________________
12
ते चलिय चयारि वि परम मित्त। (43.10 प.च.) - वे चारों ही मित्र चल पड़े ।
13. प्रभिट्टई वेणि मि साहणाइँ । ( 43.14 प.च.) -दोनों सेनाएं भिड़ गईं ।
14. सोलह बत्तीस दूण- कमेण विविह-रूव-दरिसावरण हुँ । ( 75.16 प.च.) - सोलह-बत्तीस और इसी दुगुने क्रम में विविध रूपों में दिखाई देनेवाले (रावणों की एक सेना उत्पन्न हो गई) ।
प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ ]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
[ 61
www.jainelibrary.org