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________________ 13. दूरहो जिणि रुद्धउ वइरि वलु । णं जम्बूदीवें उवहि-जल । (15.3 प.च) -~-शत्रुबल दूरवर्ती स्थान पर ही रोक लिया गया, मानो जबूद्वीप के द्वारा समुद्र का जल। 14. वलहो पासे थिउ कुसलु भणेप्पिणु । (26.1 प.च ) --कुशल पूछकर राम के पास बैठ गया। 15. रहेइ विज्जुलंगु अणुपच्छए । पडीवा-इन्दु व सूरहो पच्छए । (26.1 प.च.) -(उसके) पीछे विद्युदंग चोर शोभित है, मानो सूर्य के पीछे प्रतिपदा का चन्द्रमा हो। 16. जे रिउ अणुपच्छए लग्ग तहो । गय पासु पडीवा णिय-णिवहो । (56 प.च.) -- जो दुश्मन उसके पीछे लगे थे, (वे) निज राजा के पास वापस गये । 17. थिय चउपासें परम-जिणिन्दहो । ( 3.10 प.च.) -- (देवता) परम जिनेन्द्र के चारों ओर स्थित थे। 18. चउपासिउ वइरिहुं तणिय सङ क । (7.11 प.च.) -चारों ओर से दुश्मनों की शंका (है)। 19. पेसिय सासणहर चउपासेहिं । ( 20.1 प.च.) -चारों ओर से शासनधर भेजे गए। 1. 'ऐसे शब्द जिनके रूप में कोई विकार-परिवर्तन न हो और जो सदा एक से; सभी विभक्ति, सभी वचन और सभी लिंगों में एक समान रहें, अव्यय कहलाते हैं ।' 'लिंग, विभक्ति और वचन के अनुसार जिनके रूपों में घटती-बढ़ती न हो, वह अव्यय है।' -अभिनव प्राकृत व्याकरण, नेमीचन्द शास्त्री, पृष्ठ 213 । 2. उपर्युक्त सभी अव्यय स्थानवाचक हैं । प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002695
Book TitlePraudh Apbhramsa Rachna Saurabh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages202
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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