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________________ 2. एत्थन्तरे मारिच्चेण वुत्तु । (10.4 प.च.) -इसके पश्चात् मारीच के द्वारा कहा गया । 3. तो एत्थन्तरे ण यण -विसालए । एह वत्त जं सुय वणमालए । (29.3 प.च.) ____ -- तब इसी बीच/इसी समय विशाल नयनवाली वनमाला के द्वारा जब यह बात सुनी गई। 4. तारणन्तरे दिठ्ठ जडाइ वणे । (39.1 प. च ) -उसके बाद वन में जटायु दिखाई दिया। 5. थोवन्तरे जल-णिम्मल-तरंग । ससि-संख-समप्पह दिट्ठ गग । (69.7 प.च.) -थोड़ी देर बाद निर्मल जल-तरंगवाली, शशि और शंख के समान प्रभा वाली गंगा देखी गई। (13) 1. सुठ्ठ वि सीयालु महन्त-काउ, किं विमहइ केसरि-णहर-घाउ । (61.54 च.) -अत्यन्त बड़ी कायावाला सियार भी क्या सिंह के नख-घात को सहन कर सकता है ? 2. किं करेहि तुहं सुठ्ठ वि भल्लउ । वन्धव-सयण-हीणु एक्केल्लउ । (70.2 प.च) -अत्यन्त अच्छा भी तू बन्धु और स्वजन से रहित अकेला क्या करेगा ? 3. प्रवसें कन्दिवसु वि सो होसइ । (47.3 प.च.) -अवश्य ही किसी दिन वह मनुष्य उत्पन्न होगा। 4. वरु सरणु जामि रहु-गन्दण हुँ । ( 43.3 प.च.) -अधिक अच्छा, मैं राम की शरण में जाता हूँ। 5. किं सोएं कि खन्धावारें । वरि पावज्ज लेमि अवियारें। (5.13 प.च.) -शोक से क्या (लाभ)? सेना से क्या (लाभ) ? अच्छा मैं अविकार भाव से प्रव्रज्या लेता हूँ। 0. सब्भावें भणइ कित्तिधवलु । (6.4 प च.) -कीर्तिधवल सद्भावपूर्वक कहता है । 7. भणमि सणे, दहवयण । (54.13 प.च.) . -हे रावण ! (मैं) स्नेहपूर्वक कहता हूँ। 30 ] [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002695
Book TitlePraudh Apbhramsa Rachna Saurabh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages202
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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