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________________ 7. दुल्लहु जण-वल्लहु इन्दत्तणु पावेसहुँ । (3.6 प. च.) -(कब) हम दुर्लभ जनप्रिय इन्द्रत्व प्राप्त करेंगे ? इन्दत्तणु (नपु.), दुल्लह (वि.), घल्लह (वि) 8. तं ग्रह पत्तु जाणहि कमेण । (णा.च. 4.3) - उसको क्रम में प्रधम पात्र जानो । पत्त (नपु.), अहम (वि.) 9. सिहि-उण्हउ सीयलु होइ मेहु । (णा.च. 1.5) - अग्नि गर्म होती है और मेघ शीतल । सिहि (पु.); उण्ह (वि.), मेह (पु); सीयल (वि.) 10. करि कब्बु मरणोहरु मुयहि तंदु। (णा.च. 1.3) -(ग्राप) आलस्य छोड़ें । सुन्दर काव्य रचें। कव्व (पु.), मणोहर (वि.) 11. तीस परम जोयण विस्थिणि । लङ्का-णयरि तुझ मई दिण्णी। (5.8 प.च.) - तीस परमयोजन विस्तारवाली लंकानगरी मेरे द्वारा तुम्हारे लिए दी गई । लंका-णयर-लंका-णयरी (स्त्री.), वित्थिण्ण →वित्थिण्णी (वि.) 12. सुक्क-माणु आऊरिउ हिम्मलु । (5.3 प.च.) -निर्मल शुक्ल ध्यान पूरा किया गया । । झाण (पु., नपु.) गिम्मल (वि) प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ] [ 85 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002695
Book TitlePraudh Apbhramsa Rachna Saurabh Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages202
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size5 MB
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