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________________ 86 13. जिह जच्चन्धु दिसाउ विभुल्लउ । प्रच्छमि तेण एत्थु एक्कल्लउ । (44.8 प. च.) जन्मान्ध (व्यक्ति) की तरह ( मैं ) दिशाएं भूल गया, इसलिए (मैं) यहाँ अकेला रहता हूँ | 14. अहो जम्वव चरिउ महन्तु कासु । (45.1 प.च.) - हे जाम्बवन्त ! महान चरित्र किसका है ? 15. उप्पण्णउ केवल - णाणु विमलु । (4.14 प.च.) - विमल केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । 16 राय लच्छि तइलोक्क पियारी । दासि जेम जसु पेसरणगारी । ( 8.4 प.च.) - जिसकी राज्यलक्ष्मी तीन लोक में प्यारी है और दासी की तरह श्राज्ञाकारिणी है । 18. का वि उव्य लील विम्माणिय | ( 14.11 प.च.) - ( उसके द्वारा) कोई प्रपूर्व लीला अनुभव की गई । 1 जच्चन्ध (वि) एक्कल्ल (वि.) Jain Education International चरित्र (पु.) महन्त (वि) 17. उत्तुङ्ग, सिङ्ग, उण्णइ करेवि । णं वञ्छइ सूर- बिम्बु घरेवि । (9.13 प.च.) - ऊंचे शिखर उन्नति करके मानो सूर्य बिम्ब को पकड़ने के लिए इच्छुक हों । णारण (नपु.), विमल (वि) रायलच्छि (स्त्री.), पियारी (वि.), पेसणगार पेसणगारी (वि.) For Private & Personal Use Only सिङ्ग (नपु.) उत्तुङ्ग (वि.) लीला (स्त्री.), उव्व उव्वा (वि.) [ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ www.jainelibrary.org
SR No.002695
Book TitlePraudh Apbhramsa Rachna Saurabh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages202
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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