________________
3 ओसरु पासहो ।(74.5 प.च.)
- (तू) पास से हट जा। 4. मुच्छ ग्गिएप्पिणु रहुवइ घरिणि हे । करि प्रोसरिउ व पासहो करिणिहे ।
(73 12 पच.) --राम की पत्नि की मूर्छा को देखकर (रावण उसी प्रकार हट गया) जैसे
हथिनी के पास से (हाथी) हट गया हो । 5. को वि दूरहो ज्जे पाणेहिं विमुक्कु । (65.3 प.च.)
-कोई दूर से ही (हनुमान को देखकर) प्राणों से छुटकारा पा जाता। 6. पच्छए पुरे वि रावणो । (75.17 प.च.)
-पागे-पीछे भी रावण (दिखाई देता था)। 7. पुणु पच्छए हिलिहिलन्त स-भय । खर खुरेहि खणन्त खोणि तुरए। (12.8
प.च.)
-फिर तेज खुरों से पृथ्वी खोदते हुए भयभीत हिनहिनाते हुए घोड़े
(पैदल सेना के) पोछे (थे)। 8 सायरु उप्परि तणु धरइ, तलि घल्लइ रयणाई । (4.334 हे .प्रा.व्या.)
- सागर ऊपर ऊपर की ओर घास धारण करता है, (किन्तु) रत्नों को
__ पैंदे में रखता है। 9. पेट्टहु हेट्टि हुग्रासणु जालिउ । (3.12.13 जस.च.)
-पेट के नीचे अग्नि जलाई गई। 10. अग्गले पच्छले अ-परिप्पमाण । जउ जउ जे दिट्ठि तउ त उ जि वाण ।
(64 10 प.च.) - (हनुमान के) प्रागे-पीछे असीमित बाण (थे) । जहाँ-जहाँ दृष्टि (जाती
थी), वहां-वहां ही बाण (थे)। 11 थिउ अग्गए पच्छए मड-समूहु । (16.15 प.च.)
-योद्धा-समूह प्रागे-पीछे बैठ गया । 12. तउ दूर दिट्ठि जे जणइ सुहु । (9.2 प.च.)
तुम्हारी दृष्टि दूर से ही सुख उत्पन्न करती है।
6 ]
[ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org