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(38) छन्वीस वि सहसई पेक्खणयहुँ । (8.1 प.च.)
-(वहां) छन्बीस हजार नाटकघरों के लिए (स्थान था)। (39) अट्ठायाल सहस-वर जुवइहिं । (8.1 प.च.) ।
अड़तालीस हजार श्रेष्ठ युवतियों से (नगर शोभित था)। (40) जहिं जक्ख-सहासई दारुणई । (9.7 प.च.)
-जहां हजारों भीषण यक्ष (थे)। (41) एक्क कुडुल्ली पंचहि रुद्धी । तहं पंचहं वि जुनं जुअ बुद्धी । (हे. प्रा. व्या.
4-422) --एक छोटी झोंपड़ी पांच के द्वारा रोकी गई है, उन पांचों की ही बुद्धि
अलग-अलग विचरती है। (42) तुह जलि महु पुणु वल्लहइ बिहुं वि न पूरिम आस । (हे. प्रा. व्या. 4.383)
- तुम्हारी (चातक की) जल-प्राप्ति में और मेरी प्रियतम-प्राप्ति में दोनों
के लिए पाशा पूरी नहीं की जायेगी। (43) अग्गए थियउ सहन्ति सु-सीलउ णं तिहुं कालहुं तिणि वि लीलउ । (47.7
प च.) -~-तीनों सुशील (कन्याएँ) (मुनिराज के) सम्मुख सुशोभित होती हुई
उपस्थित हुईं, मानों तीन काल की तीन लीलाएं (हों)। (44) पाराविय बावीसह दिवसहुँ । (55.9 प.च.)
-- (मेरे द्वारा) (उसे) बावीस दिन में पारणा कराया गया ।
[ यहां वावीस का 'ह' बहुवचनान्त हैं, पर यहां प्रयोग एकवचनान्त के
स्थान पर है] (45) दोण्हं पि सह चेव जीवो गो ताम । (3.13 ज.च.)
-तब दोनों का ही जीव साथ हो गया । (46) तहिं जम्बूदीउ महा-पहाणु । वित्थरेण लक्खु जोयण पमाणु । (1.11 प.च )
__ वहां एक लाख योजन विस्तारवाला प्रमुख जम्बूद्वीप है। (47) पुणु दस -सय कर करेवि पणच्चिउ । (2.7 च.)
-फिर एक हजार हाथ को बनाकर नाचा ।
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[ प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ
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