स्सु होते हैं । देव (पु.) -(देव+ ङस्)= (देव+सु) = देवसु (षष्ठी एकवचन) (देव+डस्)= (देव+हो)=देवहो (षष्ठी एकवचन) (देव ---ङस्)= (देव+स्सु)= देवस्सु (षष्ठी एकवचन) कमल(नपु.)-(कमल+ ङस्)= (कमल+सु)= कमलसु (षष्ठी एकवचन) (कमल+ ङस्)=(कमल+हो) =कमलहो (षष्ठी एकव वन) (कमल+ ङस्)=(कमल-:-स्मृ)= कमलस्सु (षष्ठी एकवचन) 9. प्रामो हं 4/339 प्रामो हं [ (प्रामः)+ (हं)] प्रामः (आम्) 6/1 हं (हं) 1/1 (अकारान्त शब्दों से परे) प्राम् के स्थान पर 'हं' (होता है)। अकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों से परे प्राम् (षष्ठी बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'ह' होता है । देव (पु.)-(देव + आम्) =(देव+ह)= देवहं (षष्ठी बहुवचन) कमल (नपु ) - (कमल+आम्)=(कमल + हं = कमलह (षष्टी बहुवचन) fice 'luco 10. हुं चेदुद्भयाम् 4/340 हुं चेदुद्भयाम् [ (च)-+-(इत् + (उद्भयाम्)! हुँ (हुं) 1/1 च (अ) =और [ (इत्)-(उत्) 5/2] (पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दो में) इत्→इ, ई और उत्->उ, ऊ से परे (ग्राम् के स्थान पर) 'हुँ' और ('ह' होते हैं)। 'hco 1101 [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकारान्त और उकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों से परे प्राम् (षष्टी बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'हुं' और 'ह' होते हैं । हरि (पु) -(हरिनाम्) =(हरि+हुं) हरिहुं (षष्ठी बहुवचन) (हरिनाम्) =(हरि+ह) हरिह (षष्ठी बहुवचन) गामणी (पु)-(गामणी+प्राम्)=(गामणी+ हु)= गामणीहुं (षष्ठी बहुवचन) (गामणी+ह)=गामणीहं (षष्ठी बहुवचन) वारि (नपु)- (वारि- प्राम्) =(वारि + हुं)= वारि हुं (षष्ठी बहुवचन) __ (वारि+ हं)=वारिह (षष्ठी बहुवचन) साहु (पु.) ---(साहु + आम्)=(साहु-+हुं) =साहुहुं (षष्ठी बहुवचन) (साहु+ह)=साहुहं (षष्ठी बहुवचन) सयंभू (पु.)-(सय भू+आम्)=(सयंभू+हुं)= सयंभूहं (षष्ठी बहुवचन) (सयंभू-+-हं)-सयंमूह (षष्ठी बहुवचन) महु (नपु.)-- (महु -+-प्राम्) =(महु + हुं) = महुहूं (षष्ठी बहुवचन) (महु+हं) =महुहं (षष्ठी बहुवचन) नोट-हेमचन्द्र की वृत्ति के अनुसार यह कहा गया हैइकारान्त और उकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों से परे सुप् (सप्तमी बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'हुँ' भी होता है । हरि (पु.)-(हरि+सुप्)=(हरि+हुं। हरिहुं (सप्तमी बहुवचन) इसी प्रकार गामणीहुं, वारिहुं, साहुहुं, सयंभूहुं तथा महुहुं (सप्तमी बहुवचन) ___11. ङसि-भ्यस्-डीनां हे-हुं-हयः 41341 ङसि-भ्यस्-[(डीनाम्)+ (हे)] - हुं-हयः ङसि-भ्यस्-ङोनाम् [(ङसि}-(भ्यस्)- (ङि) 6/3] हे-हुं-हयः [(हे)-(हुं)-(हि) 1/3] (इकारान्त और उकारान्त से परे) सि, भ्यस् और ङि के स्थान पर क्रमशः 'हे', 'हुँ' और 'हि' (होता है)। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 111 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकारान्त और उकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों से परे उसि (पंचमी एकवचन के प्रत्यय), भ्यस् (पंचमी बहुवचन के प्रत्यय) और ङि (सप्तमी एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर क्रमश. 'हे', 'हुं' और 'हि' होता है। हरि (पु.)-(हरि-+ ङसि) = (हरि+हे) =हरिहे (पंचमी एकवचन) गामणी (पु.)-(गामणी+ङसि) = (गामणी+हे)=गामणोहे वारि (नयु) -(वारि+ङसि)=(वारि+हे)=वारिहे साहु (पु.) -(साहु + ङसि)=(साहु +हे)= साहुहे सयंभू (पु.) -(सयभू+ङसि)=(सयंभू+हे)=सयंभूहे महु (नपु) -(महु +ङसि)= (महु +हे) =महुहे हरि (पु.) -(हरि--भ्यस्)+-(हरि + हुँ)= हरि हुं (पंचमी बहुवचन) गामणी (पु.) ~~~ (गामणी+भ्यस्)=(गामणी+हु) = गामणीहुं वारि (नपु.)-(वारि+भ्यस्)= (वारि-हुं) =बारिहुं साहु (पु.) --(साहु +भ्यस्) =(साहु । हुं)=साहुहूं सयंभू (पु.) --(सयंभू+भ्यस्)=(सय भू+हु)=सयंभूहं महु (नमु.) -(महु+भ्यस्) =(महु +हुं)=महुहुं हरि (पु) -(हरि+ङि)=(हरि + हि) =हरिहि (सप्तमी एकवचन) गामणी (पु.)-(गामणी+ङि)=(गामणी+ हि)= गामणीहि वारि (नपु.) – (वारि-+-ङि)=(वारि--हि) =वारिहि साहु (पु.) - (साहु +ङि)=(साहु +हि) = साहुहि सयंभू (पु.) -(सयंभू+ङि) = (सयंभू+ हि) = सयंभूहि महु (नपु.) -(महु -+-ङि) = (महु + हि)= महुहि 12. प्राट्टो णानुस्वारौ 4/342 प्राट्टो णानुस्वारी [ (प्रात्) + (ट:)+(ण)+ (अनुस्वारौ)] प्रात् (अ) 5/12: (टा) 61 [ (ण)-(अनुस्वार) 1/2] 112 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकारान्त (शब्दों) से परे 'टा' के स्थान पर 'रण' और 'अनुस्वार' ( - )(होते हैं)। अकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग शब्दों से परे टा (तृतीया एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'रण' और '+' होते हैं । देव (पु.) - (देव+टा)=(देव+ण)=(देवे*+ण) =देवेण . (तृतीया एकवचन) - (देव +टा) =(देव+-) == (देवे+-) =देवें (तृतीया एकवचन) कमल (नपु.)-(कमल+टा)=(कमल+ण)=(कमले* + ण)=कमलेरण (तृतीया एकवचन) - (कमल+टा)=(कमल+-)=(कमले+-)= कमले (तृतीया एकवचन) *सूत्र 4/333 से 'देवे' व 'कमले' हुआ है । 13. एं चेदुतः 4/343 एं चेदुत: [(च)+(इत्)+ (उतः)] ए (एं) 1/1 च (अ)=ौर [(इत्)-(उत्) 5/1] इत्-→इ, ई और उत्→उ, ऊ से परे (टा के स्थान पर) एं और (ण तथा -) (होते हैं)। इकारान्त और उकारान्त पुल्लिग व नपुंसकलिंग शब्दों से परे 'टा' (तृतीया एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'ए', 'रण' और '-' होते हैं । हरि (पु.)-(हरि--टा)=(हरि+एं, ण, -) =हरिएं, हरिण, हरि (तृतीया एकवचन) गामणी (पु.) – (गामणी+टा)= (गामणी+एं, ण, -) ___गामणीएं, गामणीण, गामणी वारि (नपु.) -(वारि+टा) =(वारि+एं, ण, -) =वारिएं, वारिण, वारि (तृतीया एकवचन) प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम ] [ 113 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहु (पु.) -(साहु+टा)=(साहु +एं, ण, -)साहुएं, साहरण, साई सयंभू (पु.) -(सयंभू+टा)=(सयंभू+एं, ण, -)=सयंभूएं, सयंभूरण, सयंभू महु (नपु.) -(महु +टा)=(महु -+-एं, ण, -)-महुएं, महुण, महुं (तृतीया एकवचन) 14. स्यम्-जस-शसां-लुक 4/344 स्यम्-जस्-शसां-लुक् (सि)+ (अम्)-जस्-[(शसाम्)+लुक्)। [(सि)-(अम्)-(जस्)-(शस्) 6/3] लुक् (लुक्) 1/1 (अपभ्रंश में) सि, अम्, जस्, शस् के स्थान पर लोप (होता है) अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग शब्दों से परे 'सि' (प्रथमा एकवचन के प्रत्यय), 'अम्' (द्वितीया एकवचन के प्रत्यय), 'जस्' (प्रथमा बहुवचन के प्रत्यय) और 'शस्' (द्वितीया बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर लोप होता है । (देव+सि, अम्, जस्, शस्)=(देव--0, 0, 0, 0)=देव, देव, देव, देव इसी प्रकार सभी शब्दों के रूप होंगे । प्रथमा प्रथमा बहुवचन द्वितीया एकवचन एकवचन द्वितीया बहुवचन देव देव देव हरि गामणी गामणी साहु देव (पु.)- देव हरि (पु.)- हरि गामरणी (पु.)- गामणी साहु (पु.)- साहु सयंभू (पु.)- सयंभू कमल (नपु.)- कमल वारि (नपु.)- वारि महु (नपु.)- महु कहा (स्त्री.)- कहा हरि गामणी साहु सयंभू . साहु सयंभू सयंभू कमल कमल कमल वारि वारि वारि महु महु कहा कहा कहा 114 ] प्रौढ अपभ्रंश रचना मौरम Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मइ (स्त्री.) - मइ लच्छी (स्त्री.)- लच्छी धेणु (स्त्री.)- धेणु बहू (स्त्री.) - बहू 15. षष्ठ्याः 4/345 षष्ठ्याः (षष्ठी) 6/1 देव (पु.) हरि (पु. गामणी ( पु ) - साहु (पु.) सयंभू ( पु ) कमल (नपुं. ) - वारि (नपुं.) - - महु ( नपुं. ) - कहा (स्त्री.) मइ (स्त्री.) — लच्छी (स्त्री.) - धे (स्त्री) बहू (स्त्री.) — प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] T मइ लच्छी (अपभ्रंश में) षष्ठी विभक्ति के स्थान पर ( लोप होता है) । अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग और स्त्रीलिंग शब्दों से परे षष्ठी विभक्ति के एकवचन और बहुवचन के स्थान पर लोप होता है । (देव + षष्ठी विभक्ति) = देव + 0 == देव इसी प्रकार सभी शब्दों के रूप होंगे । धेणु बहू षष्ठी एकवचन देव हरि गामणी साहु सयंभू कमल वारि महु कहा बहू मइ लच्छी मइ लच्छी धेणु बहू साहु षष्ठी बहुवचन देव हरि गामणी सयंभू कमल वारि मई लच्छी महु कहा मइ लच्छी E hCG बहू बहू [ 115 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. प्रामन्त्र्ये जसो होः 4/346 अामन्त्र्ये जसो होः [(जसः)+ (होः)] मामन्त्र्ये (प्रामन्त्र्य) 7/1, जसः (जस्) 6/1, होः (हो) 1/1 (अपभ्रंश में) संबोधन में 'जस्' के स्थान पर 'हो' (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग शब्दों के सम्बोधन में 'जस्' (प्रथमा बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'हो' होता है । (देव-+-जस्)=(देव+हो)=देवहो (सम्बोधन बहुवचन) इसी प्रकार दूसरे शब्दों के रूप होंगे। 17. मिस्सुपोहिं 4/347 भिस्सुपोहिं [ (मिस्)+(सुपोः)+(हिं)] [(भिस्)-(सुप्) 6/2] हिं (हिं) 1/1 (अपभ्रंश में) 'भिस्' और 'सुप्' के स्थान पर 'हि' (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग शब्दों से परे 'भिस्' (तृतीया बहुवचन के प्रत्यय) और 'सुप्' (सप्तमी बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर हिं' होता है। (देव+भिस्)=(देव+हिं)=देवहिं (तृतीया बहुवचन) (देव+सुप्)=(देव+हिं)=देवहिं (सप्तमी बहुवचन) दूसरे शब्दों के रूप निम्न प्रकार होंगे 4/346 सम्बोधन बहुवचन 4/347 सप्तमी बहुवचन देवहो 4/347 तृतीया बहुवचन देवहिं हरिहिं गामरणीहिं देव (पु)हरि (पु.)गामणी (पु.) देवहिं हरिहो गामणीहो हरिहिं गामणीहिं 116 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ من ताहु सयंभू (पु.. कमल (नपु वारि (नपु.) महु ( नपु. ) - कहा (स्त्री.) - मह (स्त्री.) - साहूहो सयंभू हो कमलहो वारिहो महो कहाहो महो लच्छी हो हो लच्छी (स्त्री.) घेणु (स्त्री.) - बहू (स्त्री.) 18. स्त्रियां जस् - शसो हदोत् 4/348 स्त्रियां जस् - शसोरुबोत् [ ( स्त्रियाम्) + (जस् ) - (शसोः) + (उत्) + (श्रोत्) ] स्त्रियाम् (स्त्री) 7 / 1 [ ( जस् ) - (शस् ) 6 / 2 ] उत् ( उत् ) 1 / 1 1/1 श्रोत् (श्रोत्) साहि भूि कमलहिं वारिहिं महिं कहाि महि लच्छी हिं हि बहूहि बहूहो स्त्रीलिंग में 'जस्' और 'शस्' के स्थान पर उत् 'उ' और श्रोत् 'श्री' (होते हैं) । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] अपभ्रंश में अकारान्त, इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में 'जस्' (प्रथमा बहुवचन के प्रत्यय) और 'शस्' ( द्वितीया बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर '३' और 'नो' होते हैं । साहि सभूहि कमलहिं वारिहि महि कहाि महि लच्छी हि हिं बहूहि कहा (स्त्री.) - ( कहा + जस् ) = ( कहा + उ, प्रो) = कहाउ, कहाश्रो - ( कहा + शस् ) = ( कहां + उ, श्रो) = कहाउ, कहा ( द्वितीया बहुवचन) = मइ (स्त्री.) - ( मइ + जस् ) = (मइ + उ प्र) – मइउ, महश्रो (प्रथमा बहुवचन) - (मइ + शस् ) = (मइ + उ, प्रो) = मइउ, (प्रथमा बहुवचन) मइप्रो ( द्वितीया बहुवचन) [ 117 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लच्छी (स्त्री ) -- ( लच्छी + जस्) = ( लच्छी + उ, प्रो) = लच्छोउ, लच्छोश्रो (प्रथमा बहुवचन) -- ( लच्छी + शस् ) = ( लच्छी + उ, प्रो) = लच्छीउ, लच्छीप्रो (द्वितीया बहुवचन) घेणु (स्त्री.) - (धेणु + जस्) = (धेणु + उ, श्रो) = घेणउ, धणुश्रो बहू 19. ट ए टए 118 ( स्त्री ) - ( बहू + जस् ) = ( बहू + उ प्र ) = बहूउ, बहूप्रो (प्रथमा बहुवचन) -(धेणु + शस्)= (धेणु + उ, प्रो) = घेणउ, घेणुश्रो (द्वितीया बहुवचन) 4/349 [ ( ट :) + (ए) ] 20. ङस् - ङस्योर्हे (प्रथमा बहुवचन) ~ (बहू + शस्)=(बहू +उ, श्रो) = बहूउ, बहूप्रो (द्वितीया बहुवचन) ट: (टा) 6/1 ए (ए) 1/1 (स्त्रीलिंग शब्दों में ) 'टा' के स्थान पर 'ए' (होता है ) । अपभ्रंश में अकारान्त, इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में 'टा' (तृतीया एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'ए' होता है । कहा (स्त्री.) - ( कहा + टा) = ( कहा + ए ) = कहाए (तृतीया एकवचन ) मइ (स्त्री.) - ( मइ + टा) = (मइ + ए ) = मइए ( तृतीया एकवचन ) लच्छी (स्त्री)- (1च्छी +टा) = ( लच्छी + ए ) = लच्छीए (तृतीया एकवचन ) घेणु (स्त्री) - ( घेणु + 21 ) = (धेणु + ए = धेणुए (तृतीया एकवचन ) बहू ( स्त्री ) - ( बहू + टा ) = ( बहू + ए ) बहूए ( तृतीया एकवचन ) 4/350 ङस् -ङस्योहॅ [(ङस्योः) + (है) | [ ( ङस् ) - ( ङसि ) 6 / 2] हे ( है ) 1/1 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (स्त्रीलिंग शब्दों में) 'ङस' और 'ङसि' के स्थान पर 'हे' (होता है) । अपभ्रंश में प्राकारान्त, इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में ङस् ( षष्ठी एकवचन के प्रत्यय) और ङसि (पंचमी एकवचन के प्रत्यय) होता है । के स्थान पर 'हे' = कहा (स्त्री) - ( कहा + ङस् ) = ( कहा + हे ) ( कहा + ङस् ) = ( कहा + हे ) इसी प्रकार मइ, लच्छी, घेणु, बहू 21 न्यसामोहुः 22. हिं 4/351 भ्यसामोहु: [ (म्यस्) + (ग्रामो :) + (हु:)] [(भ्यस्) --- (ग्राम् ) 6 / 2] हु: (हु) 1 / 1 (स्त्रीलिंग शब्दों में ) 'भ्यस्' और 'ग्राम्' के स्थान पर 'हु' (होता है ) । अपभ्रंश में प्राकारान्त, इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में भ्यस् (पंचमी बहुवचन के प्रत्यय) और प्राम् (षष्ठी बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'हु' होता है । कहा (स्त्री.) - ( कहा + भ्यस् ) = ( कहा + हु ) = कहाहु ( कहा + आम् ) = ( कहा -+-हु ) = कहाहु इसी प्रकार मड, लच्छो, षेणु प्रोर बहू 4/352 हि [(ङ) + (हि)] : (ङ) 6 / 1 प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम ] कहा हे कहा हे हिं (हि) 1/1 मइहे, लच्छीहे, घेणहे, बहूहे (षष्ठी एकवचन ) - मइहे, लच्छी हे, घेणुहे, बहूहे ( पंचमी एकवचन ) ( षष्ठी एकवचन ) ( पंचमी एकवचन ) (पंचमी बहुवचन) (षष्ठी बहुवचन) = मइहु, लच्छी, घेणहु और बहूहु ( पचमी बहुवचन) = मइहु, लच्छोहु, घेणुहु और बहूहु ( षष्ठी बहुवचन) { 119 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (स्त्रीलिंग शब्दों में) 'डि' के स्थान पर 'हि' (होता है)। अपभ्रंश में प्राकारान्त, इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों में 'डि' (सप्तमी एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'हि' होता है । कहा (स्त्री)--(कहा+ङि)= (कहा+हिं) = कहाहिं (सप्तमी एकवचन) मइ (स्त्री)-(मइ+ङि)=(मइ+हिं) =मइहिं (सप्तमी एकवचन) इसी प्रकार लच्छी, घेणु और बहू =लच्छोहि, धेहि और बहू हिं (सप्तमी एकवचन) 23. क्लीबे जस्-शसोरि 4/353 द लीबे जस्-शसोरि [(जस्)-(शसोः)+ (इं)] पलीबे (क्लीब) 7/1 [(जस्)- (शस्) 6/2] इं (इं) 1/1 नपुंसकलिंग में 'जस्' और 'शस्' के स्थान पर 'इ' (होता है)। अकारान्त, इकारान्त और उकारान्त नपुंसकलिंग शब्दों में जस् (प्रथमा बहुवचन के प्रत्यय), शस् (द्वितीया बहुवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'ई' होता है। कमल (नपु)-(कमल --जस्)= (कमल+ई) = कमलई (प्रथमा बहुवचन) (कमल+शस्)= (कमल+इं) =कमलई (द्वितीया बहुवचन) इसी प्रकार वारि और महु =वारिई और महुइ (प्रथमा बहुवचन) =वारिइं और महुई (द्वितीया बहुवचन) 24. कान्तस्यात उं स्यमोः 4/354 कान्तस्यात उं [(क)+ (अन्तस्य)+ (अत:) + (उ)] स्यमो: [ (सि)+ (अमोः) ] [(क)- (अन्त) 6/1] अतः (अत्) 5/1, उं (उ) 1/1 [(सि)-(अम्) 6/2 ] (नपुंसकलिंग में ) (संस्कृत के) ककारान्त शब्द के 'प्रकार' से परे 'सि' और 'अम्' के स्थान पर '' होता है । 120 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नपुंसकलिंग में संस्कृत के ककारान्त शब्द के अन्त्य म से परे सि (प्रथमा एकवचन के प्रत्यय) और प्रम् (द्वितीया एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर 'उ' होता है । तुच्छक→तुच्छम (नपुं.)-(तुच्छ+सि)= (तुच्छ+उं)=तुच्छउँ (प्रथमा एकवचन) -(तुच्छा +प्रम्)=(तुच्छम+उं)=तुच्छउं (द्वितीया एकवचन) इसी प्रकार नेत्रक-→नेत्ता और भग्नक-भग्गम =नेत्तउ और भग्गउं (प्रथमा एकवचन) -नेत्तउं मोर भग्गउं (द्वितीया एकवचन) 25. स्यादौ दीर्घ-हस्वी 4/330 स्य दो [(सि)+ (प्रादौ)] दीर्घ-ह्रस्वी [(सि)-(प्रादि) 7/1] [(दीर्घ)-(ह्रस्व) 1/2] (अपभ्रंश में) 'सि' आदि परे होने पर (अन्त्य स्वर) दीर्घ और ह्रस्व (हो जाते अपभ्रंश भाषा में पुल्लिग, नपुंसकलिंग और स्त्रीलिंग संज्ञा शब्दों में सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय), जस् (प्रथमा बहुवचन का प्रत्यय), अम् (द्वितीया एकवचन का प्रत्यय) आदि परे होने पर शब्द के अन्त्य स्वर का (ह्रस्व होने पर) दीर्घ और (दीर्घ होने पर) ह्रस्व हो जाता है । हम यहां तृतीया बहुवचन का उदाहरण ले रहे हैं इसी प्रकार सभी विभक्तियों में रूप बनेंगे। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 121 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह्रस्व का दीर्घ - देवहि, देवाहि - हरिहि, हरीहि साहु (पु.) - साहुहि, साहूहि मइ (स्त्री.) – मइहि, मई ह कमल (नपु . ) - कमलहि, कमलाहि देव (पु.) हरि (पु.) 122 1 दीर्घ का ह्रस्व कहा (स्त्री.) - कहाहि, कहहिं लच्छी (स्त्री.) - लच्छीहिं, लच्छिहिं गामणी (पु.) • गामणीहिं, गामणिहि सयंभू (पु.) सयं भूहि, सयंभुहि बहू (स्त्री.) - बहूहि, बहुहि [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनाम- सूत्र 26. सर्वादेर्ड सेहाँ 4/355 सर्वादे सेही [ (सर्व)+ (आदे:) (ङसे:) (हां) ] [ (सर्व)- (आदि) 5/1] ङसे: (ङसि) 6/1 हां (हां) 1/1 सर्व→सव्व आदि से परे 'सि' के स्थान पर 'हो' (होता है)। अपभ्रंश में सर्व→सन्ध आदि अकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग सर्वनामों से परे सि (पंचमी एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर हां होता है । सव्व (पु., नपुं.) -(सव्व+ङसि) = (सव्व+हां)=सव्वहां (पंचमी एकवचन) 4/330 से सव्वाहां (पंचमी एकवचन) 4/355 4/330 इयर (दुसरा) (पु., नपुं.)-इयरहां इयराहां __ (पंचमी एकवचन) अन्न (दूसरा) (पु., नपुं)- अन्नहां अन्नाहां (पंचमी एकवचन) पुष (पहला) (पु., नपुं.)-पुवहां पुवाहां (पंचमी एकवचन) स (अपना) (पु., नपुं)-सहा साहां (पंचमी एकवचन) त (वह) (यु.. नपुं.)-तहां ताहां (पंचमी एकवचन) ज (जो) (पु, नपुं.)-जहां जाहां (पंचमी एकवचन) क (कौन, क्या) (पु., नपुं.)-कहां काहां (पंचमी एकवचन) एक्क (एक) (पु, नपुं.)-एक्कहां एक्काहां (पंचमी एकवचन) 27. किमो डिहे वा 4/356 किमो डिहे [ (किमः)+ (डिहे) ] वा किमः (किम्) 5/1 डिहे (डिहे) 1/1 वा (अ) =विकल्प से 1. वृहद् अनुवाद चन्द्रिका, चक्रधर नौटियाल, पृष्ठ 74, (सर्वनाम शब्द)। प्राकृतमार्गोपदेशिका, बेचरदास जीवराज दोसी, पृष्ठ 198, 199, 200 । अभिनव प्राकृत व्याकरण, नेमीचन्द शास्त्री, पृष्ठ 196 । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 123 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किम्क से परे ( ङसि के स्थान पर) डिहे इहे विकल्प से (होता है ) । अपभ्रंश में पुल्लिंग व नपुंसकलिंग अकारान्त सर्वनाम क से परे ङसि (पंचमी एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर इहे विकल्प से होता है । क ( पु नपुं. ) - ( क + ङसि ) = ( क + इहे ) = किहे (पंचमी एकवचन ) 28. हिं 124 4/357 ङ ेहि [(ङ) + (हिं)] F: (f) 6/1 fg (fg) 1/1 ( सर्व- सब्व आदि से परे) 'ङि' के स्थान पर 'हि' (होता है) । अपभ्रंश में सव्व आदि प्रकारान्त पुल्लिंग व नपुंसकलिंग सर्वनामों से परे ङि (सप्तमी एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर हि होता है । सभ्य (पु., नपुं) - ( सब्व + ङि) = (सब्व + हि) सह (सप्तमी एकवचन ) 4/330 से सम्वाह (सप्तमी एकवचन ) 4/357 (पु., नपुं. ) - इयरहि (पु., नपुं ) - अन्नह (पु., नपुं.) पुठवहि (पु, नपुं) – एक्कहि (पु., नपुं.) – तहिं (पु., नपुं ) - जहि (पु., नपुं. ) कहि इयर ( दूसरा ) प्रश्न ( दूसरा ) पुण्ब (पहला ) एक्क (एक) त क 29. यत्तत्किभ्यो ङसो डासुर्न वा (वह) (जो) ( कोन) 1 4/330 इराहि अन्नाहि पुग्वाहि एक्काह ताहि ह काह (सप्तमी एकवचन ) (सप्तमी एकवचन ) (सप्तमी एकवचन ) 4/358 afir ङसो डासुनं [ (यत्) + (तत्) + (किम्य: ) + (ङसः ) + (डासु:) + (न) ] वा (सप्तमी एकवचन) (सप्तमी एकवचन ) [ (यत्) - (तत्) - (किम् ) 5 / 3] ङस: ( ङस् ) 6 / 1 डासु: ( डासु) 1/1 न वा ( अ ) = विकल्प से (सप्तमी एकवचन ) (सप्तमी एकवचन) [ प्रौढ प्रपभ्रंश रचना सौरभ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यत्-→ज, तत्त , किम् -→क से परे 'उस्' के स्थान पर डासु,'पासु' विकल्प से (होता है) । अपभ्रंश में ज, त और क अकारान्त पुल्लिग व नपुंसकलिंग सर्वनामों से परे 'इस्' (षष्ठी एकवचन का प्रत्यय) के स्थान पर प्रासु विकल्प से होता है । ज (पु , नपुं.)-(ज+स्)=(ज+पासु)=जासु (षष्ठी एकवचन) त (पु., नपुं.)-(त-+-उस्)= (त+पासु)-तासु (षष्ठी एकवचन) क (पु., नपुं.)-(क+स्)=(क+पासु)=कासु (षष्ठी एकवचन) नोट-अन्य रूप अकारान्त पुल्लिग व नपुंसकलिंग सर्वनाम 'सव्व' के अनुसार होंगे। 30. स्त्रियां डहे 4/359 स्त्रियां डहे [ (स्त्रियाम्)+(डहे)] स्त्रियाम् (स्त्री) 7/1 डहे (डहे) 1/1 स्त्रीलिंग में (ङस् के स्थान पर) डहे→महे (विकल्प से) (होता है)। अपभ्रंश में स्त्रीलिंग में जा, ता और का से परे डस् (षष्ठी एकवचन का प्रत्यय) के स्थान पर अहे विकल्प से होता है। जा (स्त्री)- (जा-+-स्) = (जा+हे) =जहे (षष्ठी एकवचन) ता (स्त्री) -(ता+हस्)=(ता+अहे) तहे (षष्ठी एकवचन) का (स्त्री.) - (का+ङस्)=(का+अहे)=कहे (षष्ठी एकवचन) नोट-अन्य रूप आकारान्त स्त्रीलिंग सर्वनाम सम्वा के समान होंगे । 31. यत्तदः स्यमोध्र 4/360 यत्तदः [ (यत्)+(तदः→तत:)] स्यमोर्बु [ (सि)+(अमोः)+ (@)] त्रं [ (यत्)-(तद्→तत्) 5/11 [(सि)-(अम्) 7/2] ध्र (ध्र) 1/1 * () 1/1 पत्→ज से परे 'सि' और 'अम्' होने पर (दोनों के स्थान पर) 5 (विकल्प से) (होता है) तथा तत्-त से परे 'सि' और 'अम्' होने पर (दोनों के स्थान पर) 'त्र' (विकल्प से) (होता है ।) 1. पद के अन्त में यदि द् आये तो उसका त् हो जाता है । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 125 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश में पुल्लिंग व नपुंसकलिंग ज से परे तथा स्त्रीलिंग जा से परे सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय) तथा श्रम् (द्वितीया एकवचन का प्रत्यय) के होने पर दोनों के स्थान पर ध्रुविकल्प से होता है तथा पुल्लिंग व नपुंसकलिंग त से परे तथा स्त्रीलिंग ता से परे सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय) तथा श्रम् ( द्वितीया एकवचन का प्रत्यय) के होने पर दोनों के स्थान पर श्रं विकल्प से होता हैं । ज (पु., नपु ) - ( ज + सि) = ध्रु (ज + श्रम् ) = त (पु., नपु ) - ( त +सि ) = जा (स्त्री.) (प्रथमा एकवचन ) ( त + अम् ) = श्रं (द्वितीया एकवचन ) ता (स्त्री.) - ( ता + सि ) = श्रं (ता + अम् ) = - ( जा + सि) = ध्रु (प्रथमा एकवचन ) ( जा + प्रम् ) = ध्रु (द्वितीया एकवचन) (प्रथमा एकवचन ) ( द्वितीया एकवचन ) नोट - हेमचन्द्र की वृत्ति के अनुसार (प्रथमा एकवचन ) (द्वितीया एकवचन ) ज और जा के स्थान पर जु (प्रथमा एकवचन ) (द्वितीया एकवचन ) 32. इदम: इमुः क्लीबे 126 ] त और ता के स्थान पर तं (प्रथमा एकवचन ) (द्वितीया एकवचन ) 4/361 इदम: (इदम्) 5 / 1 इभु: (इमु ) 1 / 1 नपुंसकलिंग में इदम् इम से परे 'इमु' (होता है ) । → इम ( नपुं. ) - (इम + सि) (इम + श्रम् ) अपभ्रंश में नपुंसकलिंग में सर्वनाम इम से परे सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय ) तथा प्रम् (द्वितीया एकवचन का प्रत्यय) होने पर दोनों के स्थान पर इसु होता है । क्लीबे (क्लीब) 7/1 (ति और प्रम् होने पर ) ( दोनों के स्थान पर) इमु (प्रथमा एकवचन ) इमु ( द्वितीया एकवचन ) [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33. एतद: स्त्री-पुं-क्लीबे एह एहो एह 4/362 एतदः एतत: ( एतत् ) 1 5 / 1 [ (स्त्री) - (पु) - (क्लीब) 7/1 ] एह ( एह ) 1 / 1 एहो ( एहो ) 1 / 1 एहु ( एहु) 1 / 1 -- पुल्लिंग, नपुंसकलिंग और स्त्रीलिंग में एतत् एत (पु. नपुं.), एता (स्त्री.) से परे ( सि और श्रम होने पर ) ( दोनों के स्थान पर) क्रमशः 'एहो', 'एहु' और 'एह' ( होता है) । अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग और स्त्रीलिंग में एत ( पु., नपुं. ), एता (स्त्री.) से परे सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय) और श्रम् ( द्वितीया एकवचन का प्रत्यय) होने पर दोनों के स्थान पर क्रमशः एहो, एहु तथा एह होते हैं । एत (पु.) - ( एत +सि) = एहो ( प्रथमा एकवचन ) ( एत + अम् ) = एहो ( द्वितीया एकवचन ) एत ( नपुं ) - ( एत + सि) = एहु ( प्रथमा एकवचन ) ( द्वितीया एकवचन ) (प्रथमा एकवचन ) ( एता + अम् ) = एह ( द्वितीया एकवचन ) (एत + प्रम्) एहु एता (स्त्री.) - ( एता + सि) = एह 34. एइर्जस् - शसो 4/363 एइर्जस् [ (एइः) + (जस्) ] - शसोः ए: (एइ) 1 / 1 [ ( जस् ) - (शस् ) 7 / 2 ] (पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में) (एत (पु, नपुं), एता (स्त्रीलिंग) से परे ) जस् मीर शस् होने पर ( दोनों के स्थान पर) 'एइ' (होता है) । अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग और स्त्रीलिंग में एत (पु, नपुं. ) एता (स्त्री.) से परे जस् (प्रथमा बहुवचन का प्रत्यय) तथा शस् ( द्वितीया बहुवचन का प्रत्यय ) होने पर दोनों के स्थान पर एइ होता है । = एत (पु.) (एत + जस्) = एइ (प्रथमा बहुवचन) ( एत + शस् ) = एइ ( द्वितीया बहुवचन) - एत ( नपुं. ) - ( एत + जस्) एइ (प्रथमा बहुवचन) (एत + शस्) = एइ (द्वितीया बहुवचन) 1. पद के अन्त में यदि द आये तो उसका त् हो जाता है । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ } [127 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एता (स्त्री)-(एता+जस्)=एइ (प्रथमा बहुवचन) (एता+शस्)=एइ (द्वितीया बहुवचन) 35. अदस प्रोइ 4/364 [ (अदस )+(ोइ)] अवस: (अदस्) 5/1 अोइ (प्रोइ) 1/1 (पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में) अदस्→प्रमु से परे (जस् और शस् होने पर) (दोनों के स्थान पर) 'पोइ' (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग और स्त्रीलिंग में प्रमु से परे जस् (प्रथमा बहुवचन का प्रत्यय) तथा शस् (द्वितीया बहुवचन का प्रत्यय) होने पर दोनों के स्थान पर अोइ होता है। अमु (पु, नपुं., स्त्री)-(प्रमु+जस्) =पोइ (प्रथमा बहुवचन) (अमु+शस्)-प्रोइ (द्वितीया बहुवचन) :6. इदम प्राय : 4/365 [ (इदमः) + (प्रायः)] इदमः (इदम्) 6/1 प्राय: (प्राय) 1/l इदम् ,इम [(पु., नपुं.), इमा (स्त्री.)] के स्थान पर प्राय [(पु., नपुं.), पाया (स्त्री) होते हैं] अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में इदम् -→इम (पु., नपुं.), इमा (स्त्री.) के स्थान पर प्राय (पु, नपुं), माया (स्त्री.) होते है । नोट : प्राय के रूप पुल्लिग व नपुंसकलिंग में सत्व की तरह चलेंगे तथा आया के रूप सत्वा (कहा) की तरह चलेंगे। 37. सर्वस्य साहो वा 4/366 सर्वस्य [ (साहः)+(वा)] सर्वस्य (सर्व) 6/1 साहः (साह) 1/1 वा (अ)=विकल्प से सर्व→सम्व [(पु. नपुं.), सव्वा (स्त्री.)] के स्थान पर साह [(पु., नपुं.), साहा (स्त्री.)] विकल्प से (होते) हैं । 128 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में सर्व सव्व (पु, नपुं), सव्वा (स्त्री) के स्थान पर साह (पु., नपुं.), साहा (स्त्री) विकल्प से होते हैं । नोट- साह के रूप पुल्लिंग व नपुंसकलिंग में सव्व की तरह चलेंगे तथा साहा के रूप सव्वा ( कहा) की तरह चलेंगे । 38 किम: कांइ-कवणौ वा 4/367 किम: (किम् ) 6 / 1 काई - कवणौ | (काई) - ( कबण) 1 / 2 ] वा (श्र ) == विकल्प से (पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में) किम्क (पु., नपुं), का (स्त्री.) के स्थान पर काई (पु, नपुं, स्त्री.) और कवरण (पु, नपुं), कवरणा (स्त्री.) (होते हैं) 1 अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में किम्क (पु, नपुं), का के स्थान पर काई (पु., नपुं. स्त्री.) तथा कवण (पु, नपु.), कवणा (स्त्री.) होते हैं । नोट - काई सभी विभक्तियों व वचनों में काई ही रहता है 11 कवण के रूप पुल्लिंग व नपुसकलिंग में सभ्व की तरह चलेंगे तथा स्त्रीलिंग कवणा के रूप सव्वा ( कहा) की तरह चलेंगे । 39. युष्मदः सौ तुहुं 4/368 युष्मदः (युष्मद् ) 5 / 1 सौ (सि) 7 / 1 तुहुं (तु) 1 / 1 युष्मद् तुम्ह से परे सि होने पर ( दोनों के स्थान पर) तुहुं (होता है) । अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में युष्मद् तुम्ह से परे सि प्रथमा एकवचन का प्रत्यय) होने पर दोनों के स्थान पर तुहुं होता है । तुम्ह (पु., नपु., स्त्री . ) - ( तुम्ह + सि) = तृहुं (प्रथमा एकवचन ) । 4/369 40. मस- शसोतुम्हे तुम्हई अस् [ (शसोः) + (तुम्हे ) ] तुम्ह [ ( जस्) - (शस्) 7 / 2] तुम्हे (तुम्हे ) 1 / 1 तुम्हई ( तुम्हई) 1 / 1 1. अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, वीरेन्द्र श्रीवास्तव, पृष्ठ 180 1 प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 129 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (युष्मद् →तुम्ह से परे) जस् मौर शस् होने पर (दोनों के स्थान पर) तुम्हे और तुम्हइं (होते हैं)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में युष्मद्→तुम्ह से परे जस् (प्रथमा बहुवचन का प्रत्यय) और शस् (द्वितीया बहुवचन का प्रत्यय) होने पर दोनों के स्थान पर तुम्हे और तुम्हइं होते हैं । तुम्ह (पु , नपुं , स्त्री.)-(तुम्ह+जस्) =तुम्हे/तुम्हइं (प्रथमा बहुवचन) (तुम्ह+ शस्) =तुम्हे/तुम्हइं (द्वितीया बहुवचन) 41. टा-यमा पई तई 4/370 टा [ (ङि)+(ममा) ] पई तई [ (टा) - (ङि) - (अम्) 3/1] पइं (पई) 1/1 तई (तइं) 1/1 (युष्मद्-तुम्ह से परे) टा, ङि और प्रम् सहित पई और तइं (होते हैं)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में युष्मद् --तुम्ह से परे टा (तृतीया एकवचन का प्रत्यय), ङि (सप्तमी एकवचन का प्रत्यय) तथा प्रम् (द्वितीया एकवचन का प्रत्यय) सहित पइं और तइं होते हैं । तुम्ह (पु., नपुं.. स्त्री.)- (तुम्ह+टा) = पई, तइं (तृतीया एकवचन) (तुम्ह+ङि)=पई, तह (सप्तमी एकवचन) (तुम्ह+अम्)=पई, तइं (द्वितीया एकवचन) 42. भिसा तुम्हेहि 4/371 भिसा (भिस्) 3/1 तुम्हेहिं (तुम्हेहिं) 1/1 (युष्मद् --तुम्ह से परे) मिस् सहित तुम्हेहिं होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में युष्मद् →तुम्ह से परे भिस् (तृतीया बहुवचन का प्रत्यय) सहित तुम्हेहिं होता है । तुम्ह (पु , नपुं, स्त्री)-(तुम्ह+भिस्)= तुम्हेहि (तृतीया बहुवचन) 43. ङसि-ङस्भ्यां तउ तुज्झ तुध्र 4/372 सि [(ङस्भ्याम्)+-(तउ) ] तुझ तुध्र 130 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ (ङसि) - (ङस्) 3/2 ] तउ (तउ) 1/1 तुज्झ (तुज्झ) 1/1 तुध्र (तुध्र) 1/1 (युष्मद्-→तुम्ह से परे) ङसि प्रौर ङस् सहित तउ, तुज्झ और तुध्र (होते हैं)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसलिग तथा स्त्रीलिंग में युष्मद् --तुम्ह से परे असि (पंचमी एकवचन का प्रत्यय) और ङस् (षष्ठी एकवचन का प्रत्यय) सहित तउ, तुज्झ और तुध्र होते हैं। तुम्ह (पु., नपुं., स्त्री)-(तुम्ह+सि)=तउ, तुझ और तुध्र ___ (पंचमी एकवचन) (तुम्ह+-डस्) =तउ, तुझ और तुध्र (षष्ठी एकवचन) 44. भ्यसाम्भ्यां तुम्हहं 4/373 भ्यसाम्भ्यां तुम्हहं [ (भ्यस्)+ (प्राम्भ्याम्)+ (तुम्हह)] [ (भ्यस्) - (प्राम्) 3/2 ] तुम्हह (तुम्हहं) 1/1 (युष्मद्-→तुम्ह से परे) भ्यस् और माम् सहित तुम्हहं (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में युष्मद् →तुम्ह से परे भ्यस् (पंचमी बहुवचन का प्रत्यय) और माम् (षष्ठी बहुवचन का प्रत्यय) सहित तुम्हहं होता है। तुम्ह (पु., नपुं., स्त्री.) - (तुम्ह+भ्यस्) = तुम्हहं (पंचमी बहुवचन) (तुम्ह+प्राम्) =तुम्हहं (षष्ठी बहुवचन) 45. तुम्हासु सुपा 4/374 तुम्हासु (तुम्हासु) ।/1 सुपा (सुप्) 3/1 (युष्मद्→तुम्ह से परे) सुप् सहित तुम्हासु (होता है)। अपभ्रश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में युष्मद्-→तुम्ह से परे सुप् (सप्तमी बहुवचन का प्रत्यय) सहित तुम्हासु होता है । सुम्ह (पु., नपुं., स्त्री)-(तुम्ह+ सुप्)= तुम्हासु (सप्तमी बहुवचन) 46. सावस्मदो हउं 4/375 सावस्मदो हउ [ (सौ)+(अस्मद:)+(हउं)] सौ (सि) 7/1 प्रस्मवः (अस्मद्) 5/1 ह (हउं) 1/1 प्रौढ अपभ्रश रचना सौरभ ] [ 131 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्मद्-प्रम्ह से परे सि होने पर (दोनों के स्थान पर) हउ (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में अस्मद्-→प्रम्ह से परे सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय) होने पर दोनों के स्थान पर हउं होता है । अम्ह (पु , नपुं., स्त्री) - (अम्ह + सि) = हउँ (प्रथमा एकवचन) जस्-शसोरम्हे अम्हइं 4/376 जस् [ (शसो:) (अम्हे) ] अम्हई [(जस्)-(शस्) 7/2 ] अम्हे (अम्हे) 1/1 अम्हइं (अम्हइं) 1/1 (अस्मद्-→प्रम्ह से परे) जस् और शस् होने पर (दोनों के स्थान पर) अम्हे और प्रम्हइं (होते हैं)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में अस्मद्→प्रम्ह से परे जस् (प्रथमा बहुवचन का प्रत्यय) और शस् (द्वितीया बहुवचन का प्रत्यय) होने पर अम्हे और अम्हइं होते हैं। अम्ह (पु., नपुं, स्त्री) - (अम्ह+जस्)=अम्हे, प्रम्हइं (प्रथमा बहुवचन) ___ (अम्ह+शस्)=प्रम्हे, अम्हइं (द्वितीया बहुवचन) 48. टा-ङ्यमा मई 4/377 टा [ (ङि)+(अमा) ] मई [ (टा)-(ङि)-(अम्)3/. ] मई (मई) 1/1 (अस्मद् →प्रम्ह से परे) टा, ङि और प्रम् सहित मई (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में अस्मद्→प्रम्ह से परे टा (तृतीया एकवचन का प्रत्यय), ङि (सप्तमी एकवचन का प्रत्यय) तथा प्रम् (द्वितीया एकवचन का प्रत्यय) सहित मई होता है । अम्ह (पु., नपुं , स्त्री.) - (अम्ह+टा) = मई (तृतीया एकवचन) (अम्ह+ङि)% मई (सप्तमी एकवचन) (अम्ह+अम्) मई (द्वितीया एकवचन) 49. अम्हेहि भिसा 4/378 अम्हेहिं (अम्हेहिं) :/ भिस. (भिस्) 3/: (अस्मद्-→अम्ह से परे) भिस् सहित प्रम्हहिं (होता है)। 132 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में अस्मद् ग्रम्ह से परे भिस् (तृतीया बहुवचन का प्रत्यय) सहित श्रम्हहिं होता है । म्ह (पु, नपुं., स्त्री . ) (श्रम्ह + मिस् ) = श्रम् हेहि (तृतीया बहुवचन) 50. महु मज्झ ङसिङस्भ्याम् 4/379 महु (महु) 1 / 1 मज्भु (मज्भु) 1 / 1 [ ( ङसि ) - ( ङस् ) 3/2] (अस्मद् श्रह से परे ) ङसि और ङस् सहित महु और मज्भु (होते हैं) । अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में अस्मद् ग्रम्ह से परे ङसि (पंचमी एकवचन का प्रत्यय) और ङस् (षष्ठी एकवचन का प्रत्यय) सहित महु और मज्भु होते हैं । श्रम्ह (पु., नपुं., स्त्री.) ( श्रम्ह + ङसि ) = महु और मज्भु (पंचमी एकवचन ) ( ह + ङस् ) = महु और मज्भु (षष्ठी एकवचन) 51. ब्रम्हहं भ्याम्भ्याम् अहं [ ( भ्यस् ) + (आम्भ्याम्) ] म्हं (म्हं) 1 / 1 [ ( भ्यस् ) - ( श्राम् ) 3 / 2 ] (अस्मद् ग्रह से परे ) भ्यस् और श्राम् सहित श्रम्हहं (होता है) । अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में अस्मद् ग्रम्ह से परे भ्यस् (पंचमी बहुवचन का प्रत्यय) तथा श्राम् (षष्ठी बहुवचन का प्रत्यय) सहित श्रम्हहं होता है । म्ह (पु., नपुं, स्त्री . ) - (ग्रम्ह + भ्यस् ) = श्रम्हहं (पंचमी बहुवचन) (अम्हे + आम् ) = ग्रम्हहं (षष्ठी बहुवचन) 52. सुपा श्रम्हासु 4/380 4/381 सुवा (सुप्) 3 / 1 अम्हासु ( म्हासु) 1 / 1 ( अस्मद् ब्रम्ह से परे ) सुप् सहित अम्हासु (होता है) । अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में अस्मद् श्रम्ह से परे सुप् (सप्तमी बहुवचन का प्रत्यय) सहित भ्रम्हासु होता है । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 133 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रम्ह (पु., नपुं, स्त्री.)- (अम्ह+सुप्) = अम्हासु (सप्तमी बहुवचन) यहाँ संज्ञा और सर्वनाम शब्दों की विभक्तियों से सम्बन्धित 52 सूत्रों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इन सूत्रों से फलित संज्ञा और सर्वनाम शब्दों के रूपों के लिए देखें-अपभ्रंश रचना सौरभ, पाठ-83 । 134 1 [ प्रौट अपभ्रंश रचना सौरभ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट- 1 (i) अभ्यास - 5 के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद (1) सेणिउ णामें परवइ रायगिहे पट्टणे णिवसिउ । ( 2 ) किं परं परमेसरहो णामुलेइज्जइ । ( 2 ) जिग-सासणे राघव - कहा केम कहिया, कहु । ( 4 ) हसे - पिणु तेण एम कहिउ । (5) तुज्झ पुत्तो एत्तहे तिहुवण तिलउ होसइ । (6) सहसक्खें / पुरन्दरें तिवार सो परियंचियो । ( 7 ) एथन्तरे तेण जिन्दिहो वन्दणु दत्तु । (8) हे भरह नरिद कल्लए काई पच्चुत्तरु देहुं । (9) ते विमाणेहि तेत्थु ढुक्का, जेत्थु समोसरणे जिणु प्रासि । ( 10 ) चक्करयणें पट्टणे णउ पइसरिउ, जिह अबुहब्मन्तरे सुकइ वयणु ण पईसइ । ( 11 ) मइ तेण समाणु विप्पिन णाहि किन । ( 12 ) हउं तासु पासे ण जामि / जाउं । ( 13 ) तं णिसुणेवि राउ भत्ति पलित्तु । ( 14 ) जो तिणि मि जुज्झई अज्जु जिद्द, तासु वि रज्जु होसइ । ( 15 ) तेहि लहु दिट्ठि - जुज्भु पारद्धु । ( 16 ) जामहिं भरहु दिट्टि जुज्भु जिणेवि ण सक्किउ, तामहिं तुरन्तु जल-जुज्भु पार । (17) छुडु / जइ माणूसे घिरत्तणु होइ, तो तासु पासहो लच्छि कीत्ति वि सरन्ति । ( 18 ) तहि / तेत्थु सयल वि वन्धुजणु कोक्काविय, ताम कण्णए सहुं पाणिग्गहणु किउ । ( 19 ) णिविसेण अंधारु होइ, णिविसें चंदिणु होइ, खणे धाराहरू वरिसइ | ( 20 ) अणु-दिणु इन्दिय-वइरि जिणन्तु सो तेत्थु गउ, जेत्थु कइलास- गिरि प्रत्थि । ( 21 ) तासु पुप्फविमाणु अम्बरे थम्भिउ गं पाउसेण कोइलहो वमालु थम्भिउ । ( 22 ) हउं पाहाणु णाई कइलासु उम्मूलेप्पिणु सायरे घिवेसउं । (23) कत्थइ सुप्राहं पंतिउ उट्टियाउ, णावइ मरगय कंठिनाउ तुट्टियाउ । (24) अम्बरे सुट्ठ सुन्दरु ससि उग्गिश्र णं जगहरे दीवउ पइत्तु । ( 25 ) वरि, एवहिं सिद्धिवहू परिणिज्जउ । ( 26 ) तेण जे गूढपुरिसा पट्टविया, ते तक्खणेण पडीवा | ( 27 ) जीइए विणु सो एक्कु वि पउ ण चलइ । ( 28 ) अट्ठविहहो विणोए सो दिवस इ । ( 29 ) अग्गए पच्छए भड-समूह थिउ । ( 30 ) अहो रायहंस | कहे जइ / छुडु कत्थ वि श्रंजणा दिट्ठा | ( 31 ) हा पुत्त ! तुहुं मई मुहु दक्खवहि । ( 32 ) तुहुं काई रुवहि, मुहु लुहहि । ( 33 ) अज्जहो सो तासु मंति प्रत्थि । ( 34 ) किं वालु रवि तमु ण हणइ । ( 35 ) एवहि रज्जु भुंजेव्वउ, पच्छले पुणु तवचरणु करेवउ । (36) रावण ! तुहुं णन्दन्तई सयणई किण्ण णि यहि । ( 37 ) किं तुहुं गिरि समु वड्डतणु खण्डहि । ( 38 ) भाइ ! सुणि, हरं जाणमि, पेक्खमि, गरयहो संकमि, णवर प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ i Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरं सरीरे वसन्ताई पंचिदियइं जिणेवि ण सक्कमि । ( 39 ) सिविणा रिद्धि जिह जाणइ तुज्झण हुआ, ण होइ, ण होसइ । ( 40 ) वे वि दोच्छन्ता परोप्परु भिडिया | (41) तेण विसल्लहे जलु प्राणेपिणु सव्वहं उपरि घित्तउ । ( 42 ) थोवन्तरे तेहि उज्झा दिट्ठा | ( 43 ) हा मायर ! एक्कसि महु वयणु दक्खवहि । (44) पट्टणहो उपासेहिँ / चउपासें सायरो आसि । ( 45, सो दाहिणेण गउ । ii ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ii) श्रभ्यास - 6 के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद (1) हउं चउवीस तित्थ करा भावें परणमजं । ( 2 ) मई पंचण्ह महाकव्वहं णामु सुउि । (3) अरिहंता चउ कम्माई णासन्ति । ( 4 ) सो तिहि / तीसु लोए वल्लहु श्रासि । ( 5 ) तेत्यु चउदह सरिउ सन्ति । ( 6 ) सा दस सयाई करा करेवि गच्चिया । (7) चउहि सहासेहिं रायहिं तेण सहु सहें पब्वइया लइया । ( 8 ) बारह कोडिउ रयणाई काइ | (9) बत्तीस लक्खाइं देवा वन्दरण करेसन्ति । ( 10 ) एक्कु बालन हाउ | ( 11 ) एक्का महिला गीन गाइ हरिसइ । ( 12 ) एक्कु विमाणु तत्थहो उड्ड । (13) तहिं अवसरे दोसु सन्दरोहिं नराहिश्र बइट्टिया । ( 14 ) ते दसविहु धम्मु पालेसन्ति । ( 15 ) विणि देविउ मारणवहो वेस धरेवि इमहिं लोए आगच्छिनाउ । (16) अट्ठोत्तर सय बालमा खेलन्ति (या) प्रद्वाहिश्र सय बालग्रा खेलन्ति या बालय हुँ भट्ठोत्तर सय खेलइ । ( 17 ) अट्ठासीहं घरहं नरेहिं एत्थु पट्टा | ( 18 ) नवइहिं गामहि विज्जुया पथि । ( 19 ) सो सहासें विज्जाहिं परियरिउ (20) चउदह सहास विज्जाहरहं अस्थि । ( 21 ) सहासु विज्जउ चिन्तेष्पिणु दहमुहेण महिहरु उम्मूलिउ । ( 22 ) तहो णरवइ सहासे हि भिच्चेहि पुर वेड्दिउ, गावइ बारहहिं मासेहि संवच्छरु वेड्दिउ । (23) एक्कहो जोयणहो मज्झे जो वि संचरइ सो जीवन्तु ग णीसरइ । ( 24 ) चत्तारि कसाया जिणेश्वरं । (25) तउ तिणि पुत्त होसन्ति । ( 26 ) सो छह / छ फलाई एप्पिणु घरु गउ । ( 27 ) हणुवेण श्रट्ट सर मुक्क । ( 28 ) जुज्झे तासु सत्तसय विमाराई गई | ( 29 ) हउं ण एक्कल्लु, मई सहुं कोडिउ भड प्रत्थि । ( 30 ) तुज्झ कुडुंबे कइ पुरिसा व कइ महिलाउ प्रत्थि । ( 31 ) कहिं सावयह वया पालिया । (32) तुहुं कहूं सन्दहं सामि होहि । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ 1 [ ii Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (iii) अभ्यास-7 के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद (1) महु चउत्थी/चउथी परिक्खा कल्ले होसइ । (2) तइयाहे पुत्तिहे पाणिगहणु पिउएं साणन्दें किउ । (3) अज्जहो दसमीहिं रयणीहिं सो जुझ जिएसइ । (4) अट्ठारहमी झुपडा रिण म्मिमा । (5) दस मीहिं गुहाहिं मुणि झायन्ति । (6) तासु तइया ससा जसहो कंखा करइ। (7) हां दसमी साडी कीणमि । (8) किं तुज्झ वियाहिं अंखिहिं दोसु अस्थि । (9) दसमीहे कच्छाहे चालीसम छत्त, पंचमीहे कच्छाहे पण्णासम छत्त मई कोक्किय । (10) तइया पंत्तिहे छट्ठी महिला परिवार सुहेण घरे णिवसइ । (11) बारहमी कच्छाहे छत्त गुरुहे सिक्खा पालइ । (12) सो एत्थु दसमे दिवसे वि खेलेसइ। iv 1 1. प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (iv) अभ्यास - 8 के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद ( 1 ) विणि मि णह- मण्डले परिभमन्ति । ( 2 ) जो चयारि वि जुज्झइं जिणेसइ, तुहुं तं वीरु जाण । ( 3 ) पंचहि बार-बार सरीरु भूसिज्जइ । (4) अट्ठण्ह छत्तहं एक्कु इमु गंथु पढइ | ( 5 ) पई चउवीस मि तित्थंकरा पणवेव्व ं । ( 6 ) तासु संपइ मज्भु संपइहे दूणा प्रत्थि । ( 7 ) महु पासे तहां तिगुणाई गंथाई प्रत्थि । ( 8 ) सोलह थुइं हुं वत्थु दूणाई कहिज्जन्ति । ( 9 ) एतहि पट्टणे चालीसगुण महिय जणा निवसन्ति | ( 10 ) हणुवेण चत्तारि वि उज्जाणवाल हय । ( 11 ) वेण्णि वि वलई परोपरु भिडियई । ( 12 ) तेत्थु को वि णाहि श्रासि, जो ताई धणुई चडावइ । (13) का विणारि जा जोयइ तं दप्पणु सा हरिसइ । ( 14 ) गुरु तं किं पि णाणु देइ । (1 ) केण वि कासु वि उप्परि रणे चक्कु मक्कु । ( 16 ) कहि मि तुहुं हरिसहि पर मि तु कुद्धवि होहि । ( 17 ) अण्णहुं विविहाउ विहउ विज्जउ सिक्खावियउ | (18) एक्कहो वष्णु पप्फुल्लिउ, अण्णेक्कहो वयणु खिज्जिउ । ( 19 ) एक्के रहे महिहरु प्रारु, अक्के रहे श्रट्ठ वि कुमार चडिया । ( 20 ) तुहुं प्रण्णोष्णु मा गरहि । (21) हे कक्ख एक्केक्कु छत्तु प्रष्णोरणहो सर हें बोल्लइ । एक्कु राउ णिवसिउ । ( 23 ) ( तुहुं) थोवाई फलाई आाणावु । रण कोण हि । ( 25 ) कइ गरा भोयणु जिमन्ति । ( 26 ) कइ पि हसन्ता जण गामु जन्ति । ( 22 ) कहि मि पट्टणे ( 24 ) किं तुहुं वहुई अपभ्रंश प्रौढ रचना सौरभ 1 tv Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (v) अभ्यास-9 (क) के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद (1) अम्हहिं/अम्हेहिं को/कवणु/काई अवराहो किउ, एउ/एहो/इमु/प्राय अम्हे/अम्हई ण जाण हुँ । (2) जिह संझाए एउ/आय/इमु/एहु कमल-वणु घाइज्जइ, तिह जराए जोव्वणु घाइज्जइ। (3) एह/इमा/अाया माला कासु/कवणसु अत्थि । (4) एह/इमा/माया बाला गायइ, वायइ व गच्चइ । (5) एइ/प्रायाउ/इमाउ महिलामो आहरणा धारन्ति । (6) एइ/माया/इमा मुणी वयई पालन्ति । (7) एइ/प्रायइं/इमाइ कमलई विप्रसिप्रई । (8) जो ण थक्क इ, सो सोयइ । (9) ताउ अोइ णारिउ सपरिवरउ तेत्तहे गयउ । (10) ते/मोइ उवयरेप्पिणु हरिसिमा । (11) तइं/मोइ चित्तइ सुन्दरई अस्थि । (12) सा जाउ कहाउ कहइ, ताउ/ोइ हउं सुणमि/सुणउ । (13) तुहु जाई फलाइ खाहि, ताई/पोइ फलाई महराइं अस्थि । (14) जाइं फलाई महुरइ अस्थि तुहं ताइं/ोइ कीणु । (15) सो/अमु णरवइ तित्थंकरहो वंदणसु तेत्तहे गउ । (16) सा/अमु लया सोहइ । (17) तुहुँ कई होसहि प्रायहिं कवणु/को/काई सन्देहु अस्थि । (18) तुहुं कवणुकाइं/का बालउ कोक्कहि । (19) सो काउ/कवणाउ गुहाउ जाणइ । (20) तुहुं काई/कवणाई कज्जाइं करहि । (21) के कवणे वीणा वाइया अथवा काए/कवणाए वीणा वाइया । (22) कवणहिं/कहिं मणोहरा वज्जा वाइमा अथवा कवरणाहिं/काहिं मणोहरु वज्जु वाइउ । (23) कल्ले काह/कवणहु कण्णाहु परिक्खा होसइ । (24) सो/अमु कासु पुत्तु अस्थि । (25) जाहे मायाहे पुत्तु उण्णइ करइ सा हरिसइ । (26) कवणहिं/कहिं तुज्झ भत्ती अस्थि । (27) जहिं तुज्झ भत्ती अस्थि, तहिं महु भत्ती अस्थि । (28) कवणहां कहां रुक्खहे पत्त पडइ। (29) तेण किंकाई कवणु । (30) पाएहिं समउ तुहुं जाहि । [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vi) अभ्यास-9 (ख) के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद (1) एहु/एहउ/अइसु/एरिसु जुज्झ कयावि ण जुज्झिय । (2) तेहु तेहया तइमा/तारिसा बालप्रा उगइ करन्ति । (3) तासु घरु मई घर जेहु /जेहउ/जइसु/ जारिसु अत्थि । (4) ताहो पुत्तु केहु केहउ/क इसु के रिसु अस्थि । (5) तइ जेही/ जइसी/जारिसी बुद्धि महु णत्थि । (6) एहु/एहउ/ अइसु/एरिसु वत्ता णिसुणेवि सो हरिसिउ । (7) केहहिं/कइसाहिं करिसेहि साहणेहि सन्ति लहिज्जइ, कहु । (४) तेहे। तेहए/त इसे तारिसे दुहे धीरु रक्खेव्वउं । (9) एतसु/अइसहो/एरिसहो रणरसु णामु मा लय/लउ । (10) के हेण/केरिसेण/कइसेण उज्जमेण को वि सहलु हवइ । (11) तइं जेहा/जइसा/जारिमा गुणवन्ता कइ मणुय अस्थि । (12) तासु णाणु अम्हारिसु (मारिसु) अस्थि । (13) एप्रारिसें/आरिसें राएणं महु वट्टा ण किया। (1.) तुम्हारिसें तासु रज्जु किं लइउ । (15) तुम्हारिसु कोवि रणउ विरणयवन्तु अत्थि । (16) तुम्हारिसीहु रणारीहु संमाणु करेन्वउं । (17) मुरिण अम्हारिसा खमन्ति । (18) सा अम्हारिसी/मारिसी सामण्ण महिला णस्थि । (19) णाणे/णाणहो सरिसु कि पि णस्थि । (20) तेत्थु तक्खणे कइसु/केरिसु खोहु जाउ। प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vii) अभ्यास-9 (ग) के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद (1) अम्हारु/अम्हारउ घरु सग्ग अस्थि । (2) मेरी/महारी पुत्ति गंथु पढइ । (3) तुहारु/तुहारउ पुत्तु कवणु (कज्जु) करइ । (4) तेण मेरउ उवयारु किउ । (5) अज्जु तुहारउ जीविउ सहलु अस्थि । (6) तुहारी/तुम्हारी परिक्खा कइय हुं होसइ । (7) महारें/महारएण पियामहेण जलु पिवित्र । (6) अम्हारहो पिउ गुरु वणे णिवसइ । (9) एत्तियहुं मज्झे को बुद्धिवन्तु अत्थि । (10) तुडं एत्ति यई फलई कि कोणहि । (11) तुहूं जेत्तियहं णाणवन्तहं पासे णिवसहि, तेत्तिय तिं तुहारउ णाणु वड्ढइ । (12) एतिएण धणेण किं । (13) कहे, केतिय रयणि गय । (14) तुहारीए/ तुम्हारीए ससाए केत्तियु कज्जु करिउ । (10) तासु एवड्डु दुक्खु पेक्खेप्पिणु सो रुविय। (16) एवड्डहिं नइहिं कि । (17) तुहुँ जेवडु तवु करसि, तेवडु संति लहहि । (18) तुहारउ रज्जु केवडु अस्थि । (19) छुडु एत्तडउ कज्ज करहि । (20) एत्तडिय बाला गाण लहन्ति । (21) जेतडउ णाणु वड्ढइ तेत्तडड सुहु वड्ढइ । (22) तुहारीहिं सेणाहिं केत्तडय भडा अस्थि । (23) तुहुं अप्पउ/अप्पुणु/अप्पणउ/अप्पाणउ पेक्ख । (24) हउं णिय कसाय छोड। [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (viii) अभ्यास-10 के वाक्यों का अपभ्रंश में अनुवाद (1) तेत्थु विसालु गिरि पेक्खिय। (2) संपइ थिरा णउ होइ । (3) सा मरणोहरु सन्दणे थिया । (4) पई विणु घरु सुण्ण अस्थि । (5) गंगा पवित्ता नई कहिज्जइ। ( ) जइ तुहारउ मणु चलु अत्थि, तो तुहुं तं निवारु । (7) जीवु एक्कल्लउ सुह दुहु व मुजइ । (8) महारी/मेरी पुत्ती वयहं धारी तह वि धीरी। (9) कमीणा पक्खि णहे उड्डन्ती देक्खिग्रा । (10) जो दासी विण यवन्ता होइ, सा पेसणगारी होइ । (11) जोइ झाणे ण अउव्व प्राणन्द लहइ । (12) सो मुणि दुल्लहइं वयण इं णिसुणेवि अप्पण उ कल्लाणु करइ । (13) महारीए ससाए पण्डुरा साडी कीणिमा । (14) जा सासू किविणा/किविणी होइ सा बहुए सहु जगडइ । (15) जासु सरीउ किसु अत्थि, सो दुद्ध अहिउ पिबउ । (16) जो णिम्मलु झाणु झायइ, सो विमलु केवलणारण लहइ । (17) जासु दिट्टि उज्जला अस्थि, तासु कित्ति जए पसरइ । (18) तुहुं महुरु फलु खाहि । (19) जाम तुहारी वाणी तिक्खा अच्छेसइ, ताम तुहुं पसंसा णउ पावेसहि । (20) सीयलें जलें तिसा णासइ । (21) उत्तमहो रायहो संपइ वड्ढइ । (22) सोसायरहो सरिसउ गंभीरु अत्थि । (23) मेरी पियारी माया मई महुरु भोयण कारइ । (24) रायहो वल्लहा राणी तं उववणु जाइ सरोवरहो पंकयई रिणरक्खइ । (25) मुक्खु मंति रज्जु रणउ परिरक्खइ । (26) जासु बुद्धि थूला हवइ, तासु मणु थिरु ण होइ । (27) उत्तमें उत्ति में नरें एइ गुणा लहिज्जन्ति । (28) सो पुव्वु रणयरु गउ । (29) तुहं दाहिणु/दक्खिणु देसु जाहि । (30) गम्मया दाहिणा नइ अस्थि । (31) गंगा उत्तरा/ उत्तरिया नई अस्थि । (32) पच्छिमाहिं दिसाहिं महु मित्तु णिवसइ । (33) तहो पुव्वे भाए जउणा गई अस्थि । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम ] Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-2 कृदन्त परिशिष्ट क्र.सं. क्रिया शब्द संबंधक कृदन्त में प्रयुक्त हेत्वर्थक कृदन्त में प्रयुक्त प्रत्यय-इ, इउ, इवि, प्रत्यय-एवं, प्रण प्रणहं, अवि, एवि, एविणु, एप्पि, अहि, एवि, एविण एप्पि, एप्पिणु (3) एप्पिणु (2) (1) 1. प्र.प-अर्पण करना अप्पि, अप्पिउ, अप्पिवि, अप्पेवं, अप्पण, अप्पणहं, अप्पवि, अप्पेवि, अप्पेविणु, अप्पणहिं, अप्पेवि, अप्पेअप्पेप्पि, अप्पेप्पिणु विणु, अप्पेप्पि, अप्पेपिणु 2, अवलोम देखना अवलोइ, अवलोइउ, अवलोएवं, अवलोअरण, अवलोइवि, अवलोप्रवि, अवलोअणह, अवलोअणहिं, अवलोएवि, अवलोएविणु.. अवलोएवि, अवलोएविणु, अवलोएप्पि, अवलोएप्पिणु अवलोएप्पि, अवलोएप्पिणु 3. प्रारणलाना प्राणि, प्राणि उ, आणिवि, आणेवं, पाणण, आणणहं, आणवि, पारणेवि, पारणे- आणणहिं, आणेवि प्राणेत्रिण, प्राणेप्पि, आरोपिण विण, प्रायोप्पि, आणप्पिण प्रावाना मावि, प्राविउ, प्राविवि, आवेवं, प्रावण, प्रावणहं, आववि, प्रावेवि, प्रावेविणु, प्रावण हिं, आवेवि, आवेआवेप्पि, प्रावेप्पिणु विणु, आवेप्पि, आवेप्पिणु 5. इच्छ=चाहना, इच्छि, इच्छिउ, इच्छिवि, इच्छेवं, इच्छण, इच्छणहं, इच्छा करना इच्छवि, इच्छेवि, इच्छे- इच्छणहिं, इच्छेवि, इच्छे विणु, इच्छेप्पि, इच्छेपिणु विणु, इच्छेपि, इच्छेप्पिणु [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूतकालिक कृदन्त में प्रयुक्त प्रत्यय-अ, य विधि कृदन्त में प्रयुक्त प्रत्ययपरिवर्तनीय- अपरिवर्तनीय एन्वउ, इएन्वउं, एवा (5.1) (5.2) वर्तमान कृदन्त में प्रयुक्त प्रत्ययन्त, मारण (6) प्रव्व (7) अप्पिन, अप्पिय अप्पिग्रव्व, अप्पेअव्व अप्पेव्वउ, अप्पिएव्वउं, अप्पेवा अप्पन्त, अप्पमाण अवलोइअव्व, अवलोएव्वउं, अवलोएअव्व अवलोइएव्व उं, अवलोएवा अवलोअन्त, अवलोप्रमाण अवलोइअ, अवलोइय आणिग्रव्व, आणेअश्व आणेव्वळ, प्राणिएव्वउं, आणन्त, प्राणमाण प्राणिप्र, प्राणिय आणेवा आविअव्व, आवेअव्व आवेव्वउं, प्राविएव्वळ, पावन्त, आवमाण प्रावित्र, प्राविय आवेवा इच्छिअव्व, इच्छेप्रव्व इच्छेव्वळ, इच्छिएव्वलं, इच्छन्त, इच्छमाण इच्छिम, इच्छिय इच्छेवा प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ xi Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) 6. उच्चार उच्चारण करना 7. उच्छल उछलना 8. (2) 9. उट्ठ = उठना उड्डु =उड़ना 10. उप्पज्ज = उत्पन्न होना 11. उप्पाड उखाड़ना xii ] (3) उच्चारि, उच्चारिउ, उच्चारिवि, उच्चारवि, उच्चारेवि, उच्चारेविणु, उच्चारेष्पि, उच्चारेष्पिणु उच्छलि, उच्छलिउ, उच्छलिवि, उच्छल वि, उच्छलेवि, उच्छले विणु, उच्छले प्पि, उच्छले प्पिणु उट्टि, उट्टिउ, उद्विवि उट्ठवि, उट्ठेवि उट्ठेविणु, उट्ठेप्पि, उट्ठेप्पिणु उडि उड्डिउ, उड्डवि, उड्डुवि, उड्डेवि, उड्डेविणु, उड्डेप्प, उड्डेपिणु उपज्जि, उप्पज्जिउ, उपजिवि, उप्पज्जबि. उप्पज्जेवि, उप्पज्जेविणु, उप्पज्जेप्पि, उप्पज्जेष्पिणु उप्पाड, उप्पाडिउ, उप्पाडिवि, उप्पाडवि, उप्पाडेवि, उप्पाडेविणु, उप्पाडेप्प, उप्पाडे प्पिणु (4) उच्चारेवं, उच्चारण, उच्चारणहं, उच्चारणहिं, उच्चारेवि, उच्चारेविणु, उच्चारेष्पि, उच्चारेष्पिणु उच्छलेवं, उच्छलण, उच्छलणहं, उच्छलणहिं, उच्छले वि, उच्छले विणु, उच्छले प्पि, उच्छले प्पिणु उठेवं, उट्ठण, उट्ठणहं, उट्ठणहिं, उट्ठेवि, उट्ठेविणु, उट्ठेप्पि, उट्ठेप्पणु उड्डेवं, उड्डण, उड्डणह, उड्डणहि, उड्डेवि, उड्डेविणु, उड्डेपि, उड्डेप्पिणु उप्पज्जेवं, उप्पज्जण, उप्पज्जणहं, उप्पज्जणहि, उप्पज्जेवि, उप्पज्जेविणु, उप्पज्जेप्पि, उप्पज्जेष्पिणु उप्पाडेवं, उप्पाडण, उप्पाडणहं, उप्पाडणहिं, उपाडेवि, उप्पाडेविणु,' उप्पाडेप्प, उप्पाडेप्पणु [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5.1) (5.2) (6) (7) उच्चारिअव्व, उच्चारेव्वउ, उच्चारेअव्व उच्चारिएव्वउं, उच्चारेवा उच्चारन्त, उच्चारमाण उच्चारित्र, उच्चारिय उच्छलिअव्व, उच्छलेव्वळ, उच्छलेअव्व उच्छलिएव्वउं, उच्छलेवा उच्छलन्त, उच्छलमाण उच्छलिम, उच्छलिय उट्ठिअब, उठेप्रब्व उठेव्वउं, उट्ठिएव्वउं, उठेवा उट्ठन्त, उट्ठमाण उद्विअ, उट्ठिय उड्डन्त, उड्डमाण उड्डिन, उड्डिय उड्डिअन्व, उड्डेअव्व उड्डेव्वउं, उड्डिएव्वळ, उड्डेवा उप्पज्जन्त, उप्पज्जिअव्व, उप्पज्जेव्वलं, उप्पज्जेअव्व उप्पज्जिएव्वलं, उप्पज्जेवा उपज्जिा , उप्पज्जिय उप्पज्जमाण उप्पाडिअव्व, उप्पाडेव्वलं, उप्पाडेअव्व उप्पाडिएव्वलं, उप्पाडेवा उप्पाडन्त, उप्पाडमाण उप्पाडि, उप्पाडिय प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ xiii Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (1) (2) (3) (4) 12. कड्ढ=निकालना कड्ढि, कड्ढि उ, कड्ढिवि, कड्ढेवं, कढण, कड्ढणहिं, कड्ढवि, कड्ढेवि, कड्ढणहं, कड्ढेवि, कड्ढेविणु, कड्ढेप्पि, कड्ढेविणु, कड्ढे प्पि, कड्ढेप्पिणु कड्ढेप्पिणु 13. कर करना करि, करिउ, करिवि, करवि, करेवि, करेविणु, करेप्पि, करेप्पिणु करेवं, करण, करणहं, करणहिं, करेवि, करेविणु, करेप्पि, करेप्पिणु 14. कोक्क = बुलाना कोक्कि, कोक्किउ, कोक्किवि, कोक्कवि, कोक्के वि, कोक्केविणु, कोक्के प्पि, कोक्के प्पिणु कोक्केव, कोक्कण, कोक्कणहं, कोकणहिं, कोक्केवि, कोक्के विणु, कोक्के प्पि, कोक्के प्पिणु 15. खञ्च-खींचना खञ्चि, खञ्चिउ, खञ्चिवि, खञ्चवि, खञ्चेवि, खञ्चेविणु, खञ्चेप्पि, खञ्चेप्पिणु खञ्चेवं, खञ्चण, खञ्चणहं, खञ्चणहिं, खञ्चेवि, खञ्चेविणु, खञ्चेप्पि, खञ्चेप्पिणु 16. गज्ज-गरजना गज्जि, गज्जिउ, गज्जिवि, गज्जवि, गज्जेवि, गज्जेविणु, गज्जेप्पि, गज्जेप्पिणु गज्जेवं, गज्जण, गज्जणहं, गज्जणहि, गज्जेवि, गज्जे विणु, गज्जेप्पि, गज्जेप्पिणु 17. गण=गिनना गणि, गणिउ, गणिवि, गणवि, गणेवि, गणेविणु, गणेप्पि, गणेप्पिणु गणेवं, गणण, गणणहं, गणहिं, गणेवि, गणेविणु, गणेप्पि, गणेप्पिणु xiv ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5.1) 15.2) (6) (7) कढि अ, कड्ढिय कड्ढिअव्व, कड्ढेव्वउं, कड्ढिएव्वउं कड्ढेअव्व कड्ढेवा । कड्ढन्त, कड्ढमाण करन्त, करमाण कग्नि, करिय करिअव्व, करेअव्व करेब्वउं, करिएव्वलं, करेवा कोक्किम, कोक्किअव्व, कोक्केव्वलं, कोक्के अव्व कोक्किएव्बउं, कोक्केवा कोक्कन्त, कोक्कमाण कोक्किय खञ्चि, खञ्चिय खञ्चिअव्व, खञ्चेव्वउं, खञ्चेअव्व खञ्चिएव्वउं, खञ्चेवा खञ्चन्त, खञ्चमाण गज्जिअव्व, गज्जेव्वउ, गज्जिएव्वळ, गज्जन्त, गज्जमाण गज्जिय, गज्जिय गज्जेअव्व गज्जेवा गणन्त, गणमाण गणिन, गणिय गणिप्रज्व, गणेअव्व गणेव्वउं, गणिएव्वलं, गणेवा प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (1) (2) (3) 18. गल-गलना गलि, गलिउ, गलिवि, गलवि, गलेवि, गलेविणु, गलेप्पि, गलेप्पिणु गलेवं, गलण, गलणह, गलणहि, गलेवि, गलेविणु, गलेप्पि, गलेप्पिणु 19. गवेस=खोज करना गवेसि, गवेसिउ, गवेसेवि, गवेसवि, गवेसेवि, गवेसेविणु, गवेसे प्पि, गवेसे प्पिणु गवेसेवं, गवेसण, गवेसणह, गवेसहि, गवेसेवि, गवेसे विणु, गवेसेप्पि, गवेसेप्पिणु 20. गह-ग्रहण करना गहि, गहिउ, गहिवि, गहेवं, गहण, गहणह, गहवि, गहेवि, गहेविणु, गहहिं, गहेवि, गहेविणु, गहेप्पि, गहेप्पिणु गहेप्पि, गहेप्पिणु गाइ, गाइउ, गाइवि, गाएवं, गाण, गाणहं, गावि, गाएवि, गाएविणु, गाअणहिं, गाए वि, गाएगाएप्पि, गाएप्पिणु विणु, गाएप्पि, गाएप्पिणु 21. गा=गाना 22. गिल=निगलना 23. घड बनाना गिलि, गिलिउ, गिलिवि, गिलेवं, गिलण, गिलणहं, गिलवि, गिलेवि, गिलणहिं, गिलेवि, गिलेविणु, गिलेप्पि, गिलेविणु, गिलेप्पि, गिलेप्पिणु गिलेप्पिणु घडि, घडिउ, घडिवि, घडेवं, घडण, घडणहं, घडवि, घडेवि, घडेविणु, घडणहिं, घडेवि, घडेविणु, घडेप्पि, घडेप्पिणु घडेप्पि, घडेप्पिणु घोसि, घोसिउ, घोसिवि, घोसेवं, घोसण, घोसणहं, घोसवि, घोसेवि, घोसणहिं, घोसेवि, घोसेविणु, घोसेप्पि, घोसेविणु, घोसेप्पि, घोसेप्पिणु घोसेप्पिणु 24. घोस=घोषणा करना xvi ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5.1) गलिअव्व, गलेश्रव्व गवेसिव्व, गवे से अव्व गहिव्व, अव्व गाग्रव्व गिलेअव्व, गिलिनव्व घडिश्रव्व, घडेश्रव्व घोसिश्रव्व, घोसे अव्व (52) गलेव्वउं, गलि एव्वउं, गलेवा गवेसेब्वउं, गवेसि एव्व ं, गवेसे वा गव्वउं, गहिएव्व, गहेवा गाएव्वउं, गाइएव्बउ, गाएवा गिलेव्वउं, गिलिएव्वउं, गिलेवा घडेव्वउं, घडिएव्व, घडेवा प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ 1 (6) गलन्त, गलमाण गवे सन्त, गवेसमाण गहन्त, गहमाण गान्त गन्त, गामाण गिलन्त, गिलमाण घोसेव्वउं, घोसिएव्व ं, घोसन्त, घोसमाण धोसेवा घडन्त, घडमाण (7) गलि, गलिय वेसि वेसिय गिि गान, गाय गिलिन, गिलिय घडि घडिय घोसित्र, घोसिय [ xvii Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) (2) (3) (4) 25. चड=चढ़ना चडि, चडिउ, चडिवि, चडवि, चडेवि, चडेविगु, चडेप्पि, चडेप्पिणु चडेवं, चडण, चडणहं, चडहि, चडेवि, चडेविणु, चडेप्पि, चडेप्पिणु 26. चव-बोलना चवि, चविउ, चविवि, चववि, चवेवि, चवेविणु, चवेप्पि, चवेप्पिणु चवेवं, चवण, चवणहं, चवहिं, चवेवि, चवेविणु, चवेप्पि, चवेप्पिणु 27. छिन्द =छेदना छिन्दि, छिन्दिउ, छिन्दिवि, छिन्दवि, छिन्देवि, छिन्देविणु छिन्देप्पि, छिन्देप्पिणु छिन्देवं, छिन्दण, छिन्दणहं, छिन्दणहिं, छिन्देवि, छिन्देविणु, छिन्देप्पि, छिन्देप्पिणु 28. जयकार-जयकार करना जयकारि, जयकारिउ, जयकारेवं, जयकारण, जयकारिवि, जयकारवि, जयकारणह, जयकारणहिं, जयकारेवि, जयकारेविणु, जयकारेवि, जयकारेविणु, जयकारेप्पि, जयकारेप्पिणु, जयकारेप्पि, जयकारेप्पिणु 29. जग्गजागना जग्गि, जग्गिउ, जग्गिवि, जग्गवि, जग्गेवि, जग्गेविणु, जग्गेप्पि, जग्गेप्पिणु जग्गेवं, जग्गण, जग्गणहं, जग्गणहिं, जग्गेवि, जग्गेविणु, जग्गेप्पि, जग्गेप्पिणु 30. जा-जाना जाइ, जाइउ, जाइवि, जावि, जाएवि, जाएविणु, जाएप्पि, जाएप्पिणु जाएवं, जाअण, जाअणहं, जाअणहिं, जाएवि, जाएविणु, जाएप्पि, जाएप्पिणु xviii 1 [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) (7) (5.1) चडिअव्व, चडेअव्व (2) चडेव्वउ, घडिएव्वउं; चडेवा चडन्त, चडमाण चडिअ, चडिय चवन्त, चवमाण चवित्र, चविय चविअव्व, चवेअव्व चवेव्वउं, चविएव्व , चवेवा छिन्दन्त, छिन्दमाण छिन्दिन, छिन्दिय छिन्दिअव्व, छिन्देश्वउं; छिन्देप्रव्व छिन्दिएव्वउं, छिन्देवा जयकारिअव्व, जयकारेव्वलं, जयकारेअव्व जयकारिएव्वळ, जयकारेवा जयकारन्त, जयकारमाण जयकारि, जयकारिय जग्गिअव्व, जग्गेअव्व जग्गेब्वउ, जग्गिएव्वळ, जग्गन्त, जग्गमाण जग्गेवा जग्गिय, जग्गियः जाअव्व जा जाएव्वउं, जाइएब्वलं, जाएवा जाम, जाय जान्त-जन्त, जामाण प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ xix Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (i) (2) 31. जारण जानना 32. जिरग जीतना 33. जिम- जीमना 34. जोश्र = देखना, प्रकाशित होना 35. भा ध्यान करना XX 1 (3) जाणि, जाणिउ, जाणिवि, जाणवि, जाणेवि, जाविणु, जाणेप्पि जाणु जिरिण, जिणिउ, जिवि, जिणिवि, जिवि, जिणेविणु, जिणेप्पि, जिणेपिणु जिमि, जिमिउ, जिमिवि, जिमवि, जिमेवि, जिमेविणु, जिमेप, जिपिणु 36. ठव = स्थापित करना ठवि, ठविउ, ठविवि, afa, ठवेवि, ठवेविणु, ठप्प, वेणु जोइ, जोइउ, जोइवि, जोग्रवि, जोएवि, जो विणु, जोएप्प, जोएपिणु भाइ, भाइउ, भाइवि, भावि, भावि, भाविणु, झाएप्प, एप्पिणु (4) जावं, जाणण, जाणणहं, जाहिं, जाणेवि, जाणेविणु, जाणेप्पि जाप जिव, जिणण, जिणणहं, जिणणहि, जिणेवि, जिणेविणु, जिणेपि, जिणेपिणु जिमेवं, जिमण, जिमणहं, जिमहि, जिवि, जिमेविणु, जिमेपि, जिमेपिणु जोएवं, जोण, जोणहं, जो, जोएवि जोए विणु, जोएप्पि, जोएप्पिणु झाएवं भाश्रण, भानणहं, काहिं, झावि, भाविणु, झाएप्पि, झाएप्पिणु ठवेवं, ठवण, ठवणहं, वर्णा, ठवेवि, ठवेविणु, ठप्प, ठप्प [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5.1) जाणिव्व, जाणेव्व जिणिश्रव्व, जिणेअव्व जिमिव्व, जिमेब्व जोइव्व, जो एअव्व भाअन्व ठविव्व, odoa (6) जाणेव्वउं, जाणिएव्वउं, जाणन्त, जाणमाण जाणेवा (5.2) जिणेव्वउं, जिणिएव्बउं, जिरणन्त, जिणमाण जिणेवा जिमेब्वउं, जिमिएव्वउं, जिमन्त, जिममाण जिमेवा जोएव्वउं, जोइएव्वजं, जोअन्त, जोप्रमाण जोएवा झाएव्वउं, भाइएव्वउं, भाएवा ठवेव, ठविएव्वउं, ठवेवा प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ 1 भान्त भन्त झामाण ठवन्त, ठवमारण (7) जाणि, जाणिय जिणि, जियि जिमिश्र, जिमिय जोइन, जोइय झान, झाय ठवित्र, ठविय [ xxi Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) (2) (.) (4) 37 एव=नमन करना णवि, णविउ, णविवि, णववि, णवेवि, णवेविणु, णवेप्पि, णवेप्पिणु णवेवं, णवण, णवणहं, णवणहिं, णवेवि, णवेविणु, णवेप्पि, णवेप्पिणु 38. रिणवs = गिरना णिवडि, णिवडिउ, णिवडिवि, णिवडवि, णिवडेवि, णिवडेविणु, णिवडे प्पि, णिवडेप्पिणु णिवडेवं, णिवडण, णिवडणहं, णिवडणहि, णिवडेवि, णिवडेविणु, णिवडेप्पि, णिवडेप्पिणु 39. णिसुरण=सुनना णिसुणि, णिसुणिउ, णिसुणिवि, णिसुणवि, णिसुणेवि, णिसुणेविणु, णिसुणेप्पि, णिसुणेप्पिणु णिसुणेवं, णिसुणण, णिसुणणहं, णिसुणणहिं, णिसुणेवि, णिसुणेविणु, णिसुणेप्पि, णिसुणेप्पिणु 40. पीले जाना णीइ, णीइउ, णीइवि, णीअवि, णीएवि, णीएविणु, णीएप्पि, णीएप्पिणु णीएवं, णीअण, णीप्रणहं णीअहि, णीएवि, णीएविणु, णीएप्पि, णीएप्पिणु 41. ण्हारण-स्नान करना हाणि, हाणिउ, ण्हाणिवि, हाणवि, व्हाणेवि, पहाणेविणु, ण्हाणेप्पि, पहाणेप्पिणु ण्हाणेवं, हाणण, ण्हाणणहं, हाणणहि, ण्हाणेवि, ण्हाणेविणु, ण्हाणेप्पि, हाणेप्पिणु 42. तर=तैरना तरि, तरिउ, तरिवि, तरवि, तरेवि, तरेविणु, तरेप्पि, तरेप्पिणु तरेवं, तरण, तरणहं, तरणहि, तरेवि, तरेविणु, तरेप्पि, तरेप्पिणु xxii ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5.1) (5.2) (6) (7) णवेव्वलं, णविएव्वउं, णवेवा णवन्त, णवमाण गविअव्व, रणवेअव्व णविन, रणविय णिव डिप, णिवडिय णिवडिअव्व, रिणवडेव्वलं, णिवडेअव्व णिवडिएव्वळ, णिवडेवा णि वडन्त, णिवडमाण णिसुणिअव्व, णिसुणेव्वउ, णिसुणेअव्व णिसुणिएव्वळ, णिसुणेवा णिसुणन्त, णिसुणमाण णिसुरिण, णिसुणिय रणीअव्व णीय, णीय णीएव्वउं, णीइएव्वउं, णीन्त, णीमाण णीएवा ण्हाणिअव्व, व्हाणेअव्व हाणेव्वउं, हाणिएव्वउं ण्हाणेवा व्हाणन्त, ण्हाणमाण हाणि, पहाणिय तरन्त, तरमाण तरिम, तरिय तरिव्व, तरेअव्व तरेव्वउं, तरिएव्वलं, तरेवा प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ xxiii Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) (2) (3) 43. तुट्ट - टूटना तुट्टि, तुट्टिउ, तुट्टिवि, तुट्टेवं, तुट्टण, तुट्टणहं, तुट्टवि, तुट्टेवि, तुट्टे विणु, तुट्टणहि, तुझेवि, तुट्टेविणु, तुट्टेप्पि, तुट्टेप्पिणु तुट्टेप्पि, तुट्टेप्पिणु 44. तुल=तोलना तुलि, तुलिउ, तुलिवि, तुलवि, तुलेवि, तुलेविणु, तुलेप्पि, तुलेप्पिणु तुलेवं, तुलण, तुलणहं, तुलणहि, तुलेवि, तुलेविणु, तुलेप्पि, तुलेप्पिणु 45. तूस खुश होना तूसि, तूसिउ, तूसिवि, तूसवि, तूसेवि, तूसेविणु. तूसेप्पि, तूसेप्पिणु तूसेव, तूसण, तूसणहं, तूमणहि, तूसेवि, तूसेविणु, तूसेप्पि, तूसेप्पिणु 46. तोडतोड़ना तोडि, तोडिउ, तोडिवि, तोडेवं, तोडण तोडणहं, तोडवि, तोडेवि, तोडेविणु, तोडणहिं, तोडेवि तोडेविणु, तोडेप्पि, तोडेप्पिणु तोडेप्पि, तोडेप्पिणु 47. थक्क-थकना थक्कि, थक्कि उ, थक्किवि, थक्केवं थक्कण, थक्कणहं, थक्कवि, थक्के वि, थक्कणहिं, थक्केत्रि, थक्के विणु, थक्केप्पि, थक्के विणु, थक्के प्पि, थक्केप्पिणु थक्केप्पिणु 48. था-ठहरना थाइ, थाइउ, थाइवि, थाप्रवि, थाएवि, थाएविणु, थाएप्पि, थाएप्पिणु थाएवं, थाअण, थाअणहं, थाअणहि, थाएवि, थाएविणु, थाएप्पि, थाएप्पिणु 49. दह जलाना दहि, दहिउ, दहिवि, दहवि, दहेवि, दहेविणु, दहेप्पि, दहेप्पिणु दहेब, दहण, दहणह, दहणहिं, दहेवि, दहेविणु, दहेप्पि, दहेप्पिणु xxiv ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5.1) तुट्टिश्रव्व, तुट्टेश्रव्व तुलिप्रब्व, तुले अव्व तूसिव, तसे अव्व तोडिश्रव्व, तोडेव् थक्किव्व, थक्केव्व थाअव्व दहिव्व, दहे (5.2) तुट्टेब्वउ, तुट्टिएव्व ं, तुट्टेवा तुलेव्वउं, तुलिएव्वउं, तुलेवा तू सेव्वजं, तूसिएव्व, तू सेवा तोडेव्वउं, तोडिएव्बउं, तोडेवा थाएव्वउं, थाइएव्वउं, थाएवा दहेव्वउं, दहिएव्वउं, दहेवा प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] (6) तुट्टन्त तुट्टमाण rrhoaj, थक्किएव्वरं, थक्कन्त, थक्कमाण मक्केवा तुलन्त, तुलमाण तुसन्त, तूस माण तोडन्त, तोडमाण थान्तथन्त, थामाण दहन्त, दहमाण (7) तुट्टिय, तृट्टिय तुलित्र, तुलिय तूसिन, तूसिय तोडि तोडिय 1 थक्क, थक्किय थाम, थाय दहि, दहिय [ XXV Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) (2) (3) 50. दा-देना दाइ, दाइउ, दाइवि, दावि, देवि, देविणु, देप्पि, देप्पिणु देवं, दाण, दाणहं, दामणहिं, देवि, देविणु, देप्पि, देप्पिणु 51. धर=धारण करना धरि, धरिउ, धरिवि, धरवि, धरेवि, धरेविणु, धरेप्पि, घरेप्पिणु घरेवं, घरण, धरणहं, घरणहिं, धरेवि, धरेविणु, घरेप्पि, घरेप्पिणु 52. धिक्कार=धिक्कारना धिक्कारि, धिक्कारिउ, धिक्कारेवं, धिक्कारण, धिक्कारिवि, धिक्कारवि, धिक्कारणहं, धिक्कारणहिं, धिक्कारेवि, धिक्कारेविणु, धिक्कारेवि, धिक्कारेविणु, धिक्कारेप्पि, धिक्कारेप्पिणु धिक्कारेप्पि, धिक्कारेप्पिणु 53. पइसर=प्रवेश करना पइसरि, पइसरिउ, पइसरिवि, पइसरवि, पइसरेवि, पइसरेविणु, पइसरेप्पि, पइस रेप्पिणु पइसरेवं, पइसरण, पइसरणहं, पइसरणहिं, पइस रेवि, पइसरेविणु, पइसरेप्पि, पइसरेप्पिणु 54. पड = गिरना पडि, पडिउ, पडिवि, पडवि, पडेवि, पडेविणु, पडेप्पि, पडेप्पिणु पडेवं, पडण, पडणहं, पडणहिं, पडेवि, पडेविणु, पडेप्पि, पडेप्पिणु 55. पणव=प्रणाम करना पणवि, पणविउ, पणविवि, पणवेवं, पणवण, पणवणहं, पणववि, पणवेवि, पणवर्णाह, पणवेवि, पणवेविणु, पणवेप्पि, पणवेविणु, पणवेप्पि, पणवेप्पिणु पणवेप्पिणु xxvi ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5.1) दानव्व धरिव्व, धरेव्व (5.2) देव्वउं, दाइएब्वउं, देवा free door धिक्कारिव्व, धिक्कारेव्व ं, धिक्कारिएव्वउं, धिक्कारेवा पमिव्व, पडेब्व घरेव्वउं, घरिएव्व ं, धरेवा पइसरेश्रव्व पइसरिग्रव्व, पइसरेव्वजं, पइसरिएव्वजं, पइसरेवा पण विश्रव्व, पणवेश्रव्व पडेव्वउं पडिएब्वउं, पडेवा प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ 1 (6) देन्त, दामाण धरन्त, धरमाण धिक्कारन्त, धिक्कारमाण पइसरन्त, पइसरमाण पडन्त, पडमाण (7) दान, दाय धरि, धरिय धिक्कारि, धिक्कारिय पइसरि, पइसरिय पडि, पण वेव्वरं, पणविएब्वउं, पणवन्त, पणवमाण पणवित्र, पणविय पणवेवा पडिय [ xxvii Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) (2) (3) (4) 56. परिचिन्त=चिन्तन परिचिन्ति, परिचिन्तिउ, परिचिन्तेवं, परिचिन्तरण, करना परिचिन्तिवि, परिचिन्तवि, परिचिन्तणह, परिचिन्ताह, परिचिन्तेवि, परिचिन्ते. परिचिन्तेवि, परिचिन्तेविणु, परिचिन्तेप्पि, विणु, परिचिन्तेप्पि, परिचिन्तेप्पिणु परिचिन्तेप्पिणु 57. परिण=विवाह करना परिणि, परिणिउ, परिणिवि, परिण वि, परिणेवि, परिणेविणु, परिणे प्पि, परिणेप्पिणु परिणेवं, परिगण, परिणणहं, परिणणहिं, परिणेवि, परिणेविणु, परिणेप्पि, परिणेप्पिणु 58. परिभमभटकना परिभमि, परिभमिउ, परिममेवं, परिभमण, परिभमिवि, परिममवि, परिभमणहं, परिभमणहिं, परिममेवि, परिममेविणु, परिभमेवि, परिभमेविणु, परिभमेप्पि, परिभमेप्पिणु परिममे प्पि, परिभमेप्पिणु 59. परियाण-जानना परियाणि, परियाणिउ, परियाणेवं, परियाणण, परियाणिवि, परियाणवि, परियाणणहं, परियाणाह, परियाणेवि, परियाणेविण, परियाणेवि, परियाणेविणु, परियाणेप्पि, परियाणेप्पिणु परियाणेप्पि, परियाणेप्पिणु 60. पसर=फैलना पसरि, पसरिउ, पसरिवि, पसरवि, पसरेवि, पसरेविणु, पसरेप्पि, पसरेप्पिणु पसरेवं, पसरण, पसरणहं, पसरणहिं, पसरेवि, पसरेविणु, पसरेप्पि, पसरेप्पिणु 61. पाव-पाना पावि, पाविउ, पाविवि, पावेवं, पावण, पावणहं, पाववि, पावेवि, पावेविणु, पावहिं, पावेवि, पावेविणु, पावेप्पि, पावेप्पिणु पावेप्पि, पावेप्पिणु xxviii ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5.1) (5.2) परिचिन्तिव्व, परिचिन्तेव्वउं, परिचिन्तेव्व परिचिन्ति एव्व ं, परिचिन्तेवा परिणिव्व, परिव्वजं, परिणिएव्वजं, परिणेअश्व परिणेवा परिभमिव्व, परिभमेव्वउं, परिभमेव्व परिममिव्वउं, परिभमेवा परियाणिव्व, परियाणेव्वउं, परियाणेव्व परियाणिएव्वउं, परियाणेवा पसरिश्रव्व, पसरेअव्व, पाविप्रव्व, पावेश्रव्व पावेष्वउं, पाविएव्वजं, पावेवा प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ 1 (6) परिचिन्तन्त, परिचिन्तमाण परिणन्त, परिणमारण परिभमन्त, परिभममाण परियाणन्त, परियाणमाण पसरेव्वउं, पसरिएव्वउ, पसरन्त, पसरमाण पसरित्र, पसरिय पसरेवा पावन्त, पावमाण (7) परिचिन्तिन, परिचिन्तिय परिणि, परिणिय परिभमिश्र, परिभमिय परियाणिय, परियाणिय पावित्र, पाविय [ xxix Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) (2) (3) (4) 62. पिन पौना पिइ, पिइउ, पिइवि, पिएवं, पिअण, पिअणहं, पिमवि, पिएवि, पिएविणु, पिअणहिं, पिएवि, पिएविणु, पिएप्पि, पिएप्पिणु पिएप्पि, पिएप्पिणु 63. पुज्ज-पूजना पुज्जि, पुज्जिउ, पुज्जिवि, पुज्जवि, पुज्जेवि, पुज्जेविणु, पुज्जेप्पि, पुज्जेप्पिणु पुज्जेवं, पुज्जण, पुज्जणहं, पुज्जणहिं, पुज्जेवि, पुज्जेविणु, पुज्जेप्पि, पुज्जेप्पिणु 64. बंध=बांधना बंधि, बंधिउ, बंधिवि, बंधेवं, बंधण, बंधणहं, बंधवि, बधेवि, बंधेविणु, बंधहिं, बंधेवि, बंधेविणु, बंधेप्पि, बंधेप्पिणु बंधेप्पि, बंधेप्पिणु 65. भरण=कहना मणि, भणिउ, मणिवि, भणेवं, भणण, मणणहं, भणवि, भणेवि, मणेविणु, भणणहिं, भणेवि, मणेविणु, भणेप्पि, मणेप्पिणु भणेप्पि, भणेप्पिणु 66. भम=भ्रमण करना भमि, भमिउ, ममिवि, भमवि, भमेवि, भमेविणु, भमेप्पि, ममेप्पिणु भमेवं, भमण, भमणहं, भमणहिं, भमेवि, भमेविणु, भमेप्पि, ममे प्पिणु 67. भव-होना भवि, भविउ, भविवि, भववि, भवेवि, भवेविणु, भवेप्पि, भवेप्पिणु भवेवं, भवण, भवणहं, भवहिं, मवेवि, भवेविणु, भवेप्पि, भवेप्पिणु 68. भुज=भोजन करना मुञ्जि, मुजिउ, भुजिवि, मुजवि, भुजेवि, भुजेविणु, भुजेप्पि, भुजेप्पिणु मुजेवं; भुजण, मुजणह, भुञ्जणहि, भुजेवि, भुजेविणु, भुजेप्पि, भुजेप्पिणु xxx ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5.1) (5.2) (6) (7) पिअन्त, पिप्रमाण पिइन, पिइय पिइअव्व, पिएमव्व पिएव्वळ, पिइएव्वउं, पिएवा पुज्जिअव्व, पुज्जेव्वळ, पुज्जिएव्वउं, पुज्जन्त, पुज्जमाण पुज्जिअ, पुज्जिय पुज्जेअव्व पुज्जेवा बंधिअव्व, बंधेव्वउं, बंधिएव्वउं, बंधन्त, बंधमाण बंधेवा बंधिस, बंधिय बंधेअव्व भणिअन्व, भणेअव्व भणिय, मणिय भणेव्वउ, मणिएव्वउं, भणन्त, भणमाण भणेवा ममन्त, मममाण ममिअव्व, भमे अव्व भमिन, भमिय भमेव्वउं, भमिएव्वलं, भमेवा भवन्त, भवमाण भविअव्व, भवेअव्व भवेव्वउं, मविएव्वलं, भवेवा भविप्र, भविय भुजिअव्व, भुजेव्वउं, मुजेअब्व भुञ्जिएन्वउं, भुजेवा भुञ्जन्त, भुञ्जमाण मुञ्जिअ, भुञ्जिय प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम | [ xxxi Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - (1) (2) - 69. मण-मानना (3) मरिण, मणिउ, मणिवि, मणेवं, मणण, मणणहं, मणवि, मणेवि, मणेविणु, मणणहि, मणेवि, मणेविणु, मणेप्पि, मणेप्पिणु मणेप्पि, मणेप्पिणु 70. मर-मरना मरि, मरिउ, मरिवि, मरवि, मरेवि, मरेविणु, मरेप्पि, मरेप्पिणु मरेवं, मरण, मरणहं, मरणहिं, मरेवि, मरेविणु, मरेप्पि, मरेप्पिणु 71. मार-मारना मारि, मारिउ, मारिवि, मारेवं, मारण, मारणहं, मारवि, मारवि, मारेविणु, मारणहिं, मारेवि, मारेविणु, मारेप्पि, मारेप्पिणु मारेप्पि, मारेप्पिणु 72. मिल-मिलना मिलि, मिलिउ, मिलिवि, मिलेवं, मिलण, मिलणहं, मिलवि, मिलेवि, मिले- मिलणहिं, मिलेवि, मिलेविणु, मिलेप्पि, मिलेप्पिणु विणु, मिलेप्पि, मिले प्पिणु 73. मुग्र=छोड़ना मुइ, मुइउ, मुइवि, मुप्रवि, मुएवि, मुएविणु, मुएप्पि, मुएप्पिणु मुएवं, मुअण, मुअणहं, मुअणहिं, मुएवि, मुएविणु, मुएप्पि, मुएप्पिणु 74. मुच्छ = मूच्छित होना मुच्छि, मुच्छिउ, मुच्छिवि, मुच्छवि, मुच्छेवि, मुच्छेविणु, मुच्छेप्पि, मुच्छेप्पिणु मुच्छेवं, मुच्छण, मुच्छणहं, मुच्छणहिं, मुच्छेवि, मुच्छेविणु, मुच्छेप्पि, मुच्छेप्पिणु 75. मेल्ल-छोड़ना मेल्लि, मेल्लि उ, मेल्लिवि, मेल्लेवं, मेल्लण, मेल्लणहं, मेल्लवि, मेल्लेवि, मेल्ले- मेल्लणहिं, मेल्लेवि, मेल्लेविणु, मेल्लेप्पि, मेल्लेप्पिणु विणु, मेल्लेप्पि, मेल्लेप्पिणु xxxii ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5.1) मणिव्व, मणेश्रव्व मरिश्रव्व, मरेअव्व मारिश्रव्व, मारेअव्व मिलिग्रव्व, मिलेअव्व मुइग्रव्व, मुग्रव्व मुच्छिव्व, मुच्छेम मेल्लिअव्व, मेल्लेव (5.2) मणेव्वउं, मणिएव्वउं, मणेवा मरेव्वउं, मरिएव्वउं, मरेवा मारेव्वउं, मारिएव्वउं, मारेवा मिलेब्वउं, मिलिएब्वउं, मिलेवा मुव्वउं, मुझएवउं, मुएवा (6) प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ 1 मणन्त. मरण माण मरन्त, मरमारग मारन्त, मारमाण मिलन्त, मिलमाण मुअन्त, मुअमारण मुच्छेवउं, मुच्छि एव ं मुच्छन्त, मुच्छमाण 1 मुच्छेवा मेल्लेव्वउं, मेल्लिएव्वउं, मेहलन्त, मेल्लमाण मेल्लेबा (7) मणि, मणिय मरि, मरिय मारि, मारिय मिलिन, मिलिय मुइन, मुइय मुच्छिम, मुच्छ्रिय मेल्लिन, मेल्लिय [ xxxiii Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) (2) (3) (4) 76. रम-बनाना रइ, रइउ, रइवि, रअवि, रएवि, रएविणु, रएप्पि, रएप्पिणु रएवं, रमण, रमणहं, रअहिं, रएवि, रएविणु, रएप्पि, रएप्पिणु 77. रूत-रूसना रूसि, रूसिउ, रूसिवि, रूसवि, रूसेवि, रूसेविणु रूसेप्पि, रूसेप्पिणु रूसेवं, रूसण, रूसणहं, रूसहि, रूसेवि, रूसेविणु, रूसेप्पि, रूसेप्पिणु 78. रोस=गुस्सा करना रोसि, रोसिउ, रोसिवि, रोसवि, रोसेवि, रोसेविणु, रोसेप्पि, रोसेप्पिणु रोसेवं, रोसण, रोसणह, रोसहिं, रोसेवि, रोसेविणु, रोसेप्पि, रोसेप्पिणु 79. लप-लेना लइ, लइउ, लइवि, लएवं, लप्रण, लअणहं, लअवि, लएवि, लएविणु, लणहिं, लएवि, लएविणु, लएप्पि, लएप्पिणु लएप्पि, लएप्पिणु 80. लंघलांघना लंघि, लंघिउ, लंघिवि, लघेवं, लंघण, लंघणहं, संघवि, लंघेवि, लंघेविणु, लंघहिं, लंघेवि, लंघेविणु, लंधेप्पि, लंघेप्पिणु लंघेप्पि, लंघेप्पिणु 81. लग्ग-लगना लग्गि, लग्गिउ, लग्गिवि, लग्गवि, लग्गेवि, लग्गेविणु, लग्गेप्पि, लग्गेप्पिणु लग्गेवं, लग्गण, लग्गणहं, लग्गहि, लग्गेवि, लग्गेविणु, लग्गेप्पि, लग्गेप्पिणु xxxiv ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5.1) (5.2) (6) (7) रएव्वउं, रइएब्बउं, रअन्त, रममाण रइन, रइय रइअव्व, रएअव्व रएवा रूसन्त, रूसमाण रूसिव्व, रूसेअव्व रूसेव्वउं, रूसिएव्वळ, रूसेवा रूसिअ, रूसिय रोसिअव्व, रोसेअव्व रोसेव्वलं, रोसिएव्वलं, रोसेवा रोसन्स, रोसमाण रोसिम, रोसिय लअन्त, लइभ, लइय लइअव्व, लएअव्व लएव्वळ, लइएव्वउं, लएवा लप्रमाण लंघिन, लंघिय लंघिअव्व, लंघेअव्व लंघेव्वउं, लंघिएव्वलं, लंघन्त, लंघमाण लंघेवा लग्गिप्रज्व, लग्गेव्वउं, लग्गिएम्वउं, लग्गन्त, लग्गमाण लग्गेअव्व लग्गेवा लग्गिय, लग्गिय प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ xxxv Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) (2) (3) 82. लह=पाना लहि, लहिउ, लहिवि, लहवि, लहेवि, लहेत्रिणु, लहेप्पि, लहेप्पिणु लहेवं, लहण, लहणहं, लहणहिं, लहेवि, लहे विणु, __ लहेप्पि, लहेप्पिणु 83. लिह-लिखना लिहि, लिहिउ, लिहिवि, लिहवि, लिहेवि, लिहेविणु, लिहेप्पि, लिहेप्पिणु लिहेवं, लिहण, लिहणहिं, लिहणह, लिहेवि, लिहेविणु, लिहेप्पि, लिहेप्पिणु 84. लुह = पोंछना लुहि, लुहिउ, लुहिवि, लुहवि, लुहेवि, लुहेविणु, लुहेप्पि, लुहेप्पिणु लुहेवं, लुहण, लुहणहं, लुहणहिं, लुहेवि, लुहेविणु, लुहेप्पि, लुहेप्पिणु 85. वंद-वंदना करना वंदि, वंदिउउ, वंदिवि, वंदवि, वंदेवि, वंदेविणु, वंदेप्पि, वंदेप्पिणु वंदेवं, वंदण, वंदणहं, वंदणहिं, वंदेवि, वंदेविणु, वंदेप्पि, वंदेप्पिणु 86. वल-लौटना वलि, वलिउ, वलिवि, वलवि, वलेवि, वलेविणु, वलेप्पि, वलेप्पिणु वलेवं, वलण, वलणह, वलणहिं, वलेवि, वलेविणु, वलेप्पि, वलेप्पिणु 87. बस-रहना वसि, वसिउ, वसिवि, वसवि, वसेवि, वसे विणु, वसे प्पि, वसेप्पिणु वसेवं, वसण, वसणहं, वसहिं, वसेवि, वसे विणु, वसे प्पि, व से प्पिणु xxxvi ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (5.1) (5.2) (6) (7) लहिअव्व, लहेअव्व लहे व्वउं, लहिएव्वउं, लहेवा लहन्त , लहमाण लहिअ, लहिय लिहिमव्व, लिहेअव लिहेष्वउं, लिहिए व्वउं, लिहन्त, लिहेवा लिहमाण लिहिल, लिहिय लुहिअध्व, लुहेअन्व लुहेएवढं, लुहिएश्वर्ड, लुहेवा लुहन्त, लुहमाण लुहिन, लुहिय वंदिअव्व, बंदेश्व वंदेव्वउं, वंदिएव्वळ, वंदेवा वंदन्त, वंदमाण बंदिन, वंदिय बलिअव्व, वलेअब्व वलेव्वलं, वलिएब्वउं, वलन्त, वलमाण वलेवा पलिन, बलिय वसेव्वउं, बसिएव्वळ, बसेवा वसन्त, वसमाण वसिअन्व, वसेग्रव बसिन, बसिय प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ 1 Xxxvii Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) (2) 88. वह = धारण करना 89. वा बजाना 90. विज्ज = हवा करना 91. विहज्ज - विनाश = करना 92. विहस == हँसना 93. संभर = याद करना 94. संमाण = श्रादर करना xxxviii] (3) वहि, वहिउ, वहिवि, वहवि, वहेवि, वहेविणु, हेप, व वाइ, वाइउ, वाइवि, वावि, वावि, वाविणु, वापि, वाएपिणु विज्जि, विज्जिउ, विज्जिवि, विज्जवि, विज्जेवि, विज्जेविणु, विज्जेप्पि, विज्जेपिणु विहज्जि, विहज्जिउ, विहज्जिवि, विहज्जवि, विहज्जेवि, विहज्जेविणु, हिज्जेपि, विहज्जेप्पिणु विहसि, विहसिउ, विहसिवि, विसवि, विहसेवि, विहसे विणु, विहसेप्प, विहसेष्पिणु संभरि, संमरिउ, संभरिवि, संभरवि, संभरेवि, संभरेविणु, संभप्पि, संभरेष्पिणु संमाण, संमाणि, संमाणिवि, संमाणवि, संमावि, संमाणे विणु, संमाणेपि संमाणेपिणु (4) वहेवं, वहण, वहणहं, वह हिं, वहेवि, वहेविणु, हेप्प, वहेपि वाएवं, वाण, वाश्रणहं, वाश्रणह, वाएवि, वाएविणु, वाप्पि, वाएप्पिणु विज्जेवं, विज्जण, विज्जणहि, विज्जर हं, विज्जेवि, विज्जे विणु, विज्जेप्पि, विज्जेपिणु विहज्जेव, विहज्जण, विहज्जणहं, विहज्जण हि, विहज्जेवि, विहज्जेविणु, विहज्जेप्पि, व्हिज्जे प्पिणु विहसेवं, विसरण, विहसणहं, विहसणहिं, विहसेवि, विहसे विणु, विहसेप्प, विहसेपिणु संभरेवं, संभरण, संभरणहं, संभरणहि, संभरेवि संभरेविणु, संभरेप्पि, संभरेष्पिणु संमाणेवं, संमाणण, संमाणहि संमाणणहं, संमावि, संमाविणु, समाप्पि, संमाणेपिणु [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5.1) (5.2) (6) (7) वहन्त, वहमाण वहिन, वहिय वहिअव्व, वहेअव्व वहेन्वउं, वहिएव्वउं, वहेवा वाअव्व वान्त-वन्त; वा, वाय वाएव्वउं, वाइएव्वळ, वाएवा वामाण विज्जन्त, विज्जमाण विज्जिअ, विज्जिय विज्जिअव्व, विज्जेव्वउं, विज्जेअव्व विज्जिएव्वळ, विज्जेवा विहज्जिन, विहज्जिअव्व. विहज्जेव्बउ, विहज्जेअव्व विहज्जिएव्वउं विहज्जेवा विहज्जन्त, विहज्जमारण विहज्जिय विहसन्त, विहसमाण विहसिन, विहसिय विहसिअव्व, विहसेव्वउं, विहसे अव्व विहसिएव्वउं, विहसेवा संमरिअव्व, संभरेव्बउं, संभरिएव्वउं, संभरन्त, संभरमाण संभरिअ, संभरिय संभ रेअव्व संभरेवा संमाणि, संमारिणय संमाणि अव्व, संमाणेव्वउ, संमाणेव संमाणिएव्वलं, संमाणेवा संमाणन्त, संमारणमारण प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ xxxix Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) (2) 95. समप्प=== अर्पण करना 96. सर खिसकना 97. सुरण = सुनना 98. सोह= शोभना 99. हर हरण करना 100. हो = होना xl } (3) समपि, समपिउ, समपिवि, समपवि, समपेवि, समविणु, समप्पेपि समपेपिणु सरि, सरिउ, सरिवि, सरवि, सरेवि, सरेविणु, सरेप, सरेपणु सुण, सुणिउ, सुणिवि, सुणवि, सुणेवि, सुणेक्षिणु सुपि सृणेपिणु " सोहि सोहिउ, सोहिवि, सोहवि, सोहेवि, सोहेविणु, सोहेप्पि, सोहेप्पणु हरि, हरिउ, हरिवि, हरवि, हरेवि, हरेविणु, हरे हरेपणु " होइ, होइन, होइवि हो, होएवि, होए विणु, होएप्पि, होएप्पिणु (4) समप्पेवं, समप्पण, समपहं, समप्पण है, समध्येवि, समप्पेविणु, समप्पेपि, समपेपिणु सरेवं, सरण, सरणहं, सरण, सरेवि, सरेविणु, सरेष्पि, सरेणु सु, सुण, सुणणहं, सुणणहि सुणेषि, सुणेविणु, सुप सोहेवं, सोहण, सोहणहं, सोहनहि, सोहेवि, सोहेविणु, सोहेप्प, सोहेपि हरेवं, हरण, हरणहं, हरणह, हरेवि, हरेविणु, हरेपिप, हरेष्पिणु होएवं, होश्रण, होप्रणहं, हो, होएवि, होए - विणु, होएप्पि, होएप्पिणु [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5.1) समपिश्रव्व, समपेव्व सरिश्रव्व, सरेश्रव्व सुणिप्रथ्व, सुव्व सोहिअब्ब सोहेपब्व (5.2) समप्पेव्वउं, समपिएव्वउं, समवा होअव्व सरेब्वउं, सरिएव्व ं, सरेवा सुव्व, सुणिएवउं, सुवा सोहेव्वउं, सोहिएब्वउं, सोहेवा हरिश्रव्व, हरेव्वउं, हरिएव्वउं, हरेव्व हरेवा होएब्वर्ड, होइएव्वउं, होएवा प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम 1 (6) (7) समप्यन्त, समप्पमाण समप्पिय, समप्पिय सख्त, सरमाण सुणन्त, सुण माण सोहन्त, सोहमार हरन्त, हरमाण होन्त, होमा सरिश्र, सरिय सुमित्र, सुणिय सोहि सोहिय हरिश्र, हरिय हो, होय [ xli Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-3 सूत्रों में प्रयुक्त सन्धि-नियम स्वर-सन्धि 1. यदि इ के बाद भिन्न स्वर अ, पा, ए, प्रो आदि हो तो इ के स्थान पर य् हो जाता है इति+मत्र = इत्यत्र इति+प्राह = इत्याह प्रति+एक = प्रत्येक पुंसि+प्रोत् = पुंस्योत् (सूत्र-2) 2. यदि अ अथवा प्रा के बाद इ अथवा ई आवे तो दोनों के स्थान पर ए हो जाता उप+इन्द्र=उपेन्द्र सुर+ईश=सुरेश तथा+इति तथेति रमा+ईश रमेश 3. यदि प्र अथवा प्रा के बाद उ आवे तो दोनों के स्थान पर प्रो हो जाता हैहित+उपदेश हितोपदेश गंगा+-उदक=गंगोदक 4. यदि प्र या प्रा के बाद अ या प्रा हो तो उसके स्थान पर प्रा हो जाता हैमुर+अरि=मुरारि हिम+मालय=हिमालय दया+अर्णव दयार्णव विद्या+मालय=विद्यालय 5. यदि प्रौ के बाद अ आदि स्वर हो तो उसके स्थान पर प्राव हो जाता है-- पौ+अक=पावक भौ+अक=भावक व्यञ्जन-सन्धि* 6. यदि त् के आगे उ, द्, व्, प्रो आदि हो तो त् के स्थान पर न हो जाता है इत् + उतः = इदुतः (सूत्र-13) उत्+देश्य उद्देश्य प्रोत्+वा = प्रोद्वा (सूत्र-2) उत्+प्रोत् =उदोत् (सूत्र-18) xlii ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. यदि त् के आगे च हो तो पूर्ववाला त भी च हो जाता है सत्+चरित = सच्चरित सत्+चित्=सच्चित 8. यदि त के आगे ट् हो तो पूर्ववाला त् भी टू हो जाता हैतत् +टीका तट्टीका एत्+टि=एट्टि (सूत्र-3) 9. पदान्त म के आगे कोई व्यञ्जन हो तो म् को अनुस्वार (-) हो जाता है - हरिम् + वन्दे हरि वन्दे धर्मम्+चर-धर्म चर विसर्ग-सन्धि* 10. यदि विसर्ग से पहले या प्रा के अतिरिक्त इ, ए, ओ आदि स्वर हों और विसर्ग के बाद अ आदि स्वर अथवा छ, ज, ध, न, हू आदि व्यञ्जन हों तो विसर्ग का र् हो जाता है.--- शसोः+अम्हे = शसोरम्हे (सूत्र-47) आदे:--ङसे:=आदेङ सेः (सूत्र-26) एइ+जस्=एइर्जस् (सूत्र-34) स्यमो:+ध्र =स्यमो (सूत्र-31) डासुः+न=डासुन (सूत्र-29) उसेः+हे -- ङसे. (सूत्र-6) नोट -ङसे:=ङ् + असे:, जस्=ज्+अस्, नन्+अ, हे=ह + ए आदि । 11. यदि विसर्ग से पहले प्र या प्रा हो और बाद में कोई स्वर हो तो विसर्ग का लोप हो जाता हैप्रतः+एव=अतएव सुतः+पागच्छति= सुतपागच्छति इदमः+आय= इदम आय (सूत्र-36) अदसः+ोइ-अदस प्रोइ 12. यदि विसर्ग से पहले अहो और विसर्ग के बाद हु, ड्, ण् ह, व् प्रादि हो तो म पौर विसर्ग मिलकर पो हो जाता है - किंभ्यः + ङसः= किंभ्यो ङसः (सूत्र-29) प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ xliii Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किमः+डिहे-किमो डिहे (सूत्र-27) ङसः+डासु=ङसो डासु (सूत्र-29) आट्टः+ण= प्राट्टो ण (सूत्र-12) प्रामः+हं-ग्रामो हं (सूत्र-9) साहा+वा=साहो वा (सूत्र-37) 13. यदि विसर्ग के बाद त् हो तो विसर्ग के स्थान पर स् हो जाता है रामः+तरतिरामस्तरति निः+तार=निस्तार * बिस्तार के लिए देखें : वृहद् अनुवाद चन्द्रिका-सन्धि प्रकरण (लेखक-चक्रधर नौटियाल) xliv ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र-शब्द सूत्र सं 1. सूत्र स्यमोरस्योत् [ (सि)+ (अमोः)+ (अस्य)+ (उत्)] सन्धि-नियम 1, 10, 3 अमोः प्रस्य प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] मूलशब्द, विभक्ति शब्दानुसरण (सि) (अम्) 6/2 भूभृत् (अ) 6/1 राम (उत्) 1/1 भूभृत् (सि) 7/1 हरि (पुंस्) 7/1 भूभृत् (प्रोत्) 1/1 भूभृत् वा 2 1,6 सौ पुंस्योद्वा । (पुंसि)+ (प्रोत्) + (वा)] 3. भूभृत् एट्टि [(एत्)+ (टि)] हिनेच्च [(ङिना) + (इत्)+(च)] (एत्) 1/1 (टा) 7/1 (ङि) 3/1 (इत्) 1/1 4. 2,7 ङिना 5. 1,6 भिस्येद्वा [(भिसि) + (एत्)+(वा)] (मिस्) 7/1 (एत्) 1/1 भूभृत् भूभृत् व वा 6. सेहे-हू हरि * [(ङसे:)+(हे) - (हू)] dohe (ङसि) 6/1 (हे) (ह) 1/2 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्धि-नियम सूत्र-शब्द xlvii 12 भ्यसः सूत्र सं. सूत्र 7. भ्यसो हुँ (म्यस:) + (हुं)] 8. सः सु-हो-स्सवः AL डस: मूलशब्द, विभक्ति शब्दानुसरण (भ्यस्) 6/1 भूभृत् () 1/1 परम्परानुसरण (ङस्) 6/1 भूभृत् (सु) (हो) (स्सु) 1/3 गुरु (प्राम्) 6/1 भूभृत् हं (हं) 1/1 परम्परानुसरण स्सवः 9. 12 प्रामः प्रामो हैं [(आमः) + (इं)] R her 10. 2, 6 (ह) 1/1 हुं चेदुद्भयाम् [(च)+ (इत्)+ (उद्भ्याम्) hot परम्परानुसरण भूभृत् उद्भ्याम ङसि [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ____ उति-भ्यस्-डीनां हे-हुं-हयः (ङीनाम्)+ (हे)]-हुं-हयः (इत्) (उत्) 5/2 (ङसि) (भ्यस्) (ङि) 6/3 भ्यस् जीनाम् हरि the (हे) hee हयः (हि) 1/3 हरि Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र सं. सूत्र 12. आट्टो णानुस्वारी [(आत्) + (ट:)+(ण)+ (अनुस्वारी)] सन्धि-नियम 8, 12, 4 सूत्र-शब्द प्रात् टः भूलशब्द, विभक्ति शब्दानुसरण (अ) 5/1 राम (टा) 6/1 गोपा प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] स्वारी (अनुस्वार) 1/2 राम 13. 2,6 (एं) 1/1 परम्परानुसरण एं चेदुतः [(च)+(इत्)+(उतः) (इत्). (उत्) 5/1 उतः भूभृत् 1,9 14. स्यम्-जा-शमां लुक् {(सि)+ (अम्)-जस्] - [(शसाम्)+ (लुक)] जस् (सि) (अम्) (जस्) (शस्) 6/3 (लुक्) J/I शसाम् 44 .4 म भूमृत भूभृत लूक 15. षष्ठ्याः षष्ठ्याः (षष्ठी) 6/1 स्त्री [ 16. प्रामन्त्र्ये जसो हो: [(जसः)+ (होः) आमन्त्र्ये जसः xlvii (अामन्त्र्य)7/1 राम (जस्) 6/1 भूभृत् (हो) 11 परम्परानुसरण होः Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्धि-नियम xlviii सूत्र सं. सूत्र 17. भिस्सुपोहि [(मिस्)+ (सुपोः)+(हिं)) 10 सूत्र-शब्द भिस् सुपोः मूलशब्द, विभक्ति शब्दानुसरण (भिस्) (सुप्) 6/2 भूभत्। (हिं) 1/1. परम्परानुसरण ] १८. ther 9, 10,6 स्त्रियाम् स्त्री. 18. स्त्रियां जस्-शसोरदोत् [(स्त्रियाम्)+(जस्)(शसोः)+(उत्)+ (प्रोत्)) जस् (स्त्री) 7/1 (जस्) (शस्) 6/2 (उत्) 1/1 (मोत्) 111 भूभृत् भूभृत् भूभृत् 19. टए [(ट:)+(ए)] (टा) 6/1 (ए) 1/1 गोपा परम्परानुसरण 20. (ङस्) हुस्-इस्योहे (ङस्योः )+(है) ङस्योः (उसि) 6/2 (हे) 1/1 हरि परम्परानुसरण [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम 21. म्यसामोर्तुः [ (भ्यस्)+ (प्रामोः)+ (हुः)] भ्यस् प्रामोः (भ्यस्) (प्राम्) 6/2 (हु) 1/1 भूभृत् गुरु Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ xlix सूत्र सं सूत्र 22. 23. 24. 25. ङोहि [(ङ) + (हि)] क्लोबे जस्-शोर [(जस् ) – (शसोः)+(इं)] कान्तस्यात उं स्यमोः [(*)+(grazu)+(na:)+(3)] [(fa)+(unt:)] स्यादौ दीर्घ ह्रस्वो [(सि) + (प्रादी)] सन्धि-नियम 10 10 4, 11, 1 सूत्र - शब्द ङ : क्लोबे जस् शसो: hor क अन्तस्य अतः » सि अमो: सि प्रादौ दीर्घ ह्रस्वो मूलशब्द, विभक्ति (fs) 6/1 (हि) 1/1 (ata) 7/1 (जस्) (शस्) 6/2 (इं) 1/1 (क) ( अन्त) 6 / 1 (अत्) 5/1 (उं) 1/1 (सि) (अम्) 6/2 (सि) (आदि) 7/1 (दीर्घ) (ह्रस्व) 1/2 शब्दानुसरण हरि परम्परानुसरण राम भूभृत् परम्परानुसरण राम भूभृत् परम्परानुसरण भूभृत् हरि राम Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र-शब्द शब्दानुसरण - ... सूत्र सं. सूत्र 26. सर्वादेङ सेही [ (सर्व)+(प्रादेः) + (इसे:)+ (हां)] सन्धि नियम 4, 10 सव मूलशब्द, विभक्ति (सर्व) (आदि) 5/1 (ङसि) 6/1 (हां),1/1 हरि हरि परम्परानुसरण 12 27. किमो डिहे वा । (किमः)+ (डिहे) (किम्) 5/1 (डिहे) 1/1 वा भूभृत् । परम्परानुसरण 28. 10 हिं [(ङ)+(हिं)] यत्किभ्यो उसो डासुन वा [ (यत्)+(तत्) + (किम्यः)+ (ङसः) + (डासुः)+ (न) ! 17##=t&: ok vriend परम्परानुसरण 12,10 यत् तत् किंभ्यः (ङि) 6/1 (हिं) 1/1 (यत्) (तत्) (किम्) 513 (ङस्) 6/1 (डासु) 1/1 भूभृत् भूभृत् [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम डासुः गु गुरु वा स्त्रियाम् 30. स्त्रियां डहे [ (स्त्रियाम्)+ (डहे) (स्त्री) 7/1 (डहे) 1/1 स्त्री परम्परानुसरण Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्धि-नियम सूत्र-शब्द शब्दानुसरण सूत्र सं. सूत्र 31. यत्तदः स्थमोधूत्र [ (यत्) + (तदः ततः)] [ (सि) + (अमोः )+ (@)] त्रं मूलशब्द, विभक्ति (यत्) 1, 10 यत् तदः ततः सि अमोः भूभृत (सि) प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] (अम्) 7/2 (ध्र) 1/1 (ब) 1/1 भूभत् परम्परानुसरण परम्परानुसरण 32. इदम: इमुः क्लीबे इदमः इमुः क्लीबे (इदम्) 5/1 (इमु) 1/1 (क्लीब) 7/1 भूभृत् गुरु राम 33. एतदः स्त्री-पु-क्लीबे एह एहो एहु एतदः→एततः (एतत्) 5/1 स्त्री (स्त्री) भूभृत् (पुं) राम क्लीबे एह (क्लीब) 7/1 (एह) 1/1 (एहो) 1/1 (एह) 1/1 परम्परानुसरण परम्परानुसरण परम्परानुसरण एहु Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्धि-नियम सूत्र-शब्द स ... सूत्र सं. 34. सूत्र एइजस्-शसोः [ (एइ:)+(जस्)] शब्दानुसरण हरि 10 मूलशब्द, विभक्ति (एइ) 1/1 (जस्) (शस्) 7/2 एइः जस् शसोः भूमृत् 35. प्रदसः प्रवस प्रोइ [ (प्रदसः)+ (ोइ)] (अदस्) 5/1 (ोइ) 1/1 भूभृत् परम्परानुसरण 36. इदमः इदम प्रायः [ (इदमः)+(प्राय:)] (इदम्) 6/1 (प्राय) 1/1 भूभृत् भूभृत् प्रायः 37. सर्वस्य सर्वस्य साहो वा [ (साहः)+ (वा)] साह (सर्व) 6/1 (साह) 1/1 वा राम 38. किमः काइं-कवरणौ वा भूभृत् काई (किम्) 6/1 (काइ) (कवण) 1/2 कवणौ राम [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम वा वा 39. युष्मदः सौ तुई युष्मदः (युष्मद्) 5/1 (सि) 7/1 (तुहुँ) 1/1 भूभृत् हरि परम्परानुसरण Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्धि-नियम सूत्र शब्द शब्दानुसरण सूत्र सं. सूत्र 40. जस्-शसोस्तुम्हे तुम्हइं [ (शसोः)+(तुम्हे) ] 13 प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] जस शसोः तुम्हे तुम्हई मूलशब्द, विभक्ति (जस्) (शस्) 7/2 (तुम्हे) 1/1 (तुम्हइं) 1/1 भूभृत परम्परानुसरण परम्परानुसरण 41. (टा) टा-ङयमा पई तई [ (ङि)+ (अमा)] डि. प्रमा भूभृत् पई तई (अम्) 3/1 (पई) 1/1 (तइं) 1/1 परम्परानुसरण परम्परानुसरण 42. भिसा तुम्हेहि भिसा तुम्हेहिं (भिस्) 3/1 (तुम्हेहिं) 1/1 भूभृत् परम्परानुसरण 43. सि-उस्भ्यां तउ तुज्झ तुध्र [(ङस्भ्याम्)+-(तउ)] ङसि ङस्भ्याम् (ङसि) (ङस्) 3/2 (तउ) 1/1 (तुज्झ) 1/1 तउ भूभृत् परम्परानुसरण परम्परानुसरण परम्परानुसरण तुज्झ तुध्र Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्धि-नियम शन्दानुसरण liv सूत्र सं. सूत्र 44 भ्यसाम्भ्यां तुम्हहं [ (भ्यस्)+ (प्राम्भ्याम्) + (तुम्हह)] 9 ) सूत्र-शद भ्यस् प्राम्भ्याम् तुम्हहं मूलशब्द, विभक्ति (भ्यस्) (प्राम्) 3/2 (तुम्हहं) 1/1 भूभृत् परम्परानुसरण 45. तुम्हासु सुपा तुम्हासु सुपा (तुम्हासु) 1/1 (सुप्) 3/1 परम्परानुसरण भूभृत् 46. 5, 12 सावस्मदो हउ [ (सौ)+(अस्मद:)- (हउं)] सौ अस्मदः (सि) 7/1 (अस्मद्) 5/1 (हउं) 1/1 हरि भूभृत् । परम्परानुसरण 10 जस जस्-शसोरम्हे अम्हई [ (शसो:) (अम्हे)] शसोः अम्हे अम्हइं (जस्) (शस्) 7/2 (अम्हे) 1/1 (अम्हई) 1/1 भूभृत् परम्परानुसरण परम्परानुसरण [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम 48 टा-यमा मई [ (ङि)+(अमा)] टा (टा) ङि (ङि) प्रमा (अम्) 3/(मई) 1/1 भूभृत मई मई परम्परानुसरण Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्धि-नियम सूत्र सं. सूत्र 49. अम्हे हि भिसा सूत्र-शब्द अम्हेहिं भिसा मूलशब्द, विभक्ति (अम्हेहिं) 1/1 (भिस्) 3/1 शब्दानुसरण परम्परानुसरण भूभृत् प्रौढ अपभ्रश रचना सौरभ ] 50. महु मझु ङसि-डस्भ्याम् परम्परानुसरण परम्परानुसरण महु मझु ङसि ङस्भ्याम् (महु) 1/1 (मज्झ) 1/1 (ङसि) (ङ) 3/2 भूभृत् 51. अम्हहं भ्यसाम्भ्याम् [ (भ्यस्) + (प्राम्भ्याम्)] परम्परानुसरण अम्हह भ्यस् आम्म्याम् {अम्हह) 1/1 (भ्यस्) (आम्) 3/2 भूभृत् c 52. सुपा अम्हासु भमत ८ सुपा अम्हासु (सुप्) 3/1 (अम्हासु) 1/1 परम्परानुसरण __41 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र.सं. शुद्ध तुम अच्छेसउं सामिएं 11 सङघु 24 संकलित प्रयोग हंसें 42 तिहं कोडि परिभम प्राणाव 21 11. 12. शुद्धि-पत्र सं. पंक्ति सं. अशुद्ध 10 4 तुहुँ ____ 10 17 अच्छउं सामिए ___165 सङ गु 24 सकलित प्रयग 25 31 हमें 26 22 तिह 45 17 काडि 62 परिभमन्ति 62 प्राणाय 728 दंगी 95 चाइज्जन्तु 1098 109 (हु) 110 19 कमलह 110 24 111 हरिह 111 वारिह 120 10 128 प्रदस 128 20,21 सत्व, सत्वा __129 20 तहं ___132 173/ परिशिष्ट 1(i) मइ परिशिष्ट (v) 8 चित्त 24 13. दूंगी ००० घाइज्जन्तु 14. 15. 16. 17. 18 कमलहं . 19 हरिहं 20. वारिहं 21. 22. 23. अदसः सव्व, सव्वा 24. 25. 26. 3/1 मई चित्त 27. lvi 1 [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरम Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क.सं. 9 28. 29. 31. पृ सं. पक्ति सं. अशुद्ध परिशिष्ट 1(v) सुणउ परिशिष्ट 1(v) __ 10 महुरइ परिशिष्ट 2 (x) 7 अप परिशिष्ट 2 (xvii) गाइएव्वउ परिशिष्ट 2 (xxiv) 11 तोड == गिरना परिशिष्ट 2 (xxix) 19 पसरिएव्वउ परिशिष्ट 2 (xxxvi) 13 वंदिउउ परिशिष्ट 2 (xxxvii) 9 लहेएव्वउं परिशिष्ट 2 (xli) 18 होमा 22 सुणउं महुरई अप्प गाइएव्वउं तोडतोड़ना पसरिएन्वउं वंदिउ लुहेव्वउं होमाण 33. 34. 35. 36. प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ lvii Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायक पुस्तकें एवं कोश 1. हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण, भाग 1-2 : व्याख्याता श्री प्यारचन्द जी महाराज (श्री जैन दिवाकर-दिव्य ज्योति कार्यालय, मेवाड़ी बाजार, ब्यावर) 2. प्राकृत भाषामों का व्याकरण : डॉ. आर. पिशल (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना) 3. अभिनव प्राकृत व्याकरण : डॉ. नेमिचन्द शास्त्री (तारा पब्लिकेशन, वाराणसी) 4. प्राकृत मार्गोपदेशिका : पं. बेचरदास जीवराज दोशी (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) 5. प्रौढ़ रचनानुवाद कौमुदी : डॉ. कपिलदेव द्विवेदी (विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी) 6. पाइन-सह-महण्णवो : पं. हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द सेठ ___ (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी) 7. अपभ्रंश-हिन्दी कोश, भाग 1-2 : डॉ. नरेश कुमार (इण्डो-विजन प्रा. लि. II A, 220, नेहरु नगर, गाजियाबाद) 8. हेमचन्द्र अपभ्रंश-व्याकरण सूत्र विवेचन : डॉ. कमलचन्द सोगाणी (जनविद्या के मुनि नयनन्दी एवं (जनविद्या संस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय कनकामर विशेषांक, संख्या 7, 8) क्षेत्र श्रीमहावीरजी, राजस्थान) 9. Apabhramsa of Hemchandra : Dr. Kantilal Baldevram Vyas (Prakrit Text Society, Ahmedabad). 10. पउमचरिउ : स्वयंभू (भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली) 11. करकण्डचरिउ : मुनि कनकामर (भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली) 12. णायकुमारचरिउ : पुष्पदन्त (भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली) 13. जमहरचरिउ : पुष्पदन्त, सं. हीरालाल जैन (भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________